पथ के दावेदार / अध्याय 5 / शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय
कहते-कहते भारती की मुखाकृति कठोर और गले की आवाज तीखी हो उठी, “इस लड़की की मां और यदु ने जो अपराध किया है वह क्या केवल इन लोगों को दंड देकर समाप्त हो जाएगा? डॉक्टर साहब को जब तक मैंने नहीं पहचाना था तब तक मैं भी इसी तरह सोचती थी। लेकिन आज मैं जानती हूं कि इस नरककुंड में जितना पानी है उसका भार आपको भी स्वर्ग के द्वार से खींचकर ले आएगा और इस नरककुंड में डुबो देगा। आप में इतनी सामर्थ्य नहीं है कि इस दुष्कृति का ऋण चुकाए बिना ही मुक्ति पा जाएं। हम लोग अपनी ही गरज से यहां आते हैं अपूर्व बाबू! यह उपलब्धि ही हम लोगों के पथ के दावे की सबसे बड़ी साधना है। चलिए।”
“चलिए,” अपूर्व ने कहा। लेकिन वह भारती की बातों पर विश्वास नहीं कर सका।
सागौन का एक पेड़ दिखाकर भारती बोली, “यहां सामने कई बंगाली रहते हैं। चलिए।”
“बंगालियों के अतिरिक्त और जातियों में भी आप लोग काम करती हैं?”
“हां, हमें तो सभी की आवश्यकता है। लेकिन प्रेसीडेंट के अतिरिक्त और कोई अन्य भाषाएं नहीं जानता। यह काम उन्हीं का है।”
“वह भारत की सभी भाषाएं जानती हैं?
“हां।”
“और डॉक्टर साहब?”
भारती हंस पड़ी, “डॉक्टर साहब के संबंध में आपकी भी उत्सुकता रहती है। आपको इस बात पर विश्वास नहीं होता कि संसार में जो कुछ भी जान लेना सम्भव है वह सब कुछ जानते हैं। जो कुछ किया जा सकता है वह कर सकते हैं। उनके लिए अज्ञान या असाध्य कुछ भी नहीं है।”
दोनों ने एक मकान में प्रवेश किया। भारती ने पुकारा, “पंचकौड़ी, आज तबीयत कैसी है?”
भीतर से आवाज आई, “आज कुछ ठीक है।”
इतने में एक बूढ़ा सामने आ खड़ा हुआ। बोला, “बेटी, लड़की को खूनी आंव रहता है। शायद बचेगी नहीं। लड़के को कल से फिर बुखार आ गया है। पास में एक पैसा भी नहीं कि एक-दो खुराक दवा ला सकूं। यह एक कटोरी साबूदाना या बार्ली ही पकाकर खिला सकूं।” उसकी दोनों आंखें आंसुओं से भर गईं।
अपूर्व बोला, “पैसा क्यों नहीं है?”
वह बोला, “पुली की जंजीर गिर जाने से बाएं हाथ में चोट लग गई है। लगभग एक महीने से काम पर नहीं जा सका। पैसा कहां से आएगा बाबू जी?”
अपूर्व बोला, “कारखाने वाले इसका कोई प्रबंध नहीं करते?”
“मजदूर के लिए प्रबंध? वह तो कह रहे हैं कि काम नहीं कर सकते तो मकान छोड़ दो। ठीक होकर आना। काम मिल जाएगा। ऐसी हालत में चला कहां जाऊं? छोटे साहब के हाथ-पांव जोड़कर एक हफ्ते और रह पाऊंगा। बीस वर्ष से काम कर रहा हूं महाशय। यह लोग ऐसे ही नमक हराम हैं।”
अपूर्व क्रोध से जल उठा। जी में आया कि मैनेजर मिल जाए तो उसकी गर्दन पकड़कर दिखा दूं कि अच्छे दिनों में जिसने लाखों रुपए कमाकर दिए हैं, आज बुरे दिनों में उसकी क्या हालत है?
अपूर्व के मकान के पास ही बैलगाड़ियों का एक अड्डा है। उसे वहां की एक घटना याद आ गई। एक जोड़ी बैल जीवनभर बोझ ढोते-ढोते जब अशक्त और बूढे हो गए हो उनके मालिक ने उन्हें कसाई के हाथ बेच दिया। उस रास्ते से वह जब भी गया है, इस घटना को याद करके उसकी आंखों में आंसू आ गए हैं। बैलों के लिए नहीं। लेकिन धन की लालसा में इस सीमा तक बर्बर और निष्ठुर बने मनुष्य के लिए, जो अपने-आपको निंरतर छोटा बनाता जा रहा है।
कमरे के एक कोने में सैकड़ों स्थान पर फटे-पुराने बिछौने पर एक लड़की और एक लड़का अधमरे से पड़े थे। उनके पास जाकर भारती ने उनकी नब्ज देखी। भय के कारण अपूर्व वहां नहीं जा सका। लेकिन दरिद्रता पीड़ित उन दोनों बच्चों की वेदना उसकी छाती में चोट कर गई।
कुछ देर के बाद भारती बोली, “चलिए।”
पंचकौड़ी चुपचाप, उदास मुख लिए खड़ा था। भारती ने स्निग्ध स्वर में फिर कहा, “डरो मत, दोनों अच्छे हो जाएंगे। मैं डॉक्टर और दवा, सबका प्रबंध कर देती हूं।”
उसकी बात पूरी हो ही रही थी कि अपूर्व जेब में हाथ डालकर रुपया निकालने लगा। भारती ने जल्दी से उस हाथ को पकड़कर रोक दिया। पंचकौड़ी की नजर दूसरी ओर थी। वह यह नहीं देख पाया। लेकिन अपूर्व इसका कारण नहीं समझ सका।
भारती ने अपनी अंगिया के जेब से चार आने निकालकर उसके हाथ में देकर कहा, “बच्चों के लिए चार पैसे की मिश्री, चार पैसे का साबूदाना ले आना और बाकी दो आने का दाल-चावल लाकर तुम खा लेना। कल तुम्हारा प्रबंध कर दूंगी।” यह कहकर अपूर्व को साथ लेकर कमरे से निकल आई।
रास्ते में अपूर्व ने पूछा, “आपने मुझे पैसे देने से रोक दिया और स्वयं भी नहीं दिए। यह क्यों?”
“देकर तो आ रही हूं।”
“इसी को देना कहते हैं? उसके इस दुर्दिन में पाई-पैसे का हिसाब करके केवल चार आने देना उसका अपमान है।”
“आप कितना देने जा रहे थे?”
“कम-से-कम पांच रुपए।”
भारती जीभ काटकर बोली, “बाप-रे-बाप! सब चौपट हो जाता। बाप तो शराब पीकर बेहोश पड़ा रहता और लड़की, लड़के दोनों की मृत्यु हो जाती।”
“शराब पी लेता?”
“नहीं पीता? हाथ में इतना रुपया आ जाने पर शराब न पी जाए-ऐसा मनुष्य संसार में कौन है?”
“आपकी सभी बातें विचित्र हैं। बीमार बच्चे की दवा के रुपए से शराब खरीदकर पी ले-यह क्या सत्य हो सकता है?”
“नहीं तो दाता का हाथ पकड़कर दु:खी व्यक्ति को देने से रोकूं, क्या मैं इतनी नीच हूं?”
“इनकी मां नहीं है?”
“नहीं।”
“कहीं कोई रिश्तेदार भी नहीं है।”
भारती बोली, “होने पर भी कोई काम नहीं आता। दस-ग्यारह साल पहले पंचकौड़ी एक बार अपने गांव गया था। अपने किसी पड़ोसी की एक विधवा स्त्री को फुसलाकर यहां ले आया था। लड़का-लड़की उसी के हैं। दो वर्ष बीत रहे हैं गले में फांसी लगाकर इस संसार से मुक्त हो गई। यही पंचकौड़ी के परिवार का संक्षिप्त इतिहास है।”
अपूर्व ने गहरी सांस लेकर कहा, “नरककुंड है।”
“इसमें तनिक भी संदेह नहीं, लेकिन कठिनाई तो यह है कि यह सभी हमारे भाई-बहिन हैं। रक्त का संबंध अस्वीकार कर देने से तो छुटकारा नहीं मिलेगा अपूर्व बाबू! ऊपर बैठकर जो सब कुछ देख रहे हैं वह कौड़ी-दाम जोड़-जोड़कर हिसाब करके ही छोड़ेंगे।”
अपूर्व ने गम्भीर होकर कहा, “लगता है कि यह असम्भव नहीं है।”
पलभर पहले पंचकौड़ी के कमरे में खड़े-खड़े जो विचार पैदा हुए थे बिजली के वेग के समान मन में दौड़ गए। बोला, “मैं भी मनुष्य हूं। मेरा भी कुछ-न-कुछ दायित्च है।”
भारती बोली, “पहले-पहले तो मैं भी नहीं देख पाती थी। क्रोध में आकर झगड़ा कर बैठती थी। लेकिन अब देख पा रहीं हूं कि इन सब अज्ञानी, दु:खी, दुर्बल मन और पीड़ित भाई-बहनों की गर्दन पर पाप का बोझ कौन लादता जा रहा है।”
पास वाले कमरे में एक उड़िया मिस्त्री रहता है। उसक पास वाले कमरे से बीच-बीच में तेज हंसी और कोलाहल की आवाजें आ रही थी। यह सब पंचकौड़ी के कमरे से भी सुनाई दे रहा था। वह दोनों उस कमरे में पहुंचे। भारती को वह लोग पहचानते थे। सभी ने उसकी अभ्यर्थना की। एक दौड़कर एक स्टूल और बेंत का एक मोढ़ा ले आया। दोनों बैठ गए। फर्श पर बैठे छह-सात आदमी और आठ-दस औरतें एक साथ शराब पी रहे थे। टूटा हारमोनियम और तबला बीच में रखा था। तरह-तरह के रंग और आकार की खाली बोतलें चारों ओर लुढ़की पड़ी थीं। एक बूढ़ी-सी औरत नशें में धुत पड़ी सो रही थी। उसे एक प्रकार से नंगी ही कहा जा सकता था। साठ से लेकर बीस-पच्चीस वर्ष तक के नौ उम्र स्त्री-पुरुष बैठे थे। आज रविवार है। पुरुषों का छुट्टी का दिन था। प्याज-लहसुन की तरकारी और सस्ती जर्मन शराब की अवर्णनीय दुर्गंध एक साथ मिलकर अपूर्व की नाक तक पहुंचते ही उसका जी मिचलाने लगा। एक कम उम्र की औरत के हाथ में शराब का गिलास था। शायद थोड़े दिन पहले ही घर छोड़कर आई है। बाएं हाथ से नाक बंद करके गिलास को मुंह में उड़ेलकर बार-बार थूकने लगी। एक आदमी ने झटपट उसके मुंह में तरकारी ठूंस दी। एक बंगाली स्त्री को शराब पीते देख अपूर्व स्तम्भित-सा हो गया। लेकिन उसने कनखी से देखा कि इतने भयंकर वीभत्य दृश्य से भी भारती के चेहरे पर किसी प्रकार के विकार का चिद्द नहीं है। यह सब देखने-सुनने की जैसे वह अभ्यस्त हो गई हो। लेकिन पलभर के बाद घर के स्वामी के कहने पर जब ट्रमी ने गाना आरम्भ किया-”वह यमुना-वह यमुना-” और पास ही बैठे एक आदमी ने हारमोनियम उठाकर झूठ-मूठ ही जी जान से बजाना आरम्भ किया तब शायद इतना बोझ भारती के लिए असह्य हो उठा। घबराकर बोली, “मिस्त्री जी, कल हम लोगों की सभा है। शायद यह बात तुम भूले नहीं हो। वहां जाना तो चाहिए ही।”
“जरूर चाहिए बहिन जी,” कहकर काला चांद ने गिलास में शराब डाल ली।
भारती ने कहा, “बचपन में तुमने पढ़ा होगा कि तिनके जोड़-जोड़कर रस्सी तैयार करने पर हाथी भी बांध जा सकता है। एक न होने पर तुम लोग कभी कुछ न कर सकोगे। केवल तुम लोगों की भलाई के लिए सुमित्रा बहिन कितना परिश्रम कर रही हैं। बताओ तो।”
इस बात का सभी ने समर्थन किया। भारती ने कहा, “तुम लोगों के बिना क्या इतना बड़ा कारखाना एक दिन भी चल सकता है? तुम लोग ही तो उसके वास्तविक स्वामी हो। इतनी सीधी-सादी बात कालाचंद, तुम लोग न समझना चाहो तो कैसे काम चलेगा।”
सबने कहा, “यह बात बिल्कुल ठीक है। उन लोगों के न चलाने पर तो अंधेरा-ही-अंधेरा रह जाएगा।
भारती ने कहा, “फिर भी तुम लोगों को कितना कष्ट है। सोचकर देखो। जब तब अपराध के बिना ही साहब लोग तुम लोगों पर लात-जूते मारकर बाहर निकाल देते हैं। इस पास के घर की हालत देख लो। काम करते समय पंचकौड़ी का हाथ टूट गया जिसके कारण उसे खाना नहीं मिल रहा। उसके लड़के-लड़की दवा न मिलने के कारण मौत के मुंह में जा रहे हैं। बड़ा साहब उसे मकान से भी निकाल देना चाहता है। यह जो लाखों-करोड़ों रुपयों को लाभ यह लोग कर रहे हैं, यह किसकी बदौलत हो रहा है? और तुम लोगों को मिलता क्या है? अभी उस दिन की घटना है-श्यामलाल को छोटे साहब ने धकेल दिया, वह आज तक अस्पताल में पड़ा हुआ है। इस बात को तुम लोग क्यों सहोगे? एक बार सब लोग एक होकर ऊंची आवाज में कह दो कि यह अत्याचार हम लोग अब नहीं सहेंगे। फिर देखूंगी कि वह लोग तुम लोगों से और कुछ नहीं चाहते काला चांद।”
एक शराबी इतनी देर तक अवाक्-सा होकर सुन रहा था। उसने कहा, “भैया हम क्या नहीं कर सकते? हम सब ऐसा पेंच ढीला करके रख दे सकते हैं कि धाड़-धाड़-धड़ाम बस आधा कारखाना साफ को जाएगा।”
भारती ने भयभीत होकर कहा, “नहीं, नहीं, दुलाल, ऐसा काम कभी मत करना। इससे तो तुम्हीं लोगों की हानि होगी। हो सकता है, कितने ही लोग मर जाएं। हो सकता है...नहीं, नहीं...यह बात सपने में भी मत सोचना दुलाल। इससे बढ़कर भयानक पाप दूसरा नहीं है।”
दुलाल मतवाली हंसी हंसकर बोला, “नहीं, यह क्या मैं जानता नहीं। यह तो केवल बातचीत के सिलसिले में कह रहा हूं कि हम लोग क्या नहीं कर सकते।”
भारती बोली, “तुम लोगों को सुमार्ग में, सच्चे मार्ग में खड़ा होना चाहिए, तभी तुम कुछ कर पाओगे। तुम लोगों को बहुत रुपया पावना है। वह कौड़ी-कौड़ी करके वसूल करना होगा।”
इसी बात को लेकर वह सब हल्ला-गुल्ला करने लगे। तब भारती बोली, “सांझ हो रही है। अभी एक जगह और जाना है। अब हम लोग जा रहे हैं। लेकिन कल की बात मत भूल जाना।” कहकर वह खड़ी हो गई।
काला चांद के इस अड्डे के सभी व्यवहार अपूर्व को अशोभन दिखाई दिए। लेकिन अंतिम समय में जिन बातों की चर्चा हुई उससे उसके विरक्ति की सीमा नहीं रही। बाहर आते ही उसने अत्यधिक अप्रसन्न होकर कहा, “तुम यह सब बातें उन लोगों से क्यों कहने गई।”
“कौन सब बात?”
“वह नालायक हरामजादा तो शराबी है। दुलाल ने क्या कहा, तुमने सुना तो?” मान लो यह बात साहब लोगों के कानों तक पहुंच जाए?
“उनके कानों तक कैसे पहुंचेगी?”
“अरे, यह लोग ही कह देंगे, यह लोग क्या युधिष्ठिर हैं? शराब के नशे में कब क्या कर डालें, इसका कोई ठिकाना नहीं है। तब तुम्हारे ऊपर ही सारा दोष आएगा। यह कहेंगे कि तुमने ही सिखाया है।”
“लेकिन यह तो झूठी बात होगी।”
अपूर्व ने व्याकुल होकर कहा, “झूठी बात? अरे, अंग्रेजों के राज्य में झूठी बात के लिए क्या कभी किसी को जेल की सजा नहीं मिली? यह राज्य तो झूठ के आधार पर ही खड़ा है।”
“सम्भवत: मुझे भी जेल हो सकती है।”
“तुमने तो झट से कह दिया, जेल हो सकती है। नहीं, नहीं, यह सब कुछ नहीं होगा। और तुम यहां कभी आओगी भी नहीं।”
एक आदमी से मिलना था लेकिन उसके द्वार पर ताला लगा था। दोनों लौट पड़े। काला चांद के मकान में शराबियों का तर्क-वितर्क अभी तक चल रहा था। लोग यह कहकर झगड़ रहे थे कि ईसाई लड़कियां कारखानें में हड़ताल करा देना चाहती हैं। हड़ताल में उन्हें बड़ा कष्ट होगा। उन लोगों को लाइन के घरों में नहीं आने देना चाहिए। काला चांद मिस्त्री ने कहा वह मूर्ख नहीं है। वह उन लोगों की दौड़-धूप परख रहा है। एक सतर्क महिला ने सलाह दी कि बड़े साहब को पहले ही सावधान कर देना ठीक होगा।
वहां से भारती को जबर्दस्ती दूर ले जाकर अपूर्व तीखे स्वर में बोला, “इन लोगों की भलाई करोगी? हरामजादे, पाजी, बदमाश। पासवाले कमरे में दो बच्चे मर रहे हैं, उनकी ओर आंख उठाकर कोई नहीं देखता। इससे बढ़कर नरक और कहां है?”
भारती बोली, “आपको यह क्या हो गया है?”
“मुझे कुछ नहीं हुआ, लेकिन तुमने कुछ सुना है या नहीं?”
“यह तो पुरानी बातें हैं। रोजाना ही सुनती हूं।”
अपूर्व गरजकर बोला, “ऐसी कृतघ्नता! इन्हीं को तुम अपने दल में लाना चाहती हो। यूनियन बनाना चाहती हो? इनकी भलाई चाहती हो?”
भारती हलकी-सी हंसी के साथ बोली, “यह लोग भी तो हम लोगों में से ही हैं अपूर्व बाबू! इस छोटी-सी बात को भूलकर आप संकट में पड़ रहे हैं। और भलाई? भलाई तो डॉक्टर साहब की भी नहीं कि जा सकती अपूर्व बाबू!”
अपूर्व निरुत्तर हो गया।
दोनों चुपचाप फाटक पार करके घूमते हुए बड़ी सड़क पर पहुंच गए। बस्ती के छोर पर जहां से दलदल आरम्भ होती थी, वहीं तिमुहानी पर पहुंचकर भारती बोली, “अगर आप घर जाना चाहें तो शहर जाने के लिए यह दाईं ओर का रास्ता है।”
अपूर्व ने खोए-खोए से स्वर में पूछा, “आप क्या कहती हैं।”
भारती बोली, “अब आपका दिमाग ठंडा हो गया है और यथोचित सम्बोधन की भाषा याद आ गई है।”
“क्या मतलब?”
“मतलब यह कि क्रोध के कारण अब तक आप और तुम का भेद नहीं था। वह फिर लौट आया है।”
अपूर्व लज्जित होकर बोला, “आप नाराज तो नहीं हुईं?”
भारती हंसकर बोली, “हुई भी हूं तो क्या हर्ज है? चलिए।”
“तो चलूं?”
“चलोगे नहीं तो क्या मैं अंधेरे रास्ते में अकेली जाऊंगी?”
अपूर्व चल दिया। उसके अंतर में एक ज्वाला-सी धाधक रही थी। उन शराबियों की बातों को वह किसी भी तरह से भूल नहीं पा रहा था। सहसा कड़े स्वर में बोला, “यह सब तो सुमित्रा का काम है। आपको वहां नेतृत्व करने के लिए जाने की क्या जरूरत है? न जाने कौन कहां क्या कर डाले। और आपको लेकर खींचातानी आरम्भ हो जाए।
भारती बोली, “हो जाने दीजिए।”
अपूर्व बोला, “वाह रे....हो जाने दीजिए! असल बात यह है कि नेतागिरी करना आपका स्वभाव है। लेकिन और भी तो बहुत से स्थान हैं?”
“कोई दिखा दीजिए न?”
“मुझे गरज नहीं।”
भारती ने हाथ बढ़ाकर अपूर्व का दायां हाथ जोर से पकड़कर कहा, “मेरा स्वभाव बदलेगा नहीं अपूर्व बाबू! लेकिन आप जैसे आदमी पर नेतृत्व कर पाऊं तो और सब छोड़ सकती हूं।”
अगले दिन सुमित्रा की अध्यक्षता में फायर मैदान में जो सभा हुई उसमें उपस्थिति कम थी। जिन लोगों ने भाषण देने का वचन दिया था उनमें से भी अधिक लोग नहीं आ सके। सभा की कार्यवाई देर से आरम्भ हुई रोशनी का प्रबंध न होने के कारण सांझ होने से पहले ही समाप्त कर दी गई। सुमित्रा के भाषण के अतिरिक्त सभा में और कुछ उल्लेखनीय नहीं हुआ। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि पथ के दावेदारों के इस प्रथम प्रयास को व्यर्थ कह दिया जाए। मजदूरों में इस बात को फैलने में जिस प्रकार देर नहीं हुई उसी प्रकार मिल और कारखाने के मालिकों के कानों तक भी उक्त बातों के पहुंचने में विलम्ब नहीं हुआ। चारों ओर यह बात फैल गई कि एक बंगाली महिला विश्व-भ्रमण करती हुई बर्मा में आई है। वह जितनी रूपमयी है उतनी ही शक्तिमयी भी है। किसी की मजाल नहीं जो उनके कामों में बाधा डाल सके। साहबों का कान पकड़कर वह किस प्रकार मजदूरों के लिए सब प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध करा लेंगी और उनकी मजदूरी दो गुनी करा देंगी- इन बातों को उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है। जिन लोगों को इस सभा की खबर थी और जो लोग उस दिन उनका भाषण नहीं सुन पाए उन्होंने निश्यच किया कि वह अगामी शनिवार की सभा में अवश्य भाग लेंगे।
बीस-पच्चीस कोस के दायरें में जितने भी कारखाने थे उनमें यह खबर दावाग्नि की भांति फैल गई।
सुमित्रा को बहुतों ने अभी तक नहीं देखा है, लेकिन उसके रूप और शक्ति की ख्याति जब उन लोगों तक पहुंची तब अशिक्षित मजदूरों में भी सहसा एक जागृति-सी दिखाई देने लगी। यह निश्यच हो गया कि एक दिन का नागा करके शनिवार को फायर मैदान में एक-एक मजदूर उपस्थित होगा। उसकी वाणी और उपदेशों में यदि कोई पारस पत्थर हो जिससे गरीब मजदूरों का दु:खी जीवन रातोंरात एकाएक आतिशबाजी के तमाशों की तरह चमक उठे, तो फिर जिस तरह हो सके वह दुर्लभ वस्तु उन्हें प्राप्त कर लेनी चाहिए।
उस दिन भाषण कर्त्ताओं के अभाव में अपूर्व को भी दो-चार बातें कहनी पड़ी थीं। बोलने की आदत तो थी नहीं और जो कुछ कहा भी उसको ठीक तरह से न कह सका। इसके लिए वह मन-ही-मन लज्जित हुआ।
लेकिन आज अचानक खबर मिली कि उस दिन की सभा निष्फल नहीं हुई। बल्कि उसका फल यह हुआ कि अगली सभा में सभी कारखानों में काम बंद करके कारीगरों, मजदूरों के दलों ने उपस्थित होने का संकल्प कर लिया है-तब गर्व तथा आत्मप्रशंसा के आनंद से उसका हृदय रह-रहकर फूल उठने लगा। उस दिन वह अच्छी तरह भाषण न दे सका था। लेकिन प्रशंसा के साथ आगामी सभा में भाषण देने का निमंत्रण पाकर वह चंचल हो उठा।
दोपहर के भोजन पर उसने रामदास को यह बात बता दी। एक दिन अपूर्व के लिए रामदास ने भारती का अपमान किया था, उस दिन से भारती के संबंध में उससे बात करते हुए अपूर्व को संकोच होता था। इन दिनों अपूर्व उस गृहहीन लड़की से चुपके-चुपके जीवन में कितने बड़े काव्य, कितने बड़े सुख-दु:ख के इतिहास का निर्माण कर चुका था, इसकी उसे कोई सूचना नहीं दी थी। आज पुलक और रोमांच की अधिकता से अपूर्व ने सारी बातें बताईं। भारती, सुमित्रा, डॉक्टर साहब, नवतारा। यहां तक कि उस शराबी का भी उल्लेख कर दिया। अपने पथ के दावेदार के कार्यक्रमों और उपदेशों का वर्णन करते हुए उस दिन लाइन वाले कमरे के अभियान का विवरण भी दे दिया।
रामदास ने कोई प्रश्न नहीं किया। एक दिन देश के इस व्यक्ति को जेल जाना पड़ा है, बेंतों की मार खानी पड़ी है और न जाने क्या-क्या दु:ख भोगने पड़े हैं। केवल एक दिन के अतिरिक्त और किसी दिन रामदास ने कोई बात नहीं बताई। आज सुमित्रा के पत्र को रामदास के सामने रखकर स्वयं को पथ के दावेदारों का एक विशिष्ट सदस्य बताकर उसने देश के काम के लिए नियोजित अपने जीवन का वर्णन किया।
पत्र पढ़कर तलवलकर बोला, “बाबूजी, यह सारी बातें आपने पहले मुझसे कभी नहीं कही?”
“कहने से क्या आप हमारा साथ देंगे?”
“कैसी बातें कर रहे हैं? मुझे तो आपने सहयोग के लिए आमंत्रित किया नहीं।”
“उसके स्वर में आहत अभिमान की झंकार, अत्यंत स्पष्ट होकर उसके कानों में गूंज उठी। जल्दी से बोला, “इसका कारण है रामदास बाबू! इन कामों में कितना बड़ा दायित्व है और कितनी आशंकाए, यह आप जानते हैं। आप विवाहित हैं। एक पुत्री के पिता हैं, इसलिए इस आग में मैंने आपको बुलाना उचित नहीं समझा।”
“गृहस्थों को क्या देश-सेवा का अधिकार नहीं? जन्मभूमि क्या आप लोगों की है?”
अपूर्व लज्जित होकर बोला, “मैंने तो ऐसा नहीं कहा। मैंने तो केवल यह कहा है कि दूसरी जगह आपकी जिम्मेदारियां अधिक हैं, इसलिए विदेश में इतनी बड़ी विपत्ति में पड़ना उचित नहीं।”
“शायद यही हो। लेकिन पराधीन देश की सेवा करने को तो विपत्ति नहीं कहते अपूर्व बाबू! हिंदूओं में विवाह एक धर्म है। मातृभूमि की सेवा करना उससे बड़ा धर्म है। एक धर्म दूसरे में बाधा देगा, अगर मैं यह जानता तो कभी विवाह न करता।”
उसके चेहरे की ओर देखकर अपूर्व ने प्रतिवाद नहीं किया। मौन हो गया। लेकिन उसने इस तर्क का समर्थन भी नहीं किया। देश के काम में इस व्यक्ति ने अनेक कष्ट सहे हैं। आज भी उसके भीतर का तेज एकदम बुझा नहीं है। सामान्य प्रसंग से ही वह एकदम उत्तेजित हो उठा है। यह सोचते ही अपूर्व श्रध्दा से झुक गया।
लेकिन उसे यह आशा नहीं थी कि बुलाने से ही वह पत्नी-पुत्री की माया छोड़कर पथ के दावेदार का सदस्य बन जाएगा। देश-सेवा के अधिकार की उसकी स्पर्धा इन कई दिनों से बहुत ऊंची हो गई थी। सहसा इस प्रसंग को बंद करते हुए उसने आगामी सभा के कारण और उद्देश्यों का वर्णन न करते हुए बताया कि उस दिन को छोड़कर जीवन में कभी उसने भाषण नहीं दिया। सुमित्रा के निमंत्रण की वह उपेक्षा नहीं कर सकता, लेकिन एक ही बात बहुत से लोगों को सुना सके, ऐसी भाषा को उसे अभ्यास नहीं था।
तलवलकर ने पूछा, “तो फिर क्या कीजिएगा?”
अपूर्व ने कहा, “जीवन में कारखाना देखने का मुझे एक बार ही अवसर मिला था जिस पर भाषण दिया जा सकता है। उस कारखाने के अधिकांश मजदूर जानवरों जैसी जिंदगी बिताते हैं। यह मैं स्वयं अनुभव कर आया हूं। लेकिन न जाने क्यों, इस विषय में तो कुछ भी नहीं जानता।”
रामदास ने हंसते हुए कहा, “फिर भी क्या आपको बोलना जरूरी है? न बोलें तो क्या कोई हानि है?”
अपूर्व मौन रहा।
रामदास बोला, “लेकिन मैं इन लोगों की बातें जानता हूं।”
“कैसे जाना?”
“इन लोगों के बीच में बहुत दिनों तक रह चुका हूं अपूर्व बाबू! मेरी नौकरी के प्रमाण-पत्रों को देखते ही समझ जाएंगे कि मैं देश के कल-कारखानों और कुली-मजदूरों के बीच ही जीवन बिताता रहा हूं। अगर आज्ञा हो तो वह करुण कहानी आपको सुना सकता हूं। वास्तव में इन लोगों को देखे बिना देश की वास्तविक स्थिति का ज्ञान हो ही नहीं सकता।”
अपूर्व ने कहा, “सुमित्रा भी ठीक वही बात कहती हैं।”
“बिना कहे उपाय नहीं है। और जानती हैं, इसीलिए तो वह पथ के दावेदारों की अध्यक्षा हैं। बाबू जी, आत्मत्याग का आरम्भ यहीं से है। देश की नींव इन्हीं पर आधारित है। उसकी पूरी जानकारी रहने से आपका सारा उद्यम, सारी इच्छाएं, मरुभूमि की भांति दो दिन में सूख जाएंगी।”
यह बातें अपूर्व के लिए नई नहीं थीं। लेकिन रामदास के हृदय से निकलने वाले शब्द उसके हृदय पर गहरा आघात करने लगे।
रामदास और न जाने क्या कहने जा रहा था कि तभी पर्दा हटाकर साहब के प्रवेश करते ही दोनों चकित होकर खड़े हो गए। साहब ने अपूर्व की ओर देखते हुए कहा, “मैं जा रहा हूं। आपकी मेज पर एक पत्र रख आया हूं। ले लीजिएगा।”
साहब के जाने के बाद ऑफिस जल्दी ही बंद करके दोनों फायर मैदान की ओर चल दिए। उस ओर गाड़ी नहीं जाती थी इसलिए कुछ तेज चलना पड़ा। रास्ते में अपूर्व ने कोई बात नहीं कही। उसके जीवन का आज एक विशेष दिन था। वह आशंका और आनंद की उत्तेजना दोनों के बीच बहा जा रहा है। कारीगरों और कुली-मजदूरों के संबंध में जो कुछ तो एक पुस्तक से और कुछ रामदास से उसने मसाला इकट्ठा कर लिया था। उन सबको मन-ही-मन बटोरते-सजाते हुए अपूर्व चुपचाप चलने लगा।
सन् 1763 में बम्बई में किसी स्थान पर पहले-पहल रूई का कारखाना खुला था। उसके बाद से उनकी संख्या बढ़ते-बढ़ते आज कितनी हो गई है। उस समय कुली-मजदूरों की कितनी शोचनीय दशा थी। उन्हें रात-दिन मेहनत करनी पड़ती थी। उसके कारण विलायत के मिल मालिकों के साथ, भारत के मिल मालिक का विवाद कब आरम्भ हुआ था और कारखाने का कानून किस-किस सन में, किस तारीख को कौन-कौन-सी बाधाओं का सामना करते हुए पास हुआ, इस देश में पहले-पहल प्रचलित हुआ और इस समय वह कानून परिवर्तित होकर किस स्थिति में है? उस समय और अब विलायत और भारत में मजदूरी की दर क्या है? उन सबकी यूनियन बनाने की कल्पना कब और किसने प्रस्तुत की थी? और उसका फल क्या हुआ था? उस देश के और इस देश के मजदूरों के बीच भले-बुरे व्यवहारों की तुलना करने से क्या पता चलता है? और लाभ तथा हानि का परिणाम उसमें कहां पर निर्दिष्ट हुआ है? आदि उसने जो विवरण इकट्ठे किए हों वह कहीं छूट न जाएं इस भय से उसने स्वयं को सतर्क कर लिया।
सुमित्रा की दूरगामी दृष्टि उसे स्पष्ट दिखाई देने लगी। और भारती...इतने थोड़े से समय मंत इतना ज्ञान, और इतनी जानकारी उसने कैसे प्राप्त कर ली? हर्ष भरे विस्मय से उसका चेहरा चमक उठा, आंखें भीग गईं।
मैदान में पहुंचकर उन लोगों ने देखा, वहां तिल रखने के लिए भी स्थान नहीं है। कितने लोग इकट्ठे हए हैं, कोई सीमा नहीं है। उस दिन जिन लोगों ने अपूर्व को वक्ता के रूप में देखा था उन लोगों ने उसे रास्ता दे दिया था। जो लोग नहीं पहचानते थे वे भी उनकी देखा-देखी हट गए।
अपार जन समूह के बीचोबीच मंच बना हुआ था। आज भी डॉक्टर लौटे नहीं थे। उनके अतिरिक्त पथ के दावेदार के सभी सदस्य उपस्थित थे। मित्र को साथ लेकर किसी प्रकार भीड़ को ठेलता हुआ अपूर्व वहां पहुंचा। अच्छे वक्ता से जनता युक्ति और तर्क नहीं चाहती। जो बुरा है, वह बुरा क्यों है, इससे उसे कोई सरोकार नहीं होता। उसे बस इतना सुनकर ही संतुष्टि हो जाती है कि जो बुरा है वह कितना बुरा हो सकता है। पंजाबी मिस्त्री के भयंकर भाषण में यही गुण अधिक मात्रा में था। इसीलिए श्रोता अत्यधिक उत्तेजित हो उठे थे।
उसी समय हंगामा मच गया। एक कोने में बहुत से लोग एक-दूसरे के साथ धक्का-मुक्की करते हुए भागने की कोशिश करने लगे। भीड़ को कुचलते-रौंदते बीस-पच्चीस गोरे पुलिस घुड़सवार तेजी से चले आ रहे थे। सभी कि हाथ में लगाम थी, दूसरे हाथ में चाबुक और कमर में पिस्तौल। जो व्यक्ति भाषाण दे रहा था उसकी गरजती आवाज कब थम गई और वह मंच के नीचे भीड़ में धंसकर कहां गुम हो गया, कुछ भी समझ में नहीं आया।
गोरे घुड़सवारों का नायक मंच के निकट आया। चीखकर बोला, “मीटिंग बंद करो।”
सुमित्रा अभी तक पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो पाई थीं। उसके दुर्बल उदास चेहरे पर एक पीली छाया डोल गई। उसने जल्छी से उठकर पूछा, “क्यों?”
“आज्ञा है?”
“किसकी?”
“सरकार की।”
“किसलिए?”
“हड़ताल करने के लिए मजदूरों को भड़काना मना है।”
सुमित्रा बोलीं, “मजदूरों को बेकार भड़काकर तमाशा देखने के लिए हमारे पास समय नहीं है। यूरोप आदि देशों की तरह इन लोगों को संगठित होने की आवश्यकता को समझाना ही इस संस्था का उद्देश्य है।”
साहब चकित होकर बोला, “संगठित करना? काम के विरुध्द? यह तो इस देश के लिए भयानक गैर कानूनी काम होगा। इससे तो निश्चित रूप से शांति भंग हो जाएगी।”
सुमित्रा बोलीं, “हां हो सकती है। जिस देश में सरकार का अर्थ ही अंग्रेजी उद्योगपति हो और सारे देश के खून को चूसने के लिए जिन्होंने यह भयंकर यंत्र खड़ा किया हो....?”
बात पूरी भी न हो पाई कि गोरे की लाल आंखों से आग बरसने लगी। कड़ककर बोला, “फिर भी ऐसी बातें अगर मुंह से निकालीं तो मुझे आपको गिरफ्तार करना पड़ेगा।”
सुमित्रा उसकी ओर देखकर हंसकर बोली, “साहब, मैं बीमार और कमजोर हूं। नहीं तो केवल दूसरी बार ही नहीं इस बात को तो एक सौ बार चिल्ला-चिल्लाकर इन लोगों को सुना देती। लेकिन आज मुझमें वह ताकत नहीं है।” इतना कहकर वह फिर हंस पड़ीं।
उस बीमार और दुर्बल नारी की सरल-शांत हंसी के सामने साहब मन-ही-मन लज्जित हो उठा। बोला, “आलराइट, आपको सावधन किए देता हूं। मुझे मीटिंग बंद करने का आदेश है, भंग करने का नहीं। दस मिनट में इन सबको शांतिपूर्वक चले जाने को कहिए, और फिर कभी ऐसा न कीजिए।”
कई दिनों से सुमित्रा ने कुछ खाया नहीं था। सब लोगों के मना करने पर भी बुखार में ही सभा में चली आई थीं। उसने अपूर्व से कहा, “अपूर्व बाबू, केवल दस मिनट का समय और है। चिल्ला-चिल्लाकर सबको बता दीजिए कि एकजुट होने के सिवा इसका और कोई उपाय नहीं है। कारखाने के लोगों ने आज हम लोगों का जैसा अपमान किया है, अगर तुम अपने-आपको इन्सान समझते हो तो इसका बदला जरूर लेना।”
कहते-कहते उसकी कमजोर आवाज फट-सी गई।
लेकिन सभा की अध्यक्षा का ऐसा उपदेश सुनकर अपूर्व का चेहरा सूख गया। बेचैनी से सुमित्रा की ओर ताकते हुए बोला, 'उत्तेजित करना गैर-कानूनी नहीं होगा?”
सुमित्रा विस्मित होकर मधुर स्वर में बोली, “पिस्तौल के बल पर सभा को भंग कर देना क्या कानून-संगत है? बेकार खून-खराबा मैं नहीं चाहती। लेकिन इस बात की आप पूरी शक्ति से घोषणा कर दें कि आज के अपमान को मजदूर बिल्कुल न भूलें।”
पथ के दावेदार के जो चार-पांच पुरुष सदस्य मंच पर बैठे थे, उनके चेहरों से ही पता चल रहा था कि वह बहुत ही मामूली और निम्न श्रेणी के लोग हैं। शायद कारीगर या इसी प्रकार के लोग थे। अपूर्व नया होते हुए भी समिति का शिक्षित तथा विशिष्ट सदस्य था। इतनी बड़ी भीड़ को सम्बोधित करने का भार इसीलिए उस पर आ पड़ा था। उसने सूखे गले से कहा, “मैं तो हिंदी अच्छी तरह बोल नहीं सकता।”
सुमित्रा बोल नहीं सकती थीं। विवश होकर कहने लगीं, “जो कुछ भी जानते हैं वही दो शब्दों में कह दीजिए अपूर्व बाबू! समय बर्बाद मत कीजिए।”
अपूर्व ने सबकी ओर देखा। भारती मुंह फेरे खड़ी थी इसलिए उसका अभिमत समझ में नहीं आया। लेकिन गोरे नायक के मन का भाव समझ में आ गया। अपूर्व बोलने के लिए उठ खड़ा हुआ। उसके होंठ कांप उठे, लेकिन उन कांपते होंठों से बंगला, अंग्रेजी या हिंदी किसी भी भाषा का एक भी शब्द नहीं निकला।
तलवलकर उठ खड़ा हुआ। सुमित्रा की ओर देखकर बोला, “मैं बाबू जी का मित्र हूं और हिंदी जानता हूं। यदि आज्ञा हो तो मैं वक्तव्य चिल्ला-चिल्लाकर सबको सुना दूं।”
भारती ने मुंह घूमा कर देखा- सुमित्रा आश्चर्य से देखती चुपचाप बैठी रहीं। और उन दोनों नारियों की घूरती आंखों के सामने लज्जित, अभिभूत, वाक्यहीन अपूर्व स्तब्ध, मुंह नीचा किए जड़वत बैठ गया।
रामदास ने ऊंची आवाज में कहा, “भाइयों, मुझे बहुत-सी बातें कहनी थीं। लेकिन इन सबने बलपूर्वक हम लोगों का मुंह बंद कर दिया है।” इतना कहकर उसने पुलिस के घुड़सवारों की ओर संकेत किया, “इन विलायती कुत्तों को, जिन्होंने हमारे और तुम्हारे विरुध्द ललकारा है, वह तुम्हारे कारखानों के मालिक हैं, वह नहीं चाहते कि कोई तुम्हें तुम्हारी दु:ख-दुर्दशा के बारे में बताए। तुम उनके कारखाने चलाने और बोझा ढोने वाले जानवर हो। लेकिन तुम भी उन्हीं जैसे मनुष्य हो। उसी प्रकार पेट भर भोजन करने का, उसी प्रकार आनंद करने का अधिकार भगवान ने तुम्हें भी दिया है। अगर इस सत्य को समझ सको कि तुम लोग भी मनुष्य हो, तुम भले ही कितने ही दुखी, कितने ही दरिद्र और कितने ही अनपढ़ क्यों न हो, फिर भी मनुष्य हो-तुम्हारी मनुष्यता के दावे को कोई भी किसी बहाने नकार नहीं सकता। यह चंद कारखानों के मालिक तुम्हारे सामने कुछ भी नहीं हैं। यह पूंजीपतियों के विरुध्द गरीबों की आत्मरक्षा की लड़ाई है।
इसमें देश नहीं है, जाति नहीं है, धर्म नहीं है, मतवाद नहीं है, हिंदू नहीं है, मुसलमान नहीं है। जैन, सिख, कुछ भी नहीं है-केवल है धन में उन्मत्त मालिक और गरीब मजदूर! तुम्हारी शारीरिक शक्ति से वह डरते हैं। वह तुम्हारी शिक्षा की शक्ति को संशय की नजर से देखते हैं। तुम लोगों के ज्ञान पाने की आशंका से उनका खून सूख जाता है। अक्षय, दुर्बल, मूर्ख-तुम लोग ही तो उनके विलास-व्यसन के एक मात्र सहारे हो। इस सत्य को गांठ बांधना क्या तुम लोगों के लिए कठिन काम है? और इन्हीं बातों को स्पष्ट शब्दों में कहने के अपराध में, क्या आज इन गोरों के सामने हमारे अपमान की कोई सीमा रहेगी? गरीबों की आत्मरक्षा की लड़ाई में क्या तुम लोग अपनी पूरी शक्ति न जुटा सकोगे?”
गोरा नायक भाषण का अर्थ नहीं समझा, लेकिन श्रोताओं के चेहरों और आंखों में मचलती उत्तेजना देखकर उत्तेजित हो उठा। अपनी रिस्टवाच की ओर वक्ता का ध्यान आकर्षित करते हुए बोला, “और पांच मिनट का समय है। जल्दी खत्म कीजिए।”
तलवलकर ने कहा, “केवल पांच मिनट-इससे जरा भी अधिक नहीं मेरे वंचित भाइयों! मैं तुमसे प्रार्थना करता हूं कि हम लोगों पर कभी अविश्वास मत करना। पढ़ा-लिखा कहकर, उच्च वंश का कहकर कारखाने में मजदूरी नहीं करता-इन बातों से हम लोगों पर संदेह करके तुम अपना ही सर्वनाश कर बैठोगे। तुम लोगों को नींद से जगाने के लिए पहली शंखधवनि सभी देशों में और प्रत्येक काल में हम लोग ही करते आए हैं। आज शायद इस बात को न भी समझ सको। लेकिन इतना निश्चय समझो कि इन पथ के दावेदारों से बढ़कर तुम लोगों का मित्र इस देश में और कोई नहीं है।”
उसकी आवाज सूखी और कठोर होती जा रही थी। फिर भी जी-जान से चिल्लाकर कहने लगा।, “मैं बहुत दिनों तक तुम लोगों के बीच रहकर काम कर चुका हूं। हम लोगों को तुम लोग नहीं पहचानते लेकिन मैं तुम सबको पहचानता हूं। जिनको तुम लोग मालिक कहते हो, एक दिन मैं भी उन्हीं में से एक था। यह मालिक किसी भी तरह तुम्हें इन्सानों की तरह नहीं रहने देंगे। तुम्हें पशुओं की तरह रखकर ही वह तुम्हारे मनुष्यत्व के अधिकार को रोक सकते हैं और किसी दशा में नहीं। तुम लोग बदमाश हो, उच्छृंखल हो, चरित्रहीन हो, उनके मुंह से यह गालियां ही तुम हमेशा से सुनते आ रहे हो इसलिए जब कभी तुम लोगों ने अपने दावे को प्रकट किया तभी तुम लोगों के सभी प्रकर के दु:ख और कष्टों की जड़ में तुम लोगों के असंयत चरित्र को ही जिम्मेदार ठहराते हुए वह तुम्हारी हर प्रकार की उन्नति को रोकते आए हैं। केवल इस झूठ को ही वह हमेशा तुमको समझाते आए हैं कि स्वयं भला न बनने पर किसी भी प्रकार की उन्नति नहीं हो सकती। लेकिन आज मैं तुम लोगों से निस्संकोच और साफ-साफ कह देना चाहता हूं कि उनका यह कहना सम्पूर्ण सत्य नहीं है। केवल तुम लोगों का चरित्र ही तुम्हारी अवस्था के लिए दोषी नहीं है। उनके असत्य का आज तुम लोगों को निर्भीक बनकर विरोध करना ही पड़ेगा। ऊंची आवाज से तुम लोगों को यह घोषणा करनी ही पड़ेगी कि रुपया ही सब कुछ नहीं है।”
कहते-कहते उसकी नीरस आवाज तेज हो उठी। फिर कहने लगा, “बिना मेहनत के संसार में कुछ पैदा नहीं होता। इसलिए मजदूर भी तुम लोगों की तरह मालिक है-ठीक तुम लोगों की तरह सभी चीजों और सभी कारखानों का अधिकारी है।”
तभी एक पंजाबी के गोरे नायक के कान में कुछ कहते ही उसकी लाल-लाल आंखें अंगारों की तरह जल उठीं। उसने गरजते हुए कहा, “स्टॉप, नहीं चलेगा। इससे शांति भंग होगी।”
अपूर्व चौंक पड़ा। रामदास के कुर्ते को पकड़कर खींचातानी करने लगा, “ठहरो रामदास, ठहरो। इस निस्सहाय मित्रहीन पराए देश में तुम्हारी पत्नी है, एक छोटी बेटी है।”
रामदास ने कुछ भी नहीं सुना। चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगा, “यह लोग अन्यायी हैं, डरपोक हैं। किसी भी दशा में सत्य को तुम लोगों को सुनने देना नहीं चाहते लेकिन यह लोग नहीं जानते कि सत्य का गला घोंटकर भी उसकी हत्या नहीं की जा सकती। वह अमर होता है। कभी नहीं मरता।”
गोरे ने इसका अर्थ नहीं समझा। लेकिन अचानक सैंकड़ों लोगों के सर्वांग से छिटककर तीक्ष्ण उत्तेजना की भभक उसके मुंह पर लगी। हुंकार कर बोला, “यह नहीं चलेगा। यह राजद्रोह है।”
पलक मारते ही, पांच-छह घुड़सवार घोड़ों से कुदकर रामदास के दोनों हाथों को पकड़कर जोर से खींचते हुए नीचे ले गए। उसका दीर्घ शरीर घोड़ों और घुड़सवारों की बीच देखते-देखते ही ओझल हो गया। लेकिन उसकी तेज और ऊंची आवाज बंद नहीं हुई। आवाज उत्तेजित अपार भीड़ के एक छोर से दूसरे छोर तक गूंजने लगी, “भाइयो! अब मुझसे आप लोगों की भेंट कभी नहीं होगी। लेकिन मनुष्य होकर जन्म लेने की मर्यादा अगर अपने मालिकों के पैरों के नीचे न कुचलवा चुके होंगे तो इतने बड़े उत्पीड़न, इतने बड़े अपमान को कभी बर्दाश्त मत करना।”
लेकिन उसके बातें समाप्त होते-न-होते माने दक्ष यज्ञ आरम्भ हो गया। घोड़े दौड़ने लगे। चाबुक कसने लगे अपमानित, अभिभूत और अस्त-व्यस्त मजदूर जान बचाकर भाग खड़े हुए। कौन किस पर गिरा और कौन किसके पैरों के नीचे कुचल गया कोई ठिकाना नहीं रहा।”
कुछ घायल चोट खाए व्यक्तियों को छोड़कर सारा मैदान सूना होने में देर नहीं लगी। किसी तरह लंगड़ाते हुए जो लोग इस समय भी इधर-उधर भागे जा रहे थे स्तब्ध बैठी सुमित्रा उनकी ओर एकटक देख रही थी। उनसे कुछ ही दूरी पर अपूर्व बैठा था। एक और महिला इसी तरह सिर झुकाए विमुढ़-सी बैठी थी।
जो व्यक्ति गाड़ी लाने गया था, दस मिनट बाद गाड़ी लेकर आ गया। सुमित्रा भारती का हाथ पकड़कर धीरे-धीरे जाकर उसमें बैठ गई। आज वह बहुत अस्वस्थ, उत्पीड़ित और थकी हुई दिखाई दे रही थीं।
भारती ने कहा, “चलिए।”
अपूर्व ने अपना मुंह ऊपर उठाकर कुछ देर तक न जाने क्या सोचकर पूछा, “मुझे कहां चलने को कह रही हो?।”
भारती ने कहा, “मेरे घर।”
अपूर्व कुछ देर चुप रहा। फिर धीरे से बोला, “आप लोग तो जानती हैं कि मैं समिति के लिए कितना अयोग्य हूं। वहां मेरे लिए कोई स्थान नहीं हो सकता।”
भारती ने पूछा, “तो फिर इस समय कहां जाएंगे, डेरे पर?”
“डेरे पर? एक बार जाना होगा, “इतना कहते ही अपूर्व की आंखें सजल हो उठीं। किसी तरह आंसुओं को संभालते हुए बोला, “लेकिन इस विदेश में और कहां जाऊं, समझ नहीं पा रहा भारती।”
गाड़ी में से सुमित्रा ने कहा, “तुम लोग जाओ।”
भारती ने फिर कहा, “चलिए।”
अपूर्व बोला, “पथ के दावेदारों में मेरे लिए स्थान नहीं है।”
भारती उसका हाथ पकड़ने जा रही थी लेकिन अपने-आपको संभालकर एक पल उसके चेहरे पर आंखें टिकाकर धीमे से बोली, “पथ के दावेदारों में स्थान भले ही न हो लेकिन और एक दावे से आपको वंचित कर सके संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है अपूर्व बाबू!”
गाड़ी में से सुमित्रा ने झल्लाकर पूछा, “तुम लोगों के आने में क्या देर होगी भारती?”
भारती ने हाथ हिलकार गाड़ीवान को जाने का इशारा करते हुए कहा, “आप जाइए। हम लोग पैदल जाएंगे।”
रास्ते में चलते-चलते अपूर्व ने अचानक कहा, “भारती तुम मेरे साथ चलो न।”
भारती ने कहा, “साथ ही तो चल रही हूं।”
अपूर्व बोला, “यह बात नहीं, तलवलकर की पत्नी से जाकर क्या कहूंगा? मेरी समझ में नहीं आ रहा। रामदास को यहां लाने की दुर्बुध्दि क्यों हुई?”
भारती चुप रही।
अपूर्व कहता गया, “अचानक कितना बड़ा अनर्थ हो गया। अब अपना कर्त्तव्य मेरी समझ में नहीं आ रहा।'
भारती फिर भी मौन रही।
कुछ देर बाद बेचैन होकर अपूर्व गरज उठा, “मेरा क्या दोष है। बार-बार सावधन करने पर भी कोई गले में डोरी बांधकर झूले तो उसे मैं किस तरह बचाऊंगा? पत्नी है, लड़की है, घर-गृहस्थी है-जिसे यह होश नहीं, वह मरेगा नहीं तो और कौन मरेगा? और दो वर्ष की सजा भुगतने दो।”
“आप क्या उनकी पत्नी के पास इस समय नहीं जाएंगे!”
अपूर्व बोला, “जाऊंगा क्यों नहीं। लेकिन कल साहब को क्या उत्तर दूंगा। मैं कहे देता हूं भारती, साहब ने एक बात भी कही तो मैं नौकरी छोड़ दूंगा।”
“नौकरी छोड़कर क्या कीजिएगा?”
“घर चला जाऊंगा। इस देश में इन्सान नहीं रहते।”
“उनके उध्दार का प्रयत्न नहीं करेंगे?”
अपूर्व झट बोल उठा, “चलो, किसी अच्छे बैरिस्टर के पास चलें भारती। मेरे पास एक हजार रुपए हैं। क्या इनसे काम न चलेगा? मेरी घड़ी आदि जो चीजें हैं उनसे बेचने पर पांच-छह सौ रुपए मिल सकते हैं।”
भारती बोली, “लेकिन सबसे पहली आवश्यकता है उनकी पत्नी के पास जाने की। मेरे साथ मत चलिए। यहीं से गाड़ी लेकर स्टेशन चले जाइए। उनको क्या चाहिए, क्या अभाव है? कम-से-कम पूछने की जरूरत तो है।” मैं अकेली चली जाऊंगी। आप चले जाइए।”
अपूर्व कुछ हिचककर बोला, “मैं अकेला न जा सकूंगा।”
भारती बोली, “डेरे से तिवारी को साथ ले लेना।”
“नहीं, तुम मेरे साथ चलो।”
“मुझे जरूरी काम है।”
“काम रहने दो। मेरे साथ चलो।”
“लेकिन मुझे इस मामले में क्यों डाल रहे हैं अपूर्व बाबू!”
अपूर्व चूप रहा।
भारती हंस पड़ी। बोली, “अच्छा, चलिए मेरे साथ। पहले अपना काम पूरा कर लूं।”
रास्ते में अचानक भारती बोली, “जिसने आपको नौकरी करने के लिए विदेश में भेजा है उसमें आपको पहचानने की बुध्दि नहीं है। वह अगर आपकी मां ही क्यों न हों। तिवारी देश जा रहा है। कोशिश करके आपको भी उसके साथ भेज दूंगी।”
अपूर्व मौन रहा।
“आपने उत्तर नहीं दिया।”
उत्तर देने की आवश्यकता ही नहीं है। मैं गृहस्थी में न रहता तो मैं संन्यासी हो जाता।”
भारती बोली, “संन्यासी? लेकिन मां तो जीवित है?”
अपूर्व बोला, “हां देश के एक छोटे से गांव में हम लोगों का एक छोटा-सा मकान है। मां को वहीं ले जाऊंगा।”
“उसके बाद?”
“मेरे पास दो हजार रुपए हैं उन्हीं से छोटी-सी दुकान खोल लूंगा। उसी से हम दोनों का खर्च चल जाएगा।”
भारती बोली, “खर्च तो चल सकता है। लेकिन अचानक इसकी आवश्यकता कैसे आ पड़ी?”
अपूर्व बोला, “आज मैं अपने को पहचान सका हूं। मां के अतिरिक्त इस संसार में मेरा कोई मूल्य नहीं है।”
भारती ने एक पल उसके मुंह की ओर देखकर पूछा, “मां शायद आपको बहुत प्यार करती हैं?”
अपूर्व बोला, “हां। हमेशा से मां का जीवन दु:ख-ही-दु:ख में बीता है। मैं डरता हूं कहीं यह दु:ख और न बढ़ जाए। मेरा आधार मां है। इसीलिए मैं डरपोक हूं।” सभी की अश्रध्दा का पात्र हूं।”यह कहकर उसके मुंह से लम्बी सांस निकल गई।
भारती ने कोई उत्तर नहीं दिया। अपूर्व का हाथ पकड़े चुपचाप चलती रही।
अपूर्व ने चिंतित होकर पूछा, “रामदास के परिवार का क्या उपाय करोगी?”
भारती स्वयं कुछ नहीं समझ सकी थी। फिर भी साहस बढ़ाने के लिए बोली, “चलिए तो, जाकर देखेंगे। कुछ-न-कुछ उपाय तो किया ही जाएगा।”
“तुमको शायद वहां रहना पड़े।”
“लेकिन मैं तो ईसाई हूं। उन लोगों के किस काम आऊंगी?”
भारती की यह बात अपूर्व को चुभी।
दोनों जब घर पहुंचे, शाम ढल चुकी थी। इस रात किस तरह क्या करना होगा, यह सोचकर उन लोगों के भय की सीमा नहीं थी। अंदर कदम रखते ही भारती ने देखा, उस ओर की खिड़की के पास कोई आराम कुर्सी पर लेटा हुआ है। देखते ही भारती पहचानकर उल्लसित स्वर में बोल उठी, “डॉक्टर साहब, आप कब आए? सुमित्रा जी से भेंट हुई?”
“नहीं।”
अपूर्व ने कहा, “आज भयंकर कांड हो गया डॉक्टर साहब! हमारे एकाउटेंट तलवलकर बाबू को पुलिस पकड़कर ले गई।”
भारती बोली, “इनसिन में उनका घर है। वहीं उनकी पत्नी है, बेटी है। अभी तक उन्हें समाचर तक नहीं मिला।”
अपूर्व ने कहा, “यह कैसी भयानक आपत्ति आ पड़ी डॉक्टर साहब....”
डॉक्टर हंसकर बोला, “भारती, मैं बहुत ही थका हुआ हूं। मुझे चाय बनाकर पिला सकती हो बहिन?”
“क्यों नहीं? लेकिन हम लोगों को बाहर जाना है।”
“कहां?”
“इनसिन। तलवलकर बाबू के घर।”
“कोई जरूरत नहीं।”
अपूर्व ने आश्चर्य से कहा, “जरूरत कैसे नहीं डॉक्टर साहब?”
डॉक्टर हंसकर बोले, “लेकिन इसका भार तो मेरे ऊपर है। आप बैठिए। जब तक भारती चाय बनाकर लाए, होटल का ब्राह्मण रसोइया पवित्रता के साथ खाने की कुछ चीज तैयार करके दे जाए। खा-पीकर आप आराम कीजिए।”
अपूर्व बोला, “इस रात को तो कष्ट उठाने से तुम बच गईं भारती, लेकिन मेरी जिम्मेदारी.... कैसी ही रात क्यों न हो, गए बिना पूरी नहीं होगी।”
भारती ठिठककर खड़ी हो गई। लेकिन तभी डॉक्टर के मुंह की ओर देखकर वह फिर अपना काम करने के लिए चली गई।
डॉक्टर साहब मोमबत्ती जलाकर पत्र लिखने लगे।
दस मिनट तक प्रतीक्षा करके अपूर्व झुंझलाकर उत्कंठित हो उठा। उसने पूछा, “क्या यह पत्र बहुत ही आवश्यक है?”
डॉक्टर ने कहा, “हां।”
अपूर्व बोला, “उधर की कुछ व्यवस्था हो जाना भी तो कम आवश्यक नहीं है। क्या आप उनके घर किसी को न भेजिएगा?”
डॉक्टर ने कहा, “इतनी रात को वहां जाने के लिए कोई आदमी नहीं मिलेगा।”
अपूर्व बोला, “तब उसके लिए आप चिंता न करें। सवेरे मैं खुद ही चला जाऊंगा। आप भारती को मना न करते तो हम अभी चले जाते।”
डॉक्टर लिखते-लिखते बोले, “इसकी आवश्यकता नहीं थी।”
अपूर्व ने कहा, “आवश्यकता की धारणा इस विषय में मेरी और आपकी एक नहीं है। वह मेरा मित्र है।”
चाय का सामान लेकर भारती नीचे उतर आई और चाय बनाकर पास बैठ गई। डॉक्टर का पत्र लिखना और चाय पीना, दोनों काम साथ-साथ चलने लगे।
दो-तीन मिनट बाद भारती रूठने के अंदाज में बोली, “आप हमेशा व्यस्त रहते हैं। दो-चार मिनट आपके पास बैठकर बातचीत कर सकूं, इसके लिए आप मुझे समय ही नहीं देते।”
डॉक्टर ने चाय के प्याले से मुंह हटाकर हंसते हुआ कहा, “क्या करूं बहिन, इस दो बजे की ट्रेन से मुझे जाना है।”
भारती चौंक पड़ी। और अपूर्व के मन में अपने मित्र के प्रति संशय और भी बढ़ गया। भारती ने पूछा, “एक रात के लिए भी आपको विश्राम नहीं मिलेगा?”
डॉक्टर बोला, “मुझे केवल एक दिन छुट्टी मिलेगी भारती, लेकिन वह दिन आज नहीं है।”
भारती समझ न सकी। इसलिए उसने पूछा, “वह समय कब आएगा?”
डॉक्टर ने इसका उत्तर नहीं दिया।
अपूर्व बोला, “समिति का सदस्य न होते हुए भी रामदास सजा भुगतने जा रहा है। उचित नहीं है यह।”
डॉक्टर ने कहा, “सजा नहीं भी हो सकती है।”
अपूर्व ने कहा, “न हो तो उसका भाग्य है। लेकिन अगर हो गई तो वह अपराध मेरा होगा। इस संकट में मैं ही उसे लाया था।”
डॉक्टर केवल मुस्करा दिए।
अपूर्व बोला, “देश के लिए जिसने दो वर्ष की सजा भोगी है, असंख्य बेंतों के दाग जिसकी पीठ से आज भी नहीं मिटे। इस अवदेश में जिसके बच्चे केवल उसी का मुंह देखकर जी रहे हैं, उसका इतना बड़ा साहस असाधारण है। इसकी तुलना नहीं।”
डॉक्टर ने कहा, “इसमें संदेह क्या है अपूर्व बाबू! पराधीनता की आग जिसके हृदय में रात-दिन जल रही है, उसके लिए इसके अतिरिक्त और तो कोई उपाय है नहीं। साहब की फर्म की इतनी बड़ी नौकरी या इनसिन का कोई भी व्यक्ति उसे रोक नहीं सकता। यह उसका एकमात्र पथ है।”
डॉक्टर की बातों को व्यंग्य समझकर वह जैसे एकदम पागल हो उठा। बोला, “आप उसके महत्व को भले ही अनुभव न कर सकें, लेकिन साहब की फर्म की नौकरी तलवलकर जैसे मनुष्य को छोटा नहीं बना सकती। जितनी भी इच्छा हो आप मुझ पर व्यंग्य कीजिए लेकिन रामदास किसी भी बात में आप से छोटा नहीं है। यह बात आप निश्चित रूप से जान जाएंगे।”
डॉक्टर बोले, “मैं यह जानता हूं। मैंने उनको छोटा नहीं कहा।”
अपूर्व बोला, “आपने कहा है। उन पर और मुझ पर आपने व्यंग्य किया है। लेकिन मैं जानता हूं, जन्मभूमि उन्हें प्राण से अधिक प्यारी है। वह निडर हैं आपकी तरह लुक-छिपकर नहीं घूमते।”
आश्चर्य से भारती बोली, “आप किसको क्या कह रहे हैं अपूर्व बाबू? आप पागल तो नहीं हो गए?”
अपूर्व ने कहा, “नहीं पागल नहीं हूं। यह जो भी क्यों न हों लेकिन रामदास तलवलकर की पद-धूलि के बराबर नहीं हैं। यह बात मैं स्पष्ट शब्दों में कह सकता हूं। उसके तेज, उसकी निर्भीकता से ये मन-ही-मन ईष्या करते हैं। इसीलिए तुम्हें जाने नहीं दिया और मुझे भी चतुराई से रोक दिया।”
भारती उठकर बोली, “मैं आपका अपमान नहीं कर सकती, लेकिन आप यहां से चले जाइए अपूर्व बाबू! हम लोगों ने आपको गलत समझा था। भय के कारण जिसे हित-अहित का ज्ञान नहीं रहता, उनके पागलपन के लिए यहां स्थान नहीं है। आपका कहना सच है-पथ के दावेदारों में आपको स्थान नहीं मिलेगा। आज के बाद किसी भी बहाने मेरे घर आने का कष्ट मत कीजिएगा।”
अपूर्व निरुत्तर होकर उठ खड़ा हुआ। लेकिन डॉक्टर ने उसका हाथ पकड़कर कहा, “जरा बैठिए अपूर्व बाबू, इस अंधेरे में मत जाइए। मैं स्टेशन जाते हुए आपको डेरे पर पहुंचाता जाऊंगा।”
अपूर्व की चेतना लौट रही थी। वह सिर झुकाकर बैठ गया।
चाय पीने के बाद जो बिस्कुट बचे थे उनको डॉक्टर साहब जेब में डाल रहे हैं, यह देखकर भारती ने पूछा, “यह आप क्या कर रहे हैं?”
“खुराक जुटाकर रख रहा हूं बहिन।”
“क्या सचमुच ही आज रात को ही चले जाइएगा?”
“तो क्या मैंने अपूर्व बाबू को बेकार ही रोका है? सभी एक साथ मिलकर अविश्वास करेंगे तो मैं जीऊंगा भारती।” यह कहकर उन्होंने बनावटी क्रोध दिखाया।
भारती ने अभिमान के साथ कहा, “नहीं, आज आपका जाना नहीं होगा। आप बहुत थक गए हैं। इसके अतिरिक्त सुमित्रा दीदी अस्वस्थ हैं। आप तो बराबर ही न मालूम कहां चले जाते हैं। मैं आपकी एक बात नहीं सुन सकती, 'पथ के दावेदार' को मैं अकेली कैसे चलाऊं? इस दशा में मेरी जहां तबियत होगी चली जाऊंगी।”
लिखे हुए पत्र उसके हाथ में देते हुए डॉक्टर ने हंसकर कहा। इनमें एक तुम्हारे लिए है, एक सुमित्रा के लिए और तीसरा तुम दोनों के पथ के लिए है। मेरा उपदेश कहो, आदेश कहो, सब कुछ यही है।”
भारती बोली, “इस बार क्या आप बहुत दिनों के लिए जा रहे हैं?”
“देव: न जानन्ति....।” कह करके मुस्करा दिए।
भारती बोली, “हम लोगों की कठिनाई बढ़ गई है। इसीलिए ठीक-ठीक बता जाइएगा कि आप कब लौटेंगे?”
“यही तो कहता हूं- देवं न जानन्ति....”
“नहीं, ऐसा नहीं होगा। सच-सच बताइए, कब लौटिएगा?”
“इतना आग्रह क्यों है?”
भारती बोली, “इस बार न मालूम क्यों डर लग रहा है। मानो सब कुछ टूट-फूटकर छिन्न-भिन्न हो जाएगा।”
उसके सिर पर हाथ रखकर डॉक्टर बोले, “ऐसा नहीं होगा। सब ठीक होगा।”यह कहकर वह हंस पड़े। बोले, “लेकिन इस व्यक्ति के साथ इस प्रकार झूठ-मूठ झगड़ा करने पर सचमुच ही रोना पड़ेगा। अपूर्व बाबू क्रोध अवश्य करते हैं लेकिन जो प्यार करते हैं उसे प्यार करना भी जानते हैं।”
भारती कुछ उत्तर देने जा रही थी लेकिन अचानक अपूर्व के मुंह उठाते ही उसके मुंह की ओर देखकर चुप हो गई।
उसी समय दरवाजे के पास एक घोड़ा गाड़ी रुकी और जल्दी ही दो आदमियों ने प्रवेश किया। एक ऊपर से नीचे तक अंग्रेजी पोशाक में था जिसे डॉक्टर के अतिरिक्त और कोई नहीं जानता था। दूसरा था रामदास तलवलकर।
अपूर्व का चेहरा चमक उठा। रामदास ने आगे बढ़कर डॉक्टर के चरणों की धूल माथे पर चढ़ाई।
अंग्रेजी ड्रेसवाला व्यक्ति बोला, “जमानत में इतनी देर हो गई शायद गवर्नमेंट मुकदमा नहीं चलाएगी।”
डॉक्टर बोले, “इसका अर्थ यह है कि तुम गवर्नमेंट को नहीं पहचानते।”
रामदास ने कहा, “मैदान से आने तक आपको साथ-साथ देखा था। लेकिन फिर कब अर्न्तध्यान हो गए, पता नहीं चला।”
डॉक्टर ने हंसकर कहा, “अर्न्तध्यान होना जरूरी हो गया था रामदास बाबू! यहां तक कि रातों-रात यहां से भी अर्न्तध्यान होना पड़ेगा।”
रामदास बोला, “उस दिन स्टेशन पर मैंने आपको पहचान लिया था।”
“जानता हूं। लेकिन सीधे घर न जाकर इतनी रात गए यहां क्यों?”
“आपको प्रणाम करने के लिए। मेरे पूना सेन्ट्रल जेल में जाने के बाद ही आप चले गए थे। तब अवसर नहीं मिला। नीलकांत जोशी का क्या हुआ, जानते हैं? वह तो आपके साथ ही था।”
डॉक्टर ने कहा, “बैरक की चारदीवारी लांघ नहीं पाए, पकड़े गए और फांसी हो गई।”
अपूर्व ने पूछा, “उस दशा में क्या आपको भी फांसी हो जाती?”
डॉक्टर हंस पड़े।
उस हंसी को सुनकर अपूर्व सिहर उठा।
रामदास ने पूछा, “इसके बाद?”
डॉक्टर बोले, “एक बार सिंगापुर में ही मुझे तीन वर्ष तक नजरबंद रहना पड़ा था। अधिकारी मुझे पहचानते थे। इसीलिए सीधा रास्ता छोड़कर बैंकाक के रास्ते पहाड़ लांघकर मेवाद पहुंच गया। भाग्य अच्छा था। एक हाथी का बच्चा भाग्य से मुझे मिल गया। हाथी के उस बच्चे को बेचकर एक जहाज में नारियल के चालान के साथ अपना चालान कराकर मैं अराकान पहुंच गया। अचानक थाने में एक परम मित्र के साथ आमना-सामना हो गया। उनका नाम है बी. ए. चेलिया। मुझे बहुत प्यार करते हैं। बहुत दिनों से दर्शन न होने पर मुझे खोजते हुए सिंगापुर से बर्मा आ गए। भीड़ में अच्छी तरह नजर नहीं रख सके। नहीं तो पैतृक गले का....।” यह कहकर हंस पड़े। लेकिन सहसा अपूर्व के चेहरे पर नजर पड़ते ही चौंककर बोला, यह क्या अपूर्व बाबू? आपको क्या हो गया?
अपूर्व स्वयं को संभालने का प्रयत्न कर रहा था। उनकी बात पूरी होते, न होते दोनों हाथों से मुंह ढककर तेजी से दौड़ता हुआ कमरे से निकल गया।