पगली / राजेश त्रिपाठी
बांसुरी की मीठी आवाज सावन की रिमझिम बरसात वाली उस रात को जैसे दुख के सागर में डुबो रही थी। रोज की तरह बिंदा ने फिर कोई दुख भरी तान बांसुरी पर छेड़ दी थी। उसके स्वरों से जैसे उसका दर्द बोल रहा था। पिछले तीन साल से वह दिन-रात जंगलों की खाक छानता फिर रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे उसका कुछ खो गया है, जिसकी तलाश में वह पेड़-पौधों, खेत-खलिहानों में मारा-मारा फिरता है। उसे न तन की फिक्र है, न मन की। खाना कोई सामने रख दे तो एक-दो कौर मुंह में डाल लेता और फिर अपनी बांसुरी और अपने गम में मस्त हो जाता। कुछ लोग उसकी बांसुरी की तान सुन उसके दर्द से जुड़ जाते, भगवान को कोसते जिन्होंने इतने अच्छे कलाकार को आज लोगों के उपहास का विषय बना दिया था।
बांसुरी की वह मीठी तान बाबू प्रताप सिंह की नींद में खलल डाल गयी। वे करवट बदलते हुए बड़बड़ाये, ‘कमीना, तानसेन की औलाद कहीं का। रोज रात को पें-पें कर के नींद हराम कर देता है। पता नहीं इसे सांप-बीछी का भी डर नहीं लगता और रात-रात भर बन-बीहड़ में भटकता रहता है। अब गयी आज की नींद।’
बांसुरी की उस मनभावन आवाज के बीच-बीच में एक आवाज लगातार सुनायी देती रहती, ‘ऐ उधर नहीं जाना, उधर बहुत बन-जंजाल है, आओ इधर आओ।’ यह चंपा थी, बिंदा की पत्नी, जिसकी रातें अब जंगल के हवाले हो गयी थीं और दिन कभी न रुकनेवाले आंसुओं के। पागल पति की देखभाल जो करनी पड़ती थी। वह दिन-रात उसके पीछे साये की तरह लगी रहती। इस बात का डर था कि पता नहीं कब कौन-सी दुर्घटना हो जाये। उसे वन-बीहड़ में इस तरह रात-बेरात फिरते देख गांव की महिलाओं में तरह-तरह की चर्चाएं होने लगी थीं।
कुछ तो यह कहने से भी नहीं चूकती थीं कि यह पहाड़-सी जिंदगी किस तरह काटेगी। कल को बिंदा को कुछ हो गया तो यह क्या करेगी? चढ़ती जवानी है कैसे अपने आपको शोहदों की भूखी निगाहों से बचायेगी। कुछ लोग तो बिंदा के पागल होने के पीछे भी कई तरह की कहानियां कहते थे। चंपा का सुख-चैन पति के पागलपन ने छीन लिया था। उसने तमाम वैद्य हकीम दिखाये, मंदिरों की चौखट पर माथा टेका, गंडे-तावीज बंधवाये लेकिन बिंदा तो जिंदगी की राह में ऐसा भटका कि फिर वापस नहीं आ सका। भाई उसकी फिक्र ही नहीं करते थे। वे चाहते थे कि वह सलट जाये तो कम से कम जायदाद में हिस्सा बंटानेवाला तो कम हो जायेगा।
बावला हो गया था बिंदा। मन में जब जो आता बकता। आकाश में जाते हवाई जहाज की ओर देखता और कहता-‘भइया जानते हैं ये सारे जहाज मेरे हैं। मैं जब चाहूं इन्हें यहां उतार कर लंदन-पेरिस कहीं भी जा सकता हूं। दिल्ली में मेरा ही राज है। मैं कुथ दिन में ही गरीबों का दुख दूर कर दूंगा। आप जानते हैं गांव के जमींदार बाबू बहुत खराब हैं। बहुत जुल्म करते हैं। बहुत खराब हैं, बहुत खराब हैं।’ सुई अटके रिकार्ड की तरह यही बड़बड़ता रहता बिंदा और उसकी आंखों में उभर आता एक अनजाना खौफ, एक अनकहा दर्द।
बिंदा नीची जाति का था। नीची जाति जिसे गांव में पानी भरने का भी हक नहीं था। उनके घर की महिलाएं कुएं के पास घड़ा लिये खड़ी रहतीं कि कोई ऊंची जाति की महिला आये तो उनके घड़े में भी पानी डाल दे।
बिंदा के मुंह में तो जैसे संगीत की देवी विराजती थी। वह जब ठीक था तो किसी की शादी या लड़के जन्म की खुशी में बजनॆ वाली बधाई के बीच शहनाई के स्वर छेड़ता तो कई दिल झूम उठते और अपने आप थिरक उठते गांव की युवतियों के पांव। गांव के बड़े-बूढ़े बरबस कह उठते -‘अरे बिंदा तुझको तो सरसुती मइया का वरदान है रे क्या बजाता है, भाई वाह।’
बिंदा हलके से मुसकराता और सिर झुका कर बस इतना ही कहता-‘सब आप बड़ों का आशीर्वाद है मालिक।’
बिंदा और चंपा की सुखभरी जिंदगी को पता नहीं किसकी नजर लग गयी । बड़ों का आर्शीवाद अभिशाप कैसे बन गया।बीच-बीच में अपना अतीत, बिंदा के साथ अपनी प्यार भरी जिंदगी के क्षणों को याद करती चंपा और आत्ममुग्धा-सी अपने आप खुश होती और फिर जब हकीकी जिंदगी याद आती, तो पलकें गीली कर जाती। अभी पांच-छह साल पहले की ही तो बात है, चंपा ने जवानी की दहलीज पर पांव रखा ही था कि उसे बिंदा से प्यार हो गया। दोनों को बांसुरी ही करीब लायी। चंपा को बांसुरी की तान बहुत भाती थी, और उसकी मन रखने के लिए खाने-पीने की सुध भूल बिंदा भी छेड़ता रहता था बांसुरी की तान पर तान। कभी किसी फिल्म का गाना तो कभी किसी और का। उसकी धुनों से चंपा का रोम-रोम पुलकित हो उठता। उसका चंपई रंग, चढ़तीजवानी, गदराया बदन, प्यार का प्यासा तन-मन। बिंदा के रूप में जैसे उसे अपने मन का मीत मिल गया था। वह उसकी बांहों में झूल कर दीन-दुनिया तक भूल जाती। इन दोनों के प्यार के चर्चे अब पनघट और चौबारों से आगे बढ़ कर दोनों के घर-परिवार तक पहुंच गये थे। चंपा के घर वालों ने बिंदा के घरवालों से बात की। तय यह किया गया कि जवान-जहान लड़के-लड़की के इस तरह अकेले में मिलने से बदनामी होगी, अच्छा हो इनके रिश्ते को पुख्ता कर दिया जाये। दोनों की शादी तय कर दी गयी।
शादी क्या तय हुई दोनों की सारी बंदिशों खत्म हो गयीं। अब वे अबाध मिलने लगे।बिंदा के साथ चंपा प्यार के नये-नये ख्वाब सजाने लगी। कुछ दिन बाद दोनों की शादी हो गयी। बिंदा की जिंदगी में जैसे बहार आ गयी। चंपा चंपा के फूल जैसी ही सुंदर थी। गांव भर में उसके रूप को लेकर यह चर्चे थे कि यह तो कीचड़ में कमल खिलने जैसी बात हो गयी। इतनी सुंदर लड़की इन लोगों के यहां। उधर बिंदा था कि चंपा की बांहों में खोकर कुछ दिनों के लिए जैसे दुनिया को ही भूल गया। उसके साथ उसकी रातें रंगीन और दिन हसीन होने लगे। रातों को उसकी जुल्फों को सहलाते उनके छल्ले बनाते-बनाते बिंदा कहता-‘सोचता हूं अब यहां नहीं रहूंगा। यहां रहना ठीक नहीं। यहां के लोग मुझे अच्छे नहीं लगते। तुम देखती हो लोग तुम्हें किस तरह घूरते हैं। मुझे बहुत गुस्सा आता है।’
हंस पड़ती चंपा-‘पागल हो क्या? लोग आंखें तो नहीं बंद कर लेंगे। बाहर निकलूंगी तो लोगों की नजर तो पड़ेगी ही। ऐसा क्यों नहीं करते, मुझे घर में ही बंद रखो। ’
‘घर में क्या मैं अपनी नजरों में छिपा लूंगा तुझे। पर यह तो मैंने ठीक ही कर लिया है कि अब यहां नहीं रहूंगा। मा-बाप की जो जायदाद है वह भाइयों को मुबारक, मैं तुम्हें लेकर शहर चला जाउंगा।’
चंपा फिर खिलखिला उठती-‘ शहर में जाकर करोगे क्या। हम खायेंगे क्या। यहां तो कुछ न हुआ तो बाबू लोगों की चौखट ले मिले जूठे-सूठे से ही अच्छा-खासा गुजर हो जाता है।’
‘नहीं चंपा मैं अकेला था तो जूठा-सूठा , जलालत भरी जिंदगी जीने में भी उतना कष्ट नहीं था। अब तुम मेरे साथ जुड़ गयी हो, अब यह बरदाश्त नहीं होता। रही शहर में कुछ करने की बात तो बड़े –बूढ़े कहते ही हैं कि मुझमे हुनर है। मैं किसी बैंड पार्टी या शादी ब्याह में ताशा-शहनाई बजानेवालों के साथ काम कर लूंगा तो खाने-पीने भर को हो जायेगा। और फिर अपना ही नहीं उसका भी तो सोचना है जो आगे आयेगा।’
यह सुन लजा कर बिंदा की बांहों में सिमट जाती चंपा। बिंदा भी उसके अंग-अंग भाषा पढ़ उससे एकाकार हो जाता। वे पल उन दोनों की जिंदगी ते बहुत ही एकांत पल होते। प्यार के रस से पगे, अभाव के अंधेरे में खुशी का उजाला, सुख के सपने बुनते क्षण।
दोनों के दिन बहुत अच्छे कट रहे थे कि एक दिन जैसे उनके सुख में सेंध लगाने की अशुभ घड़ी आ गयी। आ क्या गयी जैसे भूल बिंदा से हो गयी। वह अपनी पत्नी चंपा को बाबू प्रताप सिंह की ड्योढ़ी में आशीर्वाद दिलाने ले गया। उनका दिया ही तो खाते थे वे लोग, उनकी ही दी जमीन पर घर बनाया था। मालिक थे वे उनके।
चढ़ी जवानी वाली चंपा का गदराया यौवन देख अधेड़ बाबू प्रताप सिंह के दिल में बिजलियां कौंध गयीं। आंखों में एक शरारती चमक उभर आयी। चंपा का रूप-यौवन जैसे उनके अंग-अंग में जैसे एक नशीली स्फुरन भर गया। बिंदा और चंपा उनके सामने कुछ देर तक साष्टांग दंडवत करते हुए जमीन पर लेटे रहे फिर हाथ जोड कर बैठ गये। बाबू साहब होंठो से आशीर्वाद दे रहे थे और नजरों से चंपा के अंगों को उभार को निहार और गदरायी जवानी को पी रहे थे।
अचानक बिंदा ने नजर उठायी तो बाबू साहब की पैनी निगाहों को चंपा के बदन में गड़ते पाया। उसे ताड़ते देर न लगी और - चलते हैं बाबू।’ कह कर उसने चंपा से कहा-‘चल।’ वह उने उसका हाथ पकड़ कर खींचने लगा। वापस लौटते-लौटते बाबू साहब के बोल जैसे उसके शरीर में नश्तर की तरह चुभे-‘अरे बड़ा तकदीर वाला है रे बिंदा। क्या चीज जुटायी है। यह तो साला वही बात हो गयी कि वो क्या कहते हैं कि गुलफाम को मिल गयी सब्ज परी। ’बाबू साहब ने ठहाका लगाया। बिंदा को यह ठहाका भीतर तक हिला गया।
रास्ते में वह चंपा से बोला-‘ मैं कहता हूं न कि अब यहां रहना ठीक नहीं है। ये बाबू साहब लोग अच्छे नहीं हैं। इनकी नजर खराब है। लोगों की बहू-बेटियों को कभी अच्छी नजर से नहीं देखते।’ चंपा कुछ नहीं बोली।
उस रात अभी बिंदा और चंपा की आंख लगी ही थी कि बाहर जोर-जोर से कुत्तों का भूंकना सुन उनकी नींद टूट गयी। उन्हें अपने आंगन में धम-धम कर चार-पांच लोगों के कूदने की आवाज सुनायी दी। वह कुछ समझें इससे पहले उनके कमरे का दरवाजा टूट चुका था और चंपा चार-पांच लोगों की बांहों में थी। वह चीखती-चिल्लाती रही -‘कौन हो तुम लोग, मुझे छोड़ दो।’ उसे दबोचे लोगों में से एक ने कहा-‘ हां, तुम्हें छोड़ दें तो बाबू साहब हमारी जान न ले लेंगे।’ बिंदा के भाइयों ने भी अपने घर की लाज बचानी चाही लेकिन लाठी के वार के आगे उनकी एक न चली। बिंदा को तो उन दरिंदों ने रस्सी से बांध दिया था। वह बेचारा कसमसा कर रह गया। उसकी निगाहों के सामने से उसकी प्यारी चंपा को बाबू साहब के लोग उठा ले गये।
वह रात चंपा के लुटने की रात थी, वह खौफनाक रात, उस दिन जैसे उसके पोर-पोर, उसके पूरे वजूद को एक बनैले सांड ने रौंद और कुचल डाला। उसे लगा बिंदा के साथ देखे सारे सुख-सपने उस रात बाबू साहब की कोठी में ही दफन हो गये। रात भर बाबू साहब की जंगली हवश का शिकार होती रही चंपा और अंधेरे में ही उनके आदमी उसे उसके घर में फेंक गये। बिंदा ने चंपा की हालत देखी तो लगा जैसे उसका सब कुछ लुट गया। उसकी आंखें बरस पड़ी। चंपा ले लिपट वह इस तरह बिलखने लगा जैसे कोई बच्चा अपना सबसे प्यारा, जान से प्यारा खिलौना टूटने पर रोता है। उसने मन ही मन तय कर लिया कि वह गांव की पंचायत में इस ज्यादती की शिकायत करेगा।
जाने कैसे बाबू बाबू साहब को भी इस बात की आशंका हो गयी कि बिंदा चुप नहीं बैठेगा। वे अपने दो-चार गुर्गों के साथ सुबह ही बिंदा के घर जा धमके और राइफल चमकाते हुए बोले-‘ सालो जो कुछ हुआ है उसके बारे में मुंह खोला तो मुझसे बुरा कोई न होगा। हलक में राइफल डाल कर सारी गोली अंदर उतार दूंगा। भलाई इसी में है कि खामोश रहो और हमारे गुलाम बन कर जिओ।’
‘मालिक आपने तो बड़ा जुल्म किया। हमारी बहू-बेटियों तक पहुंच गये आपके हाथ?’ अभी बिंदा की बात खत्म ही हुई थी कि बाबू साहब की राइफल के बट के प्रहार ने उसका सिर फाड़ दिया। लहूलुहान हो गया बिंदा।
पति के सिर से खून बहते बिलख पड़ी चंपा-‘बाबू साहब मैं, आपके पैर पड़ती हूं, इसे माफ कर दीजिए, यह पागल है।’ और य़ुस दिन से खामोश हो गया बिंदा। वह लोगों की ओर कातर दृष्टि से ताकता , न कुछ बोलता, न किसी बात का जवाब देता। कुछ दिन तक तो उसने खाना-पानी तक को हाथ नहीं लगाया। वह लगातार आंसू बहाता रहता और चंपा पर नजर पड़ते ही दहाड़ मार कर रो पड़ता। उस दिन के बाद फिर वह कभी ठीक नहीं हुआ। इसके बावजूद बाबू साहब के जुल्म खत्म नहीं हुए। जब-तब उनके आदमी चंपा को उनकी मौज-मस्ती के लिए उठा ले जाते । बिंदा की हालत दिन पर दिन बिगड़ती गयी। जिसने जहां बताया, वहीं चंपा बिंदा को ले गयी लेकिन उसकी हालत नहीं सुधरी। फिर एक दिन जो वह बांसुरी लेकर घर से निकला, तो फिर वापस नहीं आया। तभी से चंपा भी उसके साथ वन-वन भटकने लगी।
एक सुबह लोगों ने चंपा को दहाड़े मारकर कर छाती पीट कर रोते पाया। उसके सामने बिंदा की लाश पड़ी थी जो नीली पड़ चुकी थी। उसने रोते-रोते लोगों को बताया कि रात को बिंदा को किसी जहरीले सांप ने काट लिया और वह तड़प-तड़प कर कुछ पल में दम तोड़ गया। लोगों ने उसे लाख समझाया-बुझाया लेकिन वह तब तक लाश से चिपटी रोती रही जब तक उसे नदी में नहीं बहा दिया गया। उसके बाद से जैसे बिंदा की बीमारी चंपा को लग गयी। कुछ दिन वह खामोश रही फिर कभी रोने तो कभी अकारण ही हंसने लगी। लोग उसे पगली कह कर बुलाने लगे। लड़के उस पर पत्थर फेंकने लगे। यह सब देख कर कभी हंसती और कभी जोर-जोर से रोने लगती चंपा। उसके घर वालों तक ने उसकी सुध नहीं ली। वह दर-दर मारी-मारी भटकती रहती। न खाने का होश, न पीने का। फटे कपड़े, बिखरे बाल, फूल सी दिखने वाली चंपा सूख कर कांटा हो गयी थी। अब बाबू प्रताप सिंह को भी उससे घिन आती थी जो कभी उसे सीने से चिपटा कर रंगीनियों में डूब जाते थे। वे अब अक्सर लड़कों से कहते-‘ अरे दूर भगाओ इस पगली को। कहीं काट लेगी तो इलाज भी नहीं हो पायेगा। ’
पति बिंदा की याद में रोती-तड़पती चंपा भी एक दिन सभी दुखों से हमेशा के लिए मुक्त हो गयी। उसकी मौत पर आंसू बहानेवाला कोई नहीं था। लोगों ने बताया कि चंपा रात-दिन उन्हीं रास्तों, और जंगलों की खाक छानती रहती थी, जहां कभी पागल बिंदा भटकता रहता था। वह अकसर उसे पुकारती रहती। इसी तरह वह भी एक दिन इन मुशकिलों से बहुत दूर हो गयी। गांव के कुछ बड़े-बूढ़ों ने उसका अंतिम संस्कार करवा दिया। उस दिन बाबू प्रताप सिंह भी श्मशान तक गये और चिता पर एक लकड़ी उन्होंने भी रखी।
बाबू प्रताप सिंह की राते भी अब पहले जैसी नहीं रहीं। आदमी कितना भी बुरा हो उसमें भी कहीं न कहीं एक इनसान बसता है। बाबू प्रताप सिंह का भी सुख-चैन छिन गया। लोगों ने बताया कि अब वे ड्योढ़ी से बाहर नहीं निकलते और पिछले कुछ अरसे से बीमार हैं। दवाओं के सहारे टिके हैं।