पत्रकार पर गणतंत्र का दारोमदार / जयप्रकाश चौकसे

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पत्रकार पर गणतंत्र का दारोमदार
प्रकाशन तिथि : 22 सितम्बर 2018


बृजेश राजपूत लंबे समय से पत्रकारिता कर रहे हैं। उन्होंने टेलीविजन के लिए भी यह काम किया है। उन्होंने अपने अनुभवों को 'ऑफ द स्क्रीन’ नामक पुस्तक में प्रस्तुत किया है, जिसे भोपाल स्थित मंजुल प्रकाशन ने जारी किया है। राजदीप सरदेसाई द्वारा प्रशंसित इस पुस्तक में 75 घटनाओं और उनकी रिपोर्टिंग की पूरी सच्चाई जाहिर की गई है। एक बानगी प्रस्तुत है। इंदौर से खंडवा जाने वाली सड़क पर एक बोध गांव हैं जहां एक सरकारी जलसे में आला अफसर ने बताया कि इस गांव के सभी घरों में शौचालय बन गए हैं। जिस व्यक्ति ने यह बताने की चेष्टा की कि 15 प्रतिशत घरों में शौचालय नहीं बने हैं और कई घरों में महज रस्म अदायगी हुई है, अगले दिन उसे गिरफ्तार कर लिया गया और सारी रात उसे नंगा करके हवालात में बैठाया गया। अंग्रेजों के जमाने की पुलिस आज भी कस्बों में मौजूद है। सरकारी आंकड़ों को चुनौती देने वालों को पुलिस तंग करती है। यह अलग किस्म का आपातकाल है। नर्मदा सागर बांध के निर्माण के लिए 250 गांव वालों को अपने पुरखों के जन्म स्थान को छोड़कर सरकारी तम्बुओं में आश्रय लेना पड़ा। डूब, विस्थापन और विरोध में किए गए अनशन भुला दिए गए हैं। उस दौर की तत्कालीन मुख्यमंत्री ने फरमाया था 'आज हरसूद नहीं है कल निसरपुर भी नहीं रहेगा’ विकास के नाम पर जंगल नष्ट कर दिए गए हैं। गांव उजाड़ दिए गए हैं। कोई आश्चर्य नहीं है कि तेंदुआ रिहायशी क्षेत्र में आ जाता है।

वह अपना घर उजाड़ने वालों को खोजता है ताकि बदलते मौसम का विरोध-पत्र उन्हें थमा सके। सरकार की लाखों घर बनाने की योजना का अमल भी कागजी ही हुआ है। आधे-अधूरे बने मकानों की एक दीवार की पुताई कराकर उसे उस पर नेताओं के पोस्टर लगा दिए जाते हैं और इन तस्वीरों के माध्यम से योजना की सफलता का डंका पीटा जाता है। कहीं-कहीं ठंड से ठिठुरते बच्चे प्रचार पोस्टर ओढ़कर नीले गगन के नीचे लेटे देखे गए हैं। इस किताब में यह खुलासा भी दिया गया है की खबरों का बाजार गर्म है। अतः कई बार खबरें गढ़ी जाती हैं, जिनमें कोई सच्चाई नहीं होती। मसलन, भोपाल में खबर उड़ी कि आजकल विदाई के समय दुल्हनें, उस तरह नहीं रोतीं जैसे पहले रोती थीं, इसलिए एक ट्रेनिंग सेंटर खुला है। इसमें भावी दुलहनों को विदाई के समय जमकर रोने का अभ्यास कराया जाता है। कुछ मशविरे भी दिए जाते हैं कि किस तरह पहले घटी किसी दुर्घटना को अपनी याद में पुन: ताजा करने पर आंसू आ जाते हैं। पत्रकारों ने दिए गए पते पर जाकर जानकारी ली तो उसे निराधार पाया, परंतु खबर इंटरनेट पर चल पड़ी।

कभी-कभी पत्रकार एक खबर को रोपित करता है, उस पर अफवाह की खाद डाल दी जाती है और आंसुओं से खबर को सींचा भी जाता है। खबरों की खेती की जाती है और फसल को बेचा भी जाता है। चुनाव के समय खाने-पीने की सामग्री और शराब के दाम बढ़ जाते हैं। चुनाव बाजार भी मांग बढ़ाता है। गांव वालों को बड़ी बड़ी कारें देखने को मिलती हैं। वहां लोग हेलिकॉप्टर देखने आते हैं। नेता को खुशफहमी होती है कि लोग उसे सुनने आए हैं। नेताओं के भाषण प्राय: दूसरे लोग लिखते हैं। एक नेता ने तो अपने प्रारंभिक दौर में एक अभिनेता से भाषण देने की कला सीखी और पुरस्कार स्वरूप उसे एक सुरक्षित सीट से चुनाव जितवाया। यह बात अलग है कि संसद में उसने एक भी वक्तव्य नहीं दिया।

आज़ादी के पहले पत्रकारिता एक मिशन थी, आज वह व्यवसाय हो चुकी है। कोई पुख्ता राजनीतिक आदर्श सामने नहीं है। दबाव और तनाव के सामने झुकना मजबूरी हो सकती है परंतु झुकने के लिए तत्पर व्यक्ति से आप क्या आशा कर सकते हैं। आज किसी के सामने कोई महान उद्देश्य नहीं है। पद लोलुपता सामान्य बात हो गई है। उद्देश्यहीनता का यह दौर गुजर जाएगा जैसे गुजर गए है सारे दौर। टेक्नोलॉजी ने खबर देने के नए तरीके आपके सामने रख दिए हैं। इंटरनेट पर न्यूज़ पोर्टल की भरमार हो गई है। पत्रकारिता की शिक्षा देने वाले संस्थान खुल गए हैं। शिक्षकों का अभाव तो हर क्षेत्र में हैं। गुरुडम भी व्यवसाय है। पत्रकारिता पर कुछ फिल्में बनी हैं। शशि कपूर अभिनीत ‘न्यू दिल्ली टाइम्स’ और कोंकणा सेन शर्मा अभिनीत 'पेज 3'। इस फिल्म खोजी पत्रकार की व्यथा -कथा प्रस्तुत हुई है। अमेरिका का 'वाटरगेट’ एक पत्रकार ने ही उजागर किया था। आज प्रचार के अंधड़ के दौर में पत्रकारों की जवाबदेही बढ़ गई है। गणतंत्र व्यवस्था को बचाए रखना उनका ही दायित्व है।