पत्र 25 / बनारसीदास चतुर्वेदी के नाम पत्र / हजारीप्रसाद द्विवेदी
शान्तिनिकेतन
13.9.38
पूज्य चतुर्वेदी जी,
प्रणाम !
बहुत दिनों बाद पत्र लिखने बैठा हूँ। आपने जिन सज्जनों को पत्र लिखने को कहा था, उन्हें उसी दिन लिख दिया था। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा और श्री भगवती प्रसाद वाजपेयी जी की प्रीतिपूर्ण पत्रियाँ पा भी चुका हूँ। हिन्दी भवन के बनने में अब विशेष देर नहीं है। दीवालें बन चुकी हैं। छत बनने की देर है। पूजा की छुट्टियों तक निश्चित रुप से तैयार हो जाएगा। आपकी निष्ठा का बीज इस प्रकार सदेह प्रत्यक्ष हो गया। ज्यों-ज्यों भवन बनता जा रहा है, त्यों-त्यों चिंता बढ़ती जा रही है। अब क्या होगा
भवन बना ही समझिए। इस समय हम तीन अध्यापक हिन्दी का काम कर रहे हैं। मैं और चन्दोला जी तो आपके पूर्व परिचित ही हैं। एक नये मित्र और भी आए हैं, जो अभी अवैतनिक भाव से कार्य कर रहे हैं। इनको भी आप शायद जानते हैं। इनका नाम है श्री बलराज साहनी जी। पंजाब के एम.ए. हैं। हाल ही में यहाँ आए हैं। बहुत मिलनसार और उत्साही आदमी हैं। हिन्दी समाज में इस समय लगभग ५० विद्यार्थी सदस्य हैं, जो सभी उच्चतर शिक्षा के लिए आए हैं। हमारा लोकबल बढ़ गया है, कार्य भी जटिलतर हो गया है। अब सवाल यह है कि हिन्दी भवन का कार्यक्रम क्या हो। इस विषय में आपने एण्ड्रूज साहब के व्याख्यान के द्वारा कुछ सुझाया था। हिन्दी भवन को हम क्रियात्मक और जीवनदायी साहित्यिक और सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में देखना चाहते हैं। परन्तु हमारे पास साधन बहुत ही कम हैं। हिन्दी में जो दो-चार संस्थाएँ साहित्यसर्जन का काम कर रही हैं, उनमें प्रधान हैं, काशी नागरी प्रचारिणी सभा और हिन्दुस्तानी एकेडेमी। हिन्दी भवन को इनके ऊपर नहीं, तो समकक्ष तो होना ही होगा। लेकिन हमारे कार्यक्रम में नवीनता और मौलिकता भी होनी चाहिए। आप सुझाएँ कि हम किस प्रकार अपना कार्यक्रम स्थिर करें। अगर आप सलाह दें तो इस विषय में अनुभवी विद्वानों से भी विचार-विनिमय किया जाय।
एक बात की सख्त ज़रूरत है। वह यह कि हम लोग जो यहाँ हैं एक नियत लक्ष्य की पूर्ति करने के लिए सदा बँधे रहें। इसके लिए हमने आपस में सलाह करके तै किया है कि विशाल भारत क्वार्टरली के टक्कर का एक हिन्दी सांस्कृतिक त्रैमासिक निकालें और इस प्रकार सदा नियत समय पर नियत कार्य करने के लिये जुटे रहें। पर यह एक सजेशन भर है। आपकी राय जानकर ही हम लोग इस विषय में और कुछ सोचेंगे। अगर आपको यह बात पसंद आ गई तो दूसरा सवाल आर्थिक होगा। हम इस विषय में ही ओरछे की ओर देखेंगे। खैर।
किसी-किसी मित्र की राय है कि त्रैमासिक न निकाल कर ट्रांजेक्शन्स निकाले जाएँ। इस पर भी गौर कीजिएगा। फिर एक बड़ी-सी लाइब्रेरी की भी ज़रूरत है। अगर हमारा कोई त्रैमासिक आदि निकलने लगे तो पुस्तक-संग्रह करने का काम भी होता रहेगा।
हमें कुछ छात्रवृत्तियों की भी ज़रूरत होगी। लेकिन यह सब कुछ हमारे कार्यक्रम पर निर्भर करता है। पहले यह तो निश्चय हो जाना चाहिए कि हमें क्या-क्या करना है।
आप इस विषय कुछ सोच कर लिखें। फिर ज़रूरत पड़ने पर मैं आ भी सकता हूँ और आपको तो इस बार आना ही पड़ेगा। उद्घाटन समारोह के दिन आप ज़रूर उपस्थित रहें।
प्रो. इन्द्र जी ने मुझे पुस्तक लिखने को कहा है, लेकिन आपकी चिट्ठी जब उन्हें नहीं मिली थी तब। जो भी हो, मैं पुस्तक लिखूँगा। दो सौ पृष्ठों से मेरा काम नहीं चलेगा। मैं इन्डेक्स बना रहा हूँ। फिर उसको सजाने के बाद मैं बता सकूँगा कि उसकी रुपरेखा क्या होगी। उसमें मैं विशद रुप से रवीन्द्रनाथ की जीवनी और साहित्यिक कृतियों की आलोचना और समसामयिक हिन्दी साहित्य की प्रगतियों की अलोचना करने की इच्छा रखता हूँ। आगे हरि इच्छा।
इस समय आपका स्वास्थ्य कैसा है? वात्स्यायन जी को आपने जो पत्र लिखा था, वह मैंने देख लिया है। पत्र पढ़ कर मुझे बड़ा दुख हुआ। यह बात तो मैं मानता हूँ कि इस उम्र में आपको फिर से आकाशवृत्ति के आसरे साहित्यिक ख़ुदाई ख़िदमतगारी में नहीं कूदना चाहिए। पर मैं यह नहीं मानना चाहता कि इससे आपकी साहित्यिक तेजस्विता म्लान होगी। अगर आप किसी विशेष विषय पर लिखने में हिचकते हों तो ठीक है। पर इसे आप मानसिक थकान क्यों समझते हैं? एक विषय पर से दूसरे विषय पर मन को ले जाना विश्राम ही कहलाता है। इसमें depresse होने की कोई बात नहीं है। मैं आपसे केवल इतना ही अनुरोध करता हूँ कि आप अपने को थका हुआ न समझिए। जो कुछ करते हैं या कर सकते हैं, उसी को भगवान् की दी हुई थाती समझ कर आनंदपूर्वक लगन के साथ करते जाइए। इसमें न तो कोई संकोच की बात है और न थकान की। ये बातें मैं अपने मानसिक दुख के कारण लिख रहा हूँ। मुझे यह सुन कर बड़ा दुख होता है कि आप कहें कि चूँकि आपको एक राजा के यहाँ रहना पड़ता है, अतएव आपमें अब फक्कड़पना नहीं रहा। मैं आपको वहाँ भी प्रसन्न और लापरवाह देखना चाहता हूँ। मेरा विश्वास है कि आप वहाँ रहकर भी ऐसा रह सकते हैं। शेष कुशल है। मित्रों को प्रणाम।
आपका
हजारी प्रसाद द्विवेदी