पकना एक कहानी का / शोभना 'श्याम'
गोष्ठी समाप्त होने पर हम दोनों हिन्दी भवन से निकल रहे थे, जब उन्होंने कहा-" क्या ख्याल है? कहीं बैठ कर चाय पी जाये?
मैंने कहा-"आपका घर तो पास ही है, लेकिन मुझे तो घर पहुँचते-पहुँचते काफी देर हो जाएगी।"
"अरे यार, अभी तो छह ही बजे है, बस थोड़ी देर बैठते है। साढ़े छह भी निकलोगे तो आठ बजे तक घर पहुँच जाओगे। कौन-सा तुम्हें जाकर खाना बनाना है, वह तो भाभी ने बना कर रखा होगा। बड़े दिन से अपने रचना संसार पर भी कोई बातचीत नहीं हुई हैं। अच्छे लेखन के लिए यह विमर्श ज़रूरी होता है।"
मैंने कुछ अनिच्छा से अपनी स्वीकृति दे दी। हम दोनों पास ही के एक छोटे से रेस्तरॉं में बैठ गए। चाय और समोसे के साथ हमारा साहित्यिक विमर्श कुछ बिंदुओं से गुजरता हुआ आजकल के बदलते परिवेश से उपजते सामयिक लेखन पर ठहर गया। मैंने उत्साह की रौ में कला और साहित्य में बाज़ारवाद के हावी होने से सम्बंधित एक प्रसंग सुना कर उसपर लिखी कहानी का भी संकेत कर दिया। वे बोले-"कहानी तो वाकई बढ़िया है, ये कहानी ग्रुप में पोस्ट की है? मैंने तो नहीं पढ़ी?"
मैंने कहा-"अभी नहीं, वरिष्ठ जन कहते है, कहानी को लिखकर कुछ दिन छोड़ देना चाहिए। कुछ समय बाद दुबारा पढ़ने से कई ग़लतियाँ स्वयं ही पकड़ में आ जाती हैं और कहानी सशक्त हो जाती है। वैसे मैं सोच रहा हूँ, आज घर पहुँच कर, दुबारा पढ़ कर आवश्यक सुधार कर के पोस्ट कर दूँ।"
घर पहुँचा तो श्रीमती जी रात के खाने के लिए इंतज़ार कर रही थी। भोजन से निबटते-निबटते नौ बज गए थे। मैंने लैपटॉप खोला, अपनी उपर्युक्त कहानी को फिर से ध्यान से पढ़ा, किसी सुधार की आवश्यकता नहीं लगी सो उसे कॉपी कर पोस्ट करने के लिए 'कहानी ग्रुप' की वॉल पर गया। क्या देखता हूँ कि लगभग आधा घंटे पहले उक्त प्रसंग पर उन हितैषी साहित्यकार की कहानी पोस्ट हो चुकी है, जिस पर कमेंट और लाइक बरस रहे है।
मेरी कहानी रसोई में पकती ही रह गयी थी और मेरी रेसिपी से बनी अन्य कहानी, खाने की मेज पर सबकी थालियों में परोसी जा चुकी थी। मुझे ऐसा लग रहा था, जैसे किसी ने दिन दहाड़े मेरी पॉकेट मार ली हो और मेरे सामने ही मेरे वॉलेट से रुपये निकाल-निकाल कर खरीदारी कर रहा हो।
अचानक एक "हैलो, हैलो" की आवाज़ मुझे इस दृश्य से वापस अपनी लिखने की मेज पर खींच लायी। मैंने पता नहीं कैसे, एक वरिष्ठ साहित्यकार का नंबर मिला दिया था।