पक्षीवास / भाग 2 / सरोजिनी साहू / दिनेश कुमार माली

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सन्यासी...... सन्यासी.... सन्यासी रे !

जंगल में, पेड़-पत्तों में, नदी-झरनो में प्रतिध्वनित हो रही थी यह आवाज। पेड़ पत्तों से पूछ रहा था, पहाड़ पत्थरों से, तो नदी झरनों से पूछ रही थी -

“ सन्यासी को देखे हो क्या ? ”

पत्ते हवा से हिल रहे थे। आपस में बातचीत कर रहे थे। परंतु सन्यासी की माँ पेड़-पत्तों की भाषा कहाँ समझ पाती ? नहीं तो, वह खुद ही पता कर लेती सन्यासी का ठिकाना। जंगल के अंदर काफी लंबा रास्ता तय कर चली आई थी - सरसी। सूरज बीच आकाश में दस्तक दे रहा था। सरसी को डर नहीं लग रहा था। जंगल के अंदर से कीड़े-मकोड़ों की आवाजें सीं सीं सीं.... करके आ रही थी, फिर भी उसको डर नहीं लग रहा था। जंगल के साथ उसकी लड़ाई बहुत पुरानी थी। समय-असमय पर पांच कोस रास्ता तय कर जंगल के अंदर घुस जाती थी, खासकर यह पूछने के लिये कि उसका बेटा सन्यासी गया कहाँ ? इस जंगल के प्रेम में वह ऐसा फंसा कि दुबारा अपने घर की तरफ लौटा ही नहीं!

फिर एक बार थर्राते हुए गले से यह पुकार निकली- “सन्यासी... सन्यासी.. सन्यासी रे !” हवा के साथ मिलकर उसकी यह पुकार पूरे जंगल में गूँज उठी। इसके बाद सब कुछ एकदम शांत स्तब्ध। ‘शमी’ पेड़ के नीचे एक घड़ी ख़ड़ी हुई थी सरसी। आगे जायें या पीछे, दो-दो पांच के चक्कर में पड़ रही थी सरसी। सामने कुछ ही दूरी पर थी ‘उदंती’ नदी। साँप की तरह रेंगती-मंडराती हुई यह नदी आगे जाकर पत्थरों के बीच में सिमट सी गयी। नदी के उस पार फिर कुछ दूरी पर एक जंगल। जिस प्रकार जंगल के वाशिंदे नाचते समय एक दूसरे की कमर में हाथ में हाथ डालते हैं, उसी प्रकार जंगल के पेड़ों की डालियाँ भी एक दूसरे में गूंथी हुई थी। गंभारी, शीशम, सरगी के खूब सारे पेड़। बड़े पेड़, झाड़ियों से इस तरह घिरे हुये थे मानों एक राजा अपनी प्रजा से । जंगल मिला हुआ था पहाड़ों के साथ, पहाड़ चिपके हुये थे आकाश के सीने पर। पत्थर काटने वालों के गीतों की लहरी सुन पा रही थी सन्यासी की माँ। पत्थर काटने की ठक-ठक आवाज की ताल में, मर्द और औरतों के सुरों के स्वर, संगीत की उस माया में सरसी का बेटा ऐसा फंसा तथा पत्थर की खदान में गया तो फिर लौटा ही नहीं। लोगों ने तरह-तरह की बातें की, सरसी सब सुनती रही। लेकिन उसका मन नहीं मान रहा था। कभी-कभी तो उसको लगता था कि उसके बेटे को ‘सुंधी-पिशाचिनी’ ने पत्थरों के बीच छुपा दिया है। निर्दोष बच्चे को देखकर उसका लालच भड़क उठा होगा। इसलिये ठीक ‘धांगड़ा’ (किशोर)होते ही उसको चुराकर ले गयी। खूब जोर-जोर से चिल्लाकर, फिर एक बार सरसी ने पुकारा - कि कहीं पत्थरों को भेद कर इसकी आवाज अपने बेटे के कान तक पहुँचेगी। और हँसते हुये उसका बेटा पत्थरों के बीच में से लौट आयेगा।

मासूम लड़का, क्या समझेगा माँ के मन की बातें? कौन नहीं चाहता है कि उसका बेटा उसकी आँखों के सामने रहे ? इतना छोटा सा था और तब से गया है फादर इमानुअल साहिब के साथ। कितनी उम्र हुई थी उसकी - शायद सात-आठ साल, बस ? साहिब की गाड़ी ने कैम्प डाला था ईसाई बस्ती में। इस समय गांव में ‘डूबन’ पर्व चल रहा था। चार परिवार के लगभग पन्द्रह लोग ईसाई हो रहे थे। उस दिन साहिब एक-एक करके सबको आशीष दे रहा था। इसी समय किसी ने सरसी को खबर दी और पूछा- “तेरा बेटा कहाँ है, सरसी ? कोई खोज खबर की है क्या ?”

“मेरा बेटा तो घर के बाहर खेल रहा था। जमुना काकी के आंगन में खेल रहा होगा।” जबाब दी थी सरसी - "यहीं कहीं मेरा बेटा किसी कोने में होगा।”

“तू इधर दीवारों पर गोबर पोतती रह, मिट्टी लगाती रह, चित्र बनाती रह। और उधर तेरे बेटे को ईसाई बस्ती में ले जाकर ईसाई बना रहे हैं ?”

“क्या बोला ?” मिट्टी-गोबर से लथपथ हाथों से पुआल के लुंधों को फेंककर जल्दी से बाहर आगई। लड़का तो माँ का पल्लू पकड़ कर पीछे-पीछे भागता रहता था, कब और कैसे इतना लंबा रास्ता तय कर चला गया ईसाई बस्ती में ? “तू सच बोल रहा है तो भईया ?” बोलने लगी थी सरसी।

“झूठ क्यों बोलूँगा ? मैं उसी रास्ते से आ रहा था। मैने देखा कि साहिब की बीवी ने तेरे बेटे को टेबल के उपर बैठाया था।”

“भाई, अगर जब तूने उसे देखा ही था तो खींचकर क्यों नहीं ले आया ?”

सरसी का गला सूख गया। सोच रही थी - साहिब की बीबी ने उसके बेटे को टेबल के उपर क्यों बैठाया ? हम लोग तो अछूत हैं। कंध, शबर जाति के लोग भी हमारे हाथ का पानी नहीं पीते हैं। सभी जात-पात मानते हैं। इमानुअल साहिब कहता है कि जात-पात कुछ भी नहीं होती। मनुष्य की जाति एक है। ईसाई बनने पर जात-पात का कोई फर्क नहीं रहता। हम लोग सभी ईश्वर के पुत्र हैं और ईश्वर का सबसे प्यारा पुत्र है यीशु। परमपिता परमात्मा के पास सभी समान हैं। इमानुअल फादर के भाषण को कई बार सरसी ने सुन रखा था दूर से। सुनने में अच्छा लगता था। लगता था कि सही बातें बोल रहा था। लेकिन ईसाई होने की बात सोचने से उसका मन खराब हो जा रहा था।

किसान, खड़िया जाति के लोग ईसाई होने के बाद भी जात-पात को मानते है। उनको वह छूते भी नहीं है। सरसी के दिल की धड़कन बढने लगी। सन्यासी के साथ अगर कंध लड़के मार-पीट करेंगे तो क्या होगा ? पसीने से लथ-पथ होकर ईसाई बस्ती की तरफ भागने लगी सरसी। सन्यासी का बाप वहां नहीं था। वह गया हुआ था ‘चूनाखली’ गांव, किसी काम से। और किससे बोलती वह ?

“भईया, तू उसे खींच कर क्यों नहीं ले आया ?”

“वह आने से तो। तेरा बेटा तो एक कागज के पन्ने पर कुछ लिख रहा था, साहिब की बीवी गाल पर हाथ रखकर देख रही थी उस कागज को।”

“ऐसा क्या लिख रहाथा ? भाड़ में जाये उसका लिखा हुआ। क्या पढ़ा है ये मुआ ! जो साहिब की बीवी को दिखलायेगा ? तू कहीं मुझसे झूठ तो नहीं बोल रहा है, भाई ? बता न, कहाँ गया मेरा बेटा ? मेरा बेटा, मेरा प्यारा सन्यासी, मेरा बेटा, मेरा लाड़ला। अगर उसके पिता को पता चल गया तो मेरी गरदन काट देगा। मेरे दो टुकड़े कर देगा।” रुआंसी होकर बोली थी सरसी।

“मेरी सौगंध, सरसी, तुझसे क्यों झूठ बोलूँगा ? मैं उसे बुलाकर तो ले आता, लेकिन तू समझ नहीं रही है। तेरा बेटा अभी छोटा है, चलेगा। मेरे जैसा बुजुर्ग आदमी अगर एक ईसाई बस्ती में घुसा, तो ये बस्ती वाले क्या मुझे छोड़ देते ? कभी नहीं।”

सरसी पागलों की भांति भागने लगती। साहिब की बीबी अगर उसके बेटे को ईसाई बना देती है तो बात खत्म। उसका पति उसे रहने नहीं देगा। सरसी बेसुध-सी हो जाती। होश होता तो शायद यह सोचती कि इस बस्ती में उनके लिये जाना मना है। वह जानती थी की अगर किसी ने कहीं धान की कुलथी सुखायी हो, और अगर सरसी उसे छू भी लेती, गलती से, तो लोग उसे मारने दौड़ेंगे। क्या मर्द, क्या औरत सभी एक साथ टूट पडेंगे ? लेकिन सरसी के रहते उसका बेटा कैसे ईसाई हो जायेगा ? दूर से खड़ी होकर सरसी देख रही थी - साहिब की बीवी कुर्सी पर बैठी हुई थी। बकरी के दूध की तरह गोरा-चिट्ठा चेहरा। साड़ी तो जरुर पहन रखी थी, पर इस देश के औरतों की तरह नहीं दिख रही थी। लाल होंठ, सोने जैसे बाल, हँसते हुये उसके बेटे के कान में मंत्र फूँक रही थी। ‘ डूबन मंत्र’? कैम्प के भीतर जाने में डर लग रहा था सरसी को। वह सब दूर से खड़ी होकर देख रही थी। उसका बेटा कलम पकड़ कर लिख रहा था ध्यान-मग्न होकर। सन्यासी कभी स्कूल तो गया नहीं था, कभी खड़ी भी नहीं पकड़ी थी। एक कलम पकड़कर ऐसी क्या ज्ञान की चीज लिख रहा है वह? उसके बेटे को वश में तो नहीं कर लिया है साहिब की बीबी ने ?

कौन जानता है ‘डूबन मंत्र’ पढ़ने से मनुष्य वश में नहीं हो जाते होंगे ? नहीं तो, आधे गांव के लोग, गुट के गुट बनाकर, दादा-परदादा सहित सभी, समय की मर्यादा तोड़कर ईसाई क्यों बन जाते ?

लगता है उसके बेटे को किसी ने सम्मोहित कर लिया है। वह कुछ भी नहीं कर पा रही थी। शेर के मुंह से उसके बेटे को निकालने का साहस रखती थी सरसी, पर पता नहीं क्यों साहिब की बीबी को देखकर उसे डर लग रहा था।

सरसी को पता था, सन्यासी का पिता अपने बेटे को लेकर खूब सारे सपने संजोये रखता था। पढ़ाई करेगा, कलेक्टर बनेगा। उस समय से जब सन्यासी उसके पेट में था। उसका बाप सपना देखता था कि उसका बेटा बड़ा साहिब बना है, कलेक्टर बनकर, जीप में बैठकर, धूल उड़ाते हुये गांव में आया है, उनके जैसे मनुष्यों को न्याय दिलाने के लिये। इसलिये वह सन्यासी को कभी सन्यासी कहकर नहीं बुलाता था, पुकारता था कलेक्टर साहिब के नाम से। उसको पूछा करता था कलेक्टर का मतलब जानती हो, सरसी ?

“मैं कैसे जानती ?”

“कलेक्टर होता है हमारे मुल्क का राजा, समझी ? तेरा बेटा कलेक्टर बनकर हाथी की पीठ पर घूमेगा।”

“तू खाली सपना देखता रह,समझे ” बोली थी सरसी। “एक वक्त का भोजन तो एक वक्त का उपवास। उसमें इतने सारे सपने ?”

“सपना कौन नहीं देखता है ? बोल तो सरसी ! तू नहीं देखती है क्या ?”

सन्यासी की माँ अपने पति को चिढ़ा रही थी, लेकिन क्या वह सपने नहीं देखा करती थी अपने पहले बेटे को लेकर ? वह भी चाहती थी कि उसका बेटा भले ही कलेक्टर न हो, परन्तु गांव-गांव घूमकर लाशों की हड्डियाँ इकट्ठा कर पेट न पाले।

बड़े ही बुरे दिन में हुआ था सन्यासी का जन्म। बस्तियों के बीच में हो रही थी आपसी लड़ाई-झगड़ा, मारपीट। घनश्याम सतनामी की बीबी ने अपनी मूर्खता से इस झमेले को बढ़ा दिया था। भरी दुपहरी में जब, ऊपर वाली बस्ती वालों के तालाब से नहाकर वापिस आ रही थी ‘सुना’। यह तालाब सतनामी लोगों के लिये नहीं था। जानते हुये भी ऐसी भूल क्यों की थी उसने? उसको ही मालूम होगा ? सुना को आते देख लिया था बटो नायक ने। जब सुना पत्थर की सीढ़ियों से होकर आ रही थी, चुपचाप बिना आवाज के, दबे पांव आ जाना चाहिये था। लेकिन झगडा करने लग गयी वह झगडालू औरत बटो नायक के साथ। बोलने लगी "छुप-छुपकर तालाब के नीचे प्यार फरमाते हो तो अछूत नहीं होते ? और इतने बड़े तालाबमें, मैं एक बार क्या नहा ली तो तुम अछूत हो गये।" सुना थी ही बड़ी मुँहफट। बटो नायक की पत्नी होते हुये भी वह सुना की तरफ ललचायी नजरों से देखता था। ऐसी बातों को तो छुपा कर रखना चाहिये था लेकिन उसने तो पूरी की पूरी पिटारी ही खोल दी।

और एक सज्जन की सज्जनता हो गई पूरे जग में जाहिर। सुना एक पल के लिये भूल गयी थी अपने मान-सम्मान की बात को। बटो नायक के बारे में वह बेशर्मी से बोलती गयी। एक की बात पांच को पता चली। बस टूट पड़े ऊपर वाली बस्ती वाले, लाठी फरसा लेकर, उनकी बस्ती पर। बढ़ते-बढ़ते बात इतनी बढ़ गई कि हाथापाई में सुना के देवर ने बटो नायक के बेटे को जान से मार दिया। तब होना ही क्या था ? ऊपर वाली बस्ती वालों ने क्रोधित होकर उनकी बस्ती में आग लगा दी। धूं-धूं करके आग जलने लगी।

घर-द्वार सब जल गये। चारों तरफ रोने-धोने की आवाजें आ रही थी। पुलिस बिना सोचे-समझे उनकी बस्ती से लोगों को पकड़ कर ले जा रही थी। अंतरा उसी समय किसिंडा से आकर घर पहुँचा था। उसके ऊपर भी उतरा, ऊपर वाली बस्ती वालों का गुस्सा। इतना मारा, इतना मारा कि उसका एक पैर टूट गया। वह लंगड़ा कर पांव घसीट-घसीटकर चल रहा था। दर्द के मारे वह कुछ समझ भी नहीं पा रहा था। इतना होने पर भी पुलिस उसको बांध कर ले गयी थाने।

सुना मुंह छुपाकर भाग चली थी उसके बाप के घर- कांटाभाजी। उसकी सास चिल्ला-चिल्लाकर उसे गाली दिये जा रही थी, सिर से पांव तक। शहर की लड़की को बहू बनाई इसलिये आज यह नौबत आयी। वह अपनी किस्मत को गाली दे रही थी। इस समय सरसी थी बैचेन ओर बेकाबू। उस समय पेट के अंदर से निकलने का रास्ता ढूंढ रहा था सन्यासी। सिर के ऊपर छत नहीं थी। छप्पर सब गिर गया था। बड़ी बरगाह से धुआं उठ रहा था। चारों तरफ से रोने की आवाजें आ रहीं थी पूरे बस्ती भर में। सिर छुपाने के लिये जगह नहीं थी इसलिये सरसी की सास, उसे महुआ के पेड़ के नीचे, उसके लिये व्यवस्था कर रखी थी। सब अपना-अपना बासन, बरतन, कपड़ा-लत्ता, छप्पर के नीचे में ढूंढने में व्यस्त थे। कोई-कोई तो अपना घर भी सजाना शुरु कर दिये थे, तो कोई कोई अपने घर की लीपापोती भी शुरु कर दी थी। पुरंदर बुढ़ा चिल्ला रहा था - “ऐसे ही रहने दो, कलेक्टर को आकर सब कुछ देखने दो। साले लोगों ने क्या हाल बनाया है हमारा ? तुम लोग अगर लीपापोती कर घर को सजा दोगे तो कलेक्टर देखेगा क्या ? छिलका ? तुम लोगों को घर बनाने के लिये पचास-सौ रूपया मिलता, वह भी नहीं मिलेगा।”

सरसी की सास अपना टूटा हुआ घर सजाने में लगी हुई थी। इतनी बुरी हालत में उसकी बहू का प्रसव होने जा रहा था। बच्चा निकलने के लिये रास्ता देखने लगा। कहाँ रहेगा उसका नाती ? बुढ़ा पुरंदर की बात को अनसुना कर काम में जुट गई थी, वह। अंतरा को पकड़ लिया था पुलिस ने। सरसी का मन उदास हो गया था। पुरंदर बोल रहा था पुलिस अंतरा को अस्पताल भेजेगा। उसका इलाज करवायेगा। सरसी के पेट को जैसे भीतर में कोई नोच रहा था। पेट फटने जैसा हो रहा था। आंसूओं से उसकी आँखे पसीज गयी थी। चारों तरफ उसे अंधेरा ही अंधेरा नजर आ रहा था। “कहाँ है मेरी माँ? मुझे पकड़, मुझे बचा !” दर्द से चीत्कार रही थी वह। पास में कोई नहीं था उस चीत्कार को सुनने के लिये। अपनी जान बचाने के लिए उसने महुआ के पेड़ के तना को जोर से जकड़ लिया था। पास में बैठी हुई थी काली कुत्ती, पूंछ हिलाकर कूं-कूं कर कुछ कहना चाहती थी। शरीर पसीने से तरबतर हो गया था। आँखों से धुंधला-धुंधला दिखाई दे रहा था। शरीर से कपड़े भी गिर गये थे। सरसी आकाश की भाँति नंगी, मिट्टी की तरह सहनशील हो गयी थी। दोनों हाथों से कोशिश कर रही थी शरीर को ढंकने की।

“हे सूर्यदेव!आप अपनी आँखे बंद क्यों नहीं कर लेते हो ?”

“हे भगवान!औरतों को यह तकलीफ मत दो।” आँखों से निरंतर आँसूओं की झड़ी लग रही थी। जैसे जमीन के भीतर से कोई झरना फूट पड़ा हो। देखते-देखते वातावरण कंपित हो उठा “ऊँआ...ऊँआ..” की आवाज से।

“अरे, मेरा प्यारा कुलदीपक, आ गया, आ गया!” भागती हुयी मिट्टी से सने हाथ लेकर पहुँच गयी सरसी की सास। अभी जन्मे बच्चे के लिंग का अनुमान कर हाथ धोने के लिये भागती हुयी गयी। इधर सरसी, फिर भी टूटती ही जा रही थी। बूढी ने झटपट आकर सन्यासी को जमीन से उठा लिया। अभी तक बच्चे की नाड़ी, फूल से अलग नहीं हुई थी। उस नाड़ी से बच्चा अभी तक माँ से जुड़ा हुआ था।

“दबा, दबा जोर लगा, जोर लगा” बूढी ने समझाया सरसी को,

“मेरी तरफ क्या देख रही है, बावरी ?”

“हे माँ! अब मैं क्या करुँ ? किसको बुलाऊँ? हे अंतरा, तेरी औरत को आज कोई नहीं बचा सकता। तेरी औरत आज मरेगी।”

“तेरी दुनिया को मेरे गले थोपकर छोड़ कर जा रही है तेरी औरत, देख !”

“बच्चे को और कितना देर चिपका कर रखोगी ? दे जोर दे, जोर दे।”

बड़ी ही दयनीय दशा थी उसकी। बूढ़ी की गोद में बच्चा अपनी माँ की तरफ टुकर-टुकर देख रहा था। गोद में लेते ही प्यार करने की इच्छा उमड़ आयी। महुआ के पेड़ का सहारा लेकर सरसी खूब जोर से अपने पेट पर दबाव डालने की कोशिश कर रही थी। निर्दोष बच्चे की खातिर उसे जिन्दा रहना होगा। वह जिन्दा रहेगी अपने कलेक्टर के लिए। देखते ही देखते एक तेज तूफान थम-सा गया। और उसके चेहरे पर छा गयी, एक मंद-मुस्कान। सास ने कपड़े को उसके शरीर पर लिपटा दिया और उसने तेज समुद्री-सीपी की खोल से उसकी नाड़ी काट दी। नाती को पाकर, बूढी की खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। एक पल के लिए वह भूल-सी गयी की उसका बेटा पुलिस की हिरासत में है, वह कष्ट में है। लेकिन सरसी का मन तड़प रहा था अंतरा के लिए। पास में अगर होता तो कितना खुश होता ! मारपीट से उसका एक पैर टूट गया था। अंदर में हड्डी टूटी कि क्या, पता नहीं ? किंसिंड़ा में अगर कुछ देर रूक जाता, तो जरुर बच जाता। कितना कष्ट हो रहा होगा बेचारे को ? इतना ही नहीं, फिर पुलिस भी घसीट कर लेगयी। हत्या का केस लगा हुआ है, पता नहीं कब छूटेगा ? क्या उसे इतने बुरे समय में बेटे को जन्म देना था ? किसी भी तरह से वह अंतरा को खबर कर पाती कि उसके बेटे का जन्म हुआ है। जेल में होते हुये भी वह कितना खुश हो जाता। उसका बेटा कलेक्टर होगा, फिर से नये सपने बुनना शुरू कर देता।

सपने देखने में कोई किसी को रोक सकता है भला ! जिस दिन अंतरा जेल से छूटकर आया था, बेटे को लेकर खूब देर तक दुलार करता रहा।

“ आज से तेरा नाम कलेक्टर, समझे ? सरसी, आज से मेरा बेटा कलेक्टर।”

सुकोमल-सा नन्हा कलेक्टर बचपन से ही उदास-सा रहता था। इधर-उधर कहीं भी, ध्यान नहीं। खाना मिला तो ठीक, नहीं मिला तो भी ठीक। न किसी प्रकार का कोई लोभ था, न किसी प्रकार की कोई जिद। जहाँ बैठा तो वहाँ बैठा ही रहता। कहीं उसका बेटा सन्यासी न बन जाये। इस बात का डर सरसी को बराबर सता रहा था। बच्चों के साथ खेलने के लिये उसको जबरदस्ती गांव में भेजा जाता था। इन्हीं गुणों को देखकर, वह उसे प्यार से बुलाती थी सन्यासी। लेकिन सन्यासी एक दिन साहिब के कैम्प में चला जायेगा, यह उसको पता नहीं था। कभी-कभी यह लड़का जंगल की तरफ चला जाता था। नदी के किनारे बैठ जाता था। लेकिन साहिब के कैम्प में ?

उस दिन सन्यासी कागज पर क्या-क्या लिख रहा था ? लिखते ही जा रहा था। साहिब की बीवी उसे ध्यान से देख रही थी। साहिब की बीवी के चंगुल से कैसे छुड़ा पायेगी उसको ? यह समझ नहीं पा रही थी सरसी। पेड़ों से, आकाश से, नदी से, चिडियों से बैचेनी के साथ पुकार उठती थी सरसी “सन्यासी, सन्यासी रे..।” जानते हुये भी उधर हिम्मत नहीं कर पाती थी।

जैसे ही सन्यासी का ध्यान भंग हुआ तो कागज से मुंह उठाकर इधर-उधर देखने लगा। कुछ ही दूरी पर खड़ी थी उसकी माँ। कुर्सी के ऊपर से कूदकर भागने लगा अपनी माँ को मिलने।

बेटे को गोद में लिये, झूठा-मूठा मारते हुये, उस पर अपना अधिकार जताते हुये, उसके शरीर पर से धूल झाड़ते हुये, क्या-क्या सब झाड़ती ही जा रही थी सरसी ? कुरता नहीं, खुला बदन, पहन रखी थी सिर्फ एक पैण्ट। फिर भी पीठ पर से उसके, क्या-क्या झाड़ती ही जा रही थी सरसी। क्या झाड़ रही थी ? क्या ईसायत से भरी धूल, या साहिब की बीवी की काली नजर ?

दोनों वापिस जा रहे थे अपने घर की तरफ। साहिब की बीवी हाथ हिलाकर बुला रही थी। सरसी थम गयी। वह किसको बुला रही है, वह उसको या उसके बेटे को ? फिर क्यों बुला रही है ? क्या कर दिया है उसके बेटे ने ऐसा ? देखते हुये भी, अनदेखी कर मुँह घुमाकर वहाँ से चली आई सरसी। साहिब की बीवी, चौकी से उठकर, पीछा करते हुये उसके पास पहुँच गयी। पास्टर पाढी बुलाने लगे “ऐ चमारन ! जरा सुन तो ।”

पास्टर का चेहरा जाना पहचाना लग रहा था। सरसी ने थोड़ी हिम्मत जुटायी और दो कदम पीछे लौटी और पूछने लगी “मुझे बुला रहे थे क्या? मेरा बेटा ईसाई नहीं बनेगा। इसका पिता घर पर नहीं है। वह चुनाखली गया हुआ है।”

उसे लग रहा था जैसे कि उसने अपने बेटे से हाथ धो लिया हो। रूंआसी होकर बोली “मैं जा रही हूँ, नहीं नहीं, उसका बाप घर पर नहीं है।” कुछ दूर आकर उसने तड़ाक से बेटे की पीठ कर मुक्का जड़ दिया। बोलने लगी “मर क्यों नहीं गया ? कैम्प में जो चला गया ?” सन्यासी जोर से भैं भैं कर रोने लगा। पास्टर पाढी हँसते हुये बोले “उल्टा-पुल्टा अंटसंट क्या बक रही हो ? पहले सुन तो सही, मैम साहब क्या बोल रही है?”

साहिब की बीवी ने एक कागज लाकर दिखाया जिस पर बने हुये थे एक-एक करके तोता, मैना, गाय, भैंस तथा फूल के चित्र। जैसे सरसी बनाया करती थी अपने घर की दीवारों पर। इतना छोटा-सा बच्चा कितनी अच्छी तरह से सीखा है अपनी माँ से।

“मैम साहिब, बहुत खुश है, तेरे बेटे को माँग रही है, दे दे तो आदमी बना देगी।” सरसी चकित रह गयी। क्या इसका बेटा आदमी का बच्चा नहीं है? बड़ा होने पर क्या वह कोई काम धंधा नहीं कर लेगा ? ये मैम साहिब फिर इसको क्या आदमी बनाएगी ? सरसी को ड़र लग रहा था। उसको पता था कि वह एक डायन है। दूसरों के बच्चों को इतना लाड़-प्यार कर रही है। डायन नहीं, तो फिर क्या ? बहला फुसला कर ले जायेगी उसके बेटे को। रात भर खून चूसेगी। बेटे को मौत के मुँह से जैसे निकाल कर लायी हो, यह सोचकर भागने लगी सरसी। भागते-भागते दो और मुक्के जड़ दिये बेटे की पीठ पर। दाँत दबाकर माँ की मार को सह गया सन्यासी। दोनों के अगला मोड़ पार होने पर सन्यासी ने अपनी बन्द मुट्ठी खोली । माँ ने देखा उसकी हथेली में थी दो चाकलेटें।