पत्र 14 / बनारसीदास चतुर्वेदी के नाम पत्र / हजारीप्रसाद द्विवेदी
शान्तिनिकेतन
10.6.36
मान्यवरेषु,
अनेक प्रणाम!
कृपा-पत्र मिला। यह पत्र न भी मिला होता तो मैं आज पत्र लिखता, क्योंकि लिखने का समय आज आ गया था। बात यह थी कि मैं इन दिनों विषम पेट-चिन्ता का शिकार बन गया था। सौभाग्यवश मुझे हल्का-सा काम मिल गया थ। मेरी आँखे जहाँ तक काम दे सकती थीं, मैं इसी में चिपटा रहा। पत्र लिखना बंद कर दिया था। कल पूरे सौ रुपये का काम समाप्त कर चुका हूँ। अगले सप्ताह में भगवान की कृपा होगी तो २०/- रुपये का और कर लूँगा। इस प्रकार इस जून के भीतर १२०/- रुपये पा जाऊँगा और ॠण की एक किश्त, जो जेठ की पूर्णिमा को दे देनी चाहिए थी, आषाढ़ में निश्चित रुप से चुका सकूँगा। यह रुपया मुझे अप्रत्याशित रुप से मिल गया है। इसके लिये आप लोगों का आशीर्वाद और स्नेह ही कारण है।
इस बीच आपके कृपा-पत्र और सुधांशु जी की पुस्तक मिल गई थी। मैं जल्दी में समालोचना न कर सका। इस अंक के लिये आजकल में भेज रहा हूँ। पुस्तक अच्छी है पर शैली जटिल है। आपकी आज्ञानुसार पुस्तक समालोचना के बाद पुस्तकालय को दे दूँगा। अभी मेरे ही पास है।
इस मास का विशाल भारत मिला। हरि बाबू बहुत प्रसन्न हुए हैं और कृतज्ञता प्रकट की है। विशाल भारत के इस अंक में सत्यवती देवी १ की कहानी मैंने पढ़ी। दो एक महीने पहले भी एक कहानी पढ़ी थी। दोनों कहानियों मे सचाई है। मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि सत्यवती जी बहुत शीघ्र अनेक कहानी लेखकों को पीछे छोड़ कर आगे निकल जायेंगी। यद्यपि मैंने जो दो कहानियाँ पढ़ी हैं, उनका वक्तव्य एक ही जान पड़ता है पर यह कोई कारण नहीं कि यह समझ लिया जाय कि उनका विषय सीमित है। और अगर सीमित हो भी तो कोई हर्ज नहीं। सचाई चाहिये और इन कहानियों में है। मुझे यह बात और भी अच्छी लगी कि सत्यवती जी अनावश्यक विस्तार नहीं करती। इस अंक में अज्ञेय जी के लेख की यह बात मेरे मन की है कि हिन्दी एक प्रदेशिक भाषा है। इसका रुप, इसकी प्रकृति हमी लोगों को निर्माण करनी चाहिए। राष्ट्रभाषा का नाम देकर इसमें अन्य प्रदेशवालों का अनुचित हस्तक्षेप कभी कभी असह्य हो उठता है। अगर यह राष्ट्रभाषा है तो दूसरों के लिए है। हमारे लिए तो मातृभाषा है और हमारा और इसका जीवनमरण का संबंध है। दूसरों के राष्ट्रभाषा का सवाल प्रयोजन और सुविधा का है, हमारे लिये यह प्रयोजन और अप्रयोजन से परे है। हमारे हास और अश्रु, प्रेम और रोष भक्ति और श्रद्धा को रुप देने वाली भाषा को कोई अगर राष्ट्रीय, व्यापारिक या राजनीतिक कारणों से सुविधाजनक मान ले तो हम पर कृपा नहीं कर रहा है कि हम उसकी अंगुलि के इशारे पर अपनी मर्मस्पर्शी वाणी में परिवर्तन करते रहें।
पर यह भी ठीक है कि हिन्दी भाषा सरल होनी चाहिए। इसलिये नहीं कि बाहरवालों को इससे सुविधा होगी, बल्कि इसलिये कि हमारे साहित्य का विकास होगा। लधुभार भाषा आसानी से उद्देश्यसिद्धि की ओर अग्रसर हो सकती है।
विशाल भारत के इस अंक में मैं नेमियर रिपोर्ट के बारे में कुछ पढ़ने के लिए आस लगाये बैठा था। मैं सोचता था कि या तो कोई खोजपूर्ण लेख या सम्पादकीय टिप्पणी इस पर मिलेगी। पर न मिली। अगले अंक में क्या कुछ मिलेगा
साहित्य सम्मेलन के संबंध में आपकी टिप्पणी बहुत अच्छी है। बेनीपुरी २ जी का पत्र पढ़ कर उनकी विवशता मालूम हुई। बिचारे सम्पादक को इतना लाचार रहना पड़ता है, यह बात बहुत दु:खजनक है एक बात और। उस पत्र का अन्तिम अंश शायद मज़ाक में लिखा हुआ है। उसका आपने बड़ा कड़ा और सीरियस हो कर जवाब दिया है। बिहार के जातीय पात शब्द का इस्तेमाल शायद आपने व्यंग्य कर के किया है। यह बात आपकी प्रकृति के विरुद्ध हुई है।
हिन्दी समाज का वार्षिकोत्सव, जब आपकी सुविधा हो, कर लिया जाय। जैनेन्द्र जी को और अज्ञेय जी के जुलाई के अन्तिम सप्ताह या अगस्त के प्रथम सप्ताह में बुला लूँगा। आप अपनी सुविधा के अनुसार तारीख बता दीजिये। विचार है कि मैथिलीशरण जी की स्वर्ण जयन्ती हिन्दी समाज की ओर से मनाई जाय। कैसा होगा।
गुरुदेव आजकल यहीं हैं। आश्रम प्राय: सूना है। इस समय अपने पुत्र और कन्या के साथ आ जायँ तो अच्छा ही होगा। और अगर उन लोगों को चालू अवस्था में आश्रम दिखाना चाहते हों तो २२ जून के बाद आइये। २२ जून को पढ़ाई शुरु हो जायेगी।
भगवती प्रसाद चन्दोला बी.ए. में पास हो गये। हिन्दी के सभी लड़के एफ.ए. और बी.ए. में सभी पास हो गये हैं। केवल एक लड़की फेल है। शेष कुशल है।
आपका
हजारी प्रसाद द्विवेदी