पता नहीं / प्रेम गुप्ता 'मानी'
उसकी आत्मा ने जैसे ही अपनी आँखें खोली, देखा, दो आदमी एक-दूसरे पर बुरी तरह पिले पडे हैं । लात-घूँसा, डंडा... जैसे भी बन पड़ रहा, एक-दूसरे पर प्रहार कर रहे थे। लड़ते-लड़ते वे गंदी-गंदी गालियाँ भी बक रहे थे। काफ़ी देर तक वह यह सब देखता रहा पर जब रहा नहीं गया तो उन्हें छुड़ाने लगा। अनजाने उसे भी एक करारा घूँसा पड़ा। होंठों पर खून छलक आया पर फिर भी शान्ति स्थापित करने का एक जनून-सा था उसके भीतर।
उसने किसी तरह दोनों को छुड़ा कर कहा, "अरे भाई... तुम लोग इस तरह क्यों लड़ रहे हो?"
"हम समाज-सेवक हैं...यह समाज, यह देश हमारा है। हमसे बड़ा देशभक्त कोई नहीं है। हमारी पार्टी के हाथों ही इस देश का भला होना है, पर ये है कि हमारा हक छीनने पर तुला हुआ है। साला...कुत्ता कहीं का।"
"अबे साले...कुत्ते हम हैं कि तुम हो? जीभ लपलपा-लपलपा कर देश का माल चट करते जा रहे हो और बनते हो जनता के पालनहार। अरे, तुम तो अमीरों के पिट्ठू हो... हमें देखो...हम गरीबों के रक्षक हैं। यहाँ गरीबों का हित देखने आए हैं। जानते भी हो, देश की जनता कितनी गरीब है? हम दूसरों की तरह नहीं हैं जो देश को दीमक की तरह चट कर जाएँ... समझे।"
उसने किसी तरह समझा-बुझा कर दोनों को शान्त किया, "अरे भैया...माना तुम दोनों ही सच्चे देशभक्त हो, पर क्या इस तरह लड़ना ज़रूरी है?"
"हाँ है।"
"पर क्यों?"
"कुर्सी के लिए... जो इस लड़ाई में जीतेगा, कुर्सी उसी की होगी।"
"पर क्या सिर्फ़ कुर्सी पर बैठ कर ही देशभक्ति को साबित किया जा सकता है?" उसने आश्चर्य से पूछा।
"पता नहीं।" कह कर दोनों फिर से एक-दूसरे पर पिल पडे।
यह सब देख कर वह पल भर सनाका खाया खड़ा रहा फिर आगे बढ़ गया। अभी वह थोड़ी दूर ही गया था कि एक नया आश्चर्य किरकिरी की तरह उसकी आँखों में आ चुभा।
उसने देखा कि ढेर सारे आदमी बेहद गुस्से से भरे दौड़ रहे हैं और इस दौरान सामने आ जाने वाली इमारतों, बसों, कारों पर पत्थर फेंक रहे हैं...उनमें आग लगा रहे हैं।
पल भर हतप्रभ-सा ख़डा रहने के बाद उसने एक दौड़ते हुए आदमी को रोक कर पूछा, "भाई... तुम सब यह क्या कर रहे हो?"
"देखते नहीं हो...पत्थर फेंक रहे हैं?"
"पर क्यों?"
"अपनी माँगें पूरी करवाने के लिए... ।"
"पर क्या इस तरह आग लगाने, तोड़ने-फोड़ने से, सरकार को नुकसान पहुँचाने से या लोगों पर पत्थर फेंक कर उन्हें घायल करने से माँगें पूरी हो जाती हैं...?"
उसका प्रश्न सुन कर पत्थर फेंकने वाले ने बडी अटपटाई नज़रों से उसकी ओर देखा फिर आगे बढ गया, "पता नहीं..." कहते हुए... ।
अब वह पूरी तरह से हतप्रभ था। उसकी समझ में नहीं आया कि जब आदमी अपने द्वारा किए गए ग़लत कार्यों से उपजे प्रश्न का उत्तर नहीं जानता तो ऐसा करता ही क्यों है?
उसने इस प्रश्न का उत्तर अपने से भी पूछा पर वहाँ से भी उसे एक ही जवाब मिला, "पता नहीं।"
अपने बेजान उत्तर से पहले तो वह हकबकाया, फिर बिना सोचे-समझे वह भी उन सब में शामिल हो गया।
थोडी देर बाद जिन घरों में पत्थर गिर रहे थे, उनमें उन सबका अपना घर भी शामिल था।