पंडित मुन्नूलाल और फिद्दू नवाब / मोहम्मद अरशद ख़ान

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अगर ठहाकागंज पहुँचकर कोई पंडित मुन्नूलाल का घर पूछे तो मुहल्लेवाले उसे फिद्दू नवाब के दरवाज़े छोड़ आएँगे और अगर कोई फिद्दू नवाब का पता ढूँढने निकले तो लोग उसे पंडित मुन्नूलाल की ड्योढ़ी पर ले जाकर खड़ा कर देंगे।

पर अगर यह सुनकर आप ऐसा सोच रहे हैं कि इन दोनों में चोली-दामन का साथ होगा, तो आप सरासर ग़लत हैं। मुन्नूलाल और फिद्दू नवाब नदी के दो किनारों जैसे हैं। दोनों एक-दूसरे को फूटी आँख देखना नहीं पसंद करते।

मुन्नूलाल तंबाकू बनाते-बेचते हैं और फिद्दू नवाब पतंगों के कारोबारी हैं। अपने-अपने क्षेत्र में दोनों का कोई सानी नहीं। पूरा अवध मुन्नूलाल के ख़ुशबूदार डबल गुलाब ज़र्दे का दीवाना है। वहीं पतंगों के शौक़ीन दूर-दूर से फिद्दू नवाब का पता पूछते आते हैं।

मुहल्लेवाले दोनों की खींचतान का ख़ूब मज़ा लेते हैं। जहाँ कोई नया आदमी पतंगों की चाह में आया कि लोग उसे मुन्नूलाल के पास भेज देते हैं। बस, फिर पंडित जी पानी पी-पीकर फिद्दू नवाब के क़सीदे पढ़ना शुरू कर देते हैं। अगर मुन्नूलाल के सामने ग़लती से भी फिद्दू नवाब नाम निकल जाए तो समझिए आपका पूरा दिन गया। आप उठने को होंगे और मुन्नूलाल खींचकर बिठा देंगे। ऐसा मोतावातिर (बिना रुके लगातार) बोलते जाएँगे कि सुनते-सुनते कान दर्द करने लगें और हँसते-हँसते मुँह। बाक़ी आपके सिर और कमर का क्या होगा, यह आपकी सहने की क्षमता पर निर्भर है। मुन्नूलाल फिद्दू नवाब के सात पुश्तों की ऐसी बखिया खोलते हैं कि उसकी तुरपाई बड़े-बड़े दजऱ्ी भी न कर पाएँ। यही हाल फिद्दू नवाब का है। मुन्नूलाल के नाम पर लखनवी नप़फ़ासत के साथ ऐसे-ऐसे क़सीदे सुनाते हैं कि सुननेवाले का जी हलकान हो जाए।

ठहाकागंज एक होकर भी दो मुहल्लों में बँट गया है। आधे लोग मुन्नूलाल की तरफ, तो आधे फिद्दू नवाब की तरफ। दोनों गुट आमने-सामने हो जाएँ तो क्या कहने? ज़ुबानी तलवारें और फब्तियों के तीर ऐसे चलते हैं कि रुस्तम और सोहराब की सेनाएँ भी पानी भरती नज़र आती हैं। बीच-बीच में व्यंग्य और हँसी-ठहाकों के ऐसे गोले फूटते हैं कि मुहल्ले के एक कोने से दूसरे कोने तक खिड़कियों के शीशे थरथराते हैं और जब जवाबी क़व्वाली की यह महफ़िल सजती है तो आस-पसोड़ के मुहल्लेवाले ऐसा उमड़ आते हैं जैसे बड़े मंगल पर सेठ भंगारमल ने भंडारा खोल दिया हो।

साल के 355 दिन दोनों में रार ठनी रहती है। अब आप कहेंगे कि साल में तो 365 दिन होते हैं। 10 दिन क्यों छोड़ दिए? तो भाई साहब, ये 10 दिन मुहर्रम के ऐसे होते हैं कि दोनों अपना मुँह बंद रखते हैं और नज़रें नीची। इधर मुहर्रम का चाँद दिखा, उधर युद्ध-विराम घोषित। इन 10 दिनों में फिद्दू नवाब के सिर पर टोपी, तन पर काला कुर्ता-पाजामा और गले में हरा कलावा दिखता है। कलावा का रंग उनके गले पर ऐसा चढ़ता है कि दो-तीन महीने उनकी बगुले जैसी गर्दन हरी-भरी रहती है। लोग समझते हैं कि फिद्दू नवाब पक्के मलिच्छ हैं। नहाने-धोने से उनका ख़ानदानी बैर है। पर मूर्खों को क्या पता कि बेचारे फिद्दू नवाब पानी की बर्बादी के कितने खि़लाफ़ हैं। पानी जैसी अनमोल नेमत को भला ऐसे ही क्यों ज़ाया जाने दें। जैसे भी बचे, बचाना तो चाहिए ही। इन दिनों वे बेसुरी आवाज़ में मर्सिया पढ़ते हैं, मजलिसों में शामिल होते हैं और कभी-कभार मन बन गया तो रोज़े भी रख लेते हैं। एक बार पायक भी बने थे। अब पायक बनना कोई आसान काम तो है नहीं। नवीं तारीख़ की रात से दसवीं को जब तक क़र्बला में ताजि़या दफन न हो जाए पैदल ही दौड़ते रहना होता है। कमर में घुँघरू बाँधे इमाम हुसैन के घोड़े की तरह जिन-जिन दरों पर ताजि़या रखा हो, घूमते रहना पड़ता है। पर वह फिद्दू नवाब भी क्या, जो आसान काम हाथ में लें? जोश में आकर पायक बन तो गए पर उनकी छः फुटी दुबली-पतली काया दोहरी हो गई। कमर में ऐसे बल पड़े कि आज तक उनका एक हाथ कमर को सँभाले रहता है। पर उस दिन के बाद से उन्होंने अपना तरीक़ा बदल लिया है। अब वह ख़ुद ताजि़या रखने लगे हैं। नवीं की रात में दरवाज़े ताजि़या रखकर, दरी बिछाकर रिकार्ड बजा देते हैं और पालथी मारकर ऐसा झूमते-झटकते हैं जैसे कोई बेशरा सूफी पर हाल (भावावेश की दशा) आ गया गया हो।

पंडित मुन्नूलाल भी मुहर्रम का बहुत एहतराम करते हैं। इन दिनों अपना सारा कारोबार ठप कर देते हैं। तंबाकू को हाथ भी नहीं लगाते। कितना भी बड़ा ग्राहक आ जाए, उधारी चुकानेवाला ही क्यों न हो, सारा हिसाब-किताब 10 दिनों के बाद ही करते हैं। इन 10 दिनों में वे नंगे पैर, सादा लिबास में रहते हैं। जब दसवीं के दिन फिद्दू नवाब अपना ताजि़या उठाते हैं तो एक सिरा अपने कंधे पर उठाकर दो कोस दूर क़र्बला तक जाते हैं।

कहते हैं जब इमाम हुसैन का कपि़फ़ला कर्बला में फँसा हुआ था और यज़ीद उन पर ज़ुल्म ढा रहा था, तो हिंदुस्तानी दत्त बाह्मणों का एक लश्कर उनकी मदद को अरब गया था। पर अपफ़सोस कि उनके वहाँ पहुँचने से पहले इमाम हुसैन शहीद हो चुके थे। मुन्नूलाल ख़ुद को उन्हीं दत्त ब्राह्मणों का ख़ानदानी मानते थे। इसलिए वह भी उनकी शहादत का ग़म पूरी शिद्दत के साथ मनाते थे।

पर एक बार ऐसा हुआ कि मुहर्रम के दिनों में ही दोनों में ठन गई। लखनऊ का मुहर्रम तो जग प्रसिद्ध है। ऐसे जुलूस निकलते हैं, ऐसा मातम होता है कि लोग दाँतों तले अँगुली दबा लें। हर मुहल्ले की अंजुमनें अपने-अपने जुलूस निकालती हैं। बाना और पटा चलाने का मुक़ाबला होता है, तलवारबाज़ी और भाला चलाने की कलाओं का प्रदर्शन किया जाता है। ऐसा कमाल कि दूर-दूर के लोग खिंचे चले आते हैं।

ऐसे ही माहौल में एक बार दोनों का आमना-सामना हो गया। एक तरफ़ मुन्नूलाल अपने चेले-चपाटों के साथ खड़े थे तो दूसरी ओर शार्गिदों से घिरे फिद्दू नवाब। बीच में नौजवानों का बाना चल रहा, लाठियाँ बज रहीं। किसी चेले ने जोश में आकर फिद्दू नवाब से कहा, ‘‘अरे नवाब चच्चा, जब आज मुहर्रम की यह शान है तो आपके ज़माने में क्या जलवा रहा होगा।’’

फिद्दू नवाब अपनी कमर का दर्द भूलकर तन गए, ‘‘और नहीं तो क्या। जवानी के दिनों में मैंने भी ख़ूब पटा बजाया है। ऐसी उस्तादी थी कि बड़े-बड़े सूरमा मैदान में आने से कतराते थे। आज के लड़के भला क्या जाने यह सब?’’

मुन्नूलाल के कानों में फिद्दू नवाब का नाम पड़ना कि उनके तन-बदन में आग सुलग गई। ख़ुद को रोकते-रोकते भी कह उठे, ‘‘बड़े आए नवाब बनने। काहे के नवाब? अजी, गोमती किनारे उठाईगीरी करते इनकी दो पीढि़याँ तो हमने देखी हैं। नवाबों की जूती भी न देखी होगी। ख़ुद को नवाब कहलाते हैं। कुकुरमुत्ते का नाम गुलाब रखने से वह ख़ुशबू थोड़े ही देने लगेगा।’’

सबके सामने किरकिरी होते देख फिद्दू नवाब भी तन गए, ‘‘अमाँ, धूल में डालो इस पापी को। पंडितों का नाम बदनाम किए हुए हैं। पंडित शास्त्र बाँचता है कि तंबाकू बेचता है? इनसे संस्कृत का एक अच्छर पढ़ा लो सात जनम ग़ुलामी करूँगा। इनके पुरखे परतापगढ़ के किसी गाँव में तालाब की मछलियाँ चुराते पकड़े गए थे। ज़मींदार के ख़ौफ़ से भागकर यहाँ आ बसे और पंडित हो गए। न यक़ीन आए तो इनका पूरा शिज़रा दिखा दूँ।’’

दोनों की बतकही देखकर लोग मज़ा लेने लगे। सीटियाँ बजने लगीं, हो-हल्ला होने लगा। किसी मसखरे ने बात उछाली, ‘‘तो हो जाए मुक़ाबला। हम भी देखें उस्तादों की उस्तादी।’’

‘‘और क्या? वर्ना जंगल में मोर नाचा किसने देखा?’’ दूसरे मसखरे ने फिकरा कसा।

बस फिर क्या था। लाठियाँ लेकर दोनों आमने-सामने। खटाखट लाठियाँ बजने लगीं। दोनों उछल-उछलकर पैतरे भाँजते और अपने-अपने दाँव चलते। नौजवानों जैसी तेज़ी उनमें भले नहीं थी, पर बाना खेलने की कला में दोनों माहिर थे। कुछ लोग दौड़कर ढोल-नगाड़े और मजीरा बजानेवालों को खींच लाए और फिर ‘तिकिन्नड़ा-तिकिन्नाड़ा-किडि़क-किडि़क-किड़-झइयम’ की ऐसी धुन बजी कि चौक का मैदान क़र्बला में तब्दील हो गया। अनोखे रणबाँकुरों को देखने के लिए मजमा इकट्ठा हो गया। गलियाँ जाम हो गईं। इधर के लोग इधर, उधर के उधर। औरतें छतों पर आ गईं। तालियाँ, सीटियाँ, हल्ले-गुल्ले से आसमान गूँज उठा। वह-वह पैंतरे, वह-वह कलाबाजि़याँ कि लोग निहाल हो गए। आखि़रकार जब गोल-मटोल मुन्नूलाल का दम फूलने लगा, साँसें धौंकनी की तरह चलने लगीं तो वह बैठ गए। फिद्दू नवाब तो इसी इंतज़ार में थे। कमर में ऐसे बल पड़ रहे थे कि लग रहा था आज आधे ही घर लौटेंगे। लाठी फेंककर ‘पानी-पानी’ करने लगे। मजमा आगे बढ़ा तो दोनों घर कैसे लौटे, यह तो वही जानते होंगे।

होली के दिन नज़दीक आ रहे थे। मुन्नूलाल की बैठक में सारे चेले-चपाटे इकट्ठा थे। मुन्नूलाल तंबाकू में ख़ुशबूदार कि़माम के छींटें डाल रहे थे। एकाएक एक चेले ने कहा, ‘‘पंडित जी, होली नज़दीक आ गई है। पिछली बार तो हमने फिद्दू नवाब को रंग-रंगकर जोकर बना दिया था। अबकी क्या मंसूबा है?’’

‘‘अबकी कुछ नया सोचना पड़ेगा। पिछले साल उनको घर से निकालने में बहुत पापड़ बेलने पड़े थे।’’ दूसरे ने कहा।

‘‘हाँ, भई, होली के दिन फिद्दू नवाब ताला लगाकर जाने कौन-से बंकर में छिप जाते हैं। उन्हें बाहर निकालना तो टेढ़ी खीर है।’’ कोई और बोला।

‘‘और फिर उन्हें रंगे बिना होली का मज़ा भी कहाँ आएगा!’’ एक और आवाज़ आई।

लेकिन मुन्नूलाल चुप बैठे मंद-मंद मुस्कराते रहे। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद बोले, ‘‘मेरे रहते चिंता किस बात की--‘जहाँ न गले किसी की दाल, वहाँ काम आएँ मुन्नूलाल’। इस बार फिद्दू नवाब को ऐसा रंगेंगे कि उनकी सात पुश्तें याद रखेंगी। पिछले सालों में जो कसर रह गई है, सब इस बार पूरी कर लेंगे।’’

‘‘अच्छा! ऐसा क्या?’’ सबके सब हैरत से मुँह फाड़कर बोले।

‘‘धीरज रखो, समय आने पर सब बता दूँगा। बस देखते जाओ इस बार महाराज को कैसा सबक़ सिखाता हूँ।’’

‘‘पर वह अपने घर से निकलेंगे तब न? पिछली बार क्या-क्या बहाने करके, आवाज़ बदलकर, लालच देकर उन्हें बाहर निकाला था। इस बार तो वह झाँसे में आने से रहे।’’ एक चेले ने कहा।

‘‘बस समय की प्रतीक्षा करो, लाला, इस बार फिद्दू नवाब ख़ुद चलकर मेरी ड्योढ़ी पर आएँगे। फिर लाल-पीला-हरा-नीला जैसा मन आए रंगना।’’

मुन्नूलाल ने सबको फुसफुसाकर अपनी योजना समझाई। सब ख़ुश हो उठे।

देखते-देखते होली भी आ गई। इधर आसमान में सोने की थाल चमकी, उधर चौराहे पर होलिका-दहन की लकडि़याँ इकट्ठी होने लगीं। जब होलिका की लपटें लपलपाईं तो हमेशा की तरह फिद्दू नवाब अपनी कमर में बाम मलकर सेंकने चले आए। इसी बीच अकेले पाकर मुन्नूलाल नज़दीक पहुँचे और हाथ जोड़कर निहायत ही नरम आवाज़ में बोले, ‘‘नवाब भाई, मुझे पता है तुम मेरी सूरत भी नहीं देखना चाहते। नाम भी कानों में पड़ जाए तो नथुने फड़कने लगते हैं। पर होली मेल-मिलाप का त्यौहार है। एक दिन के लिए ही सही। हम पुरानी बातें भूलकर मिलकर त्यौहार मनाएँ।’’

फिद्दू नवाब को ग़ुस्सा तो बहुत आ रहा था पर अपने क़ाबू करते हुए बोले, ‘‘मुझे बेवकूफ़ समझ रखा है। पिछली बार जाने गुलाल रगड़ा था कि शीशे का बूरा, अब तक गाल भब्भा रहे हैं। मैं क्या पागल हूँ जो गत बनवाने तुम्हारे पास आऊँगा?’’

‘‘अरे नहीं, नहीं, आप ग़लत समझे।’’ मुन्नूलाल और विनम्र होकर बोले, ‘‘इस बार गुलाल का टीका भी आपकी मर्जी के बिना नहीं लगाऊँगा।’’

फिद्दू नवाब सोच में डूब गए। गुझिया के नाम से ही उनके मुँह में लार छूटने लगती थी। एक मन आशंका जताता कि बेटा, यह पंडित की कोई नई चाल है, फसियो मत! तो दूसरा मन कहता--नहीं, इस बार वह सच्चे मन से कह रहा है। पिछली बार होली में कमबख़्त मारे ने अपने चेलों से बँसखट को आग के हवाले कर दिया था। इस बार तो पुरानी कुर्सी दरवाज़े ही पड़ी रह गई, किसी ने छुआ तक नहीं। पंडित के मन में खोट होता तो कुर्सी अब तक भसम हो चुकी होती।

चलते-चलते मुन्नूलाल ने फिर गिड़गिड़ाकर आग्रह किया। फिद्दू नवाब घर लौटे तो मन में संकल्प-विकल्प के तूफान सनसना रहे थे। समझ में नहीं आ रहा था क्या करें। बड़ी मुश्किल से उनकी रात बीती।

सुबह होते ही मुहल्ले में होली का हुड़दंग मच गया। जिधर देखो झाँझ और खंजडि़या बज रही है। सूरज सतरंगी धूप बरसा रहा था। फिद्दू नवाब साँकल भिड़ाकर सात ताले डाले बाहर होता हुल्ल्ड़ सुन रहे थे। कभी हुल्लड़ मचाती हुई आवाज़ गली के इस कोने पर गूँजती हुई दूर चली जाती, कभी उधर से होता हुआ हल्ला-गुल्ला इधर आता सुनाई देता। लड़के तो लड़के बड़े भी ‘जोगीड़ा सरारारा’ करते हुए उछल-कूद में बंदरों को मात दे रहे थे। फिद्दू नवाब भले ही सात परतों में छिपे हुए थे, पर हर एक आहट पर ऐसा चौंक जाते थे जैसे किसी ने पीछे से आकर रंग डाल दिया हो।

घड़ी की टिकटिक और धड़कनों की होड़ में बड़ी मुश्किल से दोपहर हुई। गली शांत हो गई। लोग अपने-अपने घरों में रगड़-रगड़कर रंग छुड़ाने में जुट गए। जब गली में एकदम सन्नाटा हो गया तो फिद्दू नवाब की जान में जान आई। खिड़की खोली तो हवा का झोंका पसीना सुखा गया। मन ही मन सोच रहे थे कि इस बार तो कमाल हो गया। कितना भी बचने की कोशिश क्यों न करें, पंडित के चेले-चपाटे रंग ही डालते थे। पर इस बार तो कोई दरवाज़े झाँकने भी नहीं आया। अब फिद्दू नवाब को यक़ीन हो गया कि हो-न-हो मुन्नूलाल सच कह रहे थे। वह सचमुच पुराना बैर भुलाना चाहते हैं।

बस फिर क्या था। फिद्दू नवाब ने सोच लिया कि आज दो लोटे पानी की बर्बादी ही सही। दोस्त के घर जाएँगे तो नहा-धोकर। बकसिया में रखी धराऊ अचकन निकाली, तख़त पर बिछाकर हाथ से सिलवटें दूर कीं, तेल लगाकर बाल सँवारे, टोपी लगाई, इत्र का छिड़काव किया और चल पड़े दोस्त के घर।

उधर जब मुन्नूलाल को चेलों ने ख़बर दी कि शिकार जाल में फँसने आ रहा है तो वे फूले न समाए। उन्होंने पूरी तैयारी कर रखी थी।

फिद्दू नवाब लपककर मुन्नूलाल के गले लग गए। आँखों की नदी में ऐसी बाढ़ आई कि कि किनारों पर कीचड़ इकट्ठा हो गया। पुलककर बोले, ‘‘अमाँ पंडित प्यारे, जितना चाहे गुलाल लगा लो। आज कुछ न कहूँगा।’’

चेलों ने मुन्नूलाल को इशारा किया कि अच्छा मौक़ा है, लपक लो। पर मुन्नूलाल ऐसा कोई ख़तरा मोल नहीं लेना चाहते थे कि फिद्दू नवाब हाथ आने से पहले छिटक जाएँ। उन्होंने गुलाल की कटोरी उठाकर फिद्दू नवाब के माथे पर छोटा-सा टीका लगा दिया और बोले, ‘‘बुरा न मानो होली है।’’

एक चेले ने कहा, ‘‘नवाब चाचा, खड़े क्यों हैं? बैठिए न!’’

पास ही एक कुर्सी पड़ी हुई थी। साफ-सुथरी चमचमाती हुई। ऊपर रेशमी कपड़ा पड़ा हुआ। फिद्दू नवाब सचमुच नवाबों के अंदाज़ में कुर्सी पर बैठ गए। पर बैठते ही ‘फच्च-फट्ट-धड़’ की आवाज़ आई। लगा जैसे कुर्सी पर नहीं सड़े टमाटरों के ढेर पर बैठ गए हों। जब तक वह सँभलते और उठते उन्हें अहसास हो गया कि कुर्सी के नीचे रंग भरे गुब्बारे रखे हुए हैं। उनका पारा सातवें आसमान पर जा पहुँचा। उनकी एकलौती अचकन की ऐसी की तैसी हो गई थी। मारे गुस्से के कुर्सी पर लात मारी तो वह पीछे रखी अलमारी पर टकराई और ऊपर रखा गुलाल का कनस्तर सीधे उनके सिर में फिट हो गया। कनस्तर निकालकर फेंका तो उनकी हालत देखने लायक़ थी। आँखों और दाँत को छोड़कर सारा चेहरा चुकंदर हो रहा था।

मुन्नूलाल योजना के मुताबिक़ चेलों पर चिल्लाते हुए बोले, ‘‘अरे मूर्खो, ये कुर्सी पहले से लाकर यहाँ क्यों लाकर रख दी?’’ फिर फिद्दू नवाब का गुलाल झाड़ने के बहाने सिर पर टीपें लगाते हुए कहने लगे, ‘‘ये कुर्सी पल्टू ठाकुर के लिए तैयार की थी। इन मूर्खों ने पहले ही लाकर यहाँ रख दी। अब आप तो मित्र हैं। मित्रता में कोई छोटा-बड़ा तो होता नहीं। इसलिए यह मसहरी आपके लिए बिछाई थी ताकि हम दोनों साथ-साथ बैठ सकें।’’

यह कहते हुए मुन्नूलाल ने सामने बिछी मसहरी की ओर इशारा किया, जिस पर साफ-सुथरी चादर पड़ी हुई थी।

फिद्दू नवाब ग़ुस्से से फनफनाते हुए बोले, ‘‘चलो यह बात मान लेता हूँ। पर अब जो कोई शरारत हुई तो एक पल न ठहरूँगा।’’

पर यह कहकर वह बैठने चले तो लगा पाताल में धँसे जा रहे हैं। मसहरी तो ढोल का पोल थी। उस पर चादर इस करीने से पड़ी थी कि लगता ही नहीं था कि मसहरी नीचे से ख़ाली है। फिद्दू नवाब नीचे गिरे तो ‘छप्प’ की आवाज़ आई। बैठने की जगह के ठीक नीचे रंग भरा टब रखा हुआ था। फिद्दू नवाब उसमें ऐसा फँसे कि मुन्नूलाल और उनके दो मुस्टंडे चेलों को ताक़त लगाकर उन्हें निकालना पड़ा। उन्हें निकालते हुए मुन्नूलाल सोच रहे थे कि अब तो फिद्दू नवाब का ग़ुस्सा ज्वालामुखी की तरह फूटेगा। पर फिद्दू नवाब उठे और खिसियाई-सी हँसी हँसते हुए बोले, ‘‘अच्छा, अब रंग भरी गुझियाँ भी ले आओ। ख़ाकर बंदरों जैसा मुँह लाल कर लूँ। ताकि फिर चैन से पकवान छक सकूँ।’’

मुन्नूलाल हैरत में आ गए। उन्होंने आश्चर्य भरी निगाहों से चेलों की ओर देखा कि फिद्दू नवाब को उनकी आगे की योजना के बारे में कैसे पता? मुन्नूलाल ने खिसियाते और हिचकते हुए पूछा, ‘‘पर तुम्हें कैसे मालूम कि गुझियों में खोए की जगह रंग भरा है?’’

फिद्दू नवाब ऐसा ठठाकर हँसे कि सब डर गए कि वह पगला तो नहीं गए। नहीं तो भला नाराज़ होने की बात पर कोई इस तरह हँसता है?

फिद्दू नवाब अपनी अचकन निचोड़ते हुए उसी तरह हँसते हुए बोले, ‘‘गुझिया ही क्या, मुझे तो तुम्हारे सारे मंसूबे पता थे।’’

‘‘अरे---?’’ मुन्नूलाल का मुँह हैरत से खुला रह गया।

फिद्दू नवाब ने आसमान फाड़ ठहाका लगाया और बोले, ‘‘यार, कितने इंतज़ार के बाद होली का त्यौहार आता है। तुम लोग साल भर मुझे रंगने के मंसूबे बनाते हो। अब मैं इतना निरदयी भी नहीं कि सारे मंसूबे ढेर करके होली की ख़ुशियाँ फीकी कर दूँ।’’

‘‘मैं तुम्हारे में क्या सोचता था और तुम क्या निकले, नवाब भाई,’’ मुन्नूलाल लपककर गले लग गए और फफक उठे।

फिद्दू नवाब उन्हें अलग करते हुए बनावटी ढंग से ऐंठकर बोले, ‘‘पर एक बात कान खोलकर सुन लो। यह समझने की भूल मत कर बैठना कि मैं तुम्हारा दोस्त हो गया। यह छूट आज तक ही है। कल से हमारी दुश्मनी जस की तस जारी रहेगी।’’

यह कहकर फिद्दू नवाब ने ठहाका लगाया तो उनके साथ मुन्नूलाल और उनके चेले भी शामिल हो गए।