पत्थर की मूर्ति / ममता व्यास
पहाड़ी पर बना पुराना मंदिर बस्ती से कोसभर की दूरी पर था। आसपास के गांवों में तो ये मंदिर बहुत प्रसिद्ध था ही, दूरदराज के शहरों से भी अक्सर भक्त इस सिद्ध मंदिर में आते थे। यहाँ मांगी गयी सभी मन्नतें पूरी होती थीं। यही वज़ह थी कि जो
भी व्यक्ति इस मंदिर के सिद्ध होने की बात सुनता तो मन्नत का धागा बाँधने खिंचा चला आता।
गांव वाले कहते थे कि ये काले पत्थर की मूर्ति ख़ुद ही ज़मीन से प्रकट हुई है। इसे किसी कारीगर ने नहीं बनाया। मंदिर में रखी काले पत्थर की मूर्ति को भक्तों ने इतना सिंदूर चढ़ा दिया था कि अब वह काली मूर्ति अपना मौलिक रंग ही खो बैठी थी। अब वह एकदम लाल दिखती थी। मंदिर के चारों तरफ़ बांस के घेरे बनाये गए थे, ताकि भक्त मूर्ति की परिक्रमा कर सकें। वे मूर्ति की परिक्रमा करते जाते और अपनी इच्छाओं, अपनी कामनाओं, अपनी लालसाओं, उम्मीदों के लाल धागे बाँधते जाते। लोगों की इच्छाओं का, उनकी कामनाओं का कोई अंत नहीं था। बांस के बने परकोटे मन्नत के लाल धागों से भर चुके थे। जब कहीं भी जगह नहीं मिलती तो लोग उस मंदिर के दरवाजों पर, चौखट पर, कुंदों पर भी मन्नत के धागे बाँध जाते। वह सिद्ध मंदिर लाल धागों की गुफा जैसा दिखता था, जिसके भीतर बरसों से खड़ी हुई मूर्ति भी लाल थी।
वैसे तो मंदिर में हमेशा ही भक्तों की बहुत चहल-पहल रहती थी, लेकिन चौमासा (बरसात का मौसम) में चार महीने मंदिर में भीड़ बहुत कम हो जाती थी। संध्या कि आरती के समय भी बस्ती के लोग कम ही आ पाते थे। बस एक नेत्रहीन गायक बिना नागा किये रोज़ उस मंदिर में आता था। वह ढोलक बजाता और अपने मधुर कंठ से सुन्दर भजन गाता था। उसके भजनों में मूर्ति के सौन्दर्य का वर्णन होता था। उसके विभिन्न रूपों का गुणगान और उसे प्रेम से भोग लगाने वाली मनुहार होती थी।
आज अमावस थी और आसमान में भी बादल गहरा रहे थे। भारी बरसात का अंदेशा था और आज वह नेत्रहीन गायक भी भजन गाने नहीं आया था। मंदिर में अब कोई नहीं आयेगा, ये सोचकर बूढ़े पुजारी ने उस पत्थर की मूर्ति के सामने रोज़ की तरह दीपक जलाया और मंदिर के पट भड़ाक-से बंद कर दिए और अपने कोठरी में जाकर चिलम फूंकने लगा।
पुजारी के जाते ही, पट के बंद होते ही मंदिर के भीतर खड़ी हंस पड़ी। उसके हंसने से पत्थर का बना वह मंदिर कांप गया।
मंदिर की चौखट हिल गयी और सहमकर बोल पड़ी "क्या हुआ, तुम इतनी ज़ोर से क्यों हंसी? क्या कोई बहुत गहरा दुख पहुँचा है तुम्हें पुजारी के दरवाज़ा बंद करते ही।"
"अरे तुम्हें कैसे पता कि दुख में ही हंसा जाता है, क्या तुम्हें भी हंसना आता है दुख पर।" मूर्ति ने अचरज से देखा।
"नहीं, अभी सिर्फ़ मुस्कुराना ही सीख पायी हूँ। हंसना सीखना चाहती हूँ। एक बात पूछूं? कई दिनों से प्रतीक्षा कर रही थी।" चौखट ज़रा अचकचाई।
"हां-हाँ बोलो न।" मूर्ति मुस्काई।
"भोर होते ही इतने सारे लोग इस मंदिर में आ जाते हैं और सभी तुम्हारे आगे झुकते हैं, आंखें बंद करके कुछ न कुछ मन ही मन मांगते हैं। क्या तुम सबके मन की बातें जान लेती हो? क्या तुम उनके भीतरी दुख समझ पाती हो? सर झुकाए लोगों के दुख, आंसू तुम्हें विचलित नहीं करते? ये जो अनगिनत धागे इस पूरे मंदिर में बाँधे गए हैं, इन सबमें कोई न कोई दुआ है, कोई न कोई इच्छा है, कामना है, अरमान हैं, उम्मीद है, क्या ये सब तुम पूरे कर सकती हो?" चौखट एक सांस में सब बोल गयी।
चौखट को बोलते देख मन्नत के धागों को भी हौसला मिल गया और वे एक साथ शिकायत के स्वर में बोल पड़े, "सुनो, पत्थर की मूर्ति क्या तुम्हें पता है हम तुम्हारी वज़ह से कितने दुखी हैं, लोग आते हैं और अपनी इच्छाओं, अपनी कामनाओं को हमारे संग लपेट देते हैं। इस चौखट पर, उस खम्भे पर या उस परकोटे की लकडिय़ों पर। हम सदियों से बंधे-बंधे उकता गए हैं। किस बात की सजा मिली है हमें? कोई मियाद है? रिहाई कब होगी? तुम क्यों नहीं सभी की मन्नत पूरी कर देती, ताकि हमें छुटकारा मिले, आजादी मिले, तुम क्या जानो मूर्ति, इन पतले धागों में कितनी भारी-भारी ख्वाहिशें छिपी हैं और ये देखो ये चौखट हमारे बोझ से दबी जाती है, ये तो कुछ बोलती नहीं तुमसे।" धागों ने चौखट की तरफ़ शिकायत से देख अपनी बात ख़त्म की।
" मैंने कभी किसी को इस मंदिर में नहीं बुलाया और न ही कहा किसी से कि वे मन्नत के धागे बाँधे आकर। लोगों ने ही मुझे यहाँ स्थापित किया है, उन्होंने कभी मुझसे मेरी इच्छा नहीं पूछी। मुझे यहाँ इस मंदिर में रखकर अब मुझसे ही वे लोग उम्मीदें करते हैं कि मैं उनके दुख दूर कर दूं। वे सब अपने विश्वास अपनी अर्जी
लेकर आते हैं। किसी को धन चाहिए, किसी को जमीन, किसी को शोहरत, किसी
को स्वास्थ्य, किसी को प्रेम, किसी को औलाद...जितने लोग उतनी ही उनकी कामनाएँ। "
मैं कैसे किसी की मन्नत पूरी कर सकती हूँ, जबकि मैं ख़ुद अभिशप्त हूँ। मैंने आज तक किसी की कोई मन्नत पूरी नहीं की। पहले मैं शीशे की मूर्ति हुआ करती थी पारदर्शी, आईने जैसी, उस समय कोई भी आकर मुझमें अपना अक्स बखूबी देख सकता था, लेकिन जब भी मैंने उन्हें उनकी असली सूरत दिखानी चाही, वे क्रोधित हो गए और मुझे तोड़ा। बार-बार टूट-टूटकर मैं बिखरती रही, मेरा वजूद तहस-नहस होता रहा, फिर मैंने दुनिया से ख़ुद को बचाने के लिए ये पत्थर का खोल पहन लिया। मेरे भीतर अब भी प्रेम का, संवेदना का, कोमलता का झरना बहता है पर कभी कान लगाकर मुझे कोई नहीं सुनता। सब मुझे हर बार हाथों से छूकर देखते हैं और मैं उन्हें खुरदरी महसूस होती हूँ।
रोज जब इस मंदिर के पट बंद हो जाते हैं न, उस वक़्त मैं चुपके से मंदिर से निकलकर खुली हवा में सांस लेती हूँ। चांद में चांदनी बन जाती हूँ, फूलों में ख़ुशबू बन महकती हूँ। मैं भी बोलना चाहती हूँ, मैं भी हंसना चाहती हूँ और रोना भी जी भरकर।
...मंदिर के भीतर मैं कितनी असहाय हूँ, जबकि हर आने वाला व्यक्ति मुझसे सहायता कि उम्मीद करता है। मैं भावशून्य होकर संसार भर की बातें सुनती हूँ। कभी-कभी मेरा जी इतना घबरा जाता है कि मंदिरों को भस्म करने का मन करता है। स्याह रातों में मेरी चीख कोई भक्त नहीं सुनता। रातभर मेरी आंखें रोई हैं, ये सुबह कोई भक्त नहीं देख पाता, वह पाखंडी पुजारी भी नहीं। छप्पन भोग देख-देख मेरी भूख कब की मर चुकी है। फूलों के अनगिनत हारों के बीच मैं कितनी हारी हुई हूँ, कोई नहीं जानता। मूर्ति ने ठंडी आह भरी।
एक वह नेत्रहीन गायक के भजन ही मेरे मन को सुकून देते हैं। वह मुझे देख नहीं सकता, लेकिन उसके सच्चे भाव मुझे जीवित होने का अहसास देते हैं। वह नहीं लाता मेरे लिए छप्पन भोग, सुगन्धित हार और लाल-हरी चुनरी, लेकिन उसके मधुर गीतों में मेरे लिए सुन्दर भावनाएँ होती हैं। जब वह गाता है तो मैं उस पत्थर से निकलकर उसके पास आकर बैठ जाती हूँ। आज तो वह नेत्रहीन गायक भी नहीं आया। कितना सूनापन है आज इस अभागे मंदिर में... मूर्ति उदास हो गयी।
संसार में कभी कोई नहीं जान पायेगा कि विशाल मंदिरों के भीतर मूर्तियाँ कितनी अकेली होती हैं। वे किसी को कोई वरदान नहीं देती हैं, वे तो ख़ुद शापित होती हैं।
"सुनो...चौखट के धागो, तुम मुझसे नाराज मत रहो। जमानेभर की श्रद्धा-विश्वास और मन्नतों का बोझ लिए तुम कब तक मुझे यूं शिकायती नजरों से घूरते रहोगे। चलो आज मैं इस चौखट को ही उखाड़कर फेंक देती हूँ। वैसे भी इतने धागों के बोझ से ये झुकी जा रही है और मैं भी तुम्हें देख-देख दुख में डूबती जा रही हूँ।" मूर्ति दर्द से कराह उठी।
उस अमावस की रात उस मूर्ति ने उस प्राचीन मंदिर को ही ढहा दिया। मूर्ति खंडित हो गयी, चौखट टूट गयी, धागे यहां-वहाँ बिखर गये। उस रात चौखट धागों के बंधन से मुक्त हो गयी थी और सभी लाल धागे मन्नतों से आजाद थे।
गांव वालों ने ये ख़बर सुनी तो उस खंडित मूर्ति को पूजना बंद कर दिया। वह सिद्ध मंदिर अब अभिशप्त घोषित कर दिया गया। उस दिन से कोई भक्त मंदिर में नहीं आया। (पुजारी और भक्तों ने अपने लिए नए सिद्ध मंदिर बना लिए थे) अब मूर्ति अकेले बड़े मजे में रहती है। लाल धागे जहां-जहाँ गिरे, वहाँ लाल फूल उग आये। उनमें छिपी हुई मन्नतें, कामनायें, इच्छाएँ, अर्जियाँ अब आजाद होकर आसमान में उड़ती हैं। सुनसान पड़े उस मंदिर में वह नेत्रहीन गायक अब भी भजन गाने आता है उसकी अंधी आंखें खंडित-अखंडित मूर्ति का भेद नहीं कर पाती। वह नहीं जानता कि मूर्ति अब टूट चुकी है। उस अबोध को नहीं पता कि मंदिर अभिशप्त हो चुका है। वह अनजान है कि मूर्ति अब सुन्दर नहीं रही, वह अब भी उसके सौन्दर्य के गीत गाता है।