पत्थर के फूल / कबीर संजय

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तो साहेबान, ये बात जान लीजिए कि आज के जमाने के सबसे बड़े अविष्कारक मार्क जुकरबर्ग साहिब ने, जो शायद उम्र में मुझसे कुछ छोटे ही बैठते हैं और जो एक ही रंग और डिजायन की बीसों टी-शर्ट बदल-बदल कर पहनने के लिए मशहूर हैं, अगर अपना वो सबसे मशहूर आविष्कार नहीं किया होता जो इस जमाने में फेसबुक के नाम से मशहूर है, तो यह कहानी शायद पैदा न हो पाती। हालाँकि, इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि कहानी के शुरू होने में जनाब का कोई रोल नहीं है। यह तो बस वक्त और हालात हैं जिन्होंने उन्हें इस कहानी का सबब बना दिया है। और एक बात कह दूँ, कि ज्यादा लंबी भूमिका बाँधना तो ठीक है नहीं, अजी हम कोई टीवी चैनल तो हैं नहीं कि आपसे कहते रहें कि कहीं जाइएगा नहीं, हम लौटते हैं बस एक छोटे से ब्रेक के बाद। भूमिका लंबी हुई नहीं कि आपने पन्ने पलटे नहीं। तो साहिब बस जरा सा इंतजार करिएगा, मैं आपके और कहानी के बीच से गायब हो जाऊँगा। बस बीच-बीच में हो सकता है कि मेरी एकाध झलक आपको दिख जाए।

हाँ, ये जरूर जान लीजिए कि बात कब की है। पुराने जमाने में बड़ी सुविधा थी, हर कहानी शुरू होती थी, बहुत समय पहले की बात है, से। लेकिन, मालिक, यह बात बहुत समय पहले की नहीं है। बस यह जानिए कि तब तक देश के सबसे जवान प्रधानमंत्री की हत्या हो चुकी थी और देश का बीस टन सोना गिरवी रखा जा चुका था। इसके बाद आए एक प्रधानमंत्री ने, जो बात-बात पर अपने होंठों पर जुबान फेर-फेर कर उन्हें गीला करते रहते थे, दुनिया की सारी खिड़कियाँ खोल दी थीं। हमारे आज के प्रधानमंत्री साहिब उस समय वित्त मंत्री हुआ करते थे। लोगों को जोर-शोर से यह समझाया जाने लगा था कि अब दुनिया एक गाँव में तब्दील हो गई है। सिकुड़ गई है। छोटी हो गई है। सोवियत संघ टूट गया था और बर्लिन की दीवार ढहाई जा चुकी थी। खैर, इन बातों से हमें ज्यादा मतलब नहीं है। हम तो सिरफ यह कहना चाहते हैं कि इसी समय एक पिक्चर भी आई थी, जिसका नाम था, पत्थर के फूल।

याद है न। हमारे आज के दबंग सलमान साहब तब रंगरूट हुआ करते थे। पिक्चर की भी पूरी पिक्चर है। इसमें एक गाना था। आपको जरूर याद होगा। खासतौर पर अगर आपका जन्म सत्तर के दशक में हुआ है तो। कभी लिकिंग रोड, कभी पैडस रोड, तू इतने दिन थी कहाँ, मैं ढूँढ़ता ही रहा। जी हाँ, ठीक समझे आप साहिबान लोग। वही जिसमें सलमान खान और उनकी हीरोइन रहीं रवीना टंडन, जिन्होंने बाद में उदयपुर के एक महल में राजकुमारियों जैसी शादी की थी, पैरों में रोलर स्केट पहने, मुंबई की सड़कों की खाक छानते हैं। सड़कों के नाम इस गाने में हैं, आवाज एसपी बाला सुब्रह्मणयम और लता की है। एसपी की थोड़ी भर्राई हुई-सी आवाज। और रोलर स्केट पर लुढ़कते, नीली जींस और ढीली-ढाली फुल बाजू की शर्ट पहने सलमान खान। और साथ में जींस पहने, पतली कमरवाली रवीना टंडन। जिसके बालों का एक गुच्छा बार-बार शरारत करते हुए आधे चेहरे को ढँकने के लिए आ खड़ा होता। सिर को थोड़ा सा झटक कर रवीना बालों को पीछे भेजती, और कभी लिकिंग रोड, कभी पैडस रोड।

रेशमा की जवानी

सुधीर कद में नाटा था। लेकिन था फुर्तीला। गुणी भी कम नहीं। करौंदे तोड़ने और आम के पेड़ पर निशाना साधने से ले कर बम बनाने तक में माहिर। पोटाश और पटाखे का मसाला मिला कर सुतली से बम बाँधना अपने दोस्तों में सबसे पहले उसने ही सीखा। एक छोटी अठारह इंची साइकिल पर कालेज आता। साइकिल चलाता तो ऐसे लगता कि कोई बड़ा आदमी बेहद छोटी साइकिल चला रहा है। दोस्तों के इस ग्रुप में रवींदर भी था। क्रिकेट खेलने में उस्ताद। खासतौर पर ओपनिंग बैट्समैन। वसीम, उदय, राजकुमार और पराग। पराग, जिसकी कि यह कहानी है। और उस समय ये सब लोग दसवीं कक्षा के छात्र हुआ करते थे।

चंद्रलोक सिनेमा में पत्थर के फूल को लगे हुए तीन दिन हो गए थे। सुधीर को ही सबसे पहले पिक्चर की तलब लगी। कॉलेज के ग्राउंड में मस्ती करते-करते अचानक ही प्लान बना कि चल कर पिक्चर देखी जाए। सब लोग तैयार। पैसा झाड़ा गया। पिक्चर नई थी। सबसे आगेवाली सीटों का भी टिकट 12 रुपए से कम नहीं था। चंद्रलोक शहर का सबसे अच्छा सिनेमा हाल था। खैर किसी तरह जोड़-जाड़ कर इतने पैसे हो गए कि सिनेमा हाल तक जाने की हिम्मत की जा सके। एक बार पहले धोखा हो चुका था, जब सभी लोग अर्नाल्ड श्वार्जेनेगर की फिल्म कमांडो देखने गए थे और टिकट और साइकिल स्टैंड का मिला कर जिस रकम का खर्चा आ रहा था, उसमें से सिर्फ चार रुपए कम पड़ गए थे और सभी को वापस लौटना पड़ा। इसलिए अब पैसा गिनने के बाद ही कोई सिनेमाहाल की तरफ का रुख करता।

एक बार और भी धोखा हो गया था। लक्ष्मी टॉकीज में फिल्म लगी थी रेशमा की जवानी। शहर भर में जगह-जगह लगे पोस्टरों के रहस्य से विस्मित सभी पहुँच गए फिल्म देखने। फिल्म के बीच ही सबने देखा कि उसी लाइन में संजीत को ट्यूशन पढ़ानेवाले लालमणि मिश्रा भी बैठे हुए हैं। खैर पिक्चर तो किसी ने नहीं छोड़ी, हाँ लालमणि सर पर थोड़ा गुस्साते रहे। दूसरों को तो भाषण देते हैं लेकिन खुद यहाँ रेशमा की जवानी देखने आए हैं। इस जवानी का तिलिस्म कई दिनों तक उन्हें अपनी बाँहों में समेटे रहा। मोटी-मोटी टाँगोंवाली कोई औरत, नहाते हुए उसके हाथ पीठ तक पहुँच नहीं पा रहे हैं। किशोर दुबला-पतला एक लड़का। मोटी औरत ने अपना पेटीकोट छाती पर बाँधा हुआ है। पानी की धार उसकी छाती से बहते हुए उसकी जाँघों के बीच से गिर रही है। पानी में सबकुछ गीला-गीला है। साबुन के फेन से चिकना-चिकना है। रेशमा ने लड़के से कहा, लगा दे रे, पीठ पर साबुन। लड़का काँपते हाथों से साबुन लगाने लगा। पहले पीठ पर। फिर कंधे पर। फिर उसने पेटीकोट थोड़ा ऊपर किया और मोटी गोल-गोल जाँघें दिखने लगीं। उसके हाथ फिसलते हैं। सबकुछ गीला-गीला और फेन-फेन। वे भी हो जाते हैं थोड़े-थोड़े गीले, कुछ पसीने से तो कुछ अपनी उम्र से। और बीच में लाइट कट जाती। फिर हो हल्ला होने लगता। लक्ष्मी टाकीज की एकाध सीट तोड़ने में जरूर उनका भी हाथ रहा होगा।

जब साइकिल स्टैंड का खर्च बचाने के लिए एक साइकिल पर तीन-तीन लोग सवार हो कर और साइकिल को रिक्शा चालकों की तरह दोनों तरफ झुक-झुक कर चलाते और हाँफते हुए वे चंद्रलोक सिनेमा पहुँचे तो देखा कि वहाँ पर टिकट लेनेवालों की लंबी लाइन लगी हुई थी। टिकट खिड़की अभी खुली नहीं थी। लेकिन लाइन पहले से तैयार है। उनमें से एक लाइन में पीछे लग गया। बाकी खिड़की के पास मँडराने लगे। कुछ देर में खिड़की खुली और भहरा कर पूरी लाइन टूट गई और पूरी भीड़ बर्र के छत्ते की तरह खिड़की पर चिपक गई। बस किसी तरह से टिकट खिड़की की सलाखों में हाथ घुस जाए तो फिर टिकट निकाल कर मानेंगे।

वे छह थे। सुधीर को सारे पैसे पकड़ाए गए। उसे सबने खिड़की की तरफ ठेलना शुरू किया। लेकिन खिड़की तक पहुँचना मुश्किल था। फिर सबने उसे ऊपर उठाया। लोगों के सिर के ऊपर से तैरते हुए वह टिकट खिड़की तक पहुँचा। उसने अपना हाथ टिकट खिड़की में घुसेड़ा और कुछ ही देर में टिकट ले कर बाहर आ गया। उसकी यही खूबी थी, जिसके सब कायल थे। इसके कुछ ही देर बाद वहाँ पर पुलिस आ गई थी। जिसने हंगामा करनेवाले कुछ लोगों को धकियाया भी था। लेकिन तब तक वे लोग इससे बहुत दूर हो कर सिनेमा हाल में अपनी कुर्सियों पर जा कर बैठ चुके थे।

पतली-दुबली रवीना टंडन ने जब अपनी एक उँगली ठोड़ी पर रख कर और सिर को अदा के साथ इधर-उधर घुमाते हुए और अपनी साड़ी का आँचल कमर में खोंसते हुए गाना गया कि कभी तू छलिया लगता है, कभी अनाड़ी लगता है, कभी आवारा लगता है, तो उनके दिल भी बल्लियों उछलने लगे। उन्होंने भी सीटियों का जोर आजमाया और रवीना को जोश दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। और जब रोलर स्केट बाँधे सलमान और रवीना ने बंबई की सड़कों की खाक छाननी शुरू की तो लगा कि दिल ही बस में नहीं रहा।

पाँव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे

आरएसएस के स्कूल में डेढ़ घंटे सुबह प्रार्थना, बीच में आधा घंटा भोजनमंत्र और छुट्टी के समय राष्ट्रगीत गाते-गाते जब पराग ने आठवीं कक्षा पास की तो आजादी का पहला अहसास सिगरेट के कश और दिन भर की मटरगश्ती के तौर पर सामने आया। कॉलेज पहुँचे तो स्कूल से माहौल एकदम जुदा था। प्रार्थना होती थी दया कर दान विद्या का हमें परमात्मा देना। सरस्वती वंदना, एकात्मता स्त्रोत, शांति पाठ, गायत्री मंत्र यानी कुल मिला कर की जानेवाली डेढ़ घंटे की प्रार्थना से मन इतना ऊबा हुआ था कि अब जब मन करता था तभी जा कर वह शक्ति हमें दो दयानिधे कर्तव्य मार्ग पर डट जाएँ होता था। बाकी जिधर साइकिल घूम गई, उधर ही क्लास लग जाती। सिगरेट की पहली फूँक में धुआँ फेफड़े को उधाड़ता हुआ-सा लगा, फिर तो धीरे-धीरे सिगरेट के छल्ले बनाने में भी महारत हासिल हो गई। हालाँकि अभी भी इसे सिगरेट पीना नहीं कहा जा सकता था। इसके अलावा कुछ और चीजें भी सीखीं।

एक दिन सभी दोस्तों की साइकिलें लड़कियों के कॉलेज की तरफ घूम गईं। कॉलेज के गेट तक जाने की हिम्मत तो नहीं पड़ी लेकिन, नुक्कड़ पर खड़े-खड़े कई लड़कियों के साथ आँखें मिलाने की कोशिशें जरूर हुईं। इसके अलावा, जब मन किया तो गंगा नहाने चले गए। तैरने में तो सभी माहिर थे। कई बार तो उस पार जा कर चोरी से तरबूज तोड़ लिया और उसे पानी में तैराते हुए इस पार ले आए। कुल मिला कर यह आजादी का पहला अहसास था। घर से कॉलेज थोड़ा दूर था। गाँव-मोहल्ले टोलेवाले कम थे। पहचान का कोई कम ही मिलता था कि घर पर तुरंत शिकायत हो जाएगी।

तो साहिबान, कहानी यहीं से शुरू होती है। पत्थर के फूल में जलवे देखने के बाद रोलर स्केट के दाम पता लगाए जाने लगे। कहाँ सीखा जा सकता है। कैसे सीखा जा सकता है। इन सवालों की जिरह शुरू हुई। हालाँकि, जिरह के लंबे वक्त के बाद ही जब कहीं जा कर रोलर स्केट्स पर मालिकाना हक हासिल होने की हसरत पूरी हो सकी, तब तक सलमान खान की फिल्म को आए हुए दो साल से भी ज्यादा हो चुके थे। निरंजन टाकीज के सामने गली में खान साहब की दुकान से खूब मोलभाव करके आधे-साझे में एक जोड़ी स्केट खरीदे गए। साझा पराग और उदय का था। खान साहब की दुकान खेल के सामान सस्ते में बेचने के लिए मशहूर थी। इसके बावजूद जितना बन पड़ा, उतना मोल-भाव कराया गया।

लौटते समय पराग साइकिल चला रहा था। उदय साइकिल के डंडे पर बैठा था। उसके दोनों हाथ हैंडल पर थे। हाथों में उसने स्केट्स के फीते पकड़ रखे थे। साइकिल के आगे हैंडल के सामने स्केट्स लटक रहे थे। यही उनका गर्व था। हर कोई उनकी तरफ देख रहा था। अरे, यह क्या। यह तो गराड़ीवाला जूता है। पहिए लगे हैं, इसे चलाने में तो गिर भी सकते हैं।

और साहब, इस बीच में देश भी अजीब-से भँवर में फँस चुका था। बाबरी मस्जिद गिराई जा चुकी थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तमाम शाखाओं में उसके गिराए हुए पत्थर दर्शन के लिए प्रस्तुत किए जा रहे थे। जैसे किसी भग्नावशेष इमारत के इन जर्जर पत्थरों से ही इतिहास का कोई बड़ा अध्याय लिखा जानेवाला हो। नमस्ते सदा वत्सले के साथ ही ध्वज के सामने इन अवशेषों को गर्व के साथ रखा गया था। लेकिन, दोस्तों के लिए खुशी की बात थी। कल्याण सिंह की सरकार चली गई। राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। इसके साथ ही उनके पास होने की संभावनाएँ भी बढ़ गई थीं। कल्याण सिंह के जमाने में लागू नकल अध्यादेश ने कई छात्रों को बहुत ही कम उम्र में जेल के दर्शन कराए थे। इसलिए उनके मन में भी परीक्षा से डर बैठा हुआ था। कल्याण सिंह की सरकार गिरी तो वे भी थोड़ा आजाद हुए।

नई आर्थिक नीतियों के जरिए देश बेचने और रोजगार को समाप्त करने के आरोप लगाए जा रहे थे। आए दिन ही इसके खिलाफ पर्चा बाँटने, जुलूस निकालने और नुक्कड़ नाटक करनेवाले दिखाई पड़ जाते। लेकिन, उन्हें इसे ले कर चिंता नहीं थी। क्योंकि, वे तो अभी रोजगार की तलाश से बहुत दूर थे।

उनके खयालों में तो बस रोलर स्केट और सड़क पर फिसलती रवीना टंडन और सलमान खान ही बसे हुए थे। घर से कुछ दूरी पर इंजीनियरिंग कॉलेज है। यहाँ पर खेल का बड़ा-सा स्टेडियम है। बैडमिंटन और लॉन टेनिस के कोर्ट हैं। और एक कोर्ट स्केटिंग का है। खेल की तमाम सुविधाएँ हैं। लेकिन खिलाड़ी नदारद हैं। क्योंकि, खिलाड़ियों के ऊपर किताबों का बोझ ही इतना ज्यादा है कि उसी से वेटलिफ्टिंग करते हुए उनका दिन बीत जाता है। कॉलेज में वे लोग अक्सर ही सुबह टहलने जाया करते थे। यहीं के स्केटिंग कोर्ट में उन्हें प्रेक्टिस करनी थी।

घर आने पर उस समय तो स्केट्स को ढक-तोप कर रख दिया गया। तय हुआ कि सुबह-सुबह उठ कर चलेंगे। प्रेक्टिस करने। रात में क्या वक्त रहा होगा जब उदय ने आवाज दी। पता नहीं। उसकी बस बीच में नींद टूटी थी और वह उठ कर चला आया था। उसकी आवाज सुन कर बस पराग भी जागा और चुपचाप बिना मुँह धोए ही बाहर निकल आया। स्केट्स लटका कर वे इंजीनियरिंग कॉलेज की तरफ चल दिए। जगह-जगह पर चोट खाने, खरोंचें झेलने और सबसे ज्यादा तो पिछवाड़े के बल गिरने के चलते उसके मजबूत हो जाने के लगातार अभ्यास के बाद आखिरकार उन्होंने स्केटिंग सीख ही ली। फिर कुछ और दोस्तों ने भी स्केट्स खरीदे और उन्हें चलाना सीख लिया। और एक दिन पैर में स्केट बाँध कर सड़क पर भी निकल पड़े।

पहला नशा - पहला खुमार

ये बरसात बीतने के बाद की एक सुनहरी सुबह थी। बादलों के बल-भर बरसने के बाद पूरी धरती का भीगापन और उफनायापन अभी भी ताजा था। सड़कों के किनारे खड़े सबसे बदसूरत पेड़ भी साफ-सुथरे चमकदार लग रहे थे। पत्तियों पर जमी धूल बेतरह साफ हो चुकी थी। नहा-धो कर, साफ-सुथरे कपड़े पहने पेड़ों की खूबसूरती देखते ही बनती थी। घर से निकल कर वे यूनिवर्सिटी जानेवाली मेन रोड पर आ जाते। सड़क पर एक किनारे बैठ कर उन्होंने स्केट बाँधे। वहाँ से निकल पड़े। यहाँ से मजार के बीच तक का पूरा रास्ता मिलिट्री एरिया है। इसके दोनों तरफ ठिगने पेड़ों की हरी पट्टी बिछी हुई है। जबकि, इसके बाद चैथम लाइंस के इलाके में चिलबिल के भी कुछ पेड़ खड़े हैं। इस सुबह की सुनहरी धूप इन पेड़ों से छन-छन कर सड़क कर पर गिर रही थी। वे स्केट चलाते हुए यूनिविर्सटी तक गए थे और वहाँ से लौट रहे थे। यह करीब तीन किलोमीटर की दूरी थी जिसे उन्होंने स्केट चलाते हुए तय किया थी।

लेकिन, लौटते समय उस सुनहरी और मखमली सुबह को जो हुआ वह पहले कभी नहीं हुआ था। इंटरनेशनल हॉस्टल के पास थोड़ा ढाल-सा है। वहाँ पर अपने स्केट की गति धीमी करते हुए जब वे उतर रहे थे तो गर्ल्स कॉलेज की टाली आती दिखी। सुबह के साढ़े सात बजे का वक्त था। सड़क पर चहल-पहल नहीं थी। रिक्शा टॉली में दोनों कतारों में लड़कियाँ बैठी हुई थीं। हालाँकि, फिल्म आए तो समय हो गया था लेकिन विकल्पों के अभाव में अभी भी लड़कियों को पलटाने के लिए वे लोग त्रिदेव फिल्म का ओए-ओए, ओए-ओओवा ही चिल्लाते थे। सुबह स्केटिंग करते हुए शायद ही किसी लड़की को स्टाइल दिखाने से वे बाज आते हों।

लड़कियों की रिक्शा टाली दिखते ही उनके शरीर थोड़ा और तन गए। बड़ी अदा से अपने स्केट सड़क पर घिसते हुए उन्होंने त्रिदेव फिल्म का यही नारा लगाया। टाली की लड़कियों की निगाह उनके ही ऊपर थी। तभी पराग की निगाह पहली बार उससे मिली। वो, जिसके लिए यह कहानी लिखी गई है।

उस सुहानी सुबह उसने स्कूल यूनीफार्म की सफेद शर्ट और गुलाबी रंग का स्कर्ट पहन रखा था। बाल उसके बॉब कट थे और कानों को थोड़ा ढक लेते थे। बालों की लट चेहरे पर न आ जाए इसके लिए उसने एक हेयरबैंड लगाया हुआ था। प्लास्टिक का यह हेयरबैंड उसके बालों को पीछे करता था। वह टाली की बाईं तरफवाली कतार में सबसे आगे बैठी हुई थी। एकदम से पराग की आँखें उससे मिल गईं। उन बड़ी-बड़ी आँखों में कुछ था। यह पराग उस दिन तो नहीं पढ़ पाया। लेकिन कुछ था तो जरूर, जो दिल धक से कर गया। साँसें तेज हो गईं। लगा कि जैसे स्केटिंग सीखना सफल हो गया।

ज्यादा नहीं यह बस एक झलक थी। पतली-दुबली, हल्के साँवले रंग की एक लड़की ने जैसे पहली बार उसे भर निगाह देखा था। घुटनों तक की गुलाबी स्कर्ट में वह कोई फुदकती हुई चिड़िया-सी लगी। लेकिन यह झलक तो बहुत जल्द बीत गई। उसकी टॉली आगे निकल गई और हम आगे। लेकिन, बाद का सारा रास्ता ऐसे ही बीता। पराग उसको याद करता रहा।

अगले दिन भी उस तरह से उसके सामने से गुजरने की कोशिश हुई। सुबह से तैयारी की। दोस्तों को तैयार किया। स्केटिंग करते हुए यूनिवर्सिटी तक गए और वहाँ से वापस आने लगे। कमिश्नर साहब के बँगले से दिल धड़कने लगा। समय कलवाला ही था। पराग को लगा कि किसी भी क्षण उसकी टाली दिख सकती है। लेकिन नहीं दिखी। इस तरह से एक नहीं कई दिन बीत गए। लेकिन, न तो वह दिखी और न ही उसकी टाली। यह तो बाद में पता चला कि उस दिन एक्स्ट्रा क्लास थी। इसलिए वे जल्दी स्कूल जा रही थीं। नहीं तो उनके स्कूल की टाइमिंग तो दूसरी थी।

सतआवाजे की मोहब्बत और विश्वासघात

दीवाली के पटाखे कई तरह के होते हैं। गड्डा, बम, एटमबम, दुईआवाजा और सतआवाजा। सतआवाजा के बारे में दावा किया जाता है कि उसमें एक के बाद एक सात बार धमाके होते हैं। यानी पटाखा सात बार फूटता है और सातों बार बा-आवाजे बुलंद। हमारे मोहल्ले में राजू उर्फ मृत्युंजय शर्मा उर्फ सतआवाजा भी रहता था। ऐसे ही उसकी भी आवाज बा- आवाजे बुलंद थी। कोई बात धीमे से भी कहनी होती तो भी आवाज उसकी जोरदार निकलती। जैसे मुनादी करनेवालों के खानदान का कोई योग्य वारिस हो। या फिर कोर्ट के बाहर से आवाज देनेवाला, फलाना वल्द ढकाना हाजिर हों, या फिर जेल में खड़ा पहरेदार जो आवाज लगाए मुलाकात का वक्त खत्म हो गया। कुछ ऐसी ही भारी-भरकम थी उसकी आवाज। माँ-बाप ने तो बिना गुण-दुर्गुण का विचार किए उसको नाम दिया मृत्युंजय लेकिन दोस्तों ने उसके गुणों को ध्यान में रखते हुए नाम दिया सतआवाजा।

सतआवाजे का परिवार मूल रूप से आंध्र प्रदेश के किसी गाँव से आया था। यहाँ पर उसके पिता ने थोड़ी जमीन खरीदी और बस गए। शर्मा जी एक प्रेस चलाते थे। जहाँ पर अक्षर पर अक्षर जोड़ कर प्रिंट किया जाता था। चूँकि प्रेस का काम इतना नहीं आता था तो उन्होंने इसके साथ ही आटा चक्की भी लगा रखी थी। सतआवाजा लंबा था। दोस्तों के साथ चलता तो भीड़ में बाकी सब के सिर तो भीड़ में खो जाते, लेकिन सतआवाजे की शकल दूर से दिखाई पड़ जाती। जैसे जंगल में जिराफ अपनी गर्दन उठाए चला जा रहा हो और घने जंगलों से भी ऊपर, पेड़ों की फुनगी से भी ऊपर उसका सिर दिख रहा हो। तो ऐसा था सतआवाजा।

दोस्तों के इस दायरे में वह भी था। और एक खास बात यह भी है कि जिस जमाने में उन्हें स्कूटर माँगने के लिए कई बार हाथ-पैर जोड़ने पड़ते थे, सतआवाजे को हीरो होंडा आसानी से उपलब्ध थी। सतआवाजा इकलौता लड़का था। माने कि बाकी बहनें थीं। लड़का वह अकेला था, बाकी तीन लड़कियाँ थीं शर्मा जी की। इसलिए उसका भाव भी ज्यादा था। अक्सर ही किसी न किसी को होंडा पर बैठा कर वह घुमा लाता था। एक दिन दस बजे के लगभग का वक्त रहा होगा, सतआवाजे की बाइक पराग के घर के सामने आ लगी। बोला चल घुमा लाता हूँ। पराग भी निकल पड़ा। बिना यह पूछे कि कहाँ जाना है। इंजीनियरिंग कॉलेज के पास कुछ देर तक होंडा रोक कर वह इंतजार करता रहा।

कुछ देर बाद आई लड़कियों के स्कूल की रिक्शा टाली जब आगे से गुजर गई तो उसने बाइक टाली के पीछे लगा दिया। अभी तक पराग को अंदाजा नहीं था। लेकिन, अचानक ही उसने गौर किया कि उसी टाली में वह भी बैठी है, जिसे देख कर पराग का दिल उस सुहानी सुबह को अचानक ही धड़कने लगा था। बाइक टाली से निकल गई। आगे ले जा कर सतआवाजे ने बाइक को सड़क के किनारे खड़ा कर दिया। टाली आगे निकल गई। फिर बाइक टाली के पीछे लगा दिया। बाइक को फिर आगे निकलना पड़ा। बैंक रोड तक यह सिलसिला चलता रहा। अब सतआवाजे ने खुलासा किया, तो दाहिनी तरफवाली लाइन में जो दूसरी लड़की बैठी है, वही तेरी भाभी है।

पराग को झटका सा लगा। क्योंकि, उसे तो लगता रहा कि जिसे भाभी बनाया जा रहा है वह तो उसे ही देख रही है। खैर मोटरसाइकिल से आगा-पीछा की यह कहानी कुछ दिन तक चलती रही। सतआवाजा बाइक चलाता। पराग पीछे बैठा रहता, कभी बाइक आगे निकलती तो कभी टाली। हाँ, बीच-बीच में वह उनकी तरफ देख कर मुस्कुरा भी देती। पराग को लगता कि उसे देख कर मुस्कराई। सतआवाजे को लगता कि उसे। उसके दो प्रेमी हो गए। पराग खामोश प्रेमी। सतआवाजा अपनी बुलंद आवाज में आवाज लगाता हुआ मुखर प्रेमी। और वो मुस्कुरानेवाली लड़की, उसका नाम था नीलिमा मिश्रा।

बाइक और टाली के आगा-पीछी से तंग आ कर आखिरकार एक दिन सतआवाजा और पराग साइकिल से आए। सतआवाजा ने उसके घर का फोन नंबर भी पता कर लिया था। सतआवाजा एक दिन पहले से पराग को कन्विंस कर रहा था कि वो उसका एक छोटा-सा काम कर दे। पराग को बस करना यह था कि वो नीलिमा की टाली के पास जा कर तेजी से बोल दे कि शाम के पाँच बजे फोन करूँगा, अगर बात करना हो तो फोन उठा लेना। उस समय दोस्तों के लिए ऐसी छोटी-मोटी मदद करना आम-सी बात थी। लेकिन पराग इसके लिए खुद को तैयार नहीं कर पा रहा था।

पराग को लगा कि नीलिमा तो उसका फोन समझ कर फोन उठाएगी, जबकि बात उससे सतआवाजा करेगा। अगर कोई गड़बड़ हुई तो वो तो पराग का नाम लेगी। मतलब कि फँसना होगा तो पराग फँसेगा। और अगर फायदा होगा तो सीधे सतआवाजे का। पराग को इसमें सीधे-सीधे नुकसान-सा लगा। इसलिए अगले दिन जब वे टाली से उसके पास पहुँचे तो पराग ने उसकी टाली के पास से गुजरते हुए पाँच बजे के बजाय शाम के छह बजे फोन करने की बात कही। कहा कि अगर बात करनी हो तो फोन उठा लेना।

इतना कह कर वह तेजी से साइकिल चलाता हुआ आगे निकल गया। सतआवाजे ने ठीक शाम के पाँच बजे उसके घर में फोन किया। लेकिन, फोन किसी और ने उठाया। अगली तरफ से किसी और की आवाज सुनते ही उसने हैलो-हैलो कहते हुए फोन रख दिया। तो सतआवाजे का पत्ता कट गया। जबकि, पीसीओ में लगी घड़ी ने जैसे ही शाम के छह बजाए पराग ने काँपती उँगलियों से नंबर डायल करना शुरू किया। बेल जाने लगी। उसकी धड़कनें जोर मारने लगीं। अचानक दूसरी तरफ से हैलो की आवाज आई। पतली, थोड़ी नाक से निकलनेवाली महीन आवाज।

पराग हकलाने लगा। हैलो, मैं-मैं बोल रहा हूँ।

हाँ, पम्मी हैलो, बोल क्या हाल है।

मैं-मैं पम्मी नहीं मैं बोल रहा हूँ, याद है न सुबह कहा था।

हाँ-हाँ पम्मी बोल, मुझे सब याद है। कैसी है तू। आज तू कॉलेज आई क्यूँ नहीं।

पराग कुछ समझा कुछ नहीं समझा। लेकिन उसे तो अपना एजेंडा पूरा करना था।

उसने कहा, मैं तुम्हारे पीछे आता हूँ, तुम्हें बुरा तो नहीं लगता।

हाँ-हाँ ठीक है पम्मी, मैं तुमको नोट्स दे दूँगी।

नहीं, पराग ने कहा कि मैं तुम्हारे पीछे आऊँ कि नहीं।

हाँ-हाँ मैंने तैयार कर रखे हैं। ठीक है तो सोमवार को तो आओगी न। तो सोमवार को मिलते हैं।

और फोन रख दिया गया। पराग के हाथ अभी भी काँप रहे थे। उसने इधर-उधर देखा, जैसे कोई उसे चोरी करते हुए देख तो नहीं रहा है। पीसीओवाले पर नजर मारी, कहीं उसने बात तो नहीं सुनी। पैसे दिए और चुपचाप बाहर निकल आया। अब हर एक बात का कैसेट बार-बार रिवर्स-फारवर्ड करके सुनने लगा। तब कहीं जा कर समझ आया कि जिस समय फोन गया था उस समय फोन के आसपास कई लोग थे और उसने घर के लोगों के सामने यही जाहिर किया था कि उसकी दोस्त पम्मी का फोन है।

बुल्ला की जाणा में कौन

तो साहिबान, यही है उस मासूम विश्वासघात की कहानी। जो सन 1993 की एक शनिवार की शाम को घटी। उस शाम छह बजे आनेवाले फोन में नवीं कक्षा में पढ़नेवाली नीलिमा मिश्रा ने अपनी सहेली प्रियंवदा उर्फ पम्मी का नाम पराग के नाम से रिप्लेस कर दिया। जबकि शाम को पाँच बजे आया फोन दूसरी तरफ से आई अनपेक्षित आवाज सुन कर कट गया और सतआवाजे के दिल के अरमाँ आसुओं में बह गए। मोहब्बत की कामयाबी में टाइमिंग के महत्व से अनजान सतआवाजे ने धीरे-धीरे करके मन में संतोष किया और अपने मन को कहीं और कन्सन्ट्रेट करना शुरू किया। जबकि, पराग ने बाइक की पिछली सीट की सवारी बंद कर दी।

दोस्तो, अगर इजाजत दें तो कुछ और बातें कहूँ। दरअसल, अपनी पहचान की तलाश तो जिंदगी भर चलती रहती है। मैं कौन हूँ। कहाँ से आया हूँ। मैं क्यों पैदा हुआ हूँ। क्या कोई विशेष काम है जिसे पूरा करने के लिए मैं धरती पर आया हूँ या कि जीवन ऐसे ही गुजर जाना है। ये जो मैं हूँ, क्या वही असली मैं हूँ या फिर इसके पीछे कोई परदा है। या फिर इस बाहरी आवरण के अंदर कोई दूसरा मैं भरा हुआ है। क्या रूप को देख कर गुण का वास्तविक अंदाजा लगाया जा सकता है। खासतौर पर तब जब कि हम उसके बारे में पहले से कुछ जानते भी न हों। दाद देनी पड़ेगी उस सज्जन की जो नारियल की सूखी खाल से नहीं डरा, उसके जटा झँखाड़ से भी विचलित नहीं हुआ। और अंत में उसने अंदर से गिरी खोज ही निकाली। दाद उस सज्जन को भी देनी पड़ेगी जिसने मधुमक्खियों से भी लोहा लिया, कटवाया, अपना थोबड़ा सुजवाया, और कोई-कोई तो शहीद भी हो गया, लेकिन आखिर में मधु इकट्ठा कर ही लिया। क्या उसे कोई अंदाजा रहा होगा कि हजारों-लाखों कटखनी मधुमक्खियों ने इतना मीठा शहद छुपा रखा है।

तो साथी, पहचान की परिभाषाएँ बड़ी अलग-अलग हैं। खासतौर पर जब आप किसी बार्डर लाइन पर रहते हैं। एक तरफवाला आपको दूसरी तरफ का समझता है और दूसरी तरफवाला आपको पहली तरफ का। आप कहाँ के हैं, इसका ठीक-ठीक अंदाजा आपको भी नहीं हो पाता।

कुछ-कुछ ऐसी ही दास्तान इस मोहल्ले की भी है। नए जमाने की हवा ने बहुत कुछ बदल दिया है। पुराने जमाने के खेतों में नई-नई कॉलोनियाँ बस गई हैं। और इन हाउसिंग कालोनियों के नामकरण भी बड़े अच्छे-अच्छे किए गए हैं। लेकिन पुराने गाँव की एक अनकही-अनलिखी रूपरेखा अभी भी मौजूद थी। पहले मोहल्ले के अलग-अलग कई नाम थे। अहिरों का अहिराना, काछियों का कछियाना, कोहरान, बभनान, मल्लाहीटोला, चमरौटी, पसियाना। जाति के नाम पर यही टोले-मोहल्ले की पहचान थी। जब नई-नई कालोनियाँ बसने लगीं तो इनकी पहचान धूमिल पड़ने लगी।

नए बसनेवालों में कौन किस जाति का है, इसका अंदाजा तो उसके गेट पर लगी नेम प्लेट से होती थी। या फिर नेम प्लेट न लगी हो तो नहीं होती थी। लेकिन पुराने मोहल्ले के लोग अभी भी एक-दूसरे को इसी पहचान के साथ जानते और समझते हैं। कालोनी के आभिजात्य और अहम्मन्यता ने मोहल्ले को इसी नजरिये से देखना शुरू किया। मोहल्ले में सबसे बड़ी बस्ती मल्लाहों की थी और यह बसा भी गंगा के किनारे था। इसलिए कालोनी की निगाह में उनकी कालोनी के बाहर का पूरा मोहल्ला मल्लाहीटोला ही है। इसके बीच मौजूद बारीक विभाजन पर न तो उसकी निगाह थी और न ही चिंता।

जबकि, मल्लाहीटोला के हिसाब से पराग भी पराया था। सीमा पर रहनेवालों का यही हश्र था। उधर के लोग इधर का समझते हैं और इधर के लोग उधर का। नीलिमा कालोनी में रहती थी और पराग मोहल्ले में। कालोनी और मोहल्ले का फर्क बेतरह वहाँ मौजूद था। मोहल्ले के लड़के शाम के समय यूँ ही कालोनी के पार्क में घूमने चले जाते। वहाँ गोरी-गोरी, सुंदर-स्वस्थ लड़कियाँ कभी अपनी बालकनी में किताब ले कर टहलती हुई दिख जातीं तो कभी पार्क के सामने की सड़क पर टहलते हुए। और वहीं पर न जाने कितने आशिक, हातिमताई की तरह उस सवाल का हल ढूँढ़ते हुए, घूमते हुए दिखते कि बस एक बार देखा है और दूसरी बार देखने की तमन्ना है। इस सवाल का जवाब ढूँढ़ने के लिए सात समंदर और सात पहाड़ पार करने के बजाय कालोनी के सात क्या सात सौ चक्कर लगाना भी उन्हें मंजूर था। मोहल्लेवालों के इन चक्करों से भी कालोनीवाले खीजते थे, परेशान थे। लेकिन, कौन इनके मुँह लगे। यह सोच कर आमतौर पर जब तक बर्दाश्त की हद न पार हो जाए, कोई बोलता नहीं था।

पहचान का एक दूसरा रूप भी उभर आया था। कालोनी के चौराहों के नाम चाहे कुछ भी हों, लेकिन उनके नाम वहाँ आसपास रहनेवाली लड़कियों के नाम पर कर दिए गए थे। जैसे अपने घर के सामने नारियल का पेड़ और लान में आड़ू का पेड़ लगानेवाले एक मेजर साहिब की बेटी के नाम पर एक चौराहे का नाम चेतना चौराहा था। जबकि, एक अन्य चौराहा कविता चौराहे के नाम पर मशहूर था। इस चौराहे के नुक्कड़वाले मकान की ऊपरी मंजिल पर कविता रहती थी। शाम के समय कविता रसोई में होती थी तो रसोई की खिड़की से बाहर लड़कों को भी कविता के दीदार होते थे और सड़क के किनारे वहाँ पर दीवानों की भीड़ इकट्ठा होने लगती थी।

एक दिन तो स्कूटर पर जा रहे दारोगा जी के दबंग बेटे को कविता की एक झलक रसोई की खिड़की में दिखी तो उसने उसे हाथ हिलाना शुरू कर दिया। जोश-जोश में ऐसे लगा जैसे कि वह भूल गया कि स्कूटर पर है और जैसे लोग पंजे के बल उचक कर अपने समथर्कों को हाथ हिलाते हैं, दबंग कुमार कुछ-कुछ ऐसा ही करने लगे। मोहल्ले के गुंडे थे। हर कोई उनसे डरता था। बाप भी पुलिस में थे। लेकिन, स्कूटर की ब्रेक को जरा भी डर नहीं लगा। उत्साह की झोंक में वे पंजे की बल पर खड़े हुए तो अचानक ही स्कूटर की ब्रेक बुरी तरह से दब गई। और दबंग कुमार मुँह के बल सड़क पर।

पंद्रह दिन अस्पताल में रहे और करीब साल भर तक दाँतों पर स्टील का जाल चढ़ा रहा। बोलते थे तो ऐसे आवाज आती थी जैसे कोई मुँह के एक कोने में सुरती दबा कर बोल रहा है। मजे की बात है जिस समय यह हादसा हुआ, कविता कढ़ाई में पूड़ी तल रही थी। उसे गिरते देख वह भी भागी-भागी बालकनी में आई। अब आगे से दबंग कुमार का कविता चौराहे से गुजरना छूट गया।

यह सबकुछ पहचान के इन्हीं काल्पनिक और वास्तविक सवालों में बहुत कुछ उलझा हुआ था। लेकिन, जनाब एक बात और बता दूँ कि अब अगर आप पीछा करके या फिर गाहे-बगाहे दीदार करके कसी लड़की के दिल तक पहुँचने का रास्ता जानना चाहते हैं तो इस खयाल को भी दिमाग में मत आने दीजिएगा। क्योंकि, जब का मैं किस्सा बता रहा हूँ उससे बीस साल बाद सरकार ने पिछियाने और घूरने पर भी बंदिशें लगा दी हैं। यानी अगर किसी लड़की को पिछियाया और दर्शन लाभ किया तो जेल की हवा खानी पड़ सकती है।

अब उस समय इसकी चिंता तो थी नहीं, सो पराग और नीलिमा की गाड़ी कुछ तो पटरी पर बैठने लगी।

आँखों ही आँखों में इशारा हो गया

पराग और नीलिमा के बीच इसके बाद अक्सर ही बातचीत होने लगी। नीलिमा के घर के सौ फेरे दिन में पराग लगाता। और अगर घर में कोई नहीं हो तो नीलिमा अपने कान के पास एक उँगली गोल-गोल घुमा कर फोन करने का संकेत दे देती। और पराग फट से पीसीओ पर पहुँच जाता। धीरे-धीरे संकेतों की भाषा और परिष्कृत होती गई। पराग नीलिमा के घर पर तीन बार घंटी बजा कर छोड़ देता। फिर दो मिनट बाद तीन बार घंटी बजा कर छोड़ देता। दो मिनट बाद जब तीसरी बार फोन करता तो उधर से नीलिमा ही फोन उठाती। अगर घर में ढेर सारे लोग जमा होते तो वह हैलो-हैलो कौन है, आवाज ही नहीं आ रही है, कह कर फोन काट देती। अगर कोई नहीं होता तो फिर बातचीत का सिलसिला शुरू हो जाता।

तकनीकी विकास की दृष्टि से देखा जाए तो उस समय प्यार करना बेहद कठिन हुआ करता था। हर हाथ में मोबाइल थमाने की एक पूँजीपति की जिद से बहुत पहले की यह बात है। उस समय खुद के पास फोन न हो तो लोग अपना पीपी नंबर लिखवाते थे। पीपी नंबर का फुलफार्म तो मुझे आज तक नहीं पता चला। कुछ लोगों से पूछा तो उन्होंने कहा कि पड़ोसी का फोन। वास्तविकता भी कुछ ऐसी ही है। खैर पराग ने भी अपना पीपी नंबर नीलिमा को बता दिया था। अब नीलिमा के घर पर भी कोई नहीं होता था तो वह झट से फोन कर लेती थी।

आप ने किसी न किसी ट्रक, या फिर किसी दीवार पर लिखा हुआ यह नारा जरूर पढ़ा होगा, शराबी के दो ठिकाने, ठेके या थाने। जी हाँ, पराग की हालत भी कुछ ऐसी ही थी। उसके भी ठिकाने तय हो गए थे। या तो नीलिमा के घर के आस-पास चक्कर काटता रहता। या फिर घर में बैठ कर पड़ोसी के घर में फोन आने का इंतजार करता रहता। यहाँ तक कि पड़ोस में बजनेवाली हर घंटी की आवाज भी उसे अच्छी तरह सुनाई देने लगी थी। एक अच्छी बात भी हुई। दिन भर आवारागर्दी करने से बचा तो घर में बैठ कर किताबों की तरफ भी कुछ हद तक रुख हो गया।

और आप साहबान शायद यह जान कर दंग रह जाएँगे कि तीन साल तक यही सबकुछ चलता रहा। आमने-सामने की तो कोई मुलाकात नहीं हुई, हाँ फोन पर हमेशा ही बातचीत होती रहती। घर से स्कूल के रास्ते पर सड़क के किनारे एक मजार पड़ती थी। खासतौर पर बृहस्पतिवार को यहाँ पर फूल चढ़ाने वालों की भारी भीड़ रहती है। लोग बड़ी श्रद्धा से मजार के बाहर बिकती हुई रेवड़ी और गुलाब की पँखुड़ियों का प्रसाद खरीदते और अंदर मजार के पास बैठे मोजाबिर (पुजारी) को देते थे। मोजाबिर उसमें से कुछ रेवड़ी के दाने निकाल कर बाकी उन्हें पकड़ा देता। इस दौरान लोग आँख बंद करके कुछ देर मजार पर ध्यान लगाते। मनौतियाँ मनाते, भूत-प्रेत अगर चढ़ा हो तो उसे दूर कर देने की इल्तिजा करते यानी दुर्दिनों को दूर करने की गुहार लगाते। मजार के बाबा आल टाइप मल्टीपरपज क्रीम जैसे थे। जिसे सुंदरता बढ़ाने के लिए भी लगाया जा सकता था। और जलने, कटने, छिलने जैसी परेशानी होने पर भी। स्कूल-कालेज के बच्चे यहाँ पर कक्षा में अच्छे नंबरों से पास होने की प्रार्थना करने आते थे, तो प्रेमी-प्रेमिका 'बनी रही जोड़ी राजा-रानी की जोड़ी रे' वाले अंदाज में। और मुसीबत के मारों का तो कहना ही क्या।

उस समय तक नीलिमा 11वीं में पहुँच चुकी थी। और पराग कॉलेज से निकल कर यूनिवर्सिटी में। एक बृहस्पतिवार की शाम को स्कूल से लौटते वक्त नीलिमा की स्कूल की टाली मजार के पास रुक गई। नीलिमा और उसके साथ की दो और लड़कियों ने बाहर से प्रसाद खरीदा। और मजार के अंदर पहुँच गईं। पराग मजार के अंदर पहले से ही मौजूद था। मजार बेहद छोटी थी। एक दिवंगत जिनकी वहाँ पर कब्र रही होगी, उसके अलावा चारों तरफ बस बहुत ही थोड़ी जगह थी। और उसकी तुलना में लोग ज्यादा थे। अंदर अगरबत्तियों का धुआँ भरा हुआ था। लोहबान की खुशबू फैली हुई थी। गुलाब जल छिड़का हुआ था। वहीं, नीलिमा के बगल में पराग भी जा कर खड़ा हो गया। जगह ज्यादा थी नहीं। इसलिए सट कर खड़े होने का बहाना भी पूरा था। उसने और नीलिमा ने आँखें बंद कर लीं। प्रसाद मोजाबिर को पकड़ाया। और कुछ देर आँखों को बंद करके यूँ ही खड़े रहे।

मन में मंत्र कौन से गूँज रहे थे, ये तो पता नहीं। इसी बीच धीमे से पराग ने नीलिमा की हथेलियों को छू लिया। उसकी हथेलियाँ खुल गईं। पराग ने कागज का एक छोटा-सा टुकड़ा उसकी हथेलियों में पकड़ा दिया। कागज का टुकड़ा अपने में समेट कर नीलिमा की हथेलियाँ बंद हो गईं। ऐसा बस एक क्षण के लिए ही हुआ। पराग के हाथ ने जब नीलिमा को छुआ तो नीलिमा की हथेलियाँ हल्के से काँप उठीं और यह छुअन जीवन भर के लिए पराग के हाथों में बस गई। अपने हाथ में नीलिमा की छुअन को बसाए हुए वह बाहर आ गया। मजार के अंदर की अगरबत्ती, लोहबान और गुलाबजल से अलग महक देनेवाली एक गंध उसके अंदर भरी हुई थी।

उस छोटे से टुकड़े में कुछ खास नहीं था। चंद लाइनों में दिल की बात लिखी हुई थी, बाकी चंद लाइनों में गाने। किशोर कुमार बहुत ज्यादा लोकप्रय थे, इसलिए बात बिना उनके पूरी ही नहीं होती थी। पत्र के अंत में लिखा हुआ था, यूँ तो अकेला भी अक्सर गिर कर सँभल सकता हूँ मैं, तुम जो पकड़ लो हाथ मेरा दुनिया बदल सकता हूँ, माँगा है तुम्हें, दुनिया के लिए, अब तो सनम खुद ही फैसला कीजिए। ओ मेरे दिल के चैन, चैन आए मेरे दिल को दुआ कीजिए। कठिन बात हिंदी के बजाय अंग्रेजी में कहने का चलन है। फिर भी उस जमाने में सीधे आईलवयू कहने के बजाय लोग यह लिखा करते थे कि आई लाइक यू। इसलिए पराग ने भी अपने पत्र में यही लिखा हुआ था।

इस छोटे से टुकड़े का यूँ तो कोई जवाब नहीं आया लेकिन वो जो छुअन थी, उसने किसी भी जवाब की कमी पूरी कर दी थी।

पंख लगा कर उड़ गए साल

साल पंख लगा कर उड़ गए। सही मायने में देखा जाए तो पहली बार निगाह मिलने के लगभग तीन साल बाद कहीं जा कर पराग और नीलिमा की वास्तविक मुलाकात हुई। पराग बीए के आखिरी साल में पहुँच चुका था। जबकि, नीलिमा ने इंटरमीडिएट पास कर लिया। गर्ल्स डिग्री कॉलेज में उसका एडमीशन हो गया। एडमीशन के बाद जब पहली बार वह क्लास अटेंड करने कॉलेज पहुँची तो उसने पराग के पीपी नंबर पर फोन किया। कुछ ही देर में पराग कॉलेज के सामने हाजिर था। कॉलेज से थोड़ी दूर पर सड़क के किनारे काफी देर तक खड़े हो कर वे बात करते रहे।

इसी दौरान पराग का परिचय शर्मिष्ठा बनर्जी से हुआ। नीलिमा की इस सहेली को वह जानता तो था लेकिन मुलाकात नहीं थी। इसके कुछ दिन बाद ही शर्मिष्ठा और उसका ब्वायफ्रेंड पंकज, पराग और नीलिमा, सब एक साथ कंपनी बाग गए। यहाँ पर पब्लिक लाइब्रेरी के सामने टहलते-टहलते अचानक ही पराग ने नीलिमा का हाथ पकड़ लिया। नीलिमा के हाथ काँपने लगे। दोनों एक-दूसरे की उँगलियों में उँगलियाँ फँसाए काफी देर तक बस यूँ ही टहलते रहे।

डिग्री कॉलेज आने के बाद समय की गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली। अब अक्सर ही वे सरस्वती घाट, नेहरू पार्क या फिर कंपनी बाग में मुलाकात करने लगे। हालाँकि, अभी दोनों के मन में मोहल्ले और कालोनी का भेद बैठा हुआ था। इसके बावजूद दोनों में बहुत सी बातें साझा होने लगीं। आगे क्या करना है। कैसे जिंदगी बितानी है, इस तरह के मुद्दे भी उनमें डिस्कस होने लगे।

सरस्वती घाट की सीढ़ियाँ बड़ा सुकून देती हैं। सीढ़ियों पर बैठ जाओ तो सामने हरी-हरी सी यमुना जी का बड़ा सा पाट दिखाई पड़ता है। दूर सामने अरैल दिखता है। तो बाईं तरफ संगम। सीढ़ियों से उतर कर बाईं तरफ जाने पर थोड़ा आगे से अकबर का किला शुरू हो जाता है। यहाँ की कुछेक दीवारें टूटी हुई हैं। पूरे एक दीवान से भी ज्यादा चौड़ी इन दीवारों और इसके आसपास कई प्रेमी जोड़े बैठे रहते हैं। जबकि, घाट पर नाव लगाए मल्लाहों की भीड़ लगी होती है। प्रेमी जोड़ों में से अक्सर ही लोग इन नावों पर सवारी करके कुछ दूर तक नौका विहार करने भी जाते हैं। घाट पर ही एक छोटा सा धोबीघाट भी है। यहाँ पर कपड़े फटकारते धोबियों की आवाजें लगातार ही गूँजती रहती हैं।

फरवरी के आखिरी या फिर मार्च के शुरुआती दिन थे। जाड़ा उतर रहा था। पराग और नीलिमा ने कॉलेज से बंक मारी थी और सुबह से ही आ कर अकबर के किले की एक टूटी दीवार पर बैठ गए। जाड़े के लंबे मौसम के बाद अब कहीं जा कर धूप में बैठने से पींठ को सेंक सी लग रही थी। पराग ने मिलिट्री कलर की जैकेट पहन रखी थी। जिसमें बटन और चेन की जगह पर कई छोटे-छोटे एंकर लगे हुए थे। नीलिमा ने ऊपर काले रंग का विंडचीटर पहन रखा था। उसके नीचे गुलाबी रंग का सूट था। गुलाबी रंग का उसका दुपट्टा जालीदार था। दुपट्टे की जालियों में पराग के जैकेट के एंकर बार-बार फँस रहे थे। जिसे निकालने के लिए दोनों को मशक्कत करनी पड़ती थी। इसमें एक लोभ भी था। एंकर छुड़ाते समय अक्सर ही उनके सिर टकरा जाते। साँसें एक-दूसरे को छूने लगतीं। गाल दहकने लगते।

फिर दोनों ने जैकेट उतार दी। धूप में बैठने का अहसास बेहद सुखद था। जाड़े के दिनों में बड़ी तादाद में परदेसी परिंदे संगम की ओर आ जाते हैं। ये दिन भर संगम और आसपास के हिस्से में पानी पर तैरते और मँडराते रहते हैं। संगम में इसी दौरान माघ या कुंभ मेला लगे होने के चलते लोगों की खासी भीड़ होती है। श्रद्धालु इन पक्षियों को भी कुछ दान करना पुण्य का काम समझने लगे हैं। इन जलकौव्वों को गुड़-सेव जैसी चीजें भी लोग उछालते हैं। और अभ्यास से परिंदे इतने कुशल हो गए हैं कि कई बार तो वे हवा में ही गुड़-सेव लपक लिया करते हैं।

जाड़े के उतरने के साथ ही अब परिंदों ने अपनी वतन वापसी की तैयारी शुरू कर दी थी। बड़ी तादाद में वे यमुना की लहरों पर ऊपर-नीचे होते हुए तैर रहे थे। ये एक सुहाना दिन था। तभी कुछ ऐसा घटा जिसने उस दिन को पूरी तरह से मनहूस बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

ऑपरेशन मजनूँ पिंजड़ा

अकबर के किले की एक टूटी दीवार पर वे दोनों बैठे ही थे कि अचानक ही जैसे हवा में कोई सनसनी-सी घुलने लगी। माहौल अचानक ही उनके खिलाफ लगने लगा। अपनी मोटी तोंदों पर से खिसकती पैंट को सँभालते हुए पुलिस के लगभग आधा दर्जन सिपाही उनकी तरफ आ रहे थे। थ्री नॉट थ्री रायफल उनके कंधों पर टँगी हुई थी। आते ही उन्होंने वहाँ पर बैठे सभी जोड़ों को तुरंत ही दीवार से उतर आने को कहा। आँखों में हैरानी और घबराहट के भाव लिए हुए सभी एक-एक कर नीचे उतरने लगे। वहाँ आने के बाद पहले तो उन्होंने लड़कों और लड़कियों को अलग-अलग किया। फिर उन्हें ऊपर चलने को कहा। आशंकित मन से सीढ़ियाँ चढ़ते हुए वे सभी सरस्वती घाट पर पार्किंग के पास पहुँचे। वहाँ पर दारोगाजी का दरबार लगा हुआ था।

सीढ़ियाँ चढ़ते समय ही सिपाहियों ने लड़कों के कॉलर पीछे से पकड़ लिए और उन्हें धकेलते हुए से ले कर चलने लगे। पराग की गर्दन पर भी पीछे से हाथ रख कर सिपाही ने धक्का-सा दिया, चल... क्यों नहीं रहा है बे, स्साला, लड़की ले कर बैठा है। कल ये लड़की भाग जाएगी तो इसका बाप पुलिसवालों के पीछे पड़ेगा। रुकता क्या है बे, चल स्साले।

पार्किंग के पास कुछ दूरी पर पुलिस का एक ट्रक खड़ा था। जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में किसी सिपाही ने ही अपनी भद्दी सी राइटिंग में लिखा था मजनूँ पिंजड़ा। शहर में लड़कियों के घर से भागने की घटनाओं के लगातार बढ़ने को काबू में करने के लिए पुलिस ने यह अनोखा अभियान चलाया हुआ था। ऑपरेशन मजनूँ पिंजड़ा की खबरें भी अखबार में छप रही थीं। शहर के ही कुछ बुद्धिजीवी इस अभियान पर ऐतराज भी जता रहे थे। लेकिन, फिलहाल यहाँ तो कोई भी मदद करनेवाला नहीं था।

दारोगा जी साइकिल स्टैंडवाले की प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठे हुए थे। पीलापन लिए हुए साँवला-सा चेहरा, थोड़ा सूजा हुआ-सा, आँखों के गिर्द काले गड्ढेवाले दारोगा जी की मूँछें कतरी हुई थीं। उनके दरबार में पहुँच कर लड़कियाँ तो एक कोने में खड़ी हो गईं। लड़कों को उन्होंने एक लाइन से खड़ा हो कर अपना नाम, पता बोलने के लिए कहा।

लाइन में सबसे किनारे खड़े लड़के से उन्होंने कहा नाम, उसने मरी हुआ आवाज में कहा - शंकर, दोरागाजी कड़के पूरा नाम, शंकर यादव, पता सोहबतियाबाग, पूरा पता जी मकान नंबर इतना, गली नंबर तीन।

क्या करते हो, पढ़ता हूँ। कहाँ, सीएमपी डिग्री कॉलेज।

दारोगा जी ने कुछ देर पहले ही बोलती-बंद पान खाया होगा। सुपारी के कुछ टुकड़े अभी भी दाँतों में इधर-उधर फँसे हुए थे। वे सवाल पूछते जा रहे थे और अपनी जीभ को कलछुल की तरह ही मुँह के अंदर चलाते हुए सुपारी के बचे हुए टुकड़े भी तलाशते जा रहे थे। जब कोई टुकड़ा उनकी जीभ तलाश लेती तो उसे वे जीभ के कोने में रख कर हवा में उछाल देते। आज के ऑपरेशन में हत्थे चढ़े मजनुँओं के जवाब भी वे कुछ इसी तिरस्कार के साथ उछाल रहे थे।

ऑपरेशन में पकड़े गए लड़कों की निगाहें झुकी हुई थीं। सभी मरी-मरी आवाज में बोल रहे थे। इतने धीमे कि कई बार तो खुद उनके कान भी नहीं सुन पाते। हर धीमी आवाज पर पीछे से सिपाहियों की घुड़कती हुई आवाज आती। मुँह में जबान नहीं है का बे। कुछ देर पहले अपनी प्रेमिकाओं के साथ बैठ कर जिंदगी के सब्जबाग देख रहे प्रेमियों के पैर अचानक ही यथार्थ की तपती जमीन पर पड़ गए। लड़कियाँ एक झुंड-सा बनाए हुए किनारे खड़ी थीं। उनमें से कुछ तो रोने भी लगी थीं और कुछ की आँखें इतनी पनियाई थीं कि बस एक घुड़की में ही आँसुओं की धारा फूट सकती थी। कुछ देर पहले तक जिस प्रेमी के साथ जीवन भर साथ निभाने का ख्वाब वे देख रही थीं, अब उन्हें भैय्या बताने से भी उन्हें कोई गिला नहीं था।

इतने में ही दारोगाजी के बुलाए हुए कुछ पत्रकार और फोटोग्राफर भी वहाँ पर आ गए। फोटोग्राफरों ने फोटो खींचनी शुरू की तो लड़कियों ने दुपट्टे को एक तरफ तो नाक के ऊपर से ले कर सिर तक पूरा ढक लिया। बीच में से उनकी सिर्फ आँखें ही दिखाई पड़ रही थीं।

इधर दारोगा जी लड़कों को भाषण देने में व्यस्त थे। स्सालों, लड़कियों को बरगलाते हो। दिन भर आवारागर्दी। बाप के पैसे से स्सालों मौज करते हो। आगे से इधर दिखाई पड़े तो स्साले भुस भर दूँगा। इसके बाद वहीं पर सभी से कान-पकड़ कर उठक-बैठक करवाई गई। कुछ लड़कों ने इस पर एतराज करने की कोशिश की तो दारोगा जी घुड़के, स्साले छोड़ दे रहा हूँ तो नखरा कर रहा है, अभी बुलाता हूँ तेरे और तेरी प्रेमिका के माँ-बाप को। आओ देखो सालो अपनी लड़कियों की करतूत, दिन भर कॉलेज गोल करके छिनारा करती हैं, फिर माँ-बाप पुलिस पर शोर मचाते हैं। दीवार पर बैठे थे, आर्मीवाला पकड़ कर रेप कर देता तो समझ में आता स्सालो।

लड़कों ने चुपचाप कान पकड़ कर उठक-बैठक की और आगे से कभी वहाँ नहीं आने की कसम खाई। दारोगा जी ने एक बार फिर पूरे जोर से मुँह में जीभ की कलछुल चलाई और नोक पर सुपारी के टुकड़े को रखते हुए उसे तिरस्कार के साथ उछालते हुए कहा, जाओ स्सालो, छोड़े दे रहा हूँ, अब नजर मत आ जाना। नहीं तो बाँस कर दूँगा। समझे।

मुँह लटकाए सभी वहाँ से खिसक लिए। एक-दूसरे के सामने बेइज्जत हुए जोड़ों के चेहरे ऐसे थे जैसे किसी ने राख मल दी हो। लोगों की भारी भीड़ लड़कों से ज्यादा लड़कियों के चेहरों को खँगाल रही थी। कुछ तमाशबीन लड़कियों के शरीर के एक-एक उभार और अंगों की बनावट को अपनी आँखों में कैद कर लेना चाहते थे। कुछ की आँखें एक्सरे बन कर उनका जायजा ले रही थीं। अपने दोस्तों के साथ सरस्वती घाट पर इत्मीनान भरी कुछ बातें कर लेनेवाली वे लड़कियाँ भीड़ और पुलिसवालों के लिए बाजार में खड़ी औरतों जैसा ही कौतूहल जगा रही थीं।

पराग ने नीलिमा को अपने साथ आने को भी नहीं कहा। सीधे पार्किंग के उस हिस्से में पहुँचा जहाँ उसकी स्कूटर खड़ी थी। उसके पीछे से नीलिमा भी वहाँ आ गई। पार्किंगवाले को दया इतनी उमड़ी कि उसने स्टैंड पर स्कूटर खड़ी करने के पैसे भी नहीं लिए। पराग ने स्कूटर स्टार्ट की। पीछे नीलिमा बैठ गई। रास्ते में दोनों ने एक-दूसरे से कुछ नहीं कहा। अपने भय, शर्म, अपमान, निराशा की अलग-अलग डगर पर वे दोनों ही चलते रहे।

उस समय दोनों ही नहीं जानते थे कि वे आखिरी बार एक-दूसरे से बस मिल चुके हैं। पराग ने कॉलेज के गेट पर नीलिमा को छोड़ दिया। दोनों में से किसी ने भी एक-दूसरे को बाय नहीं कहा।

अखबारों में फोटो छपने का डर भी उन दोनों को सता रहा था। हालाँकि, इस डर के बारे में उनमें से किसी ने भी एक-दूसरे से बात नहीं की। अगले दिन अखबारों में खबर छपी, मजनूँ पिजड़े के फंदे में फँसे एक दर्जन आशिक। कुछ जगहों पर तस्वीर भी लगाई गई थी। लेकिन, अच्छी बात यह रही कि तस्वीर में चेहरे को थोड़ा धुँधला कर दिया गया था और किसी रंगीन पेज पर खबर को जगह नहीं मिल पाई थी। इसके चलते तस्वीर देख कर न तो पराग को ही पहचाना जा सकता था और न ही नीलिमा को।

उपसंहार या जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मकाम

तो साहिबान, गालिबन यही थी पूरी कहानी। बस इस कहानी में उपसंहार का एक परिशिष्ट बाद में जोड़ा गया यानी सन 2013 में। उम्मीद है कि उपसंहार का शीर्षक पढ़ कर ही आप लोग काफी कुछ समझ गए होंगे। जी हाँ, सच्ची बात यही है कि जिंदगी के सफर में एक बार गुजर जानेवाले मकाम फिर नहीं आते।

ये 2013 का एक सुहाना दिन है। पराग ऑफिस जाने के लिए लगभग दौड़ते हुए घर से निकला। दौड़ते हुए उसने मेट्रो पकड़ी। एस्केलेटर की सीढ़ियाँ हालाँकि अपने आप भी ऊपर चढ़ती जाती हैं, लेकिन इस पर भी दौड़ते हुए वह ऊपर पहुँचा और इससे पहले कि मेट्रो का दरवाजा बंद होता वह मेट्रो के अंदर पहुँच गया। मेट्रो में लंबीवाली सीट पर बैठने के बजाय गेट के पास लगी दो-दो की सीट में से एक खाली थी। सीट के ऊपर हरी पट्टी में सफेद अक्षरों से लिखा हुआ था - केवल बुजुर्गों और विकलांगों के लिए। इसी सीट पर पराग भी बैठ गया।

गर्दनिया के भगाए जाने के बाद पराग के लिए जिंदगी ने अलग मोड़ ले लिया। नीलिमा ने फिर कभी उससे नजरें ही नहीं मिलाईं। कभी कालोनी में सामने पड़े भी तो दोनों कतरा कर निकल गए। कुछ दिनों बाद नौकरी की तलाश में पराग बड़े शहरों की खाक छानने निकल पड़ा। बीच में कभी अपने घर लौटा भी तो किसी से कुछ खास पता नहीं चला। ये जिंदगी का एक ऐसा पन्ना था, जो अधूरा था। इस पर लिखी गई इबारतें एक हद तक तो बहुत साफ-साफ थीं, लेकिन उसके बाद जैसे अचानक ही पूरी किताब ही खतम हो गई हो। जैसे कोई बात अचानक ही बीच में खतम हो गई हो। इसलिए रह-रह कर घाव उभर भी आते थे। इन कुछ दिनों में पराग ने उसे तलाशने का शगल निकाला था। खाली समय में उसने फेसबुक खँगालना शुरू किया। नीलिमा नाम सर्च किया तो रिजल्ट में हजारों नीलिमाएँ निकल आईं। नीलिमा मिश्रा नाम तलाशा तो भी सैकड़ों निकलीं। उनमें से एक-एक के प्रोफाइल पर जा कर उनकी पहचान करनी शुरू की लेकिन, कोई खास जानकारी हासिल नहीं हुई।

उस खास दिन जब पराग बुजुर्ग और विकलांग व्यक्तियों के लिए आरक्षित सीट पर बैठा हुआ था, अचानक ही उसने आईफोन पर फेसबुक खोल लिया। अपडेट्स देखने के बाद उसने सर्च के ऑप्शन में तलाश शुरू कर दी। उस दिन उसने नीलिमा को सर्च करने का दूसरा तरीका निकाला। नीलिमा नाम आमतौर पर बहुत कॉमन है। जबकि, नीलिमा की सहेली शर्मिष्ठा का नाम बहुत ही कम मिलनेवाला नाम है। उसने शर्मिष्ठा बनर्जी के नाम से सर्च किया तो जो रिजल्ट आए, उनसे कोई फायदा नहीं हुआ। लेकिन, तभी अचानक ही फोन बंद हो गया। उसने दोबारा फोन स्विच ऑन करने के बाद फिर से फेसबुक पर लॉग इन किया। उसने शर्मिष्ठा टाइप किया और सर्च का ऑप्शन दबाया तो कई सारे रिजल्ट दिखने लगे। इनमें से एक-एक का प्रोफाइल उसने चेक करना शुरू किया तो शर्मिष्ठा चटर्जी पर आ कर उसकी खोज रुक गई। हाँ, यह चेहरा जाना-पहचाना लग रहा है। प्रोफाइल फोटो में उसने अपना क्लोज अप लगा रखा था। बाकी तस्वीरों से भी पहचान पक्की हो गई। इसके बाद पराग ने शर्मिष्ठा की फ्रेंड्स लिस्ट देखनी शुरू की। एक नीलिमा दीक्षित का प्रोफाइल भी उसमें शामिल था। लेकिन, उसे देखने के बाद निराशा ही हाथ लगी।

फ्रेंड्स लिस्ट में दूसरी नीलिमा शुक्ला थी। उसका प्रोफाइल चेक किया तो सामने एक सज्जन और उनके बगल में खड़ी हुई उनकी श्रीमती जी का फोटो दिखाई दिया। शकल कुछ पहचानी-सी लगी। पराग ने दूसरी प्रोफाइल पिक्चर देखनी शुरू की। दिल की धड़कनें बेकाबू होती जा रही थीं।

दूसरी पिक्चर खुलनी शुरू हुई तो न जाने कितनी यादें ताजा होने लगीं और न जाने कितने घाव सिसकने लगे। यह पहाड़ की कोई उथली-सी झील रही होगी। पहाड़ भी हिमालय के ज्यादा ऊँचाईवाले रहे होंगे। वैसी ही खिली हुई धूप। उथली हुई झील में पहाड़ों में बहनेवाली तेज हवा के चलते लहरें उठ रही थीं। इस झील के आगे एक लड़की खड़ी थी। माफ कीजिएगा, महिला कह नहीं पा रहा हूँ। नीली जींस और सफेद रंग की टीशर्ट पहने हुए। गले में पतली-सी चेन। बाल पोनी किए हुए। आगे की जुल्फों की एक लट को सँभाल कर हेयरबैंड से पीछे किए हुए। वह हल्के से मुस्कुरा रही थी। उसके दोनों गालों पर डिंपल पड़ रहे थे। पता नहीं कब की फोटो होगी वह, लेकिन, लग वह लगभग वैसी ही रही थी, जैसी सरस्वती घाट पर अंतिम मुलाकात में लगी थी, जब उसके गुलाबी जालीदार दुपट्टे में उसके जैकेट में लगे फैंसी एंकर बार-बार फँस जा रहे थे। वह सामने देख रही थी। कैमरे को, लेकिन अभी तो मुझे। बस फिर क्या था, पराग ने उसकी पूरी प्रोफाइल खँगाल डाली। एक-एक के बाद कई तस्वीरें थीं। कुछ मसूरी ट्रिप की तो कुछ लद्दाख जैसी किसी जगह घूमने की। एकाध फोटो घर की भी। दो बच्चे, पति के प्रोफाइल में लिखा हुआ गवर्नमेंट सर्वेंट। कैसा राज है, नीलिमा मिश्रा तब्दील हो गई नीलिमा शुक्ला में और शर्मिष्ठा बनर्जी बदल गई शर्मिष्ठा चटर्जी में।

पराग की उँगलियाँ धड़कते दिल के साथ काफी देर तक नीलिमा के प्रोफाइल पर घूमती रहीं। उसकी फोटो पर दोस्तों ने क्या कमेंट किए थे। और दोस्तों की फोटो पर उसने क्या कमेंट किए थे। बस एक जगह पर आ कर उसकी उँगलियाँ ठिठक गई। एक जगह उसने शर्मिष्ठा की किसी बात पर कमेंट किया था, दोस्त, कुछ भी कहो, अरेंज्ड मैरिजेज आर बेस्ट।

जीवन के उदासी भरे क्षणों में किशोर दा एक बार फिर काम आए, जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मकाम, वो फिर नहीं आते...