पगलवा मरी गेलै / अमरेन्द्र
"सुनलैं, पगलवा मरी गेलै।"
"आंय की बोलै छैं, पगलवा मरी गेलै!"
"झूठ थोड़े बोलै छियौ...होना केॅ जे कहैं, लोगें ओकरा पगलवा भले कहै छेलै, बात ओकरोॅ पागलवाला नै छेलै।"
"बात रहौ कि नै रहौ, हर बातोॅ पर ओकरा भाषण आरो कुढ़बोॅ ओकरा पागले सिद्ध करै छेलै।"
"से तेॅ ठिक्के कहलैं...मजकि जे कहैं, आबेॅ ओकरोॅ बिना घोॅर, गली, मुहल्ला, चौराहा सब सूने-सूने लगतै।"
"धूरो! सूनोॅ की लागतै, ओकरा सें तेॅ सब तंगे छेलै--घोॅरवाला सें लैकेॅ गली-मुहल्ला वाला तांय। पता नै, कत्तेॅ बड़ोॅ महात्मा बुद्ध आरो चाणक्य आपना केॅ समझै छेलै वैं।"
"मजकि जे भी कहैं, बात बुद्धि वाला बोलै छेलै।"
"धूरो! की बोलै छेलै, माथोॅ चाटी जाय। आबेॅ तोंही बोलैं--घरोॅ के औकतोॅ-भाँसोॅ लोगें घरोॅ सें बाहर नै फेकतै तेॅ कहाँ फेकतै। सोचैं, सौ घरोॅे के गन्दगी एक्के ठियाँ जमा होतै तेॅ ढेर नै लागतै की? आबेॅ यहेॅ बात लै केॅ ऊ दिन भरी भिनकतेॅ रहै। केकरौ सीधा बोलै के तेॅ दम छेलै नै--कूड़ा दिश मूं करी फदकतें जाय अरबी-फारसी, अंगरेजी में--जथी में जखनी सुर चढ़ी गेलोॅ, बस वही में।"
"एकदम सुराहा छेलै। फदकी शुरू होलै तेॅ रुकै के नाम नै। यही बातोॅ सें तेॅ ओकरोॅ घरवालाहौ तंग छेलै।"
"तंग नै ऐतै। छोटोॅ-छोटोॅ बातोॅ वास्तें ई रं ऊ बहू-बेटी पर झुंझलैतेॅ रहै कि नै पूछैं। जरा-सा बर्त्तन-बासन के आवाज होलै कि हुन्नें से ओकरोॅ आवाज झाँझे नाँखी झनकलै--रसोय घोॅर छेकै की कारखाना? मार ठांय-ठांय करी रहलोॅ छै भोरें सें।"
"यहू बात नै छेलै कि एक बात के खतम होतैं वहीं पर रुकी जांव, बर्त्तन-वासन सें शुरू होलोॅ तेॅ तुरत्ते दोसरोॅ बातोॅ पर, लागले तेसरोॅ बातोॅ पर।"
"घोॅर भरी केॅ उधियाय केॅ राखी दै। एकदम तंग-तंग करी मारै। आबेॅ तोंही बोलैं...खैर ओकरोॅ डरोॅ सें ओकरोॅ कोय बच्चा-बुतरू टी. वी., रेडियोॅ तेॅ नहियें चलावै, जखनी पड़ोसियो टी. वी. बजावै, तखनी ओकरोॅ मिजाज देखतियैं। हमरा तेॅ कै दाफी देखै के मौका मिललोॅ छै--भन्न-भन्न करतें रहैतियौ--आपनोॅ कोठरी सें लै के पड़ोसी के दीवारी तांय जाय केॅ फदकतियौ 'ई मुहल्ला तेॅ जेना शाह मार्केट बनी गेलोॅ छै।' पत्नी दिश जाय-जाय कहतियौ--शाह मार्किटे में कैन्हें नी जाय केॅ मकान खरीदी लेला। कान तेॅ छौं नै, कान तेॅ फाटै छै हमरोॅ--लागै छै जेना कान्है में कंडाल बजतेॅ रहेॅ।"
"है बात बोललै तेॅ हमरा याद ऐलै, सावनी पूजा के दिन छेलै। फांड़ी के सामना वाला गोवर्द्धन मंदिरोॅ के कंडाल रोॅ मूँ वही दिश छेलै, जन्नें पगलवा रोॅ घोॅर। जखनी हम्में ओकरोॅ घोॅर पहुँचलियै तेॅ देखलियै, कंडाल के आवाजो सें ज़्यादा ऊ बाजी रहलोॅ छै। आपनोॅ दोनों छोटकी बेटी पर बरसवोॅ करी रहलोॅ छै--तोरे सिनी हेन्होॅ परवैतनी के कारणे है कंडाल चंडाल रं बाजी रहलोॅ छै। गाहक जत्तेॅ बढ़तै, दोकान ओत्ते सजतै, ई तेॅ जानले बात छेकै।"
"फेन्हू तेॅ परवैतनी साथें पगलवो के उपास होलोॅ होतै?"
"एकदम ठीक बोललैं। बकबक करतें, घरोॅ सें निकललै तेॅ दिन भरी लेॅ निकलिये गेलै। दिन भरी आसरा देखतैं रहलियै कि घोॅर लोटै तेॅ श्यामसुन्दर घोष वाला कविता-पुस्तक लै लियै। कै दिन होय गेलोॅ छेलै--मांगियै तेॅ कहै--आभी तेॅ कुछुवे पंक्ति पढ़लेॅ छियै। पढ़ै छेलै कि गीतोॅ के गोड़ जांतै, पता नै।"
"अरे, तोहें घोष जी के ऊ किताब की देलेॅ छेलैं, सब्भे लेॅ विपत्ति के पिटारा देलेॅ छेलैं। एक दिना हम्में वही वक्ती पहुँची गेलियै, जखनी वैं वहेॅ किताब पढ़ी रहलोॅ छेलै। हमरा देखत्हैं इशारा सें बैठै लेॅ कहलकौ आरो सुनाबेॅ लागलौ--गीतोॅ में है जे नदी, जंगल, पहाड़, झरना के बात कवि करनें छै आरो जे रं सरकार सें लै केॅ ठेकेदार तांय पर्वत-जंगल उजाड़ी रहलोॅ छै, तबेॅ कवि के की होतै, कविता के की होतै, नद्दी के की होतै, सबसें बड़ोॅ बात कि नरी के की होतै!" हर साल बनले सड़क केॅ बनैलोॅ जाय छै। सालो नै पुरै छै कि सड़क के गिट्टी-छर्री नाली में। फेनू पहाड़ केॅ काटोॅ-तोड़ोॅ आरो सड़कोॅ पर बिछावोॅ। अरे लोगें समझै छै कैन्हें नी कि सड़क तेॅ हजार बनैलोॅ जावेॅ सकै छै, मजकि पहाड़ की वैं दोवारो बनावेॅ पारतै? अरबौं साल उथल-पुथल के बाद एक पहाड़ मिलै छै, लोगें समझै छै, दनादन तोड़लें जाय छै। "
"एकदम पागल छेलै, कोय बात मिलना चाहियोॅ, बस वहेॅ पूंछ केॅ लंका में हनुमान रोॅ पूछ बनाय लेलकौ। जे चीज कोय सुनहौ लेॅ नै चाहलकौ, वै पर वैं घंटो सोचलकौ...ही...ही...ही...ही।"
"यहेॅ कहै छैं, एक दिन के बात सुन। ऊ आपने मुहल्ला के बैजानी चौधरी सें लड़ी गेलै। आबेॅ भला तोंही सोचें--कहाँ राजा भोज आरो भोजबा। चौधरी जी मंत्री भेलै, दस पुलिस तेॅ संगे-संग लागले रहे छै...हौ तेॅ वही दिन ठोकाय जैतियै, समझैं कि औरदा नै पुरलोॅ छेलै।"
"मजकि ऊ भिड़ी गेलै कौनी बातोॅ पर?"
"अरे बात की होतै। ऊ जे पुलिया नै टुटलै आरो वैमें दस ठो मजूरो नै दबी केॅ मरी गेलै तेॅ चौधरी जीं नें कहलकै कि एक-एक मजूर केॅ दस-दस लाख मिलतै, साथें-साथें एक-एक परिवार केॅ एक-एक आदमी के सरकारी नौकरियो...बस वही बातोॅ पर...हम्में पूछै छियौ, मंत्री टाका आकि नौकरी देतियै की नै देतियै, ओकरा कथी लेॅ लबर-लबर करना छेलै...ऊ तेॅ कहैं कि चौधरी जे के अमला-कफला ओकरोॅ कालर पकड़ी केॅ धकेली देलकै, नै तेॅ जे रं पुलिस सिनी सावधान होय गेलोॅ छेलै कि तखनिये ओकरा नेक्सलैट कही केॅ ठोकिये देतियै।"
"बतावैं, हौ रं अपमानित होला के बादो ओकरा में कोय सुधार छेलै की?"
"सुधार कहै छैं, अरे ऊ तेॅ हेनोॅ पागल छेलै कि कांके के डॉक्टरो ओकरोॅ ईलैज करतियै तेॅ डॉक्टरे सिनी पागल होय जैतियै, यै पर ऊ नै सुधरतियै। सुनें एक कहानी...अच्छा तोंही कहैं, कोय हेनोॅ मुहल्ला छै, जेकरोॅ गली साँकरोॅ-साँकरोॅ नै छै? दसो फीट के गल्ली छै तेॅ लोगें दुआर के सीढ़ी हेनोॅ बनैलेॅ छै कि आधोॅ सड़के पार।"
"ई तेॅ छोड़ी दैं, पगलवा रोॅ गल्ली में तेॅ सब्भैं आपनोॅ दुआरी सें लै केॅ बीच सड़क तांय ससरौआ बनैलेॅ होलोॅ छै कि कार हुर सना घोॅर ढुकी जाय।"
"आबेॅ तोंही सोचें, एक बनैतें तेॅ दुसरोॅ केना चुकतै। ओकरा गाड़ी रहौे कि नै रहौ; वहूँ ससरौआ दुसरोॅ दिशोॅ सें बनाय लेलेॅ छै...गली के सड़क तेॅ जेना घाटी के बीच नाली। आबेॅ सुनें पगलवा रोॅॅ बात--ऊ कभियों ऊ मुख्य गली सें नै निकलै, सुरंग नाँखी चिमनिया गली सें निकली जाय, मजकि गली के पक्की सड़क सें नै। ओकरा ई दिरिश देखले नै जाय--भले यै सें केकरौ कुछ मतलब नै रहेॅ।"
"कैन्हें नी; पगलवे केॅ तेॅ एकटा आँख छेलै, बाकी तेॅ सब सूरदासे, ही...ही...ही...ही।"
"तहूँ की याद दिलाय देलैं। ऊ तेॅ आँख रहतौं अन्हरे छेलै। रस्ता में केकरो उटपटांग चाल-ढाल देखै कि आँख मुनी लै, आरो जों मानी ले कि तखनिये उटपटांग ढंग से चलतें कोय ठेलावाला आकि मोटरसाइकिल धक्का मारी देतियै, तबेॅ?"
"मारी केना देतियै, ऊ तेॅ आपने नाली सें सटले-सटले हाथ भरी अलग हटी केॅ चलै--साइकिल-ठेला के डरोॅ सें। एक दिन तेॅ बिना धक्के खैले नाली में फच सना ससरी गेलै, ही, ही, ही, ही, ही।"
"अरे रे-रे रे, तोंहें जोन दिनकोॅ है बात सुनैलैं, ठीक वहा दिनकोॅ एकठो आरो बात सुन। मारवाड़ी पाठशाला के कोनमा वाला नल...जानवे करै छैं, ऊ तेॅ दसो सालोॅ संे बिना टोंटिये के ओन्है बहतेॅ रहै छै।"
"वहेॅ नल की, शहर के सब्भे सरकारी नल के वहेॅ हाल छै..."
"वहेॅ तेॅ सुनाय रहलोॅ छियौ...है तेॅ तहूँ जानै छैं कि कोनमै पर विजयेन्द्र जी आपनोॅ कॉपरेटिव ऑफिस खोली केॅ कत्तेॅ परेशान छेलै ऊ पागल सें। साँझकी ओकरा हुन्नें सें गुजरन्है छेलै आरो पानी केॅ हेन्हैं बहतें देखै तेॅ सीधे ऑफिस घुसी जाय आरो विजयेन्द्र पर लागै उपदेश झाड़वोॅ," हेन्है केॅ चलतै देश-सेवा आरो समाज-सेवा विजयेन्द्र भाय? एकठो नल के तेॅ वेवस्था करेॅ नै पारेॅ छौ, वै पर बड़का-बड़का मोर्चा के संयोजक बनी गेलौ। "ओकरा सें विजयेन्द्र एत्हैं तंग छेलै कि ओकरा देखत्हैं स्टोररूम में घुसी जाय आरो निकलै तेॅ गेला के खबर पैल्है पर।"
"हा, हा, हा, हा, हा।"
"आरो आगू नी सुन! दिनकोॅ बात छेकै। नल के पानी नाली में वेग संे बही रहलोॅ छेलै, कोय भरवैया नै...ऊ सीधे सीढ़ी केॅ लांघतें ऑफिस तरफ बढ़लै आरो विजयेन्द्र जी तेॅ भनक मिलत्हैं स्टोर रूम में। ...है सब बात जखनी कोनमावाला पनवाड़ी सुनावै छै, तखनी मजा आवै छै। पगलबा गुरगुरैतें नीचें उतरलै आरो पहिलें तेॅ नल के मूँ पर हथेली रखतें कुछ देर लेली खाड़े रहलै...हाथ हटैलकै तेॅ वहेॅ रं पानी होॅ-होॅ...तबेॅ जानै छै वैं की करलकै। जेबी से आपनोॅ रूमाल निकाललकै आरा नल के मूँ में पेंच नांखी अमेठी-अमेठी केॅ घुसाय देलकै। मजकि पानी के हौ वेग, भला रूमाल केॅ की बुझतियै। पहिलें तेॅ छुर-छुर करी केॅ हिन्नें-हुन्नें सें पानी निकललै, फेनू हेनोॅ धक्का मारलकै कि पगलवा के रूमाल नाली में। ही...ही...ही...ही।"
"हा...हा...हा...हा, एकदम घोर पागल छेलै। जानै छैं, एक दिन की देखलियै? देखै छियै कि खलीफाबाग चौक के एक दुकानी के बाहर खड़ा छै। हौ चित्रशाला वाला पिन्डा नै छौ, वही पिण्डा पर आरो टुक-टुक चौकोॅ पर खड़ा पुलिस के छतरी केॅ ताकी रहलोॅ छै। पीठी पर हाथ धरी पूछलियै तेॅ कहलकै--'आपनोॅ आदर्श चौक देखी रहलोॅ छियै--स्मार्ट सिटी रोॅ स्मार्ट चौक। देखै नै छैं--की रं पाँच-पाँच गाय सड़क के बीचो-बीच बैठलोॅ जुगाली करी रहलोॅ छै। खाड़ोॅ साँढ़ पुलिस के डंडा नाँखी नंेगड़ी भांजी रहलोॅ छै। बोहोॅ में खोरपतार, गाछ-बिरिछ आरो मरी नाँखी कार, फटफटिया, साइकिल, ठेला बही रहलोॅ छै--हेनोॅ आदर्श चौक मिलतौ कहीं दुनियाँ में? ई चौराहा छेकै कि गोशाला--हम्में आय तांय नै समझेॅ पारलियै।' आरो ई कही ऊ एकदम खामोश भै गेलै भाय, जेना गोबध लागी गेलोॅ रहेॅ ओकरा।"
"आरो देखैं, वहेॅ गाय-साँढ़ के बेलगाम दौड़ में पगलवा के आखिर जानो चल्लोॅ गेलै। जानवे करै छैं, गरमैलोॅ गाय के पीछू जबेॅ साँढ़-बैल दौड़ै छै, तबेॅ तेॅ रास्ता में केकरौ की देख्हौ लेॅ चाहै छै...वहेॅ धरमशाला के सामना...उमतैलोॅ साँड़ दौड़लै तेॅ एक बूढ़ोॅ भागै के फेरा में हिन्नें-हुन्नें करेॅ लागलै। ठेला, साइकिल, कार--भागेॅ तेॅ कन्नें भागेॅ...हुरै लेॅ साँढ़ बढ़वे करलोॅ छेलै कि पगलवां देखलकै आरो बूढ़ा केॅ एक दिश धकेली देलकै। धकेली केॅ भागी नी जाना चाही, से नै, ताकेॅ लागलै कि बूढ़ा केॅ चोट तेॅ नै लागलै कि तखनिये साँढे़ं सिंगी सें फाड़िये तेॅ देलकै पगलवा केॅ...दोनों सिंगी पर पहलेॅ तेॅ ओकरा उठैलकै आरो नीचें होन्है केॅ पटकी देलकै, जेना कोय मजूर भारी-भरकम सिमेन्टी के बोरा केॅ जमीनोॅ पर पटकी दै छै आरो फेनू पेटोॅ में सिंगी केॅ घुसाय केॅ हिलकोरी देलकै। मिनटो नै लागलोॅ होतै--फुटलोॅ बेलुन नाँखी लेटाय गेलै माँटी में ऊ...खून तेॅ दर-दर।"
"च्, च्, च् जे कहैं, पगलवा रहै छेलै सब्भे वास्तें चिन्तित। चल दू मिनिट ओकरोॅ आत्मा के शांति लेॅ खाड़ोॅ हो जइयै--वहीं चौधरी जी के लकड़ी-गोला में। कोय आरो आवै वाला तेॅ छौ नै--हमरा सिनी दू होलियै, गोला के विजय बाबू--तीन होलै आरो मुनी लाल--चार। बस खाड़ोॅ होय जाना छै दू मिनिट। आरो की। चल उठ।"
"ठीक कहलैं, मजकि पहिले एक-एक ठो सिगरेट तेॅ सुलगाय ले।"