पगध्वनि की अनुगूँज / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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साहित्य का काम दीवारें खड़ी करना नहीं, बल्कि दीवारें तोड़ना हैं। वे दीवारें जो सामंजस्य में बाधक हैं, जो भेदपूर्ण दृष्टि से निर्मित होती हैं, जो रचनाकार को मानवमात्र न समझकर उसे कई चौखटों में बाँटकर मूल्यांकन करती हैं, वे दीवारें जो किसी वर्ग विशेष को घेरने के लिए, सीमित करने के लिए ही बनाई जाती हैं। मुझे मेरे एक मित्र ने अपना कविता का ब्लॉग बनाने का इरादा जताया। कहाँ से शुरू किया जाए, किसे पहले अंक में लिया जाए, इन सब बातों पर चर्चा हुई. तय हुआ कि मित्रो को छोड़कर किसी भी अच्छे रचनाकार को ले लिया जाए. नाम निश्चित हुआ एक कवयित्री का, जिसकी कविताएँ पाठक के मन में तक गहरे उतरती थीं। उनकी कविताएँ पोस्ट होते ही मित्र को सुनना पड़ा-'आपको कोई पुरुष नज़र नहीं आया? महिला से ही ब्लॉग-ब्लॉग शुरू कर दिया।' मित्र का हैरान और दु: खी होना स्वाभाविक था। अगले अंक में एक कवि को लिया, जो दिल्ली से बाहर का था। फिर सुनने को मिला–'क्या दिल्ली में कोई कवि नहीं बचा। कवि की शक्ल न सूरत न रूप न रंग।' मित्र का दोष इतना ही था कि वह अच्छे रचनाकर को लेना चाहते थे।

जहाँ इस तरह की मानसिकता हो, वहाँ यह ज़रूर सोचना पड़ेगा कि आखिर हम साहित्य में कहना क्या चाहते हैं? किसी आवाज़ को क्यों दबाना चाहते हैं? हम रचना को प्राथमिकता देना कब सीखेंगे? आरती स्मित द्वारा सम्पादित संग्रह 'पगध्वनि' इस दिशा में उठाया एक महत्त्वपूर्ण क़दम है, जिसमें कुछ चर्चित नामों के साथ कई कम चर्चित हस्ताक्षर भी हैं, जिनकी कविताएँ उनकी क्षमता का अहसास कराती हैं। अनामिका की कविता-'पहली पेंशन' में जीवन की भागदौड़ में अधूरी इच्छाएँ मुँह बाए खड़ी रहती हैं। उनको पूरा करने का अवसर नहीं मिलता। अन्तत: उन्हें झाड़-बुहार कर ठिकाने लगाकर सब्र कर लिया जाता है, जैसे गंगा नहा आए हों। इससे भी अधिक संघर्ष की अभिव्यक्ति अयाचित में सामने आती है, जो पाठक को उद्वेलित ही नहीं करती बल्कि सोचने पर भी बाध्य करती है। जीवन में सारे फ़र्ज़ पूरे करने की दौड़ में सब कुछ चुकता कर दिया-

बाकी जो बचा / उसे बीन-फटककर मैंने / सब उधार चुकता किया /

हारी–बीमारी निकाली / लेन–देन निबटा दिया। / अब मेरे पास भला क्या है! " '

'दरवाज़ा' कविता में भी एक अव्यक्त वेदना है। वही कि यह जीवन चक्र नहीं रुकता, संघर्ष नहीं थमता, वेदना अनेक रूपों और प्रतीकों में हमारे सामने आती है-

मैं एक दरवाज़ा थी / मुझे जितना पीटा गया / मैं उतना ही खुलती गई.

अनीता कपूर की 'आत्मनिर्णय' में नारी की विवशता है, कमज़ोर होना और उस पर पुरुष द्वारा थोपी गई यह प्रवंचना उसकी शालीनता के रूप में मुखर हुई है-

मैं कमज़ोर थी / तुम्हारे हित में, / सिवाय चुप रहने के / और कुछ नहीं किया मैंने

क्या यह कुछ न करना ही उसका दोष है? दूसरी ओर अनिता ललित की कविता'मेरी परी! मेरी शहज़ादी!' है। इस कविता में बेटी होने का गर्व और आत्मतोष स्पर्श कर जाता है-'तेरे आने से। मेरा जीवन महका। माँ कहकर मुझे पूर्ण किया।'

अलका सिन्हा की कविता नारी की विवशता और अन्तर्द्वन्द्व को अत्यन्त सांकेतिक रूप से उकेरने में सक्षम हैं। 'दो होने की क़ीमत' में कामकाजी स्त्री की मजबूरी उसकी संवेदना को मूक रहने के लिए बाध्य करती है, लेकिन वही मूक और निरपेक्ष रहने का सायास यत्न उसको आँसू पीने के लिए बाध्य करता है।

'कलाई झटककर / घड़ी को देखती है, / बच्चे को छोड़कर। आगे चल देती है / बच्चे का रोना / दूर तक साथ जाता है' इन पंक्तियों की मार्मिकता झकझोर देने वाली है। सहृदय पाठक को कहना पड़ेगा–' यह होती है कविता। '

अर्चना गुप्ता की कविता-'बेटियाँ मरने न देंगे' आज के तथाकथित सभ्य समाज को चुनौती देती है-कभी दहेज के लिए तन / उसका झुलसाया गया / और कभी प्रताड़ना / पति की, उसे छलती रही'इन्हीं संघर्षों से घिरे होने पर एक निश्चय उभरा–बेटियाँ मरने न देंगे।'

अर्चना वर्मा की कविता 'पिछली सदी की औरत का बड़ी हो गई बेटी के नाम एक बयान' में यह स्वीकृति-'मेरी बिटिया। बच्चे। हमेशा ही बेहतर जानते हैं / तेरी उम्र के बच्चे / ख़ासतौर से'

सही वक़्त पर सही फैसले न होना आज के बच्चों को ज़रूर खटकेगा, लेकिन अपने समय पर ठीक समझ्कर लिये गए फैसले समय गुज़र जाने पर पलटे नहीं जा सकते। बेटी तो उस समय नहीं थी। होती तो बहुत सारे ग़लत फ़ैसले रुक सकते थे। फिर भी उन फ़ैसलों में एक फ़ैसला ऐसा भी था जिसको माँ एकाद्म सही मानती है-

तुझे मैंने जन्म दिया, / जाना कि जो कुछ भी पाया, उगाया, बनाया, गँवाया /

उसमें सबसे ज़्यादा क़ीमती यह ग़लती थी / शुक्र है, समझ आने से पहले ही कर बैठी

'दिनचर्या' कविता सब कुछ सहते रहने की मर्मान्तक पीड़ा को चुपचाप पी जाने की करुण कथा है। जहाँ एक-एक बूँद एक-एक साँस पर दख़ल है, वहा उसका खुद का व्यक्तित्व और अस्तित्व गुम ही हो जाता है। हर तरह का बोझ और क्रूर दृष्टि ढोना उसकी विवशता बन जाती है-

साध्वी सुहागन का तमगा सँभाला / गुस्से को पिया और धक्कों को खाया

बदतमीज़ नज़रों और बेवाक फिकरों से बचती-बचाती / खीझी और खिसियाई /

दालों मसालों के पैकेट सब्ज़ी के थैलों से लदी–फँदी / घर आई /

आज उसने फिर आज़ादी की क़ीमत चुकाई / और कृतज्ञ हुई. " '

आरती स्मित की कविता 'माँ' माँ के गौरव और उसके गहन गम्भीर त्याग को चित्रित करती है-

मैंने देखा है तुम्हें, / जेठ की धूप में जलते / मुसीबतों की आग में चलते, पर हमको सुख देती हो / सब पीड़ा हर लेती हो।

सुदर्शन रत्नाकर की कविता "" माँ "" जहाँ माँ के महत्त्व को प्रतिपादित करती हैं, वहीं "" समय और मेरे बीच "" कविता में पीढ़ियों के अन्तराल और सोच के अन्तर को चित्रित करती हैं।

उर्मिल सत्यभूषण की 'नई पीढ़ी के नाम' उजाले की आश्वासन की आशा की कविता है, जो नई पीढ़ी को इन शब्दों में उसकी ज़िम्मेदारी का अहसास कराती है-

ओ नई पीढ़ी! / मुझे आश्वस्त कर तू! मैं तुम्हारे पुख़्ता कन्धों पर / ज़िन्दगी और युद्ध का भार देती हूँ / क्रान्ति का भार देती हूँ।

निराशा में डूबकर हिम्मत छोड़ने वालों को-'मैं तुम्हें जलने न दूँगी' कविता में उर्मिल जी आश्वस्त करती हैं-

हाथ मैं मलने न दूँगी / मोम-सा गलने न दूँगी / मैं तुम्हें मरने न दूँगी। ख़ुदकुशी करने न दूँगी।

कमल कुमार की 'चेहरा' जीवन कि दुविधा और अन्तर्द्वन्द्व की कविता है। व्यक्ति को घर और बाहर दुर्बल और रौबीले दो तरह के व्यक्तित्व में जीना पड़ता है, जिसमें असली व्यतित्व कहीं न कहीं दबकर और घुटकर रह जाता है

दफ़्तर से लौटने पर उसने / अपना रौबीला-गर्वीला चेहरा / उतारकर, पर्स के साथ / आलमारी में बन्द कर दिया।

कमला निखुर्पा की कविता 'दरकते खेत पहाड़ों के' में संघर्षरत पहाड़ी स्त्री का सजीव चित्र प्रस्तुत किया है। जहाँ धूप भी मेहमान की तरह आती है। पहाड़ी स्त्री-

'ढलती साँझ के सूरज की तरह / किसी के आने की आस की रोशनी भी / हर रोज़ पहाड़ के उस पार जाकर ढल जाती है।'मैं पहाड़न' में सांकेतिक रूप से उन समस्याओं की ओर भी इंगित कर जाती है, जहाँ भूखी नज़रें उसका शिकार करने की ताक में, उसको बींधने के लिए हर मोड़ पर गड़ी रहती हैं-

हुई बड़ी मैं / नज़रों में गड़ी मैं / पलकें न उठाऊँ / आँचल न गिराऊँ।

'कुर्सी और कविता' ज़िम्मेदारी निभाने, कुर्सी बचाए रखने के साथ संवेदनाओं को कुन्द होने से बचाने के प्रयासों को रेखांकित करती है-

कुर्सी जीने नहीं देती / कविता मरने नहीं देती /

तथा

कितना ही बाँधे कुर्सी / उड़ान भर लेती है कविता।

डॉ0जेन्नी शबनम की कविताएँ जीवन के विविध जटिल, सर्पिल एवं कंटकाकीर्ण मार्ग से गुज़रती हुई व्यापक अनुभव की कविताएँ है। सपनों के झोले में नारी की विडम्बना यही है कि

शब्दों की लय में / जीवन के गीत गुनगुनाऊँ / बड़े भोले हो। सपने के झोले में / जीवन समोते हो, जान लो / आसमान नहीं देते / बस भ्रम देते हो!' (सपनों के झोले)

'झाँकती खिड़की' के माध्यम से नारी की अस्मिता और संघर्ष को जेन्नी शबनम ने बखूबी चित्रित किया है-

खिड़की झाँकने की सज़ा पाती है / अब वह न बाहर झाँकती है / न उम्र के आईने को ताकती है।"'

डॉ.भावना कुँअर एक ओर सुहाने दिन की यादें हैं, जिनमे वह मन की पीर को कहने का प्रयास करती है-

भीगा है मन / फिर ढूँढने चली / घर का कोना / छिपा दूँ जिसमें / आँसू की धारा / लेकिन कैसे करें जब-

हर तरफ़ मिलीं / सीली दीवारें

'मैं अकेली' में उसकी सहेली कोयल भी नहीं आई, तो उसका अकेलापन बढ़ने लगता है। फिर इस कविता में पूरे समाज की मानसिकता को सहेज लेती है। मान्यताएँ प्रश्नचिह्न बन जाती हैं-

क्या छाया भी अच्छी-बुरी होती है? / अगर नहीं / तो क्यों कहा जाता है / उसके क़दम पड़े / तो घर फूला–फला / उसके पड़े तो सब डूब गया।

भावना शुक्ल अपनी कविताओं में दो टूक बात करती हैं-

उल्टे-सीधे बढ़ते जाना / जिनको नहीं क़ुबूल।

जाहिर है, उनके होते हैं, अपने सिद्ध उसूल। (होना नहीं उदास) " '

आज की मानसिक विकृतियों पर उनका प्रहार बहुत मारक है-

दर असल / कीचड़ होता है मन में / फिर उतरता नयन में / यही सब हो रहा / अपने वतन में। (जल और कमल)

डॉ0ज्योत्स्ना शर्मा की कविताएँ एक अलग पारिवारिक परिवेश और प्रतिबद्धता की बात करती हैं। आज के खण्डित होते परिवारों का जो कारण बन रहे हैं, वह उनके लिए यह सन्देश देती है-

'माँ तेरी जायी के पंखों में दम है' तथा

'घर तेरा और माँ–बाबू जी हैं मेरे / कर लो यह बँटवारा है मंजूर मुझे। (साथ तुम्हारा)

पाऊँगी फिर से मैं / साझा-सा प्यार / अम्मा और बाबा / न होंगे तक़सीम्। (आँगन का नीम)

ज्योत्स्ना प्रदीप 'अन्तर' कविता में प्रतीक के माध्यम से नागफनी और छुई-मुई का अन्तर रेखांकित करती है, तो आज के समाज और उसकी दूषित मानसिकता को भी उकेरे देती है-' नागफनी / काँटों से भरी, पर सीधी / उसे छूने से हर कोई कतराता है / वह छुई-मुई..., जो चाहे उसे / यूँ ही छू जाता है।

दिव्या माथुर की 'झूठ' , रचना श्रीवास्तव की 'हर रोज़' सीमा मल्होत्रा की 'शब्द' , 'फीकी मुस्कान' , 'सुधा ओम ढींगरा' की 'आँगन' , स्नेह सुधा नवल की 'गौतम' , 'कलियुग जीवन' के विविध रंगों और शेड्सस की कविताएँ हैं।

ममता किरण की 'पत्थर' आज की पथराई संवेदनाओं पर करारा प्रहार है। 'प्रार्थना' की ये पंक्तियाँ मर्म छू लेती हैं, एक चित्र मानस-पटल पर अंकित कर देती हैं-

वो माएँ जल्दी घर पहुँचें / कि बच्चे जिनके देखते हैं / खिड़की से रार्स्ता आने का / कि अब आई माँ... अब आई.

रमणिका गुप्ता की कोयला चोर लम्बी कविता पूरा जीवन समेटे हुए है। वह कोयला चोर जिम्मेदारियों से लदा है और 'चुपके–चुपके / मौत को पछाड़ / चुरा लाता कोयला'

सुशीला शिवराण की औरतें और चालीससाला औरतें कई रूपों को उजागर करती हैं। थकी-हारी होने पर भी घर पहुँचकर एक चुस्की चाय के बाद अपने मोर्चे पर डट जाती है। यही जीवन दृष्टि उसके बारे में एक स्वरूप गढ़ती है-

तृप्त मन लिये / रसोई में हो जाती है अन्नपूर्णा

कामवाली बाई अचरज से देखती है-

दीदी कभी थकती नहीं। " '

डॉ0हरदीप सन्धु के मन में रिश्तों की क्षणभंगुरता को लेकर कोई मलाल नहीं-

कोई ग़म नहीं / रेतीले ही सही / वो रिश्ते तो हैं / हम अकेले नहीं।

वरिष्ठ कवयित्री डॉ0 सुधा गुप्ता की क्षणिकाएँ लघु कलेवर में बड़ी बात कहने में सक्षम हैं। 'घर' कविता की छोटी-छोटी पाँच पंक्तियाँ देखिए-

तिनके, धागे / क़तरन, पर / नन्हीं चिड़िया ने / बना लिया घर।

'चोट' में चिड़िया के प्रतीक के साथ संवेदित करुणा मन को छू जाती है

टप्प से गिरी मैँ / चोट खाई चिड़िया-सी / बाजी फिर / उसके हाथ रहेगी।

'सिसकी' कविता की मार्मिकता बहुत बेधक है। याद की गहराई का उपमान देखिए-

बहुत देर रो-रोकर / हलक़ान हो-होकर / सो जाए कोई बच्चा / काँधे लगकर / तो /

नींद में / जैसे बार-बार / उसे सिसकी आती है, ऐसे / मुझे तेरी याद आती है।

इस पुस्तक पर अपनी बात को पूरी तरह कहना कठिन है। मैं संक्षेप में कहना चाहूँगा कि आरती स्मित को अपना यह सार्थक प्रयास और नए–पुराने रचनाकारों के साथ जारी रखना चाहिए. "'पगध्वनि"' से शुरू हुआ यह प्रयास "'पद-प्रहार"' तक जाना चाहिए, ताकि जर्जर जंग खाई मान्यताएँ टूट सकें।

'पगध्वनि (काव्य-संग्रह): सम्पादक-डॉ० आरती स्मित, पृष्ठ: 112, पेपरबैक मूल्य: 200रुपये, वर्ष:2016; प्रकाशक: साहित्यायन ट्र्स्ट, 101 ,अर्श कॉम्प्लेक्स, सेक्टर –अल्फ़ा-1 , ग्रेटर नोएडा-201308