पंजाबी भाषा और साहित्य / प्रताप सहगल
पंजाब का नाम सुनते ही मन में उल्लास जगता है। पंजाब के लोग, पंजाब के रीति-रिवाज, पंजाब की नदियाँ, पंजाब की मिट्टी, फसलें और कारखाने, पंजाब के लोक-गीत और पंजाबी सूरमा।
वो पंजाब, जहाँ विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद की रचना हुई। वह पंजाब जहाँ से वेदों की ऋचाओं का प्रकाश पूरे विश्व में फैलना शुरू हुआ। वह पंजाब जो भारत की रक्षा के लिए हमेशा प्रहरी बना उसी पंजाब की धरती पर बसे लोगों की भाषा है पंजाबी।
पंजाबी अपने नाम के अनुरूप बता देती है कि मैं वह भाषा हूँ जिसे पंजाब के लोग अपने दुःख, सुख, प्रेम, घृणा, मान-मुटव्वल, वीरता और भय, किसी भी मनोभाव को अभिव्यक्त करने के लिए इस्तेमाल करते हैं
पंजाबी में ही वारिस शाह ने हीर की काफियों की सर्जना की, पंजाबी में ही शेख फरीद और बुल्लेशाह के सूफी काव्य की दोहों और श्लोकों में रचना हुई। पंजाबी में ही भाई वीर सिंह ने पंजाबियत को एक नई पहचान दी, पंजाबी में ही वैण हुए। शिवकुमार बटालवी ने पंजाब के धड़कते, दहकते दिलों की संवेदना को पकड़ा।
अमृता प्रीतम ने पंजाबी साहित्य को प्रतीकात्मकता दी, तो अजीत कौर ने खुलापन। हरभजन सिंह ने इसे ज्ञान-दर्शन से जोड़ा तो मनजीत टिवाणा ने आज की नारी की पीड़ा को बड़ी बारीकी से पकड़ा।
इसी पंजाबी भाषा के जन्म को लेकर अभी भी सदी विद्वान एकमत नहीं। खोज अभी भी जारी है। पर सन् 1932 में पंजाब विश्वविद्यालय द्वारा स्थापित एक खोज कमेटी की रिपोर्ट को हम अपना आधार बना सकते हैं।
इस रिपोर्ट में पंजाबी को इंडो-एरियन भाषाओं में से निकली सबसे पुरानी बोली माना गया है। बुद्ध और महावीर के समय में लिखित ग्रंथों में इस बोली का उत्स मौजूद है। बौद्ध धर्म ग्रंथ 'धम्मपद' , जैन साहित्य तथा कालिदास के शकुंतला आदि नाटकों में पंजाबी के अनेक शब्द मिलते हैं।
वर्तमान पंजाबी का पहला रूप सिद्धों व नाथों की रचनाओं में मिलता है। एक मत के अनुसार इसी समय यानी नौवीं-दसवीं शताब्दी में ही पंजाबी साहित्य की सर्जना शुरू हो गई थी। लेकिन पंजाबी भाषा का पहला प्रामाणिक कवि फरीद वाकर गंजी को ही माना जाता है। बाबा फरीद का जन्म 1173 ई॰ में हुआ और वे 1266 ई॰ तक रहे।
पंजाबी भाषा में लिखे साहित्य की पहली सनद यही है। सूफी मत से प्रभावित बाबा फरीद की रचनाओं में रूहानीपन और सदाचार का मिला-जुला रूप मौजूद है-कहते हैं।
रुक्खी सुक्खी खाके ठंडा पाणी पीउ
फरीद देख पराइयाँ चोपड़ियाँ, ना तरसाई जीउ।
बाबा फरीद की भाषा पर हिंदी, मुल्तानी का काफ़ी असर है। उनकी रचनाओं में भक्तिभाव तो है ही, आदर्श जीवन की ओर उन्मुख होने की प्रेरणा भी है-
फरीद दर दरवाज़े़ जाइके क्या डिठे घड़ियाल
एक निदोसा मारिए, हम दोसा दा क्या हाल।
बाबा फरीद के काव्य की सर्जनात्मक शक्ति और वैचारिक आधार आज भी पंजाब के लोगों पर असर करता है।
समय बदला, हालात बदले, किताबें के सफे भी बदले। छोटे-छोटे राजपूतों की आपसी लड़ाइयों ने वार साहित्य को जन्म दिया। ठीक उसी तरह से जैसे हिन्दी में रासो-साहित्य लिखा गया। 'टुंडे असराजे दी वार' 'वार मूसे दी' या 'सिकंदर बिराहम दी वार' आदि अनेक रचनाओं की सर्जना हुई।
इसी समय फुटकल लोक साहित्य की रचना भी हुई। लोक-गीतों और बुझारतों का दौर शुरू हुआ। बुझारतों में जैसे 'चूने गच कोठड़ी दरवाज़ा है ना' जवाब है अंडा।
शादियों के समय गाए जाने वाले गीत, घोड़ियाँ, सिट्ठणियाँ, या फिर मातम और वैण अलग-अलग रूपों में रचे जाने लगे। यह लोकगीत आज भी पंजाब के लोगों के जीवन का एक हिस्सा है, जो उन्हें अपनी प्राचीन परंपरा से तो जोड़ता ही है, उनके मन के कोमल भावों, पारिवारिक रिश्तों की महक को भी प्रकट करता है।
शादी होते ही बेटी जब पति के घर जाने को तैयार होती है, तो उसकी डोली उठते ही प्रायः यह गीत सुनाई देगा-
साडा चिड़ियाँ दा चम्बा वे
बाबल असां उड्ड जाणां
साडी लमी उडारी वे
बाबल केहड़े देस जाणां
इसी के साथ माँ-बहनों, पिता-चाचाओं और मामों, सहेलियों और मोहल्ले के दूसरे लोगों की आँखों से गिरते, आँसू उनके मन से बिछोह के दुःख की परत को धो देते हैं।
लोक-साहित्य की सर्जना का सिलसिला अनवरत रूप से आज भी जारी है।
आइए अब वार-साहित्य के आगे की बात करें।
भक्ति युग या मध्ययुग को वस्तुतः पंजाबी भाषा के निखार का युग कहा जा सकता है। गुरु नानक, गुरु अर्जुनदेव और भाई गुरुदास की कविताओं का अपना ही रंग है।
निर्गुण ब्रह्म को मानने वाले इन संत कवियों ने राम और रहीम में कोई भेद नहीं समझा तो दूसरी ओर इन्होंने पुरानी धार्मिक-सामाजिक और साहित्यिक रूढ़ियों को तोड़ा।
यही वह समय था जब पंजाबी भाषा कि लिपि गुरुमुखी का समुचित विकास हुआ। शोधकारों ने गुरुमुखी का उद्भव ब्राह्मी लिपि से माना है, क्योंकि 250 ई॰ पूर्व सम्राट अशोक द्वारा स्थापित किए गए शिलालेखों की लिपि के अनेक अक्षर गुरुमुखी से मिलते हैं। ब्राह्मी लिपि का आधार हड़प्पा और मोहनजोदड़ों की खुदाई से प्राप्त लिपियाँ हैं। जी॰ बी॰ सिंह के शोध ने सिद्ध किया है कि इस लिपि का प्रचलन गुरु नानकदेव जी के समय से पहले बहुत पहले से था।
पंजाबी की पुरानी लिपियाँ लंडे या महाजनी शारदा और शकरी हैं तथा इन्हीं से धीरे-धीरे गुरुमुखी का विकास हुआ। गुरु नानकदेव और बाद में गुरु अंगद देव ने इसे व्यवस्थित रूप दिया।
गुरु-शिक्षा एवं जीवनवृत्तों के प्रचार के लिए गुरुघरों या गुरुद्वारों द्वारा इन्हें अपनाया गया। इसलिए इस लिपि का नाम गुरुमुखी पड़ा, जो बाद में प्रचलित हुआ और इसी नाम को सभी ने स्वीकार किया।
35 वर्णमाला वाली गुरुमुखी लिपि में लिखी जाने वाली पंजाबी भाषा में साहित्य का अपूर्व भंडार मौजूद है।
समय-समय पर युग की ज़रूरतों के अनुरूप रचनाकारों ने अपनी रचनाओं से इसे समृद्ध किया।
पंजाबी साहित्य में गुरु नानक जी को एक क्लासिकल कवि के रूप में स्वीकार किया गया है। जपुजी, तिन वारां, सिद्ध गोष्ठ, दक्खिणी ओंकार, पटी और बारा माह तुखारी उनकी प्रख्यात रचनाएँ हैं। गुरु नानक के साहित्य में निर्गुण भक्ति मार्ग का बहुत महत्तव है तथा उनकी अनेक काव्य उक्तियाँ व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करती हैं। जैसे: नानक दुखिया सब संसार या मन जीते जग जीत। ऐसी अनेक उक्तियाँ व्यक्ति को एक अतिरिक्त शक्ति देती है।
दूसरी ओर इस्लाम के भारत में आने से सूफी मत भी आया। यहाँ उस पर भक्तिमत और वेदांत का प्रभाव पड़ा। इसी से प्रेरित कवि हुए बुल्लेशाह, शाहहुसैन, करमअली शाह तथा गुलाब जीलानी आदि। इन कवियों ने यों इश्क-मजाज़ी का रंग दिया, पर वस्तुतः यह इश्क-हक़ीकी की कविता थी। बुल्लेशाह जब कहता है:
रांझा रांझा कर दी नी, मैं आपे रांझा होई
सद्दो नी मैंनू धीदो रांझा, हीर ना आखो कोई
तो भाव एक़दम स्पष्ट हो जाता है कि कवि कैसे द्वैत से अद्वैत तक की यात्रा करता है।
इश्की-हक़ीकी की इस कविता कि सहज प्रतिक्रिया हुई। पंजाबी साहित्य में एक नए दौर की शुरुआत। इश्क-मजाज़ी का दौर शुरू हुआ।
हीर-राँझा, सोहनी-महिवाल, सस्सी-पुन्नू, मिर्ज़ा साहिबा और कामरूप के किस्से लिखे जाने लगे। इन कवियों की वर्णन शैली बड़ी आकर्षक है।
इन्होंने लोक जीवन की भाषा और लोक जीवन के रूपों से ही शक्ति प्राप्त की। दामोदर कवि का लिखा हुआ हीर का किस्सा सबसे पुराना माना जाता है।
लगता है दामोदर हीर-राँझा का समकालीन था। वह बार-बार लिखता है 'आख दामोदर मैं अखी डिठा'। बाद में वारिसशाह ने हीर लिखी। कहते हैं 35 वर्ष की आयु में ही उन्होंने यह लोकप्रिय सर्जना की। वारिसशाह ख़ुद भागमरी नाम की लड़की से प्रेम करता था।
कहते हैं कि हीर-राँझा कि प्रेम गाथा में उसने अपनी ही प्रेम-कथा को रूपायित किया। जो भी हो वारिसशाह उस्ताद कवि माने जाते हैं। हीर के सौंदर्य का वर्णन दिलचस्प है:
होठ सुर्ख, याकूत जिऊँ नाल चमकण
ठोडी सिउ वलायिती सार विचों
छंद चम्बे दी लड़ी की हँस मोती
दाणे निकले हुसन अनार विचों
गरदन कूंज दी उंगलियाँ दवां, फलियाँ
हथ कूलड़े बरग चनार विचों
शाह परी दी भैण पंज फुल्ल रानी
गुझी रहे ना हीर हज़ार विचों।
वारिसशाह ने जहाँ हीर लिखकर लोगों के दिलों की धड़कनों को सुर दिए, वहीं हाशिम ने शीरीं-फरहाद, लैला-मजनूँ और सस्सी-पुन्नू के किस्सों को अपनी धुन में गाया।
उन्नीसवीं शताब्दी का मध्य काल यानी महाराजा रणजीत सिंह का समय। उनके दरबारी कवि मुहम्मदशाह मुहम्मद ने पंजाबी कविता को एक नया आयाम दिया। देश-प्रेम का आयाम। पंजाब के लोग, पंजाब की धरती, पंजाबी की परंपराएँ, पंजाब के सिपाही उन्हें सब प्रिय थे और उन्होंने सही अर्थों में देश-प्रेम की कविताएँ लिखीं।
समय-रथ चलता रहा। साहित्य सर्जन होता रहा। पंजाबी भाषा फलती-फूलती रही। विश्व में एक बड़ा परिवर्तन आया। पहले विश्वयुद्ध ने सभी कवियों, चिंतकों और कलाकारों को प्रभावित किया।
युद्ध से बाहर गए पंजाबी सिपाहियों को दूसरों के जीवन में झांकने का अवसर भी मिला। एक ओर तो ऐसे ही साहित्य की रचना हुई तो दूसरी ओर मनोरंजन प्रधान साहित्य रचना जाने लगा।
1918 में सिंह सभा कि लहर ने ज़ोर पकड़ा। सिख-सभ्यता और सिख-मत का प्रचार इस आंदोलन का लक्ष्य था। सो पंजाबी गद्य लेखन अपने निखरे हुए रूप में सामने आया।
इसके तुरंत बाद अकाली लहर का युग आया। अपनी सभ्यता, संस्कृति और संप्रदाय को सुरक्षित रखने का युग।
यही वह समय था जब आधुनिक पंजाबी साहित्य के सूत्रधार भाई वीरसिंह का साहित्यिक जीवन-शुरू हुआ। भाई मोहन सिंह वैद्य ने अपनी रचनात्मक क्षमता का परिचय दिया।
भाई वीरसिंह ने सिख-दर्शन एवं सिख-इतिहास को सरल-सीधी भाषा में पुनः सृजित किया। कविता और गद्य दोनों ही स्तरों पर पंजाबी साहित्य में क्रांति की। पहली बार पंजाबी में मुक्त-कविता आई। कवित्त, बैत, दोहे आदि का प्रयोग बंद हो गया। उन्होंने सिर खंडी छंद में 'राणा पूज सिंह' लिखी। 'बिजलियाँ दे हार लहरां दे हार' तथा 'मटक हुलारे' उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं।
उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना 'मेरे सांईयाँ जीओ' को साहित्य अकादेमी न पुरस्कृत किया।
उपन्यासों एवं कहानियों के माध्यम से मोहन सिंह वैद्य ने पंजाबी गद्य को एक नई चमक दी।
देश के स्वतंत्रता आंदोलन को तेज़ करने में भी पंजाबी साहित्य, विशेषकर कविता कि भूमिका विशिष्ट रही है। ज्ञानी गुरमुख सिंह मुसाफिर हों या फिरोज़दीन अशरफ या फिर विधाता सिंह तीर, इन सभी के काव्य में देश प्रेम की अनुगूँज सुनाई देगी। साथ ही उन्होंने अंग्रेज़ नौकरशाही की मीन-मेख निकालने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी।
जैसे कोई पक्षी अपने डैने फैलाकर समूचे आकाश को नाप लेना चाहता है, ठीक उसी तरह से पंजाबी साहित्य विभिन्न दिशाओं में एक साथ विकसित होने लगा।
कविता में गीतों के साथ-साथ ग़ज़लों का प्रचलन भी हो चला। सृजनात्मक गद्य लेखन के साथ-साथ 'शकुंतला' और 'विक्रमोर्वशीय' जैसी नाट्यरचनाओं का अनुवाद भी हुआ।
आधुनिक पंजाबी साहित्य की नींव यों भाई वीरसिंह ने डाल दी, पर उसका विकास 1936 में प्रगतिशील साहित्यकारों के सम्मेलन के बाद और भी तेज़ी से होने लगा।
इस युग के शिवकुमार बटालवी के दर्द की थाह कौन पा सकता है। एक ओर लोकगीतों की परंपरा कि ख़ुशबू और दूसरी ओर आधुनिक संवेदना और भावबोध को शिवकुमार ने अपनी रचनाओं में बखूबी पकड़ा और रंग दिया है, जिसे पंजाबियत का रंग कहा जाता है।
माए नी माए मैं इक शिकरा यार बणाया
ओहदे सिर ते कलगी, ते ओहदे पैरी झांझर
ते ओह चोग चुगींदा आया।
नी मैं वारी जां
या फिर उनका नाटक लूणा। एक भाव-भीनी प्रेम कहानी लूणा। गीतों में ढलती लूणा और गीतों में ढलता पूरण। जहाँ नानकसिंह जैसे लेखकों ने आधुनिक पंजाब के परिवेश में समकालीन समस्याओं को अपनी गद्य रचनाओं का केंद्र बनाया, वहीं लूणा में शिवकुमार ने अपनी पुरानी कहानी को काव्य-नाटक के रूप में आज के परिवेश में रखा। पूरण के व्यक्तित्व की पहचान आज के व्यक्ति के अस्तित्व का ही संकट है। नाटक का एक छोटा-सा अंश।
पूरण-तू चाहुंदी हैं
दो रंगा विच
तीजा रंग वी होंद गवाए
लूणा!
एह संजो गा दे रंग
कोण मिलाए कोण मिटाए
एह मत्थे विच धुरों लिआए
मत्थे दा रंग कोण वटाए?
लूणा-पूरण!
लूणा दे रंगा विच
आपणा सूहा रंग मिला दे
नहीं ते संभव है कि लूणा
एस घर दा हर रंग जला दे
सब ते आपणा रंग चढ़ा दे
आपणे रंग दी लोथ बणा दे
तेरे रंग नूं
जिबहा करा दे
रंग-मत्ती देस कथा दा
हर अक्खर
बे रंग बणा दे
पूरण-जो लूणा चाहे करथए
चंगा ही है, जे पूरण दा
एह बे-रंगा रंग मर गए
रंग-हीण एस घर दे रंग नूं
मेरे लहू दा रंग चढ़ाये
रंग-विहूणी एस दुनियाँ विच
पूरण हुण,
जीऊणाँ ना चाहे
मैथों मेरे रंगा दी धुप
मां अग्गे ना
बेची जाए।
लूणा-पूरण!
जे तूं धुप न वेची
मैं आपणी छां वेच देयांगी
धुप बिण जी के वेख चुकी हाँ
छां बिण जी के
वेख लवां गी।
अपना अस्तित्व रखते हुए भी प्रेम की राह पर एक-दूसरे के प्रति समर्पण का यह भाव बोध पंजाबी साहित्य की विशेषता है।
समकालीन पंजाबी भाषा भारत की एक समृद्ध भाषा है। इसी भाषा के शब्दों में जो कसक और जो रड़क है, जो जोश और खरोश है, धीमी-सी आँच और जो गहराई है, वह सब मिलाकर हमें ऐसा साहित्य देती है और सीधे दिल के वास्ते हमारी रगों में उतर जाता है।
पंजाबी साहित्य अब प्रतीकों में बात करता है। यों अजीत कौर, हरभजन सिंह, प्रभजोत कौर, मोहिंदर कौर गिल और मनजीत टिवाणा आदि ने अपने-अपने तरीक़े से अपने-अपने अनुभवों को समकालीन परिवेश में ढाला है। पर अमृता प्रीतम की यह पंक्तियाँ आज के माहौल से पैदा हुए दर्द को एक मर्म भरा स्वर देती हैं। वह वारिसशाह से जुड़ती हैं तो वारिसशाह और अमृता प्रीतम के बीच फैला एक लंबा समय साकार हो उठता है।
अज आखां वारिश शाह नूं, कित्ते कबरा विच्चों बोल
ते अज्ज किताब इश्क़ दा, कोई अगला वरका फोल
इक रोई-सी धी पंजाब दी, तूं लिख-लिख मारे वैण
अज्ज लक्खां धीयाँ रोंदिया, तैनूं वारिस शाह नूं कैहण
वे दर्दमन्दां दया दर्दिया, उठ तक अपणा पंजाब
अज्ज वेहड़े लाशां विच्छियाँ, ते लहू दी भरी चिनाब।
कितना दर्द। कितनी गहराई और कितना सामयिक। एक ओर ऐसा सशक्त लेखन। दूसरी ओर बेइन्ताह लोक-साहित्य जो लोक-परंपराओं, रीति रिवाजों से जुड़कर पंजाबी भाषा और पंजाब की मिली-जुली संस्कृति को एक ऐसी अपूर्व पहचान देता है, जिस पहचान का सीधा रिश्ता हमारी धड़कनों से है।