पठान / शमशाद इलाही अंसारी

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रहीम खान बंगश जिस तेज़ी से अपने आफ़िस में दाखि़ल हुआ उसी तेज़ी से अपने बास के केबिन में दाखिल हुआ, घुसते ही वह भारी आवाज़ में बोला, "तुम हम पर शक क्यों करता है, शक करना है तो हमको अभी नौकरी से निकालो वरना ये हरकत करना बन्द करो, तुम हमारे पीछे-पीछे सुनिल को क्यों भेजा..हम कोई चोर है, दगा़बाज़ है कि तुम्हारा चार लाख दिरहम लेकर भाग जायेगा? हम इधर १४ साल से काम करता है, क्या आज तक कोई हेरा-फ़ेरी किया?

उसका इंडियन बास इमरान सलीम, जो उस वक्त फ़ोन पर बात कर रहा था, हक्का-बक्का अपने पुराने मुलाज़िम की बात एक टक सुन रहा था. रहीम के गुस्से की परवाह किये बगैर एक कुशल नेता की तरह बर्फ़ीले ठण्डे अंदाज़ में उसे बैठने का इशारा करते हुए बोला, "रहीम, बैठ कर बात करो, मुझे समझ ही नहीं आ रहा कि हुआ क्या"?

"नहीं, तुम सब जानता है कि तुमने क्या किया, तुम एक बात नहीं जानता कि पठान सब कुछ बर्दाश्त कर सकता है लेकिन ये नहीं कर सकता कि कोई उस पर शक करे, हम चौदह साल में अगर ये एतमाद हासिल नहीं कर सका तो बेकार है, बेहतर है कि तुम हम को फ़ौरन निकाल दो..हम वापस कोहाट चला जायेगा लेकिन ये ज़िल्लत हम और बर्दाश्त नही करेगा, कोई हम पर शक करे ये हमारी गै़रत को गवारा नहीं.." रहीम की तेज़ होती आवाज़ सुन कर दूसरे मुलाज़िम अपने केबिनों से निकलकर ये देखने आये कि जो शख्स सबकी किसी न किसी बहाने रोज़ क्लास लेता है, आज उसकी क्लास कम्पनी का एक ड्राईवर ले रहा है, वो भी हिंदी में.....चीफ़ एकाऊंटेंट बास के केबिन में आ चुका था उसकी पीछे-पीछे और कई मैनेजर भी बास के केबिन में पहुँच गये, अब आवाज़ें थोडी़ मध्यम हुई, बाकी सब लोगों को देख रहीम भी ठण्डा हुआ, सबसे आखिर में एच.आर.डी. मैनेजर आया जिसे देखकर रहीम खान ने पहली बार अपने सख्त चेहरे पर थोडी़ सी ढील दी.....एच.आर.डी. मैनेजर शुएब अंजुम, रहीम का हाथ पकड़ कर सीधे उसे अपने केबिन में ले गया.

"तू इतना गुस्सा क्यों करता है, पठान? शुएब ने रहीम के काँधे पर हल्के से हाथ रखते हुये कहा. "तुम जानता है कि हम को गुस्सा किस बात पर आता है?" शुएब अपनी कुर्सी पर बैठते हुए इतमीनान से बहस का मौज़ू बदलते हुये बोला, "देख, कल हमारे वीज़ा कोटे में दो वेकेन्सी हो जायेंगी, दो गेस्ट कल जा रहे हैं, मैं तभी तुम्हारी वाईफ़ का वीज़ा एप्लाई कर दूँगा, तुम फ़्राईडे को उसकी बुकिंग करा सकते हो"..

यह बात सुन कर रहीम के चेहरे पर सुकून के बादल छाये, जिसे भाँपकर शुएब फ़िर बोला," रहीम, तुम्हारे पीछे सुनिल को भेजने का फ़ैसला मेरा था और मंशा शक नहीं बल्की तुम्हारी सेफ़्टी थी, तुम ये नहीं जानते कि इन दिनों कैश लूटने की वारदातें दुबई में बढ़ती जा रही हैं, महज़ पचास हज़ार दिरहम के लिये तीन दिन पहले देरा में लूट और कत्ल हुआ है और ये चार लाख दिरहम की बात थी, सुनिल को मैंने सिर्फ़ तेरी गाडी़ के पीछे भेजा था हिफ़ाज़त के लिए, तुम्हारी जासूसी करने के लिये नहीं..लिहाज़ा तेरा गुस्सा मेरे सिर माथे पर, बास का उससे कोई लेना-देना नहीं..."

रहीम को बात समझ में आ गयी और वह शुएब के केबिन से बाहर निकला, इस बीच उसका मोबाइल फ़ोन बजा, काल को देखकर उसने कट किया, शुएब ने रहीम से कहा,"सुनो, जाने से पहले बास से माफ़ी मांग लेना..ये ज़रुरी है" रहीम ओ.के. बोल कर सीधा बास के रुम में गया,"सारी इमरान भाई, शुएब भाई से बात हुई तब हमको समझ में आया..मैं शर्मिंदा हूँ.."इट्स ओ.के.", बास ने धीरे से जवाब दिया. रहीम बाकी लोगों से बाहर के काम लेकर फ़िर शहर की तरफ़ बढ़ गया.

रहीम की शादी कोई दो बरस पहले हुई थी, अभी उसके कोई बाल-बच्चा भी नहीं था कि उसकी बीवी को फ़ालिज पड़ गया. कोहाट (पाकिस्तान) में क्योंकि ठण्ड बहुत पड़ती है इसलिये वो अपनी दुल्हन को दुबई बुलाना चाहता था ताकि उसका अच्छा इलाज भी हो जाये और वह तक़लीफ़देह ठण्ड से भी बच सके इसी बाबत उसने शुएब से अपनी पत्नी के वीज़ा की बात दो दिन पहले ही की थी.

बास इमरान ने शुएब को अपने चेम्बर में बुलाकर पूछा, "क्या किया तुमने रहीम का, अभी वो माफ़ी माँग कर गया है उससे पहले वो आग बबूला हो रहा था"

"सर, मैं हिंदुस्तान के जिस इलाके से हूँ वहाँ जाट बहुत है, मेरे छात्र जीवन में जाटों से काफ़ी संबंध रहे है, जाट, सिख और पठान एक ही कौम है, बस मज़हब का फ़र्क है, फ़ितरत एक सी है, इनका पता नहीं ये किस बात पर बिदक जायें और किस बात पर हू-हू करने लगें, जितनी जल्दी इन्हें गुस्सा आता है उतनी जल्दी चला भी जाता है, ये लोग आज़ादी परस्त हैं अपने मामलों में दखल अंदाज़ी बर्दाशत नहीं करते, वैसे कुछ भी हो, ये लोग हैं मुहब्बत के भूखे, बिना किसी मिलावट के, एकदम कोरे सच्चे इंसान...."

"यू आर राईट, यू डेल्ट हिम वेल.." बास इमरान मुस्कुराते हुए बोला. शुएब अपने केबिन फ़िर लौट आया. शाम हो गयी, रहीम अभी तक वापस लौट कर नहीं आया, उसका मोबाइल भी स्विच आफ़ आ रहा था, किसी भी तरह की कोई ख़बर रहीम के बारे में किसी के पास न थी. अगले दिन भी रहीम का कोई पता न चल सका, उसके भाईयों, चचाज़ात भाईयों, रुम मेट्स को भी संपर्क करने की कोशिश की लेकिन कुछ पता नहीं चला. शाम होते होते उसके एक रुम मेट का फ़ोन लगा तब उसने बताया कि कल शाम चार बजे जब रहीम अपने रुम पर खाना खा रहा था तब सी. आई. डी. वाले आये और हम सब को उठा कर ले गये. तीन लोगों को छोड़ दिया लेकिन रहीम को अभी भी गिरफ़्तार किये हुए है. ये ख़बर सुन कर शुएब रात में ही सी.आई.डी, हेड क्वाट्र्स तफ़शीस के लिए पहुँचा लेकिन उनके रिकार्ड में रहीम का कुछ भी हवाला नहीं मिला.ये गुरुवार का दिन था और अगले दो दिन वीकएण्ड, यानी अब अगर कुछ आगे मालूमात होगी तो रविवार को ही होगी. मामले की नज़ाकत देख बास इमरान का पारा भी हाई होता जा रहा, वह हर घंटे शुएब को फ़ोन कर कर के रहीम का अता-पता पूछता, रहीम से ज़्यादा फ़िक्र उसे कंपनी की गाडी़ और रहीम के पास जो महत्वपूर्ण काग़ज़ात एंव शिपिंग डोक्यूमेंट्स थे, उनकी थी...

रविवार की सुबह सात बजे शुएब अपनी कम्पनी के अरबी पब्लिक रिलेशन ऑफ़िसर (पी.आर.ओ.) के साथ अल रिक्का़ स्थित पुलिस हेडक्वाट्र्स पहुँच गया, लोकल अरबी के बिना तो रहीम से मिलना ही संभव न था, बारहाल काग़ज़ी कार्यवाही के बाद रहीम से मुलाकात बेसमेंट स्थित जेल में हुई, रहीम थका हुआ लगा, उसकी आँखों के नीचे चोट के निशान साफ़ नज़र आ रहे थे. एक पुलिस वाले की मौजूदगी में ये मुलाकात हुई. रहीम ने शुएब को देखते ही मुस्कुरा कर स्वागत किया. बिना वक्त बिताये उसने कहा,"पाँच पुलिस वालों ने मिलकर हमें फ़ुटबाल की तरह मारा, हमें ड्रग्स की स्मगलिंग करने को कुबूल करवाने के लिये...शुएब भाई तुम हमें १० साल से देख रहे हो, तीन हजार की तंखव्वाह का मुलाज़िम हूँ, हम ये काम करता तो क्या तुम्हारी कम्पनी में ड्राइवर की नौकरी करता, हमें झूठे इल्ज़ाम में फ़ँसाया जा रहा है"..अरबी पी.आर.ओ. को ड्रग्स के मामले की भनक पड़ते ही घबराहट महसूस हुई और वह वहाँ से खिसकने की कोशिश करने लगा. रहीम की बेलाग बातों को डयूटी पुलिस ऑफ़िसर भी सुन रहा था, दुबई पुलिस हिंदी/उर्दू खूब जानती है और बोलती भी है. शुएब की चाह कर भी ज़्यादा बात न हो सकी, चलते हुए उसने कहा,"रहीम, हिम्मत नहीं हारना, इस साज़िश का मज़बूती से जवाब देना"..रहीम ने आँखों ही आँखों में सहमति व्यक्त की थी. शुएब ने रहीम द्वारा बताई जगह से उसकी कार उठायी, काग़ज़ात चेक किये और ऑफ़िस पहुँच गया जिस पर बास की साँस में साँस आयी.

कोई दस दिन के बाद रहीम पर मनिशयात (ड्रग्स पेडलिंग) का केस दर्ज किया गया, रिकार्ड में दस दिन बाद की ही गिरफ़्तारी दिखाई गयी, मुकद्दमा लड़ने के लिये अरबी वकील खडा़ किया गया जिसकी फ़ीस रहीम के दोस्तों, रिश्तेदारों ने इकट्ठा कर के दी. कोई पन्द्रह दिन के बाद कंपनी ने रहीम के केस की नौइय्यत देखते हुए उसे बर्खास्त कर दिया. शुएब ने ही उस लेटर पर दस्तख़त किये थे.

रहीम को अब दुबई की अल अवीर स्थित बडी़ जेल में मुन्तकिल कर दिया गया था जहाँ उससे उसके ब्लड रिलेशन वाले रिश्तेदार ही मिल सकते थे. वह फ़ोन भी कर सकता था जिसकी अवधि पूर्व निर्धारित होती. शुएब से भी वह गाहे-बगाहे बात कर लेता. महीने-दर महीने उसकी तारीख पड़ती, वो कोर्ट जाता पर मुकद्दमा आगे न बढ़ता.हर बार प्रोसिक्यूशन की तरफ़ से या तो कोई अधिकारी नहीं आता या अगली तारीख के लिये आवेदन कर दिया जाता. रफ़्ता-रफ़्ता पूरा एक साल बीत गया लेकिन न कोई बहस हुई ,न कोई फ़ैसला हुआ. रहीम की गै़रमौजूदगी में कंपनी का काम बिना रुके सिलसिले वार चलता रहा, अब शुएब को छोड़कर रहीम की ख़बर रखने वाले कंपनी में बहुत कम ही लोग बचे थे.

शुएब की रहीम से खू़ब पटती थी, यूँ तो रहीम की आशिकी के किस्से किसी अख़बारी ख़बर की तरह कभी न कभी चलते ही रहते थे लेकिन रहीम अपने दिल की बात शुएब से बता देता और शुएब उसे समझता भी था.रहीम का किसी अरबी लड़की से कोई चक्कर था, एक बार जब शुएब रहीम की कार में सफ़र कर रहा था तब शुएब ने उससे खु़द पूछा था कि क्या मामला है, तब तक रहीम की शादी हो चुकी थी.तब रहीम ने पूरा किस्सा बताया भी था.

हुआ यूँ कि जब चौदह बरस पूर्व रहीम दुबई आया था, तब वह अपने अज़ीज़ों के साथ अबु हैल में एक विला में रहता था, विला में एक अरबी परिवार रहता जिसमें एक अरबी महिला, उसके पाँच बच्चे और एक नौकरानी थी, उम्रदराज़ महिला को मामा कहा जाता है यहाँ. उसके तीन बडे़ बेटे फ़िर दो बेटियाँ थी, लड़के अपना पढ़ने जाते या तफ़रीह करते घूमते, दिन भर उसके लड़के सैंड स्कूटर चलाते या वाटर स्कूटर चलाने समंदर पर चले जाते, रोज़ मर्रा की ज़रूरत के लिये मामा रहीम की कार में बैठ कर बाज़ार जाती थी, उस वक्त उसकी बड़ी बेटी नूर की उम्र कोई १३ बरस होगी और सबसे छोटी फ़ातिमा की उम्र कोई ११ बरस. अक्सर मामा के साथ ये दोनों लड़कियाँ भी साथ होती. मामा के पति अपनी दूसरी बेग़म-बच्चों के साथ किसी दूसरे मौहल्ले में रहते और हफ़्ते में एक आध बार चक्कर लगाते रहते. रहीम १७ बरस की उम्र में ही दुबई आ गया था ओर उसे ड्राइवर की नौकरी भी मिल गयी. गाँव-देश छोड़ने का उसे ज़रा सा भी मलाल इसलिए न हुआ कि उसे एक ऐसा घर मिल गया था जहाँ उसे परिवार जैसा सुख मिलता, मामा को वह अपनी माँ से बढ़कर मानता, उसके सुख-दुख में उसका साथ देता, वह बीमार होती तो डाक्टर के पास लेकर जाता. मामा भी उससे बेलाग मौहब्बत करती और उसे होटल का खाना न खाने देती, वक्त से पहले ही रहीम का खाना उसके कमरे में नौकरानी दे जाती. मामा रहीम में वो सब देखती जो उसके अपने तीन-तीन लड़कों में न था. तीज त्यौहार पर मामा रहीम के लिये वो सब करती जो एक माँ अपने बेटे के लिये करती, रहीम जब कभी अपने मुल्क छुट्टी पर जाता तो मामा रहीम की माँ के लिये कपड़े और दीगर सामान भेजती, इंसानी रिश्तों की रुहानी परवाज़ के सामने देश, राष्ट्रियता, जात, नस्ल के क्या मायने रह जाते हैं, इंसान की आँखों पर अगर मौहब्बत का चश्मा लगा हो तब ये सब कहाँ दिखाई पड़ता है..? वक्त तेज़ रफ़्तार से गु़ज़रता गया, नूर अब बडी़ हो गयी थी, उसके मन में रहीम के लिये प्रेम की पोंगलें फ़ूट पडी़ थी, एक दिन कार में रहीम के साथ सफ़र करते हुये वह आगे वाली सीट पर आ बैठी, रहीम इससे पहले कि कुछ समझ पाता, नूर ने अपना इज़हारे मौहब्बत कर दिया और एक परफ़्यूम की शीशी उसके लिये तोहफ़े में पीछे छोड़ गयी थी. शेष कहानी के लिए भाग दो देखें...