पगड़ी की आख़िरी गाँठ / जयप्रकाश मानस

Gadya Kosh से
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वह स्टेशन के बेंच पर बैठा अपनी पगड़ी सँभाल रहा था जब मैंने पहली बार उसे देखा। सूती कपड़े की वह धूलभरी पगड़ी उसके काँपते हाथों में किसी अंतिम विरासत की तरह लिपटी हुई थी।

"बाबूजी, ये पगड़ी..." मैंने हिचकिचाते हुए पूछा।

उसकी आँखों में एक झरना फूट पड़ा-"बेटा, ये मेरे बेटे की है। आज से ठीक एक साल पहले, जब वह इसी स्टेशन पर उतरा था, किसी ने सिर्फ़ इसी पगड़ी के लिए उसे..."

उसका गला भर आया। मैं जानता था कि पिछले साल यहाँ के स्टेशन पर एक युवक की हत्या सिर्फ़ इसलिए कर दी गई थी; क्योंकि उसकी पगड़ी 'गैर-स्थानीय' लग रही थी।

"बेटा, मैं हर हफ़्ते यहाँ आकर इसे बाँधता हूँ," उसने कहा, "जैसे इसी तरह बाँधता हुआ वह कभी मुझे दिख जाएगा।"

अचानक उसने पगड़ी खोली। मैं चौंक गया-उसके सिर पर गहरे निशान थे, जैसे कोई ताज़ा ज़ख़्म।

"ये?"

"वही दिन...जब मैंने अपनी पगड़ी उतारकर उसके सिर पर रखी थी...लोगों ने मेरे ही सिर पर पत्थर मार दिए थे।"

ट्रेन के आने की आवाज़ ने हमें चौंकाया। उसने फिर से पगड़ी बाँधनी शुरू की। मैंने देखा-उसकी हर गाँठ में एक नाम बँधा हुआ था: सहिष्णुता, संस्कृति, मानवता...

और अंतिम गाँठ जो बची थी, उसमें बस एक ही शब्द था– 'इंसान' ।


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