पंकज बिष्ट से बातचीत / कुमार मुकुल
पंकज बिष्ट से कुमार मुकुल की बातचीत
इकहत्तर साल के पंकज बिस्ट का साहित्य और पत्रकारिता जगत में अपना विशिष्ट रचनात्मक मकाम है। अंग्रेजी साहित्य से एम.ए. श्री बिस्ट सूचना और प्रसारण मंत्रालय की पत्रिका 'आजकल' के संपादक रह चुके हैं। 1998 में स्वैच्छिक अवकाश के बाद से दिल्ली से जनपक्षीय मासिक 'समयांतर' का, असहमति का साहस और सहमति का विवेक के टैग के साथ वे लगातार प्रकाशन करते रहे हैं। उनकी रचनाओं का कई भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेज़ी तथा कुछ योरोपीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।
प्रस्तुत हैं उनसे कुमार मुकुल की बातचीत के कुछ अंश -
पत्रकार की जगह आज मीडियाकर का प्रयोग होता है। पत्रकार जनता के पत्रों को, भावों को आकार देता था पर मीडियाकर मध्यस्त के रूप में सीमित होता जा रहा। इसे किस तरह देखते हैं आप ?
आज पत्रकारिता एक बड़ा व्यवसाय हो चुका है। आधुनिक पत्रकारिता का दायित्व और उद्देश्य, जो धीरे-धीरे कई सदियों में विकसित हुआ था, वह था, समाचार देने के अलावा लोगों को देस-परदेस की स्थितियों के बारे में वस्तुनिष्ठ ढंग से जानकारी देना, उसे अपने विश्लेषण के माध्यम से एक सचेत और विवेकवान नागरिक बनाना।
पर उसकी जनमत को प्रभावित करने की क्षमता के कारण उस पर पूंजी और राजसत्ता ने नियंत्रण की कोशिश की है। हमारे समाज में अखबार निकालने या मीडिया हाउस चलाने और सीमेंट या लोहे के खनन आदि का व्यापार करने के बीच कोई अंतर नहीं है। ऐसे में जरूरी है कि जो पूंजीपति पत्रकारिता में लगे हैं वे अन्य व्यवसायों से स्पष्ट दूरी बनाएं।
नये मीडिया के रूप में सोशल साइटस के फैलाव को किस तरह देखते हैं आप। यह मीडिया कितना नया है या नया कर रहा है?
नयी प्रौद्योगिकी ने श्रव्य और दृश्य की स्थानीयता को तोड़ कर उसे ऐसा असीमित विस्तार दे दिया है कि आप उसे जहां चाहें देख-सुन ही नहीं सकते बल्कि उसी तीव्रता से उसे अपनी प्रतिक्रिया और अभिव्यक्ति को भी शामिल कर सकते हैं। यह सब चमत्कारिक है। कम से कम हम जैसे लोगों के लिए जो कमोबेश अपने रचनात्मक दौर से आगे बढ़ चुके हैं।
इस पर भी समझने की बात यह है कि हर माध्यम की अपनी सीमाएं होती हैं, फिर चाहे वह कितना ही चमत्कारिक क्यों न हो। शायद यही गुंजाईश मानव विकास को गति देती आई है। इस नई तकनीक से, पिछले लगभग दो दशकों में हमारे सामने आए माध्यम - इंटरनेट, मेल, फेसबुक, व्हाट्सएप या इंस्टाग्राम आदि ने सामान्य व्यक्ति को अभिव्यक्ति और उसके प्रकाशित हो जाने की जो सुविधा और सुख और आनंद दिया है वह अतुलनीय है। इसकी सीमा यह है कि माध्यम और अभिव्यक्ति के बीच कोई ऐसा प्रभावशाली मैकेनिज्म मौजूद नहीं है जैसा कि इससे पूर्व के माध्यमों के साथ था। यानी प्रिंट, फिल्म, रेडियो और टेवीविजन के साथ था फिर चाहे वह संपादक हो, प्रोड्यूसर हो या कोई और। इस मैकेनिज्म के अभाव में इस माध्यम में अराजकता और आत्ममुग्धता ने व्यापक पकड़ बना ली है। इसने इन माध्यमों की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाया है। इस पर भी अभिव्यक्ति के इतने व्यापक जनतांत्रीकरण ने समाज और सत्ताओं को प्रभावित करने की शक्ति तो हासिल कर ही ली है।
आपने एक बार कहा था कि हिंदी में सर्वोच्च प्रतिभाएं नहीं आ रहीं। इसके क्या कारण हैं?
हिंदी में प्रतिभा के न आने का सबसे बड़ा कारण है हिंदी का शासक वर्ग की भाषा न बन पाना। हिंदी दिवस जैसे ढकोसलों के बावजूद तथ्य यह है कि इस भाषा के माध्यम से अब कोई भी व्हाइट कॉलर व्यवसाय कर पाना संभव नहीं है। इंजीनियरिंग, डाक्टरी जैसे परंपरागत व्हाइट् कॉलर कामों की छोडिय़े इधर जिसकी सर्वाधिक मांग है, आईटी का धंधा, उसमें हिंदी का पता ही नहीं है।
आज इसके खिलाफ लड़ाई संभव है क्यों कि प्रद्यौगिकी ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि सारी भाषाओं में अनुवाद एक साथ उपलब्ध हो जाएं। संभवत: रणनीति यह हो सकती है कि हिंदीवाले स्वयं को किसी और भाषा से ऊपर न मानें। यानी राष्ट्रभाषा होने का भ्रम त्याग दें और सभी भाषाओं को बचाने के लिए संघर्ष में शामिल हों। भले ही इसका नेतृत्व तमिल, मलयालम, तलुगु या बंगाली ही क्यों न करते हों।
आपकी मार्मिक कहानी टुंड्रा प्रदेश में दिल्ली की ठंड और हाशिए के जीवन की त्रासदी को रूपाकार दिया गया है। उसके बाद आज दिल्ली कितना बदली है ? क्या हाशिए के जीवन के लिए वहां स्पेश बढा है?
आज दिल्ली एक विशाल गंदी बस्ती बन गई है। उसका कारण है देश में पिछले तीन दशकों से होनेवाले विकास ने असंतुलन को और बढ़ा दिया है। बेरोजगारी चरम पर है। मजदूरों और कारीगरों के हाट आज इस महानगर में आम बात हैं। तीन-चार दशक पहले यह ऐसा नहीं था। आप रात को दिल्ली के किसी भी इलाके से गुजरें फुटपाथ पर पड़े अनगिनत लोग बतला देंगे कि कितने लोग छप्पर की तलाश में हैं। हमारा समतामूलक समाज का सपना बिखर चुका है। असुरक्षा, बेरोजगारी और विस्थापन ने एक जबर्दस्त संकट पैदा किया हुआ है। यह बात और है कि हम उसे समझना तो रहा दूर, देखना भी नहीं चाहते।
अपने उपन्यास पंखों वाली नाव में आपने एक 'गे' चरित्र के त्रास को मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। सामान्यतया बीभत्स और जुगुप्सा पैदा करने वाले ऐसे चरित्र को इतनी शालीनता और तटस्थता से आप कैसे रच पाए?
मैं दोहरी जिंदगी जीता हूं - एक पत्रकार की और दूसरी लेखक की। पत्रकार के रूप में मैं जुझारु नजर आ सकता हूं पर एक लेखक के रूप में मैं मानव जीवन की सीमाओं, उसकी विडंबनाओं, पीड़ा, सुख, प्रेम और घृणा को समझने की कोशिश करता हूं। तब मैं जज नहीं होता, एक दर्शक भी नहीं होता जो विकृतियों में मजा ले। बल्कि मैं एक सर्जक होता हूं जो अपने चरित्रों को उनकी सीमाओं में देखने, समझने और नैतिकता-अनैतिकता से परे व्याख्यायित करने की कोशिश करता है।
मानव व्यवहार को 'जुगुप्सा और 'विभत्सता जैसे विश्लेषणों के अंतर्गत वर्गीकृत करने की जगह एक रचनात्मक लेखक के तौर पर यह जानना जरूरी होता है कि आखिर कोई क्यों एक खास परिस्थिति में एक खास तरह का व्यवहार करता है। मैंने समलैंगिकता को व्यक्ति विशेष की सीमाओं में देखने और उसकी पीड़ा को अभिव्यक्त करने का काम किया है। मैंने, कोई नैतिक या न्यायिक स्टैंड नहीं लिया है।
आजादी के बाद अखबार और संसद दोनों जगह हिंदी की जगह बढी। पर पिछले दशकों में यह बढत रूक सी गयी और अंग्रजी नये सिरे से काबिज होती दिख रही है। इसके क्या कारण हैं ? क्या इससे लड़ा जा सकता है?
हिंदी में साहित्यिक सक्रियता का घटते जाना इस शंका को पुष्ट करता है कि दुनिया की इस तीसरी सबसे बड़ी भाषा में प्रतिभाओं का आना बंद हो गया है। उस की रचनात्मकता और सर्जानात्मक ऊर्जा घटती जा रही है। किसी भाषा को किस तरह मारा जाता है हिंदी उसका उदाहरण है।