पंखकटी चिड़िया / पुष्पा सक्सेना
”भाँजी, क्या ये चिड़िया मर जाएगी?“
शीलो के उस अजीब सवाल को सुन मम्मी खीज उठी थीं। अभी चंद घण्टे पहले वे उस नए घर में पहुँचे हैं, और इस लड़की ने काम में मदद देने की जगह, उल्टे-सीधे सवाल पूछने शुरू कर दिए। तारा ने उसकी आदत खराब कर दी थी, उसके हर सवाल का जवाब देना तारा को जरूरी लगता। उल्टा वह उन्हें भी समझती,
”मम्मी, आप नहीं जानती, शीलो बहुत बुद्धिमान लड़की है। इसकी जिज्ञासा शांत न की गई तो इसकी प्रतिभा व्यर्थ जाएगी। हम इसे तराश सकते हैं, इसकी प्रतिभा चमका सकते हैं। कितना चैलेंजिंग काम है न, मम्मी?“
अब भला शीलो के इस सवाल की कोई तुक है? वह क्या अन्तर्यामी है जो बता दे, चिड़िया कब मरेगी? उनकी झुँझलाहट वाजिब हीं थी।
”चुप रह, वर्ना थप्पड़ लगाऊंगी। दिमाग चाट डालती है। ये नहीं कि घर बुहार डाले, फ़ालतू बात किए जा रही है।“
शीलो की आकुल दृष्टि का अनुसरण करता राजीव उसकी बात समझ गया था। कमरे की बन्द खिड़कियों के बावजूद, खुले दरवाजे से सबकी दृष्टि बचा, एक गौरैया कमरे में उड़ आई थी। बाहर निकलने को व्याकुल वो नन्ही चिड़िया, कमरे के आर-पार चक्कर काटती, हताश हो रही थी। सुनयना ने शीलो को डरा दिया था।
”देख, कमरा तो चारों ओर से बन्द है, चिड़िया बाहर कैसे जाएगी? बस यूंही चक्कर काटते-काटते मर जाएगी।“ शीलो का वो सवाल इसी आधार पर था।
शीलो और सुनयना दोनों समवयस्क थीं, पर दोनों की स्थिति में जमीन-आसमान का अन्तर था। सुनयना मम्मी-पापा की दुलारी बिटिया थी और शीलो माँ-बाप से तिरस्कृत, उपेक्षिता थी, पर जिस परिवेश से वह आई थी उसका अंश भी शीलो में परिलक्षित नहीं थी। उसकी बुद्धि का लेखा-जोखा बस तारा दीदी के पास था। मम्मी ने उसे हमेशा दुतकारा, खासकर तारा दीदी के बाद तो मम्मी उसे मनहूस होने का उलाहना देतीं।
राजीव को अच्छी तरह याद है, उस घर में शीलो किस मुश्किल से आई थी। तब पापा राँची जेल में जेलर के रूप में नियुक्त थे। अचानक एक रात जेल के अन्दर से शोरगुल की आवाजें आई थीं।
”जेलर साहब जल्दी चलें, सोमवरिया ने अपनी लड़की को मार डाला है।“
”क्या कह रहे हो श्यामलाल? कल तो वह उसे गोद में लिए घूम रही थी।“
”लगता है आज फिर उस पर पागलपन का दौरा पड़ा था सहिब। कसाइन ने गला घोंट कर मार डाला।“
”ओह माई गाँड! मैं तो पहले ही कहती थी उसे पागलखाने भिजवा दीजिए।“ मम्मी भय से काँप उठी थीं।
डाँक्टर को साथ ले, जब जेलर साहब वहाँ पहुँचे तो शीलो को गोद में लिटाए, सोमवरिया लोरी गा रही थी। अन्य औरतें भय से दूर खड़ी तमाशा देख रही थीं। जेलर साहब के पहुंचते ही वार्डन सतर्क हो उठी थी।
”सर, सबको सोते पा, इस चुडै़ल ने लड़की का गला टीप दिया। वो तो मैंने देख लिया वर्ना किसी और पर दोष आता। मैं पक्की ड्यूटी करती हूँ, सर!“
उन बातों पर ध्यान न दे, जेलर साहब ने सोमवरिया को डपटा था,
”बच्ची मारकर अब् लोरी गा रही है! इधर दे वच्ची को, डाँक्टर देखेंगे।“
”नहीं-नहीं, डाँक्टर उसे सुई देकर मार डालेंगे।“ बच्ची को सोमवरिया ने जोर से सीने से चिपटा लिया था।
जेलर साहब के इशारे पर सोमवरिया को चारों ओर से घेर, लड़की उसकी गोद से छीन ली गई थी। सोमवरिया बेटी पाने के लिए चीखती जा रही थी।
बच्ची को दरी पर लिटा, डाँक्टर ने उसकी नब्ज थामी थी। सचमुच लड़कियों की जान बड़ी सख्त होती है। गला घोंटे जाने के बावजूद, उसकी साँसें बच रही थीं। माँ ने खत्म कर देने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, पर विधाता ने उसे न जाने किसके लिए बचा लिया था। उसके जीवित बच जाने पर सभी को आश्चर्य था।
बच्ची को अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। जेलर साहब ने रिपोर्ट दे दी थी, उस छह वर्ष की बच्ची को माँ के पास रखना खतरनाक है। डाँक्टर के सर्टिफिकेट पर सोमवरिया को पागलखाने भिजवा दिया गया था। जाते समय वह दहाड़े मार-मार कर रोई थी। बेटी को छोड़ते, उसका सीना फटा जा रहा था। उस दृश्य को देखती तारा दीदी की आँखें भर आई थीं-
”इसे किस दण्ड के लिए जेल की सजा भुगतनी पड़ रही है, पापा?“
”अपनी सास के सिर पर मसाला पीसने वाली सिल दे मारी थी, वहीं ढेर हो गई थी बेचारी।“
पापा की उस जानकारी ने तारा दीदी के कहानीकार को जगा दिया था। खोज-पड़ताल के बाद उन्हें जो जानकारी मिली, उसने उनके मन में सोमवरिया के प्रति सहानुभूति जगा दी थी।
”जानते हो राजीव, सोमवरिया की सास कितनी दुष्ट औरत थी। बेटे पर अपना एकच्छत्र अधिकार जमाए रखने के लिए उसने क्या कुछ नहीं किया। बेटा बहू के पास न जाए, इसके लिए वह खुद बेटे को दूसरी औरतों के पास जाने को उकसाती थी। भला कौन विश्वास करेगा राजीव कि अपने बेटे को पाप के रास्ते ढकेलने के लिए उसकी अपनी माँ जिम्मेवार हो सकती है! गुस्से में ऐसी सास को मार डालना क्या पाप है, भइया?“
उस उम्र में राजीव को दीदी की वो बातें समझ में नहीं आती थीं। दीदी से बात करने वाला राजीव ही तो बच रहा था। मम्मी के पास घर के कामों के बाद, बात करने का समय ही नहीं रहता था। पाप का रास्ता क्या होता है, ये बातें भी राजीव की बाल-बुद्धि से परे थीं। तारा दीदी अक्सर शीलों से मिलने अस्पताल जाती थीं। वह छोटी बच्ची अस्पताल में सबकी बिटिया बन गई थी। सबका स्नेह पा, उसका चेहरा चमकने लगा था। तारा दीदी हमेशा उसके लिए चाकलेट-टाफियाँ ले जाती थीं। समय बीतता गया। नन्हीं शीलो दस वर्ष की हो गई।
अन्ततः दीदी ने मम्मी के सामने अपनी बात रखी थी, ”
मम्मी, हम शीलो को अपने घर ले आएँ?“
”क्या बकवास करती है, तेरा दिमाग तो नहीं फिर गया? पहले ही तुम सब कम परेशान रखते हो जो एक और बला लाना चाहती है!“ मम्मी नाराज हो उठी थीं।
”मम्मी, वह तुम्हें बिल्कुल परेशान नहीं करेगी। तुम तो जानती हो माँ उस अस्पताल में कैसे खतरनाक मुजरिम रहते हैं। उन्हें गन्दी बीमारियाँ हो सकती हैं। ये छोटी लड़की अगर उनके रोग पा गई तो उसका क्या होगा, मम्मी? मैं शीलो की पूरी जिम्मेवारी लेती हूँ, बस तुम एक बार हाँ कर दो, माँ।“ तारा दीदी लाड़ में मम्मी को माँ कहा करती थीं।
”न बाबा, मुझे ये बात कतई मंजूर नहीं, हत्यारिन माँ की बेटी मैं इस घर में नहीं ला सकती। वैसे भी वो मनहूस है, इस जेल में उसका जन्म हुआ है, न जाने किसका पाप है ....... खून का असर तो रहता ही है न..........“
मम्मी की ‘न’ को ‘हाँ’ में बदलना कठिन काम था, पर तारा दीदी उस कला में निपुण थीं। एक दिन जेल के अस्पताल में मम्मी को रोगियों को मिठाई-फल बाँटने जाना था। तारा दीदी ने इस अवसर का फ़ायदा उठाया था। सुनयना की पुरानी फ्राक पहने शीलो ने स्टेज पर मम्मी को गुलदस्ता दे, हाथ जोड़ दिए थे। तारा दीदी ने उसे इस कार्य के लिए पूरी ट्रेनिंग दी थी। मम्मी ने प्यार से उसके गाल थपथपा दिए। शीलो का मुंह प्रसन्नता से दमक उठा था।
घर पहुंची मम्मी से फिर तारा दीदी ने मनुहार की थी,
”मम्मी, आप फिर सोचिए, एक लड़की का आप जीवन बना सकती हैं, वर्ना उस माहौल में रहकर वह भी अपराधी ही बनेगी।“
मम्मी उस दिन ‘न’ नहीं कर सकी थीं। पर उन्होंने साफ़ हिदायत दे डाली थी, उस लड़की ने अगर कोई गड़बड़ की तो फौरन उसे वहीं वापस भेज देंगी। उसकी जिम्मेवारी तारा को लेनी होगी। चोरी-वोरी की तो वही जानेगी, वगैरह-वगैरह। उसी शाम तारा दीदी शीलो को घर ले आई थीं।
उनके घर पहुँची शीलो विस्मय से घर निहारती रह गई थी। समवयस्क सुनयना की ओर उसने दोस्ती का हाथ बढ़ाया था, पर मम्मी ने उसे पहले ही समझा दिया था,
”उस लड़की से ज्यादा बात करना ठीक नहीं, वर्ना तू भी उसी जैसी गन्दी लड़की बन जाएगी।“
सुनयना से उत्साह न पाकर भी शीलो उसके आगे-पीछे लगी रहती। कभी-कभी सुनयना अकारण ही उसे डाँटती, पर शीलो तिरस्कार की घुट्टी पीकर ही बड़ी हुई थी।
मम्मी उससे उदासीन ही रहतीं, पर तारा दीदी के लिए वह एक चैलेंज थी। पहले ही दिन उसके सिर में पड़े जुएँ मारने का शैम्पू लेकर जब वह घर आई तो मम्मी से खासी डाँट पड़ी थी,
”अब इसके ये नखरे मैं नही उठा सकती। अरे रात में केरोसीन मलकर सो जाए, सुबह साबुन से रगड़कर सिर धो डाले, जुएँ साफ हो जाएँगे। मेरे पास फालतू पैसे नहीं हैं............।“
”पर मम्मी, ये पैसे तो मेरी पाँकेट-मनी के हैं, आपका पैसा थोड़ी है।“
”वाह , अब मेरा-तेरा पैसा अलग हो गया? आखिर तो मेरे ही पैसे से पाँकेट-मनी मिलती है न?“
मम्मी बड़बड़ाती गई और तारा दीदी हॅंसकर टालती गई। दो-तीन दिनों में ही शीलो का चेहरा निखर आया था। तारा दीदी ने जब उसे पढाना शुरू किया तो फिर मम्मी से डाँट खाई थीं-
”अपनी पढ़ाई छोड़कर तू जो इसके साथ माथा-पच्ची कर रही है, उसका कोई फायदा नहीं होने वाला है। खून का असर कहीं नहीं जाता, देख लेना जरा समझ आई नहीं कि सब ले-देकर गायब हो जाएगी। आखिर है किसकी बेटी!“
तारा दीदी ने मम्मी का कहा झूठ कर दिखाने की जिद ठान ली थी। जब भी समय मिलता शीलो को साथ ले बैठती थीं। उधर मम्मी अपने कामों के लिए जब-तब शीलों को पुकार लगातीं। हाथ में पेंसिल लिए शीलो जब मम्मी का हुक्म बजाने पहुंचती तो हाथ में पकड़ी पेंसिल देखते ही उनका पारा आसमान पर चढ़ जाता-
”हमारे यहाँ तो स्कूल खुल गया है, जब देखो तब पढ़ाई चल रही है। सबकी रोटी बनाने को मैं ही रह गई हूँ। चल जल्दी से मसाला पीस..........।“ शीलो के हाथ की पेंसिल छीन, मम्मी उसे काम में जुटा देतीं।
कभी-कभी राजीव उस लड़की का जीवट देख ताज्जुब में पड़ जाता, उतनी छोटी लड़की एक साथ इतने काम कैसे निबटा लेती है! मम्मी की डाँट-फटकार का उस पर जैसे कोई असर नहीं होता, मम्मी का हर हुक्म वह पूरी निष्ठा से निभाती और तारा दीदी का दिया होमवर्क भी वह जाने कब निबटा डालती। उसकी बुद्धि का लोहा तो पापा तक ने माना था। दो वर्षो में ही उसने छोटे-छोटे वाक्य लिखने-पढ़ने सीख लिए थे।
सुनयना उसे चिढ़ाती,
”पढ़ना-लिखना सीखकर अपनी माँ के पास चिट्ठी लिखेगी....... जेल का पता याद है न?“ उस तीखी बात पर शीलो की आँखें भर आतीं। माँ की छवि उसके नन्हें मानस में गड्डमड्ड थी।
कभी उसे सीने से चिपकाए लोरी गाती माँ, तो कभी उसकी गर्दन दबाती हत्यारिन माँ.......। सुनयना के पास उसे दुखी करने का यही तीखा हथियार था, जिससे वह उसे जब-तब घायल करती रहती। पिछले तीन-चार वर्ष उसने माँ को देखे बिना बिताए थे, पर जैसे-जैसे शीलो समझदार होती जा रही थी, माँ के प्रति उसका लगाव बढ़ता जा रहा था। शायद इसके लिए तारा दीदी जिम्मेदार थीं। उन्होंने शीलो की माँ का दुख, शीलो को समझाया था। शीलोसमझ गई, उसकी मां अपराधी नहीं है। एक दिन जब शीलो ने जेल जा, माँ से मिल जाने की बात कही तो मम्मी चिढ़ गई थीं-
”खाएगी यहाँ का और गुण गाएगी माँ का! हत्यारिन माँ का इतना दुलार है, ठीक-ठाक माँ होती तो न जाने क्या करती?“
”मम्मी प्लीज, आप ऐसी बातें मत किया कीजिए। शी विल बी बैडली हर्ट।“ तारा दीदी ने विरोध किया था।
”ऐसी की तैसी! अरे इतना ही गुमान है तो यहाँ हमारे टुकड़ो पर क्यों पड़ी है?“
उस रात तारा दीदी के लाख मनाने पर भी शीलो ने खाना नहीं खाया था। मम्मी को दीदी की शीलो से मनुहार नहीं भाई थी।
दस वर्ष की उम्र में ही शीलो बेहद समझदार हो गई थी। वह दूसरों की दया पर आश्रित है, ये बात मम्मी उसे जब-तब जताती रहती थीं। तारा दीदी का स्नेह न मिलता तो शायद वह लड़की पहले ही खत्म हो जाती। तारा दीदी के स्नेह ने उसे नया जीवन दिया था। स्कूल में पढ़ने वाली सुनयना की किताबें वह धड़ल्ले से पढ़ जाती। कभी-कभी तो जो सवाल सुनयना हल नहीं कर पाती, शीलो कर देती। शीलो से सुनयना की चिढ़ की एक यह भी वजह थी। शीलो की प्रतिभा देख एक दिन पापा ने भी दबी जुबान में उसे किसी स्कूल में दाखिल कराने की बात कही भर थी कि मम्मी ने घर सिर पर उठा लिया था। पापा सहम गए थे।
तारा दीदी कभी-कभी राजीव से कहतीं, ”हम लोग एक ब्रेन-डेथ के चश्मदीद गवाह हैं। अगर शीलो स्कूल जाती तो क्या कुछ नहीं बन सकती?“
राजीव की ‘हाँ’ पर वह और भी ज्यादा उत्साहित हो उठतीं।
”तुम्हें सच बताऊं, ये लड़की हम सबसे ज्यादा इंटेलिजेंट है, पर बेचारी अभागी है वर्ना........।“ तारा दीदी चुप हो जातीं।
अचानक एक दिन अच्छी-भली तारा दीदी काँलेज से भयंकर सिर-दर्द और बुखार के साथ घर लौटी थीं। मम्मी ने अदरक और काली मिर्च की चाय पिलाई थी, पर उनका बुखार बढ़ता ही गया था। सिर-दर्द और तेज बुखार से दीदी छटपटा रही थीं। शीलो उनका सिर दबाती, मम्मी की हर बात पर दौड़ रही थी। कभी फ्रिज से आइस निकालती, कभी दीदी के लिए फलों का रस निचोड़ती। दूध गर्म करती शीलो का मुंह पीला पड़ गया था। मम्मी दीदी की खाट की पाटी से लगकर बैठी थीं। और शीलो दीदी के हर काम करती, आसपास चक्कर काटती रहती। अन्ततः बड़े डाँक्टर बुलाए गए थे। दीदी का परीक्षण करते डाँ0 चौधरी चुप पड़ गए थे।
”आपने देर कर दी मिस्टर प्रसाद, उसे मैनेनजाइटिस है।“
सबको बिलखता छोड़ तारा दीदी चली गई थीं। शीलो स्तब्ध शून्य में ताकती रह गई थी। उसका तो जैसे सब कुछ लुट गया था। मम्मी ने खाट पकड़ ली थी। उसकी तीमारदारी का दायित्व भी शीलो ने ही उठाया था, पर मम्मी उसे देखते ही कोसने लगतीं। अब वह शीलो बदल गई थी। उसके चेहरे की मुस्कान लुट चुकी थी। अपनी स्थिति वह समझ गई थी। मम्मी की जल-कटी, वह तारा दीदी के सहारे सहज भाव से सह पाती थी, पर अब वह सचमुच दूसरों की दया पर निर्भर थी। उस घर में उसका कौन था?
जरा ठीक होते ही मम्मी ने शीलो को कोसना शुरू कर दिया था-
”इस कुलच्छनी के कारण ही मेरी सोने-सी बेटी चली गई ......... मनहूस है, इसे निकाल बाहर करो......। जिसके पास रहेगी उसे खत्म कर डालेगी।“
पापा समझाते,
”तारा का इससे कितना प्यार था, इसे निकाल देंगे तो उसकी आत्मा दुख पाएगी।“
मम्मी के मन में न जाने क्यों यह विश्वास जम गया था कि तारा दीदी की मौत की जिम्मेवार शीलो है। मम्मी के सारे कुवचन सुनती शीलो, सिर झुकाए घर के सारे काम निबटाती जाती थी। एक बात जरूर थी, तारा दीदी के बाद उसने कभी अपनी काँपी-किताब नहीं छुई। एक दिन सुनयना ने कहा भी था,
”तू अब पढ़ती नहीं शीलो?“
”क्या करूँगी पढ़कर?“ शीलो की सपाट आँखों में तारा दीदी की मौत प्रतिबिम्बित थी।
”पढ़-लिख जाएगी तो तेरा ही भला होगा।“ पापा ने समझाना चाहा था, पर शीलो ने अपनी किताबों को हाथ नहीं लगाया था।
राजीव देखता शीलो अक्सर तारा दीदी के कमरे में जाकर अपने आँसू पोंछ रही होती या उनके फोटो को अपनी फ्राक से साफ करती। तारा दीदी की मृत्यु के बाद भी उस कमरे में शीलो ने सोना नहीं छोड़ा था। सुनयना और राजीव उनके कमरे में जाना टाला करते, पर शीलो जैसे उसी कमरे में जाकर शांति पाती।
निःशब्द सिर झुकाए काम करती शीलो को देख, सुनयना भी उदास हो जाती।
”राजीव भइया, इसे क्या हो गया है? पहले कितना हॅंसती थी, मेरे साथ खेलती थी, पर अब तो जैसे ये जिंदा ही नहीं है।“
राजीव चौंक गया था कितना ठीक कहा सुनयना ने! क्या पहले वाली शीलो मर नहीं गयी जो मम्मी की हजार गालियाँ खाकर भी तारा दीदी के सामने खिलखिला उठती थी। सुनयना की झिड़की पर भी उसे मनाने की कोशिश करती, हॅंसती जाती थी। अब उसकी वो हॅंसी कहाँ गई? शायद वह समझ गई थी कि उसके लिए तारा दीदी की सुदृढ़ ढाल अब नहीं थी। अपनी नियति उसने स्वीकार कर ली थी। उस घर में वह सर्वथा अवांछित ही तो थी।
पापा के रिटायरमेंट के बाद आज वे इस नए घर में आए हैं। पुराना घर छोड़ते, शीलो कितना रोई थी! तारा दीदी का लगाया आम का पेड़ साथ लाने की जब शीलो ने कोशिश की तो मम्मी ने जिस तरह उसे कोसा, वो सह पाना उसे ही सम्भव था, ”खबरदार जो उस पौधे को हाथ लगाया, उसे यहीं रहने दे। तेरी छाया से दूर रहकर जी तो जाएगा, वर्ना तारा की तरह वो भी......“
मम्मी ने आँचल आँखों से लगा लिया था। बुत बनी शीलो को देख, सुनयना को तरस आ गया था-
”ये क्या मम्मी, आप बेकार ही शीलो को डाँटती रहती हैं। तारा दीदी को तो भगवान जी ले गए...“
”चुप रह, बड़ी आई इसकी हिमायत करने वाली! देख लेना इसकी बजह से एक दिन मैं भी चली जाऊंगी। तब खुशी होगी तुझे।“
उस घर को छोड़ते समय शीलो ने पापा से कहा था, उसे उसकी माँ के पास पहुंचा दिया जाए। पापा चुप रह गए थे। कुछ ही दिन पहले खबर आई थी, सोमवरिया के पागलपन के दौरे बहुत बढ़ गए हैं। उसे जंजीरों से बाँध कर रखना पड़ता है। शीलो से बस उन्होंने यही कहा था, ”तेरी माँ को इलाज के लिए बाहर के अस्पताल भेजा गया है। ठीक होते ही पहुंचा दूंगा।“
”क्या हुआ अम्मा को ?“ शीलो की बड़ी-बड़ी आँखों में चिन्ता उभर आई थी।
राजीव ने पापा से सब जान-सुन लिया था,
”शीलो को उसके पिता के पास भी तो भेजा जा सकता है, पापा। उसका कोई पता तो आपके पास होगा न?“
”उसी के गाँव के आदमी से पता लगा था। उसने दूसरी शादी कर ली। ये शहर छोड़कर कहीं और जा बसा है, नालायक। बेटी को जेल में सड़ने को छोड़, खुद मौज उड़ा रहा है।“
”सोमवरिया ने अपराध तो गुस्से में किया, उसके साथ ज्यादती की गई थी, फिर क्यों उसे ये दण्ड दिया गया, पापा?“
”कानून हर बात को सबूत के आधार पर देखता है। सास के सिर पर उसने पत्थर मारा ये सबने देखा पर क्यों मारा इसकी गवाही कौन देता?“
”आप उसके लिए कुछ नहीं कर सकते, पापा?“
”करता, जरूर कर सकता था। उसके अच्छे व्यवहार के लिए सजा कम करने की बात कहता, पर पति और सास के व्यवहार ने उसे इस कदर तोड़ दिया कि वह अपना आपा ही भुला बैठी। पहले आवेश में चीखती-चिल्लाती रही। उसके उस आक्रोश को पागलपन कहा गया और अब वह सचमुच पागल है।“ सोमवरिया की उस स्थिति में पापा भी कुछ कर पाने में असमर्थ थे।
इस घर में आई शीलो ने अचानक अपने उस अजीब प्रश्न से राजीव को चौंका दिया था। एक हॅंसती-गाती चिड़िया को क्या उन्होंने मार नहीं डाला?
राजीव को बचपन की एक घटना याद हो आई। उसके साथ के एक लड़के ने एक नन्हीं चिड़िया के पंख कतर, उसे क्लास रूम में छोड़ दिया था। इधर-उधर भागती चिड़िया का असहाय रूप देख सब ताली बजा हॅंस रहे थे। शीलो क्या उसी चिड़िया-सी नहीं, जिसके पंख विधाता ने पागल माँ और निष्ठुर पिता देकर, कतर डाले और आज वह मम्मी की डाँट-मार खाती, उनके क्रूर आदेशों पर असहाय दौड़ रही है!
नहीं, उसे मुक्ति दिलानी ही होगी। किसी भी महिला-संस्था में उसकी शिक्षा-दीक्षा हो सकती है। वह स्वावलम्बी बन सकती है। तारा दीदी का सपना उसे सच करना ही होगा।
दृढ़ निश्चय के साथ राजीव, पापा के कमरे की ओर चल दिया था।