पत्र 27 / बनारसीदास चतुर्वेदी के नाम पत्र / हजारीप्रसाद द्विवेदी
शान्तिनिकेतन
19.2.39
पूज्य चतुर्वेदी जी,
प्रणाम !
कृपा-पत्र मिला। कटिंग का अनुवाद साथ में भेज रहा हूँ। हिन्दी प्रचार के सम्बन्ध में आपने जो विचार भेजे हैं, मेरे विचार ठीक हू-ब-हू वही हैं। विशाल भारत के गांधी अंक में ’हिन्दी प्रचार की समस्या’ नाम देकर मैंने ठीक ही विचार व्यक्त किए थे। मेरा दृढ़ विश्वास है कि जब तक हम अपने साहित्य को समृद्ध नहीं करेंगे, तब तक हमारा भाषा का प्रचार करना उपहासास्पद बना रहेगा। जब मैं यह बात कहता हूँ तो मैं यह नहीं कहना चाहता कि हिन्दी का साहित्य अन्यान्य प्रान्तीय भाषाओं के साहित्य से हर बात में पिछड़ा हुआ है। कई बातों में वह पिछड़ा भी है तो कई बातों में वह अन्य प्रान्तीय भाषाओं को बहुत पीछे छोड़ गया है। हिन्दी पाठकों की दृष्टि निश्चयपूर्वक बहुत व्यापक और उदार है। हाल में वह अधिकाधिक विस्तीर्ण होती गई है। मैं नया लेखक ही हूँ। अधिक-से-अधिक बारह वर्ष से क़लम चला रहा हूँ। परन्तु जहाँ कहीं जाने का मुझे अवसर मिला है, वहाँ नई पीढ़ी के विद्यार्थियों ने मेरे लेखों के संबंध में प्रश्न किए हैं। उन प्रश्नों का अध्ययन करके मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि नई पीढ़ी का विद्यार्थी बड़ी सावधानी से हमारी प्रत्येक बात की जाँच कर रहा है। जाँच करने में उसकी दृष्टि प्रादेशिक संकीर्णता से आविल नहीं रहती। वह सारे जगत में इन लेखों का स्थान जानना चाहता है। कभी-कभी वह अपने अनुसंधान को मनोनुकूल न पाकर झुँझलाता है। इस नई पीढ़ी को अगर विश्लेषण करके देखिए तो साफ़ पता चलता है कि इनकी दृष्टि में हिन्दी की कोई प्रतिद्वेंद्विता बंगला या उर्दू से नहीं है। उसकी प्रतिद्वन्द्विता अंग्रेजी या रूसी साहित्य से है। नई पीढ़ी का विद्यार्थी अपने साहित्य को उसी प्रकार सर्वांग सम्पूर्ण और समृद्ध देखना चाहता है। उसकी दृष्टि में शब्दों और पंक्तियों पर कलाबाज़ी दिखानेवाले का कोई मूल्य नहीं है। वह उनकी बात भी नहीं करता। इस प्रकार साहित्य की समृद्धि का अर्थ प्रान्तीय भाषाओं से अपनी हीनता अनुभव नहीं है। उनसे हमारा कोई झगड़ा भी नहीं है। कोई ईर्ष्या भी नहीं। आपका यह विचार मुझे बहुत ही पसन्द है कि हिन्दी साहित्य सम्मेलन को दक्षिणी भाषाओं तथा बंगला आदि के लिये विशेष अध्ययन की व्यवस्था करनी चाहिए। यदि हिन्दी के ज़रिए हम कम-से-कम सारे भारतीयों की आशा-आकांक्षा को व्यक्त नहीं कर सकते तो राष्ट्रभाषा का शोरगुल व्यर्थ का परिहास है। हिन्दी साहित्य समस्त जगत् के समृद्ध साहित्यों में से एक हो, यही हमारा लक्ष्य होना चाहिए और अन्य प्रान्तीय भाषाएँ भी इस लक्ष्य की ओर अधिकाधिक अग्रसर हों, यही उनके प्रति हमारा रुख होना चाहिए। मेरा दृढ़ विश्वास है कि उपयुक्त नेतृत्व में यदि इस महालक्ष्य की ओर बढ़ने का प्रयत्न किया जाए तो हमारी नई पीढ़ी बड़े उत्साह से उस कार्य को आगे ठेलने में सहायक होगी।
आज समयाभाव से विशेष कुछ नहीं लिख रहा हूँ। आप यदि मेरे इन विचारों का किसी लेख में उपयोग करना चाहें तो यथेष्ट कर सकते हैं। मेरी इच्छा है कि मैं इस विषय पर कुछ लिखूँ।
क्षिति बाबू आपको प्रणाम कहते हैं। आपके पत्र से वे बहुत हँसे। चन्दोला जी सानन्द हैं।
आपका
हजारी प्रसाद द्विवेदी