पत्रकारिता की ठसक / गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर'

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पत्रकारिता की ठसक और उसका रुआब कुछ अलग ही होता है। आज के यानी कलजुगी पत्रकारों के लंबे बाल, एक-एक हथ में तीन-तीन मोबाइल और वेब कैमरे ये सब पहचान बन गए हैं। अगर आप असली पत्रकार हैं और आपके पास यह तामझाम नहीं है तो निश्चित मानिए कि आपको कुछ भी कहा जा सकता है पर पत्रकार कदापि नहीं।

इधर पत्रकार और पत्रकरिता दोनों के मायने ही बदल गए हैं। आपके पास यदि टुटही मोटरसाइकिल भी है तो उस पर प्रेस ज़रूर लिखा होना चाहिए। भले ही आप अपने हाथ से कंप्यूटर पर बनाकर और नकली मुहर लगा लें पर एक चमकदार आईकार्ड गले में हार की तरह ज़रूर झूलना चहिए।

समान्य जनता की भाषा में ये मोबाइल , कैमरे और गले में झूलते आई कार्ड रूपी हार ही पत्रकारिता के असली आभूषण हैं । देश व समाज की चिंता में लिखे गए ओजस्वी संपादकीय आदि तो बस भिखमंगई को निमंत्रण देने के अलवा कुछ और दे ही नहीं सकते। इसी लिए आज के पत्रकार का अर्थ और उसकी परिभाषा जानने के लिए किसी शब्दकोश की शरण में जाने का (तोतला या हकला जो भी सटीक बैठे) प्रयास कर रहे हैं।

हो सकता है हमारे प्रिय पाठक पत्रकार का कुछ अलग अर्थ ले रहे हों और इन मेधावी और होनहार राष्ट्रभक्त पत्रकारों को पहचानने के लिये कोई अलग मानदंड़ अपनाते हों पर जैसा अमूमन होता है उसी परंपरा के आधार पर हम इनकी पहचान के प्रमुख गुण धर्मों की इस एपिसोड यानी स्तंभ में चर्चा कर रहे हैं. 'कार' एक प्रत्यय है जिसका अर्थ होता है रचने या करने वाला अर्थात् कर्ता । इसे और स्पष्ट करने के लिए मैं दो शब्द उदाहरण स्वरूप देना चाहता हूँ। ये चिरपरिचित शब्द हैं - (1) नाटककार और (2) कहानीकार। जैसा कि कहानी और नाटक में 'कार' जोड़कर उसके मूल लेखक का अर्थ निकाला जाता है। ऐसे ही अगर पत्रकार का मूल अर्थ लिया जाए तो स्पष्ट है कि किसी भी समाचर पत्र या पत्रिका को उसके रूप-रंग से लेकर उसमें प्राणों तक का संचार करने वाले को ही पत्रकार कहा जाना चाहिए।

पत्रकार द्वारा किसी भी अखबार में सचरित किया जान वाला प्राण तत्व या उसकी आत्मा है उसकी विषयवस्तु जो देश और समाज में चेतना का संचार करती है। लेकिन इधर गली-कूचे में घूम-घूम और अटक-अटक कर चटपटे शब्दों में झूठे-सच्चे समाचार संकलित करके परोसने वाले को ही पत्रकार कहा जाने लगा है। यद्यपि इस सूचना को संग्रह करके प्रेस तक पहुंचाने वाले को 'संवाददाता' जैसा विशिष्ट और परिभाषिक शब्द भले ही दिया जा चुका है फिर भी ये संवाददाता और मीडिया से डरे हुए समाज के अन्य लोग भी इन्हें पत्रकार से कम कीमत देने को किसी भी कीमत पर तैयार नहीं होते।

इधर मुक्ति की खुशी में एक दिन अपना गिरगिट भी आज़ादी के किसी समरोह में पहुंच गया। उसका संपादकीय और पत्रकारिता का समुचा काम चेतना का पक्षधर माना जाता रहा है। उसके पास आज भी एक अखबार के संपादन का दायित्व है। लेकिन जब वह तथाकथित (पूर्वोक्त) पत्रकारी गुणों को बिना ओढ़े-बिछाए प्रेस गैलरी में बैठने लगा तो उस पर समूचा सूचना एवं जनसंपर्क विभाग ही वज्र सा भरभराकर गिर पड़ा। खैर! खुदा का शुक्र कहो जो वह साइड में हो गया वरना दधीचि जैसे त्यागी इन पत्रकारों की अस्थियों से बने वज्र से इस मरियल गिरगिट की गर्दन ही झूल जाती।

उस समारोह से वह सीधा मेरे पास आया और बोला अमा गुणशेखर!! ये टुटपुँजिए पत्रकार भला अपने को समझते क्या हैं?

मैने पूछा कहो क्या हुआ गिरगिट? इस पर वह अपनी गर्दन हिलाते हुए बोला कि एक झोला छाप टुटपुंजिया पत्रकार नुमा प्राणी जो मुटके चूहे-सा बिना जरूरत पूरी प्रेस गैलरी में इधर-उधर उछल रहा था, सरे आम मेरी इज्जत सर्फ एक्सेल से धो दी। बात ये थी कि उस गैलरी में बहुत सारी कुर्सियाँ खाली पड़ी थीं। मैंने सोचा इनमें से किसी एक में धँस जाऊं और मजे से सो लूँ। वह इसलिए कि तेरी भाभी ने मेरी अंगूठी खोने के चलते पूरी दो रातों से सोने ही नहीं दिया था । मेरी मंशा थी कि बस एक बार किसी कुर्सी में फिट हो जाऊँ तो किसी तरह लंबी तान के सो जाऊँ और यहाँ तो तेरी भाभी भी नहीं ढूँढ़ पाएगी।लेकिन एक टुटपुंजिए पत्रकार ने तो सारा मज़ा ही किरकिरा कर दिया। उसने मुझे वहाँ से तत्काल निष्कासित कर दिया। कारण यह था कि मेरे पास वह पास नहीं था जो इन टुटपुंजियों ने किसी न किसी जुगाड़ से हथियाया था। गिरगिट खिसियाहट के साथ बोला अमा यार ऐसे टुटयुँजियों की जब ऐसी गजब की ठसक और हनक है तो बड़े-बड़े अखबारों के संवाददाताओं का क्या हाल होगा? पत्रकारों का धर्म तो अन्याय और अधर्म को रोकना और रुकवाना है न कि इनकी तरह बढ़ाना। इस घटना से मुझे यह सबक सीखने को मिला कि यदि आगे कभी उनके साथ इस प्रेस गैलरी में बैठने की जुर्रत की तो शायद पटक-पटक के मारा जाऊँगा। इनके आगे यमराज की भी दाल नहीं गलेगी। धन्य हैं ये कलजुगी पत्रकार!