पत्नी-नुमा चपरासी / प्रमोद यादव

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जिस सदी में, और जब कभी भी ‘आफिस’ नामक नामाकुल जगह (आरामगाह) का निर्माण (प्रादुर्भाव) हुआ होगा तभी चपरासी नामक विराट जीव भी अवतरित हुए होंगे. बिना बॉस के आफिस चल सकता है पर बिना चपरासी के? तौबा...तौबा..पहले एक आफिस में एक चपरासी का चलन था.पर वक्त के साथ ‘परिवार-नियोजन’ के घटते क्रम वाले नारों के विपरीत बढते क्रम में चपरासी की संख्या में इजाफा होता गया...अब एक औसत आफिस में भी चार-छह तो पाए ही जाते हैं.राजनीती में जिस तरह – ‘एक व्यक्ति-एक पद’ का समीकरण चलता है वैसे ही पहले ‘एक आफिस -एक चपरासी’ के गणित का चलन था.

‘एक आफिस -एक चपरासी’ के युग में बॉस और चपरासी का रिश्ता, भगवान और भक्त की तरह होता. मुझे अच्छी तरह याद है, बचपन में सुबह-सुबह एक व्यक्ति घर आता था-लालटेन का कांच साफ़ करने. चुपचाप समय से आता और बिना मुंह खोले काम खत्म कर चला जाता. कभी-कभार गेहूं-आटा भी पिसा लाता. शाम को फिर एक बार आफिस की फाइल लेकर आता और सब्जी-तरकारी सुधारकर अपने घर चला जाता. पिताजी के रहते तक तो बिला-नागा वह आया ही पर उनके देहावसान के बाद भी वह महीनों तक बदस्तूर आता रहा. बहुत मना करने के बाद यह सिलसिला थमा.इसे चपरासी-युग का स्वर्णिम काल कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.

फिर दृश्य बदला. अब एक आफिस, तीन आफिसर और चपरासी पहले की तरह मात्र एक.

‘क्या बात है छन्नू? आज सुबह घर क्यों नहीं आये? दूध लेने जाना था...मुझे जाना पड़ा. तबियत खराब है क्या?साहब ने बड़े प्यार से पूछा.

‘ नहीं साहब, ठीक हूँ..आज खरे साहब ने बुलाया था.उसके बच्चे का आज जन्म-दिन है तो बाजार से कुछ सामान लाना था इसलिए..’

‘ ठीक है...पर ऐसा कुछ हो तो पहले बता दिया करो. ‘

एक माह बाद-

‘ आज क्या हुआ छन्नू? मेरे कहने के बाद भी तुम नहीं आये..पत्नी इन्तजार करती थक गई..ले-देकर बर्तन मांजी है..बाई नहीं आ रही, क्या तुम्हे नहीं मालुम?

‘ साहबजी..मूर्ति साहब की बीबी ने एकाएक बुला लिया तो क्या करता?’

‘ बड़ा साहब कौन है? मैं या मूर्ति?’ साहब थोडा तडके.

‘ आप हैं साहब..’

‘ तो फिर किसकी बात सुननी चाहिए? आवाज मे और तल्खी आई.

‘ आपकी साहबजी...’

‘आईन्दा ख्याल रखना..’ चेतावनी भरे स्वर को सुन छन्नू घबरा गया... चिंतन में पड़ गया कि तीन साहबों के साथ कैसे निभाये..इसी सोच में वह बीमार पड़ गया और सीधा था बेचारा इसलिए सीधे स्वर्ग सिधार गया. भगवान और भक्त का रिश्ता अब कुछ –कुछ ‘मालिक और नौकर’ में तब्दील होने लगा था.


फिर दृश्य बदला. एक आफिस, छह आफिसर और तीन चपरासी...सारी...तीन प्यून.. चपरासी का नया अंग्रेजी संसकरण (नामकरण).

बड़े साहब की पहली मीटिंग. पहला विषय – प्यून...सबसे पहले प्यून का बंटवारा.....

‘ छन्नूलाल मेरे पास रहेगा...केवल मेरे काम देखेगा...बाकी दो को आप सब जैसा चाहें उपयोग करें..दोनों की अनुपस्थिति में ही छन्नूलाल बाक़ी के काम देखेगा.इस् इट क्लियर..? बड़े साहब ने मौखिक आदेश जारी किया. सब चुप.

दो हप्ते बाद –

‘छन्नू..सब ठीक है?’

‘हाँ...ठीक ही है साहब....पर...’

‘पर...पर क्या?’

‘गुप्ता साहब आपके विषय में अनाप-शनाप बोलते रहते हैं...’

‘क्या बोलते हैं?’

‘ छोडो साहब जाने दो...’

‘अरे नहीं..नहीं..बताओ क्या बोलते हैं?’

‘रहने दो साहब...आपका मूड खराब हो जायेगा..आप तो जानते ही हैं वो बड़बोला है..’

‘देखो छन्नू...साफ-साफ बताओ..क्या कहता है? कोई तुम्हारा कुछ नहीं बिगड सकता..मैं हूँ ना.’

‘तो फिर सुनो साहब...वो कहता है कि बीबीजी के कारण ही आपको प्रमोशन मिला है..कह रहे थे कि बीबीजी और आपके बड़े साहब के बड़े अच्छे ‘’ रिलेशन’’ हैं..’

साहब चुप. छन्नू को जाने कहा और निर्देश दिया कि सब पर ध्यान रखे तथा सबकी खबर नियमित दे ताकि उनकी अच्छी खबर ले सके. छन्नू ख़बरें देता रहा...ईमानदारी से ख़बरदार करता रहा पर साहब हर खबर से जानबूझकर बेखबर रहा किसी का कुछ न बिगाड़ सका... ख़बरों में सच्चाई जो रहती थी.

‘मालिक और नौकर’ का सम्बन्ध अब ‘सी.आई.डी’. के प्रद्युम्न और अभिजीत जैसा हो गया था.

फिर दृश्य बदला. इस बार यह सम्बन्ध ‘कढाई और करछुल’ में तब्दील हो गया.चम्मच तो उसे कहते है जो केवल हाँ में मिलाये लेकिन साधिकार पूर्वक जो मुफ्त में सलाह भी दे, उसे करछुल कहते हैं.

‘साहबजी...इस सूट में आप बेहद जँचते है..’ साहब फूलकर कुप्पा हो,अपनी नीली टाई की गाँठ ठीक करने लगे.

‘लेकिन नीली टाई की जगह लाल बांधते तो और बढ़िया लगता’

अगले दिन साहब लाल टाई में पधारे और छन्नू को ईनाम स्वरुप आधे दिन की छुट्टी दे दिए.

इसी एपिसोड का दूसरा दृश्य-

‘साहब जी..आप काम बहुत करते हैं और रेस्ट बिलकुल नहीं करते..आपको दोपहर एक-दो घंटे सोना चाहिए..विश्राम करना चाहिए..आफिस की आप कतई चिंता ना करें..मैं हूँ ना..सब सम्हाल लूँगा..’ तब से साहब सो रहें हैं और आफिस प्यून के भरोसे चल रहा हैं.प्यून ने जब एक बार कह दिया कि साहब बीजी हैं तो बस समझिए बीजी हैं.आगे और कोई सवाल ना करें.

फिर दृश्य बदला.अब कुछ पढ़े लिखे प्यून आये...इस बार इनका नामकरण ‘अटेंडेंट’ के तौर पर हुआ. ये पहले वालों से ज्यादा सभ्य तो थे पर तेवर वाले थे...विद्रोही भी थे. इनकी बातचीत भी सुनें -

‘छन्नूलाल...आफिस के बाद थोडा घर आ सकते हो क्या? छोटा सा काम है...’

‘सारी साहब...आ तो जाता पर शाम को जरा वाईफ को डाक्टर से चेकअप करवाना है....’

‘कोई बात नहीं...करवा लो..फिर कभी आना.’

दो हप्ते बाद-

‘छन्नू...राहुल का कल बर्थडे है यार...शाम को घर आके थोडा हेल्प कर दोगे?’

‘ नहीं आ पाउँगा साहब...आज शाम मेरे पिताजी आने वाले हैं..उन्हें लेने स्टेशन जाना है...’

‘ जब भी तुम्हें कोई काम कहता हूँ,तुम सीधे बहानेबाजी में आ जाते हो,,तुम्हे नौकरी करना ही कि नहीं?’साहब उबल पड़े.

‘नौकरी का धौंस मत दो साहब...आफिस अवर्स के बाद आपके घर में काम करने का कोई कानून नहीं है..मैं नीचे पद पर जरुर हूँ लेकिन मेरे अप्रोच बहुत ऊँचे है..आपका कहीं कम्प्लेंट कर दिया तो कहीं के नहीं रहेंगे..एस.टी./एस सी. वाला हूँ.’

दो हप्ते बाद साहब ने स्वेच्छा से अपना ट्रांसफर ले लिया.

अब दृश्य नहीं बदलूँगा.पर एक ऐसे चपरासी-वर्ग के विषय में बताऊंगा जो निरा अपवाद और लुप्तप्राय है.

इस बार चपरासी सीधे साहब के साथ ही अटेच होकर आया.मतलब कि नए साहब आये तो चपरासी भी अपने साथ लेकर आये. हप्ते-दो हप्ते बाद चपरासी की जुबानी मालूम हुआ कि दोनों सत्रह साल से ‘हम साथ –साथ हैं’ की तर्ज पर ‘साथ-साथ’ हैं.जहाँ-.जहाँ साहब का ट्रांसफर होता, वहाँ- वहाँ वे उन्हें भी साथ ले जाते..गोया चपरासी ना हुआ बीबी हो गया..महीने-दो महीने बाद पूरे आफिस को मालूम पड़ गया कि वह पत्नी नुमा चपरासी है.साहब टूर पे बाहर जाते तो घर की पूरी जिम्मेवारी उसकी हो जाती जितने दिन वे टूर पे होते उतने दिन ये आफिस से गायब होते पर महीने के अंत में पूरी हाजिरी जाती.. घर की चौकीदारी करता. लंच समय में बाबा का टिफिन स्कूल पहुंचाता, बस न आये तो अपनी बाईक से उसे छोड़ने तो कभी लेने जाता.साहब का चेक कभी जमा करने यो कभी भुनाने बैंक जाता. आफिस अवर्स में तो सब करता ही पर उसके बाद भी वह मुस्तैदी से घर के काम में भी जुट जाता. हर काम में उसका दखल होता.सोफा कहाँ लगेगा, पेंटिंग किस दीवाल में ठीक लगेगी.सब वही तय करता और आश्चर्य की बात ये कि साहब भी केवल उसी की बात को , उसी के निर्णय को शिरोधार्य करता. बीबी की बातों को भी काट देता.

कभी-कभी किसी बात पर.किसी की शिकायत पर दोनों लड़ भी पड़ते...भूल जाते कि वे आफिस में है..एक-दूजे को फिर मनाते भी..

‘छन्नू..तुम्हारी बहुत शिकायत आ रही है..सबसे पहले नायकजी से माफ़ी मांगो..तुमने इनसे बुरा सलूक किया है..’

‘ मैं क्यों मांगूंगा साहब? माफ़ी तो इन्हें मांगनी चाहिए..इन्होनें मुझे उल्टा-सीधा कहा है..’

‘मैंने कहा ना..माफ़ी मांगो..’ साहब थोडा गरजे.

‘नहीं मांगूंगा...’छन्नू भी गरजा और दरवाजा खींच निकल भागा.

चार दिन तक वह आफिस नहीं आया. साहब परेशान. पांचवें दिन वह आया(काफी मान-मन्नुवल के बाद) अब साहब का चेहरा ‘ हँसता हुआ नूरानी चेहरा ’ सा दिखा.इस बार साहब ने सोच लिया हैं कि प्रमोशन होने पर अब इसे लेकर नहीं जायेंगे...छन्नू भी ढिंढोरा पीट- पीट कर सबको बता रखा है कि किसी भी सूरत में उनके साथ नहीं जाएगा.

अब आखिरी बार दृश्य बदल रहा हूँ.

महीने भर बाद साहब का प्रमोशन हुआ और वे दूसरी जगह चले गए तथा हमेशा की तरह फिर छन्नू को अपने साथ ले गए.

चपरासी का यही संस्करण मुझे पसंद आया. साहब तो शायद ना बन सकूँ पर इस तरह का चपरासी ही बन जाऊं तो अहो भाग्य.