पकड़ना ट्रेन को / प्रतिभा सक्सेना

Gadya Kosh से
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जीवन जिया जाता है दो प्रकार से -एक तो बिना जोखिम उठाये अर्थात् जो होता गया उसी के अनुसार अपने को ढालते गये - सुविधापूर्वक जीते गये। और दूसरा रुकावटें ठेलते हुये, संघर्ष करते हुये, चुनौतियाँ झेलते हुये उत्तेजना पूर्ण जीवन-जीने का, चुनौतयाँ स्वीकार करने का! हर तरह के लोग होते हैं दुनिया में। आप यह मत समझिये कि आधा घंटा भर पहले स्टेशन पहुँच कर ट्रेन का इन्तजार करने के बाद, जब वह धड़धड़ाती हुई स्टेशन पर आई तो उसके रुकने का इन्तज़ार कर इत्मीनान से सामान चढाया और खरामा-खरामा आराम से ऊपर चढ गये। जा बैठे अपनी सीट पर! यह तो बहुत साधारण लोगों का काम है। इसमें कौन बड़ी बात है?

यह ट्रेन पकड़ना नहीं है। ट्रेन पकड़ना तो एक दूसरी ही कला है। बड़े साहस का बड़ी हिम्मत का काम है। वो लोग ट्रेन पकड़ना क्या जाने, मारे डर के जिनकी जान सूखती रहती, जो दो दिन पहले से तैयारी करने में जुट जाते हैं। ट्रेन पकड़ना तो यह है कि, सीटी पर सीटी बजा कर ट्रेन छूट गई, पहिये घूम रहे हैं गाड़ी, बढ़ी जा रही है, उस छूटती हुई को पकड़ना, असली पकड़ना है। लपक कर चलती गाड़ी के दरवाज़े का डंडा पकड़ा और ले झटका घुस गये भीतर। दरवाज़े पास कोई होगा भी तो आदर से हट जायेगा। लोग विस्मय से देख रहे हैं- कैसा जाँ-बाज़, निडर, एकदम हीरो! घुस कर इत्मीनान से सीट पर बैठ गये।

देखना चाहते हैं तो देखिये, कभी जब बिना कसी स्टेशन के अचानक ट्रेन रुक जाती है और पता नहीं लगता कि कब तक रुकी खड़ी रहेगी। उस समय का दृष्य देखिये। हमने तो देखा है- भले ही स्टेशन आया हो तो भी लोग नीचे उतरते भय खाते हैं- पता नहीं कब चल दे -डरपोक कहीं के! कायर लोग क्या ख़ाक जियेंगे! और कुछ लोग आदतन साहसी होते हैं। हर काम निराला! गाड़ी धीमी पड़ते ही प्लेटफ़ार्म आया हो चाहे नहीं, ऊपर से कूद जाते हैं पानी-आनी से निबट लेते हैं। टहल-टहल कर वहाँ की गति-विधियों का रस लेते हैं। ऐसे बहादुर लोग गाड़ी जंगल में भी रुकी हो तो घासों पर या मुँडेर, पत्थर आदि पर इत्मीनान से बैठ कर मुक्त प्रकृति का आनन्द उठाते हैं। कोई एक -दो नहीं अनेक होते हैं ऐसे। कोई साथियों के साथ, कोई अपने आप में मस्त बैठे मज़ा ले रहे हैं, नई जगह का, नये वातावरण का। निश्चिंत बैठे रहते हैं मगन। सीटी देती है गाड़ी। उनकी तल्लीनता में कोई खलल नहीं पड़ता। सीटी बजती है बजती रहे, हमेशा बजती है। कोई कहता है -अरे सीटी बज गई। वे मुस्करा देते हैं।

लंबी गाड़ी धीरे से हिलती है, सिसकारी छोड़ती है, पहिये घूमते हैं। ट्रेन की गति-विधि को देख कर उनकी आँखों में चमक आती है और शरीर में उछाह। गति के वेग पकड़ते ही वे फ़ुर्ती से उठते हैं दौड़ कर खिसकते का डंडा पकड़ कर झटके से भीतर घुस जाते हैं। इसे कहते हैं प्रतिरोधों के बीच जीने की आदत। ये आदत हर लल्लू- पंजू के बस की यह बात नहीं। इसे कहते हैं ट्रेन पकड़ना! पकड़नेवाले के चेहरे की चमक देखिये, उसका विजयी भाव देखिये। यह साहस कुछ बिरलों में ही होता है। बाकी तो दुम दबाये आँखें फाड़े उनको देखते रह जाते हैं। कायर हैं वे, जो डर का ले एहसास जिया करते हैं! साहसी होते हैं जो डट के मज़ा करते हैं!