पता नहीं / अन्तरा करवड़े

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

"पता नहीं इन हवाओं का रूख कब बदलेगा¸ कब हमारे दिन फिरेंगे। लगता है जैसे भगवान का ध्यान ही कहीं और है।"


"ऐसा कहते हुए तुम अपनी खुद की ताकद को क्यों भूल जाते हो? तुम्हें हाथ - पैर मेहनत करने के लिये मिले है। ये दिमाग चलाकर काम करने के लिये मिला है और ..."


"अब बस भी करो ये लंबी चौड़ी हाँकना। खुद तो चाँदी का चम्मच लिये जन्मे हो। छोड़ क्यों नहीं देते इस दौलत को और खुद क्यों नहीं पसीना बहाकर अपनी जिंदगी जीते? खाने - पीने¸ पहनने ओढ़ने की चिंता न हो तब ही सूझती है ऐसी दार्शनिकता।"


"तुम क्या समझते हो मैं इस तरह की मेरी जिंदगी से खुश हूँ? कितनी भी मेहनत करने के बाद भी तो यही सब कुछ सुनना पड़ता है कि बरसों पुरानी जायदाद है उसे ही आगे बढ़ा रहे है। अपना तो जैसे कोई वजूद ही नहीं है।"


"वजूद बनाना पड़ता है। जमीन जायदाद के जैसा वो भी विरासत में नहीं मिला करता। नकल के आदी हो जाते हो तुम सब। जैसा बाप दादों ने किया¸ बस दोहराने लगे।"


"तुम सब होते ही ऐसे हो। मेरे पापा ठीक ही कहते है। तुम्हारे भाग्य में सुख सुविधाएँ¸ धन दौलत नहीं है ना इसलिये जलते हो। खुद तो कुछ कर नहीं पाते और हमें नाम धरते हो।"


"देखा तुमने? तुम्हारे विचार भी तो तुम्हारे अपने नहीं है। पिछली पीढ़ी के विचार लेकर नई पीढ़ी से लड़ोगे तो हार जाओगे बाबू। तकलीफ है इस दुनिया से तो निकल आओ धन दौलत की गुदगुदी दुनिया से बाहर। खुद सवाल करो ऊपरवाले से और फिर देखना जवाब कैसे नहीं मिलता।"


"तुम्हारी बातें तुम्हारे पास ही रहने दो। जाने कब सुधरोगे तुम लोग। इसी तरह से पैसे - पैसे को मोहताज होते हुए अपने भाग्य को रोते रहोगे।"


ये कहते हुए कथित धनिक निकल पड़ा था या शायद भाग रहा था सच्चाई से।


उसे अपनी प्रेयसी से मिलने जाना था। मन हुआ कि उसके लिये खुशबूदार रजनीगंधा ले चले। लेकिन याद आया कि उसके धनाढ्‌य परिवार में कोई भी पांच रोज से नीचे नहीं उतरा था। बनावटी और उधारी सोच के साये तले पलता यह उस धनिक का तीसरा प्रेम था जिसमें उसने ढ़ेरो परफ्यूम¸ सॉफ्ट टॉयज¸ ईयरिंग्स¸ ब्रेसलेट¸ फूल¸ कार्ड आदी न्यौछावर किये थे।


फिर भी एक धुकधुकी सी लगी रहती थी कि पता नहीं कब¸ क्या कहाँ बिगड़ जाए। उनका सारा वक्त "प्लीज"¸ "इफ यू ड़ोंट माईंड़"¸ "आई विल कीप फेथ ऑन यू"¸ "मैं लेट हो गया इसलिये चॉकलेट्‌स" और "हमारी मुलाकात की मंथली एनीवर्सरी है इसलिये डिनर" जैसे छुईमुई नुक्तों पर¸ इस रिश्ते को जिलाए रखने में बीतता था।


उधर फक्कड़ दार्शनिक आदमी ने अपने सात वर्ष पूर्व के अखण्ड़ प्रेम से कहा¸ "अब उपहार नहीं हम दोनों के मध्य। बस मैं ही हूँ तुम्हारी हर उमंग और अपेक्षा का उत्तर!"


प्रतिक्रिया में उसके प्रेम की आँखों में था अपनापन और सम्मान¸ खरे सोने सा। जिसका किसी कैरेट या तोले माशे में कोई मूल्य नहीं था...