पता / हेमन्त शेष
काफी देर तक हर गली और कई मोहल्लों की खाक छान चुकने के बाद हम एक पुराने से मकान के सामने थम गए क्यों कि गली बंद हो गई थी- और आगे जा सकने की संभावना को खत्म करती हुई. रुक-रुक जो पता हम पूछ रहे थे मेरे हाथ में था- आधा-अधूरा और अपर्याप्त. कृष्णकांत जी का मकान भी इसी शहर में कहीं तो है ही, पर हम अभी एक हिन्दी उपन्यास के शीर्षक ‘बंद गली का आख़िरी मकान’ को अपने ठीक सामने देखते हुए ठिठके हुए हैं. मुझे याद आया उनके मोबाइल पर फोन करके उन्हीं से सही पता जान लूं. जेबें टटोलने पर पता लगता है- में अपना फोन मेज़ पर ही छोड़ आया हूँ जिसे चार्ज करने को लगाया हुआ था. पत्नी ने अंत में सिर्फ इतना ही कहा- “इस कहानी से हमें ये शिक्षा मिलती है कि जब भी कृष्णकांत जी जैसे आदमी के घर जाना हो, उनका पूरा पता लेंडमार्क समेत जेब में रखो. यह भी कि तुम्हारे मोबाइल में उनका नंबर सेव किया हुआ हो और अंत में ये दुआ भी करो कि कृष्णकांत जी अपना फोन चार्ज पर लगा कर किसी और का मकान ढूँढने न चले गए हों!”