पत्थर-दिल मूर्तियाँ / एक्वेरियम / ममता व्यास
कभी-कभी सोचती हूँ इन पत्थरों के मंदिरों में पत्थरों की मूर्तियों के आगे लोग इतना सर क्यों झुकाते हैं? क्या-क्या मांगते होंगे? ये मूर्तियाँ किसी के दिल की बात सुनती होंगी? मन की बात समझती होंगी क्या?
मंदिर की चौखट पर बंधे मन्नत के धागे क्या उस पत्थर की मूर्तियों के सामने शिकायत करते होंगे?
पूछते होंगे उनकी सजा की मियाद या रिहाई की तारीख? क्या मंदिर की मूर्तियों और मन्नत के धागों के बीच कहा-सुनी होती होगी?
मूर्ति कहती होगी-"लोग क्यों बिन पूछे चौखट पर मन्नत के धागे बांध जाते हैं? मैंने उन्हें नहीं बुलाया।"
धागे कहते होंगे-"लेकिन हमारा क्या दोष? हम कब तक बंधे रहें इस चौखट पर...तुम मन्नत पूरी करो तो हमें रिहाई मिले न इस कैद से..."
" मैं कैसे किसी की मन्नत पूरी कर सकती हूँ जबकि मैं खुद अभिशप्त हूँ। पहले मंै शीशे की हुआ करती थी पारदर्शी, तो कभी आईने जैसी कोई भी मुझमें अपना अक्स बखूबी देख सकता था। लेकिन जब भी मैं लोगों की हुबहू शक्ल दिखाने लगती लोग क्रोधित हो जाते और मुझे तोड़ देते। बार-बार हर बार टूट-टूटकर मैं बिखरती रही, मेरा वजूद तहस-नहस होता रहा।
मैंने खुद को बचाने के लिए अपने ऊपर पत्थर का खोल पहन लिया।
मेरे भीतर अब भी प्रेम का, संवेदना का झरना बहता है। न-न छूकर नहीं कान लगाकर महसूस करो मुझे। छूने से तो बड़ी खुरदुरी-सी लगती हूँ मैं। इस कैद से बचने का रास्ता खोजा है मैंने।
जब मंदिर के पट बंद हो जाते हैं मैं चुपके से मंदिर से निकल कर खुली हवा में सांस लेती हूँ।
चांद में चांदनी बन जाती हूँ फूलों में खुशबू बन महकती हूँ।
मैं बोलना चाहती हूँ, मैं भी हंसना चाहती हूँ और रोना भी जी भरकर...
मंदिर के भीतर मैं कितनी असहाय हूँ जबकि हर आने वाला व्यक्ति मुझसे सहायता की उम्मीद करता है।
मैं भावशून्य होकर संसारभर की बातें सुनती हूँ। कभी-कभी जी इतना घबरा जाता है कि मंदिरों को भस्म करने का मन करता है। स्याह रातों में मेरी चीख कोई भक्त नहीं सुनता।
रातभर मेरी आंखें रोई हैं ये सुबह कोई भक्त नहीं देख पाता, वह पाखंडी पुजारी भी नहीं।
छप्पन भोग देख-देख मेरी भूख कब से मर चुकी है। फूलों के अनगिनत हारों के बीच मैं कितनी हारी हुई हूँ, कोई नहीं जानता।
सुनो...चौखट के धागो तुम मुझसे नाराज मत रहो। जमानेभर की श्रद्धा-विश्वास और प्रेम का बोझ लिए तुम कब तक मुझे यूं शिकायती नजरों से घूरते रहोगे।
चलो आज मैं इस चौखट को ही उखाड़ कर फेंक देती हूँ। वैसे भी इतने धागों के बोझ से ये झुकी जा रही है और मैं भी तुम्हें देख-देख दु: ख में डूबती जा रही हूँ।
इतना कह कर उस पत्थर की मूर्ति ने चौखट उखाड़ दी। अनगिनत धागे उस चौखट के नीचे दबकर मर गए, कुछ टूट गए, कुछ बिखर गए.
उस दिन से कोई अब उस अभिशप्त मंदिर में नहीं आता, अब मूर्ति अकेले बड़े मजे में रहती है।
उसे अपने सीने पर अब कोई बोझ महसूस नहीं होता। धागे अब भी सिसकते हैं लेकिन उनकी सिसकी और हिचकी कोई नहीं सुनता।
(मंदिर से)