पत्रकारिता: शैशव से भविष्य तक / अर्पण जैन 'अविचल'
कैसे कैसे हालात हो गये ...
जब आज देश के हर कोने से पत्रकारिता (यानी मीडिया) को कोसा जा रहा है, तमाम तरह के आरोप लग रहे है, जिव्हा पर सत्य आने से पहले बीसियो बार रुक रहा है, कही कोई गाली दे रहा है तो कोई धमकी, तब एसे कालखंड में उद्देशो को लेकर चिंतन स्वाभाविक है।
स्वरूप का चिंतन, मौलिकता के ख़तरे भयभीत नहीं करते अपितु उचाई पर जाने की इच्छा को और बल प्रदान करते है ...
"एक समय आएगा, जब हिन्दी पत्र रोटरी पर छपेंगे, संपादकों को ऊंची तनख्वाहें मिलेंगी, सब कुछ होगा किन्तु उनकी आत्मा मर जाएगी, सम्पादक, सम्पादक न होकर मालिक का नौकर होगा।"
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अपनी कलम की ताक़त से देश और दुनिया के सामने पत्रकारिता का लोहा मनवाने वाले बाबूराव विष्णु पराड़कर जी ने यह बात कही थी। उस समय उन्होंने शायद पत्रकारिता के भविष्य को भांप लिया था।
इतिहास के पन्नो में सिमटी ये छोटी-सी बात वर्तमान के हालत पर सीधा कटाक्ष ही नहीं करती वरन भूतकाल के गर्भ में भविष्य के अध्याय भी बुन आई है। पत्रकारिता की शुरूआत जहा मिशन से हुई थी जो आजादी के बाद धीरे-धीरे प्रोफेशन बन गई.
इक्कीसवी सदी की शुरुआत और सूचना क्रांति के विस्फोट के साथ-साथ पत्रकारिता का विकास के साथ-साथ मूल्यो के हास का दौर भी शुरू हो गया है। लगभग 92674 पंजीकृत अखबारों और 600 से अधिक समाचार चैनलों के साथ देश के मीडिया ने पूरे विश्व में अपनी एक जगह तो बनाई है, किंतु विडंबना है कि यह तरक्की पाठक को खो कर और ग्राहक के साथ प्राप्त हुई है, आधुनिक जीवन की बढ़ती व्यस्तताओं और बदलती भाषा शैली के मद्देनजर पत्रकारिता ने अपना कलेवर भी बदला है। अब पत्रकारिता 24×7 यानी चौबीस घंटे, सातों दिन सजग तो रहती है, चीजों को लाइव यानी साक्षात् दिखाने की कोशिश करती तो है, स्टिंग यानी परदे के पीछे झांकने की चेष्टा भी करती है और स्थानीय मुद्दों से जुड़ने का प्रयत्न भी करती है किंतु फिर भी मूल्यानुगत पतन के दौर को आमंत्रित भी कर ही रही है। निश्चित ही आज देश में मीडिया का व्यापक प्रसार हुआ है, परंतु दूसरी ओर उसका नैतिक और चारित्रिक पतन भी हुआ है। पत्रकारिता में बाजार, विज्ञापन, पैसे व सनसनी की महत्ता भी बढ़ी है और मानवीयता, निष्पक्षता व खबरीपने में गिरावट आई है। इसका परिणाम यह हुआ है कि समाचारों में भी केवल सनसनी और चटपटेपन को ही प्रमुखता मिल रही है। समाज के उच्च वर्ग कीअय्याशियो को खबर बनाने के लिए एक पेज थ्री नामक आयाम विकसित हो गया है।
आख़िर यह दौर क्यू आया?
पत्रकारिता के मापदंडो की पुन: विवेचना ना हो पाने की दशा में आज मीडिया कलंकित हो रहा है
ध्यान रहे कि भले ही आधुनिक पत्रकारिता का जन्म और विकास यूरोप में हुआ है, भारत में इसका एक स्वतंत्र स्वरूप विकसित हुआ। यह स्वरूप पश्चिम के स्वरूप से न केवल भिन्न था, बल्कि कई मायनों में उससे काफी बेहतर भी था। भारत में पत्रकारिता अमीरों के मनोरंजन के साधन के रूप में विकसित होने की बजाय स्वतंत्रता संग्राम के एक साधन के रूप में विकसित हुई थी। इसलिए जब 1920 के दशक में यूरोप में पत्रकारिता की सामाजिक भूमिका पर बहस शुरू हो रही थी, भारत में पत्रकारिता ने इसमें प्रौढ़ता प्राप्त कर ली थी। 1827 में राजा राममोहन राय ने पत्रकारिता के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा था, "मेरा सिर्फ़ यही उद्देश्य है कि मैं जनता के सामने ऐसे बौध्दिक निबंध उपस्थित करूं, जो उनके अनुभवों को बढ़ाए और सामाजिक प्रगति में सहायक सिध्द हो। मैं अपने शक्तिशाली शासकों को उनकी प्रजा की परिस्थितियों का सही परिचय देना चाहता हूँ ताकि शासक जनता को अधिक से अधिक सुविधा देने का अवसर पा सकें और जनता उन उपायों से परिचित हो सके जिनके द्वारा शासकों से सुरक्षा पायी जा सके और उचित मांगें पूरी कराई जा सकें।"
आख़िर इतने उन्नत उद्देश्यो के साथ शुरू हुई यह जंग आज अपने बौनेपन पर क्यू आ चुकी है। हिन्दी पत्रकारिता आज हाशिए पर आ रही है।
भाषाई पत्रकारिता की प्रमुख चुनौतिया:
स्वाधीनता के बाद परिस्थितियां बदली, स्वाधीनता मिलने के बाद से ही पत्रकारिता के इस भारतीय स्वरूप के सामने चुनौतियां भी बढ़ने लगीं थीं। 15 अगस्त, 1947 को 'जनता' (समाचार) ने लिखा था, "भारत में पत्रकारिता के समक्ष तीन प्रकार की कठिनाइयां हैं। पहली समस्या वित्त की है। दूसरी चुनौती है, स्वतंत्र समाचार पत्रों के पूंजीवादियों से सम्बंध, जो समाचार पत्रों को लाभ कमाने के साधन के रूप में विकसित करने और इसके द्वारा प्रतिक्रियावादी आर्थिक सिध्दांतों को स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं। प्रबंध संपादकों द्वारा पूंजिवादियों के हितों के विरुद्ध किसी भी विचार को प्रकाशन से रोका जा रहा है। तीसरी समस्या है, व्यावसायिक पत्रकार, जो अपने कैरियर की आवश्यकता को पूरा करने के लिए पत्रकारिता के सिध्दांतवादी व मिशनरी भूमिका को दबा देते हैं।" वास्तव में यह तीसरी समस्या ही सबसे बड़ी समस्या है। व्यावसायिक पत्रकार और पत्र-पत्रिकाएं, दोनों की जो शृंखला विकसित हुई है, उसे पत्रकारिता के सिध्दांतों और उद्देश्यों से कोई लेना देना नहीं है। टेलीविजन चैनलों की तो बात ही करना व्यर्थ है। उनका तो जन्म ही यूरोप की नकल से हुआ है। उनसे किसी भी प्रकार की भारतीयता की अपेक्षा करना ऐसा ही है जैसे कोई बबूल का वृक्ष बोए और आम के फलने की आशा करे। आज यदि महात्मा गांधी या राजा राममोहन राय या विष्णु हरि परांडकर या माखनलाल चतुर्वेदी जीवित होते तो क्या वे स्वयं को पत्रकार कहलाने की हिम्मत करते? क्या उन जैसे पत्रकारों की विरासत को आज के पत्रकार ठीक से स्मरण भी कर पा रहे हैं? क्या आज के पत्रकारों में उनकी उस समृध्द विरासत को संभालने की क्षमता है? ये प्रश्न ऐसे हैं, जिनके उत्तर आज की भारतीय पत्रकारिता को तलाशने की ज़रूरत है, अन्यथा न तो वह पत्रकारिता ही रह जाएगी और न ही उसमें भारतीय कहलाने लायक कुछ होगा।
पत्रकारिता और सेंसरशिप
वर्ष 1947 से लेकर वर्ष 1975 तक पत्रकारिता जगत में विकासात्मक पत्रकारिता का दौर रहा। नए उद्योगों के खुलने और तकनीकी विकास के कारण उस समय समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में भारत के विकास की खबरें प्रमुखता से छपती भी थी। समाचार-पत्रों में धीरे-धीरे विज्ञापनों की संख्या बढ़ रही थी व इसे रोजगार का साधन माना जाने लगा था।
वर्ष 1975 पत्रकारिता के दुखद कालखंड के रूप में उभर कर सामने आया, एक बार फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर काले बादल छा गए, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर मीडिया पर सेंसरशिप लागू दी। सरकार के विपक्षी पार्टियो की ओर से भ्रष्टाचार, कमजोर आर्थिक नीति को लेकर उनके खिलाफ उठ रहे सवालों के कारण इंदिरा गांधी ने प्रेस से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीन ली। लगभग 19 महीनों तक चले आपातकाल के दौरान भारतीय मीडिया को हर तरह से कमजोर किया गया। उस समय दो समाचार पत्रों द इंडियन एक्सप्रेस और द स्टेट्समेन ने उनके खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश की तो उनकी भी शासकीय वित्तीय सहायता रोक दी गई. इंदिरा गांधी ने भारतीय मीडिया की कमजोर नस को अच्छे से पहचान लिया था। उन्होंने मीडिया को अपने पक्ष में करने के लिए उनको दी जाने वाली वित्तीय सहायता में इजाफा कर दिया और प्रेस सेंसरशिप लागू कर दी। उस समय कुछ पत्रकार सरकार की चाटुकारिता में स्वयं के मार्ग से भटक गए और कुछ चाहकर भी सरकार के विरूद्ध स्वतंत्र रूप से अपने विचारों को नहीं प्रकट कर सकें। कुछ पत्रकार ऐसे भी थे जो सत्य के मार्ग पर अडिग रहें। आपातकाल के दौरान समाचार पत्रों में सरकारी प्रेस विज्ञप्तियां ही ज़्यादा नजर आती थी। यही वह दौर था जब से खबरो को विज्ञापन के वजन से तोला जाने लगा फिर कुछ सम्पादकों ने सेंसरशिप के विरोध में सम्पादकीय खाली छोड़ दिया। अख़बार का संपादकीय पृष्ट काला कर दिया, किंतु इंदिरा गाँधी की हटधार्मिता के कारण पत्रकारिता अपने योवनकाल में ही मूल्यो से भटक गई।
यौवन अवस्था ही मनुष्य की भटकाव की ज़िम्मेदार होती है। पत्रकारिता का भी वही हश्र हुआ।
लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी एक पुस्तक में कहा है-
"उन्होंने हमें झुकने के लिए कहा और हमने रेंगना शुरू कर दिया।"
1977 में जब चुनाव हुए तो मोरारजी देसाई की सरकार आई और उन्होंने प्रेस पर लगी सेंसरशिप को हटा दिया। इसके बाद समाचार पत्रों ने आपातकाल के दौरान छिपाई गई बातों को छापा।
पत्रकारिता द्वारा आजादी के दौरान किया गया संघर्ष बहुत पीछे छूट चुका था और पत्रकारिता अब पेशे में तब्दील हो चुकी थी। भारत में एक और ऐसी घटना घटी जिसने पत्रकारिता के स्वरूप को एक बार फिर बदल दिया। वर्ष 1991 की उदारीकरण की नीति और वैश्वीकरण के कारण पत्रकारिता पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा और पत्रकारिता में धीरे-धीरे व्यावसायिककरण का दौर आने लगा।
यही दौर है जिसने कलम की ताक़त को चुनौती दे दी, कहते है ना वक्त से बड़ा कुछ भी नहीं होता, वक्त की मार कहे या सियासत की हठ!
आख़िर नियति को यही मंजूर था, यही लिखा था कलमविरो के भाग्य में, जिस कलम को तलवार भी ज़्यादा ताकतवर माना जाता था उसी की मजबूत निब को तोड़ा जाने लगा।
सियासत भी पहले से कही ज़्यादा बदल गई थी, विश्वास और मानवीय मूल्यो की बलि दे कर लोग यहा सपनो के महल बुनने लग गये थे,
इसी दौर में रोशनी की किरण भी आई, जिन्होने अपनी कलम को सियासत के नापाक मंसूबो के आगे झुकने नहीं दिया।
उम्मीद बनी, कुछ बेहतर लिखा जाने लगा, किंतु आज के इस दौर में बेहतर और सच लिखा भी गया तो वह बहरे हो गये जिनको सच सुनना था।
खबरो पर बाज़ारवाद का असर
इन सब के अलावा सबसे मूल चुनौती आधुनिकता से रंग में पत्रकारिता का मूल स्वरूप है।
खबरो पर बाज़ारवाद हावी होता जा रहा है, जहा एक और निस्वार्थ सेवा पत्रकारिता का मूल उद्देश्य था आज वह मूल्य नदारद है। आख़िर अब पत्रकारिता "मिशन" नहीं बल्कि "प्रोफ़ेशन" बनता जा रहा है।
और जब प्रोफ़ेशन बन ही रहा है तो उसमे कही ना कही वित्त की विकराल समस्या और विज्ञापनवाद का हावी होना भी कही ना कही पत्रकारिता के नैतिक पतन में शामिल है।
खबरो से ज़्यादा विज्ञापन लाना और उन्हे प्रकाशित करना आज मजबूरी बन चुकी है, क्यूकी अख़बार का दम रद्दी की कीमत से बस तोड़ा ही तो ज़्यादा है, जबकि लागत मूल्य से कोसो दूर।
अख़बार की लागत मूल्य १५ रुपये २५ रुपये के बीच होती है और वह बिकता है महज २रुपये या ४ रुपये में।
बचा हुआ लागत मूल्य निकालने का जिम्मा विज्ञापन विभाग पर आ जाता है जिस कारण से कई ख़बरे रोशनी में आने से रह जाती है। क्यूकी विज्ञापन विभाग की भी अपनी मजबूरी हो जाती है खबरो में हस्तक्षेप करना। जबकि होना तो यह चाहिए की विज्ञापन विभाग, कभी संपादकीय कक्ष में कोई हस्तक्षेप ही ना करे, किंतु ये तब तक नहीं हो सकता जब तक अख़बार का दम उसकी लागत मूल्य तक ना पहुचे, ताकि वित्त की कोई समस्या ही नहीं हो।
तब तो सच्चा दस्तावेज़ फिर बन जाएगा अख़बार और न्यूज चेनल भी 250 चैनल २०० रुपये में ना दिखाए जाए।
आख़िर पत्रकारिता के वास्तविक मूल्यो की बलि देकर कोई केसे क्रांति की अपेक्षा कर सकता है।
टकसाल और सेवा में रास्ते बहुत अलग होते है, जो रास्ता टकसाल की तरफ जाता है उसका कही भी किसी भी समय सेवा में मार्ग से मिलन असंभव है। वही अंतर है पुराने समय की पत्रकारिता और आधुनिकता का लिबास पहनी हुई पत्रकारिता में।
पुराने जमाने की पत्रकारिता नज़रिया देती थी, क्रांति का माद्दा रखती थी, कलम की ताक़त से सियासत को भी हिला कर रख देती थी, किंतु वर्तमान समय की पत्रकारिता में उपर्युक्त कोई गुण नज़र कम आता है।
आख़िर चिंतन का परिणाम सभी पत्रकारो को मिलकर ही निकलना पड़ेगा की आख़िर कैसे भटके हुई कलम को फिर से गौरवान्वित क्षण दे जिससे वह पुन: निर्दोष बन जाए।
आख़िर हमारा कर्तव्य बनता है कि घर में लगे मकड़ी के जाल से हम ही घर को साफ करे। अन्यथा परिणाम बहुत ही विनाशकारी होगा, शायद पत्रकारिता का अस्तित्व ही ख़तरे में आ जाए।
किसी कवि ने ठीक ही लिखा है,
" तुमने कलम उठाई है तो वर्तमान लिखना,
हो सके तो राष्ट्र का कीर्तिमान लिखना।
चापलूस तो लिख चुके हैं चालीसे बहुत,
हो सके तुम ह्रदय का तापमान लिखना...
महलों मैं गिरवी है गरिमा जो गाँव की,
सहमी-सी सड़कों पर तुम स्वाभिमान लिखना।"