पगडण्डी अकेली नहीं / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
जब हाइकु की बात चलती है तो प्रथम दृष्टया मोटे तौर पर एक अवधारणा उभरती है -5-7-5 वर्णक्रम का जापानी छन्द । बस इतना ही समझकर उत्साही लेखकों ने कई सौ हाइकु लिख डाले । मुड़कर कभी यह देखने की आवश्यकता नहीं समझी कि इस 5-7-5 के वर्णक्रम –बन्ध में काव्य कितना है ? यहाँ यह समझना ज़रूरी है कि यह 5-7-5 वर्णक्रम का न कोई खेल है , न कोई कवि बनने का शॉर्टकट। हाइकु क्योंकि अल्पतम सार्थक शब्दावली में कसी हुई भावाभिव्यक्ति है,अत: किसी भी प्रकार का शैथिल्य उसको काव्य के दायरे से बाहर कर सकता है। बहुत सारे ऐसे भारी भरकम हाइकु-संग्रह मिल जाएँगे , जिनमें से 5-6 अच्छे हाइकु ढूँढ़ निकालना टेढ़ी खीर है । यह भागमभाग वाली विधा नहीं है और न एक हाइकु को जैसे –तैसे केवल पढ़कर दूसरे हाइकु पर पहुँचने की रिले रेस है । हाइकु समझने के लिए गहन एकाग्रता , पर्यवेक्षण और धैर्य की आवश्यकता है ।
‘पगडण्डी अकेली’ डॉ कुँवर दिनेश सिंह का हाइकु-संग्रह है , जिसमें इनके 50 हाइकु हैं। हर हाइकु अपना अलग शेड्स लिये हुए है । एक पृष्ठ पर एक हाइकु दिया गया है , जो पाठक को रुककर , धैर्यपूर्वक कुछ देर भाव को आत्मसात् करने का अवसर देता है ।यह अवसर तभी मिल सकता है , जब हम सतही सोच से ऊपर उठकर कवि की संवेदना को समझने का प्रयास करें। रस शास्त्र में इसे साधारणीकरण कहा गया है । कवि का जो सम्प्रेष्य है , हम वहाँ तक पहुँचने का प्रयास करें , तभी हाइकु का रसास्वाद्न किया जा सकता है-
आओ वन में / कवि-सा अनुभवें / खोए मन में ।
पगडण्डी का अपना सौन्दर्य है । वह आसपास के पेड़ों से बतियाती आगे बढ़ती जाती है ।वह अकेली नहीं, सबके साथ जुड़ी है । उसका अपनी तरह का अनगढ़ ,प्रकृत अकेलेपन का सौन्दर्य अपनी ओर खींच लेता है । उसमें प्रयासपूर्वक और योजनाबद्ध विधि से बनाई गई सड़क की एकरसता नहीं होती -
चीड़ों के बीच / पगडण्डी अकेली /लेती है खींच ।
एकान्त तो पगडण्डी को भी अखरता है ।वह भी बहुत बेकली से पथिक का इन्तज़ार करती है । यह इन्तज़ार उसके मन को भी बेचैन करता है , ठीक उसी तरह जैसे हम किसी के लिए प्रतीक्षाकुल होते हैं । यही वह दृष्टि ( विज़न) है ,जिसकी अपेक्षा प्रमाता से की जाती है ।‘जोहती’ शब्द का प्रयोग केवल प्रतीक्षा को ही अभिव्यक्त नहीं करता ,बल्कि उसमें निहित व्याकुलता को भी अर्थ प्रदान करता है -
राह एकान्त / पथिक को जोहती /हुई अशान्त ।
अगले हाइकु में आकाश का एक दृश्य बिम्ब उभरकर आता है –ममता –भरी आँखों का । वह ममता किसी एक के लिए नहीं है , सबके लिए है ,समता से भरी , पूरी सृष्टि के लिए -
समता- भरी /आकाश की आँखें हैं /ममता-भरी ।
यह आकाश तो सबका स्वागत करने को तत्पर है।स्वागत औपचारिक नहीं ,मरे मन से नहीं ,वरन् ‘बाहें फैलाकर’ स्वागत करता है।हाइकु में हर शब्द के साथ उसका निश्चित अर्थ समाहित होता है । दूसरा कोई पर्याय इस मुहावरे का विकल्प नहीं हो सकता । कोहरे के लिए बाहें फैला दीं तो पूरा आकाश कोहरे से भरा नज़र आएगा-
कोहरा छाए / स्वागत में आकाश /बाहें फैलाए ।
जीवन का सौन्दर्य की बात करें तो खड्ड में गिरकर टकराता पानी आहत नहीं होता, क्षत-विक्षत नहीं होता , क्योंकि वह पानी है ,रवानगी उसका गुण है , टकराना उसकी फ़ितरत है । टकराने पर भी वह कितना मस्तमौला है कि रागिनी ही गाता है , आह ! उह! नहीं करता । गिरता भी वह खड्ड में है , किसी छोटे-मोटे गड्ढे में नहीं। ‘खड्ड’ शब्द का प्रयोग अपनी अलग अर्थवत्ता लिये हुए है-
खड्ड में पानी / अश्मों से टकराता /गाए रागिनी ।
एक दूसरे हाइकु में कवि सलिल के सिल से भिड़ने इसी जुझारूपन की पुष्टि करता है । सिल से भिड़ना आसान नहीं है ।‘जीता’ शब्द का यमक अलंकार के रूप में अनायास सुन्दर प्रयोग हुआ है॥ यह पानी ही है कि सिल से भिड़ने पर भी जीवित रह गया , वरना सिल से भिड़ने पर कोई बचता ही कहाँ है-
सलिल जीता / सिल से जो भी भिड़ा /आया न जीता ।
आवर्त के कारण परिखा में भटकते जल-प्रवाह का सौन्दर्य आँखों के आगे साकार हो जाता है -
जल-प्रवाह /परकोटे में रूँधा /खोजता राह ।
हवा कवि के हाइकु में कई रूपों में दृष्टिगोचर होती है। कहीं वह टूटे पत्तों को सांत्वना देने वाली है , कहीं वह सूखे पत्तों की झाड़-बुहार करने वाली है , तो कहीं वह चुपचाप आकर दरवाज़ा खटकाती है , कहीं उसका आँधी का रूप है । अभी कुछ देर पहले जो पत्ते बिखरे पड़े थे , आँधी उनको न जाने किस देश उड़ा ले गई । उनका कोई अता –पता नहीं है-
करुण हवा /शाख-टूटे पत्तों को /देती सांत्वना ।
आई बयार / सूखे-गिरे पत्तों की / करें बुहार ।
आती है पौन / दर को खटकाती /रहती मौन ।
यहाँ थे पत्ते /आँधी आई थी अभी /कहाँ हैं पत्ते ?
यहाँ कवि के शब्द –चयन और भाषा पर ध्यान देना बहुत ज़रूरी है । हवा सब हाइकु में ‘हवा’ तक सीमित नहीं है ; वह बयार है , पौन है । अपना एक माधुर्य लिये हुए । चौथे हाइकु में वह आँधी हो गई । हाइकु के लिए यह भाषिक संयम बहुत ज़रूरी है। सूनी डगर पर हवा का क्या काम है ? वह यों ही नहीं आई है । इस बातूनी हवा को बात करने के लिए कोई तो पथिक मिलेगा ! इसकी यह बतियाने की लत ही इसको पगडण्डी तक ले आई है -
डगर सूनी / जी बहलाने आई /हवा बातूनी ।
जंगलों में लगने वाली आग बहुत भयावह होती है । पलभर में वह कितना कुछ स्वाहा कर जाती है ! आगे की चपेट में आया मृग-दल का चिल्लाता रह जाता है , चीड़ के पेड़ इतने असहाय हो जातेर हैं कि आग लगने पर चुपचाप बलते रहते हैं । कवि ने ‘जलने’ के अर्थ में ‘बलने’ का बहुत ही सार्थक प्रयोग किया, रौशनी फैलाते हुए दीपकों की तरह बिना उफ़ किए -
वन-अनल / चिल्लाते रहे वृथा /मृगों के दल ।
चीड़ जलते / जंगल की आग में /चुप्प बलते ।
पगडण्डी के बहाने जीवन के आचरण को भी व्याख्यायित कर दिया है । किसी के पथ में काँटे बोने वाले को उन्हीं काँटों-भरी डगर से होकर आगे बढ़ना होगा ; तब पता चलेगा कि नकारात्मक जीवन –दृष्टि किस प्रकार दु:खद होती है !
कण्टक बोए /दूसरों की राह में /खुद भी रोए ।
थके –माँदे सूरज का किरनों द्वारा ढोना –में सूरज का थका –माँदा होना और मन मारकर किरनों द्वारा उसको ढोना, एक पूरा सचल बिम्ब आँखों के आगे प्रत्यक्ष हो उठता है -
किरने ढोएँ /थका -माँदा सूरज /पूछे न कोए ।
प्रकृति का अवगाहन करते हुए कवि की यात्रा जब मेघों तक पहुँचती है , तो एक साथ ध्वनि के साथ बिजली की चमक लागता है जैसे पानी में आग लग गई हो ।वैज्ञानिक रूप से भी पानी ऑक्सीजन और हाइड्रोज़न का संयोजन तो है ही। पावस की ॠतु में लगता है जैसे जुगनू आँख-मिचौली खेल रहे हों। बादलों के बरसने का कारण कवि ने उसका ग़मज़दा होना बताया है । परदु:ख कातर होना बादल का गुण है -
मेघों का राग /भर रहा है देखो /पानी में आग ।
पावस-रात /खेले आँख-मिचौली /जुगनू साथ।
उदास आए /ग़मज़दा बादल / आँसू बहाए ।
वासन्ती मौसम का चित्रण आमों के बौर से शुरू होता है । फाल्गुन का मौसम आने पर धरती पूरी तरह जीवन्त हो उठती है ।इसी से धरती की जिजीविषा का पता चलता है -
वासन्ती दौर / मन को मोह रहे /आमों के बौर ।
रुत फाल्गुनी /धरा की जिजीविषा /बढ़ी चौगुनी ।
प्रत्येक पृष्ठ पर खूबसूरती से मुद्रित एक-एक हाइकु अनुभूति का पर्याप्त अवसर देता है । हिन्दी में डॉ सुधा गुप्ता , डॉ उर्मिला अग्रवाल और डॉ भावना कुँअर के इस प्रकार के संग्रह आ चुके हैं। अंग्रेज़ी में Love Haiku : PATRICIA DONEGAN, और बच्चों के लिए लिखे GUYKU by BOB RACZKA( ART BY-PETER H.REYNOLDS) तथा HANUKKAH HAIKU by MARRIET ZIEFERT संग्रह महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि इनमे भी एक पृष्ठ पर एक ही हाइकु दिया गया है। पगडण्डी अकेली संग्रह उत्कृष्ट हाइकु की परम्परा में अपनी दस्तक देने में समर्थ है। जो अच्छे हाइकु रचना चाहते हैं ,उन्हें यह संग्रह ज़रूर पढ़ना चाहिए ।
पगडण्डी अकेली ( हाइकु-संग्रह): कुँवर दिनेश ; मूल्य:225 रुपये ;पृष्ठ :64 ; संस्करण: 2013,प्रकाशक ;अभिनव प्रकाशन,4424, नई सड़क, दिल्ली-110006