पचास के पार / राजा सिंह

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वह अजीब मनस्थिति में है। कुछ अच्छा महसूसता नहीं। दिनचर्या पूरी तरह नियमित है, पहले की तरह। परन्तु ऐसा लगता है कि कुछ बाकी रह गया है। वह अपने आप से संतुष्ट नहीं हो पाता हैं। उसे लगता है कि माइण्ड अनुपस्थिति है, अपनी जगह से। अधुरेपन का अहसास तारी है। निरूत्साह है कार्य से। सबके चेहरे पर कुछ ठठोलता रहता है, तलाशता है, कुछ ऐसे कि जो उसके पास उपलब्ध है, परन्तु वह उपभोग से वंचित है या फिर वंचित कर दिया गया हैं वह और भी ललचाता है। लालसा हतोत्साहित होकर दबा दी जाती है, या दब जाती है, परन्तु गाहे-बगाहे फिर सिर उठाने लगती है। कहते हैं कि ये उम्र नहीं है ये सब करने की। लिखा देखा है, पढ़ा है और उपदेश भी अक्सर सुनाई पड़ते रहते हैं। मन को काबू में रखना चाहिए. आत्म नियंत्रण ही सर्वश्रेष्ठ है। करता भी है वह, परन्तु पता नहीं फिर धीरे-धीरे से क्यों कुलबुलाने लगता है। फिर कुलबुलाने वाला क्रीड़ा बड़ा आकार लेकर मन-मस्तिष्क में छा जाता है और फिर उसे अपनेे आप को समेटने में पूरी उर्जा खर्च कर देता है। निढाल हो जाता है।

इस हालात से उबरा कैसे जाये? समझ में नहीं आता। किसी से पूछें तो मजाक का पात्र बनना अश्वम्भावी है। जलील अलग से होना पड़ेगा और उसके दिल का राज जग जाहिर हो जायेगा। उसकी तीस-बत्तीस साल से सींची-पल्लवित की गई एक ईमानदार, शरीफ नेक इन्सान की छवि के भी टूटने की पूरी सम्भावना है जो उसके लिए मरणतुल्य स्थिति हो सकती है। लोग उसके विषय में क्या सोचेगें? नहीं! उसे खुद एक ऐसा हल ढुढ़ना पड़ेगा, जो उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को स्वीकार हो और उसकी भूख भी मिट जाये।

कभी-कभी भूख तेज लगने लगती है जब किसी जवान खूबसूरत जिस्म से बहुत निकटता से मुलाकात हो जाती है। बांध टूट पड़ना चाहता है, परन्तु मर्यादा और इज्जत का बांध, बंधन जबरदस्त होता है और भूख की लहरें अपना सर पटक कर वापस हो जाती है, परन्तु अपना ताप तो छोड़ ही जाती है। कभी साधुवत्य जाग जाता है और तीन-चार दिन बिना किसी कोलाहल के गंुंजर जाते हैं। आग राख हो चुकी होती है, परन्तु अन्तर में छुपी चिंगारी समाप्त नहीं होती है।

उसकी समस्या का समाधान है, एकदम आसान-एक जिस्म मात्र एक जिस्म की मांग है। उसके पास है भी एक खूबसूरत जिस्म हर समय साथ। काम करती हुई, आराम करती हुई या फिर सोती हुई. सोते में उसके चेहरे पर कितनी निःश्चितता, संतोष और मासुमियत होती है कि उसे भंग करना अनुचित लगता है। सुवी उसकी पत्नी। उसका मन करता है कि उसे लेकर खुद को तृप्त कर ले। एक-दो बार ऐसा करने की कोशिश की भी की, उसे अनुचित लगा और वह तिरस्कृत हुआ। ज़्यादा जोर देने पर उसे महसूस हुआ कि बलात्कार की चेष्टा करेगा, जो उसे नागवार गुजरेगा और वह अपराध बोध से ग्रसित होगा। असल में इस तरह के समायोजन के लिये सम्बन्धित जीव में भूख होनी चाहिए. किसी में भूख न भी हो तो उसे जगाई जा सकती है, परन्तु इसके लिये जीव का सक्रिय होना आवश्यक है और वह निष्क्रिय हो चुकी थी। औरत का निष्क्रिय होना मतलब उसका मासिक होना बंद हो गया। यानी की सन्तोनोत्पति के अयोग्य और साथ ही कामेच्छा की समाप्ति भी। इस सृष्टि के रचयिता ने औरत को सिर्फ़ जननी कार्य हेतु ही काम दिया है और पुरूष में काम की समाप्ति अन्त तक नहीं। क्या इसीलिए कहते हैं कि पुरूष बूढ़ा नहीें होता?

फिर वह क्या करे? उसे यह डर था कि उसके अन्दर मौजूद काम की संतुष्टि के लिए उसे किसी और की तरफ न डाल दे। परन्तु सुवी उपेक्षित न हो और उसके वाह्य कार्यकलाप से अनभिग्न भी रहे। इसलिए उसकी उलझन चरम अवस्था में थी। वह महसूसता था कि ऐसा औरों के साथ भी घटित होता होगा। ज्यादातर बड़ी हस्तियाँ इसका हल अपने तरीके से करती है, उनकी भावनायें, इच्छायें संतुष्ट रहे औरों की परवाह ही नहीं करती। वे अपने के विरोध को भी दरकिनार कर देते हैं...कुछ पढ़ा याद आता है ...इटली के प्रधान मंत्री सिल्वियों बरलुस्कोनी ने सतत्तर साल में अठ्ठाइस साल की प्रेमिका फ्रान्सेसना पास्कल से शादी की। रूस के राष्ट्रपति इकसठ साल के तीस साल की अलीना काबेवा से शादी की तथा अन्य हुज हेफनर सत्तासी साल के सत्ताइस साल की क्रिस्टल हैरिस। रूपर्ट मुर्रडीक अरसठ साल पत्नी तीस साल की वेडी डेंग और उनसे दो बच्चे भी तथा शादी चौदह साल से चल रही है। ये तो वे लोग हैं जिन्होंनंे सम्बन्धों को शादी का जामा पहनाया और उनका क्या जो सिर्फ़ सम्बन्ध ही रखते हैं?

खैर, ये तो बड़े लोग हैं, प्रसिद्ध आदमी हैं। पद प्रतिष्ठा और सम्पन्नता उनकी चेरी है तो हसीनाऐं भी आसानी से उपलब्ध है और पत्नी तक बन जाती है। परन्तु वह क्या करे? उसके पास ऐसा कुछ भी नहीं है जो कोई आकर्षित हो सके. फिर वह यह समाधान चाहता भी नहीं है ना ही किसी तरह से उचित ही है। ऐसी कल्पना भी उसके जेहन में नहीं उतरती। वह क्षणिक एवं त्वरित समाधान चाहता है और किसी को कानो-कान खबर न हो। कुछ छोटे लोग इस तरह के आवेग में ऐसा कुछ कर जाते हैं कि अमानवीयता और मर्यादाओ की सारी हदें पार कर जाते हैं और जंगली हो जाते हैं। ...कुछेक माह पहले अखबार में पढ़ा था कि एक बंदा अपनी बहु पर ही बलात्कार कर बैठा और मुल्लामौलवी ने फतवा दे दिया कि बहु उसकी पत्नी हो गई है और पुत्र को तलाक दे देना चाहिए. क्या सोंच है? क्या नैतिकता है? ...कुछ दिनो पहले अखबार में पढा था कि एक रिक्सा वाले ने अपनी पत्नी के मरने के बाद अपनी सोलह साल की बड़ी बेटी को ही पत्नी के रूप में यूज करने लगा। बेटी ने किस विवशतावश सहन किया? आखिर में उसने पुलिस की शरण ली, तभी इस नारकीय यातना से मुक्ति मिली। ...क्या वासना का आवेग इतना तीव्र होता है कि मानव सारी सामाजिकता, मर्यादायें लांघ जाता है? परन्तु निश्चित ही इस आवेग की तीव्रता सबमें समान नहीं होती होगी और अधिकांश लोग अपने को संयमित कर लेते होंगे और अप्रिय अपमान जनक स्थिति से बचे रहते होंगे।


परन्तु वह क्या करे? उसमें ऐसा कुछ भी नहीं है। ना ही वह प्रसिद्ध, सम्पन्न व्यक्तियों की श्रेणी में है और ना ही अमर्यादित जंगली लोगों के विरल समूह में। त्रिशंकू की तरह अधर में लटका हुआ, संयमित लोगों के बहुसख्य समाज का हिस्सा। वह कुछ ऐसा करना चाहता है कि जो शान्त, शालीन, मर्यादित और संतुष्टिदायक हों और जो उसके उठते ज्वार को संयत कर सके.

मोबाइल पर मैसेज आ रहा है। ...हाय! मेरा नाम रीता है। मैं इस शहर में नयी-नयी आई हॅू। मेरा इस शहर में कोई दोस्त नहीं है। क्या आप मेरा दोस्त बनना पसंद करेंगे? मुझे इस नम्बर पर कॉल करें। ...उसने काल किया। एक मीठी से प्यारी आवाज आने लगी। उस आवाज से ही उसे लगा वह नवयौवना होगी जो कोमल आकर्षक और खूबसूरत होगी और उसने जो प्यार और वासना का ऐसा समा बांधा कि शरीर वहीं रह गया और मन, मस्तिष्क और हदय उसकी पास पहॅुच गये। क्या देखना...अच्छा लगता है...क्या करना...क्या करवाना...कैसे करना अच्छा लगता है...वह सब कुछ वहीं महसूस रहा था, कर रहा था...वह खो गया था...सो गया था...उस जादुई वासना के तिलिस्म में। मोबाइल के बंद होते ही उसकी तंद्रा टूटी और वह जांग गया। मोबाइल का सारा बैलेंस समाप्त हो चुका था और वह आवाज नदारत थी और वह वापस यथार्थ की जमीन पर।

उसे कहीं से पोर्न साइट्स का पता चला और उसे लगा ये बेहतर आप्सन है। नेट कनेक्शन उसके पास था ही और वह उसमें गुम हो गया। एक ऐसी भूल-भुलैया में जिसमें भटकता हुआ वह एक ऐसे अनुभव से दो-चार हो रहा था जिसमें औरत-आदमी के विभिन्न अवयवों, रूपों और कार्यों की शुक्ष्म और दीर्घ उछली और गहरी घाटियों, खाइयों के दृश्यों से आमना-सामना हुआ। उत्तेजना के चरम शिखर पर चढ़ते-उतरते, डूबते-उतरते इतना सब कुछ दिख गया कि कुछ भी अनजान अपरिचित ना रहा और उसने सेक्स के प्रति एक ऐसी वितुष्णा को जन्म दिया कि उसे ऐसे दृश्यों को देखने से घिन आने लगी थी। पोर्न के दृश्यों को देखना तो दूर उसके पास जाने मात्र की कल्पना से ही घृणा होने लगी थीं। एक हफ्ते में ही उसे लगा कि वह चुक गया है, उसकी उत्सुक्तता समाप्त हो गयी हैं।

उसकी अतृप्तता नहीं चुकी थी। उसकी प्यास बुझी नहीं थी। वह अब भी प्यासा था। आंखें थक गई थीं परन्तु जिस्म अब भी प्यासा था। पोर्न में हर लड़की, औरत सिर्फ़ एक जिस्म नजर आती थी जो हर समय बिछने को तैय्यार थी। उसमें रिश्तों की कोई दीवार नहीं थी।

उसकी ऑंखों में कुछ ऐसा था, जो प्यार नहीं था। उसकी आंखों में लिप्सा झलक रही थी, जो स्त्री देह को देखकर उभरती थी। कहते हैं औरतें आंखें देखकर बता देती हैं कि किसी की आंखें क्या कह रही हैं? आंखों से वह मन के भाव पढ़ लेती हैं। सब कुछ न भी जान जाती हो परन्तु सेक्स की नियत तो अवश्य पढ़ लेती हैं। तदृनुसार अपने को उसी के अनुसार ढाल लेती हैं। अब वह डरने लगा था कि कोई उसकी आंखों से उसके भाव न पढ़ ले। वह अपनी बहू और बेटी से भी डरने लगा था कि कहीं वे उसकी ऑखों की भाषा न पढ़ लेे। बेटी ने उसकी ऑंखों को देखकर कहा था 'पापा, आपको ईलाज की ज़रूरत है, आप आफथैलमिस्ट को दिखाइये' , आप की ऑंख लाल क्यांें रहती है। बहू ने जब पैर छूकर आशीर्वाद लेना चाहा तो क्यों उसके शरीर में एक सनसनाहट दौड़ गई थी। क्या बहू ने उसमें कुछ पढ लिया था। अपने तो शायद समझ न पायें परन्तु गैर को ज़रूर अहसास हो जाता होगा। आफिस की स्टैनों सत्या को जब वह उसके घर ड्राप करने गया था तो वह अपने घर से एक चौराहें पहले क्यों उतर गई थी और बोली अब मैं अपने आप चली जाऊॅगी, यहीं पास में उसका घर है। वह न घर बताने को तैय्यार हुई न घर तक उसे ले गई. उसने बैरंग वापस आना पड़ा था। उसे लगा जान पहचान, आफिस या रिश्तेदारी में कुछ संभव नहीं है, यहॉं सब अपने आप में संतुष्ट है। उसे असंतुष्ट की तलाश थी।

कुछेक दिनों से उसे अपरिचित जिस्म ज़्यादा आकर्षित करने लगे थे। उनमें एक अलग तरह की गंध आती थी जो लालयित करती थी, आमंत्रित करती थी। आफिस से घर को निकला था कि एक जवान जिन्दा जिस्म ने उससे लिफ्ट ले ली। वह खूबसूरत थी, उसमें लय, लचक एवं ग्रेस थी। उसकी आवाज में खनक थी और उसकी अंगुलियों ने उसकी वीणा के तार छेड़ दिये थे। कोमलांगी ने उसके जिस्म में सरसराहट और ऑंखों में सेक्स के लहरियाँ भरते हुये उस पर बिछ गई थी। वह विवश हो गया था, उसके आदेश पर कार घर का रास्ता छोड़कर निर्जन राह पर चल पड़ी थी। गाड़ी एक पेड़ के नीचे रोकी गई. वह प्रत्युत्तर में हरकत में आया ही था, एक साथ तीन मानुष दो मोटर साइकिल पर प्रगट हो गये। उसे, चारों ने हल्ला करते हुये दबोच लिया और मार-पीट कर सारा माल-असबाब लूट कर चलते बनें। साथ में हसीना भी फुर्र हो गई, उसको उसकी लम्पटता की सजा देकर। वह ठगा रह गया था, ठंडा पड़ गया था। उसकी आग चिंगारी बनकर दफन हो गई थी।

चिंगारी फिर सुलग रही थी। लिप्सा, ललचा रही थी। कई असफल प्रयत्नों ने आग को और दहकाने का ही काम किया था। अब की बार वह काफी सतर्क था। ठोस पुख्ता इन्तजाम साथ ही सहज एवं सुलभ उपलब्ध भी। वह एक होटल जान गया था जहॉ सब सहुलियत थी। वह आफिस न जाकर वहॉ गया। बैरे ने एक अलबम दिखाई, उसने एक सेलेक्ट की, पच्चीस से तीस के बीच। आधे घंटे के बाद वह साथ थी। एक अर्से के बाद उसने अपना नंगा जिस्म एक खूबसूरत नंगे जिस्म के हवाले किया था। एक व्याकुल उदीप्त जिस्म ने पेशेवर जिस्म को भोगा था, आनंदित हुआ था और पोनोग्राफी को सशरीर महसूसा था। पच्चीस हजार रूपये उसने कमरें में घुसते ही अपनी फीस ले ली थी। कुल खर्चा तीस हजार आया था। सौदा काफी महंगा पड़ा था। जेब और शरीर दोनों ढीले पड़ गये थे, पर दिमाग और चिंगारी शान्त हो गयी थी। वह पूरी तरह खाली हो गया था।

कुछ दिनों तक वैराग्य की स्थिति हो गई थी। परन्तु कब तक? शीघ्र ही दबी चिंगारी फिर उभरेगी भूख और प्यास को दबाया जा सकता है, समाप्त नहीं। जब साधु, महात्मा अपने को नहीं रोक पाये तो साधारण व्यक्ति की क्या विसात? अपने को पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों में बॉंध कर रखना, एक मात्र कालातीत उपाय है। इस चिंगारी की तीव्रता समय के साथ घटती जाती है आर राख में तभी बदलती है जब पुरूष अशक्त हो जायें या अक्रिय हो जायें। चिंगारी को समय की राख और संयम से ही ढका जा सकता है।