पद्मश्री निदा फाजली की दुनिया / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 28 जनवरी 2013
निदा फाजली को 'पद्मश्री' से सम्मानित किया गया है। कुछ समय पूर्व ही इंग्लैंड के 'हाउस ऑफ कॉमन्स' में उन्हें आदर दिया गया। हिंदी और उर्दू में लिखने वाले शायर को अंग्रेजों के देश ने सम्मान दिया, क्योंकि मनुष्य की करुणा अंतरराष्ट्रीय भाषा है। दिल की बात दिल तक पहुंचने के लिए किसी भी माध्यम की आवश्यकता नहीं है। निदा फाजली बेसहारा बेनाम आम आदमी की चिंता करते हैं, जो बाजार की ताकतों, सियासत के तिलिस्म और अपने मन के अनाम भय और छल करने वाले सपनों से घिरा हुआ है। निदा की आंखें उन दीवारों को देख सकती हैं, जो मनुष्य और मनुष्य के बीच निहायत ही चतुराई से गढ़ी जा रही हैं और वह उनसे बेखबर है। निदा फाजली की व्यक्तिगत प्रतिभा अपनी सांस्कृतिक परंपरा से प्रेरणा लेकर उसे मजबूती प्रदान करती है और भविष्य के संवेदनशील सृजनधर्मियों के लिए जमीन भी तैयार करती है।
निदा फाजली का जन्म दिल्ली में 1२ अक्टूबर १९३८ को हुआ, परंतु शिक्षा ग्वालियर में हुई और १९६५ के दंगों के बाद उनके परिवार ने पाकिस्तान जाने का फैसला किया, परंतु निदा ने भारत में ही रहने का फैसला लिया। कुछ धर्मांध लोगों ने जुनून में घर-बार जला दिया, परंतु निदा ने उन लपटों से अपने देशप्रेम को नहीं झुलसने दिया और आज 47 बरस बाद सरकार ने उन्हें सम्मान से नवाजा है। उन्होंने इसकी खातिर वह फैसला नहीं लिया था, वरन कबीर और गालिब की जमीन से वे बंधे थे और यह भी जानते थे कि सुरक्षा एक भरम है- आप कहीं भी महफूज नहीं और असुरक्षा की धुरी को अपनी पीठ के पीछे तने हुए भी जिया जा सकता है, बल्कि वह अज्ञात अनाम आतंक आपकी संवेदना को धार भी दे सकता है।
उन्होंने समुद्र के किनारे बसे मुंबई में इंसानों की लहरों के बीच अपने को खोजने का फैसला किया। 'धर्मयुग' के तत्कालीन संपादक धर्मवीर भारती ने उन्हें नौकरी का प्रस्ताव दिया, परंतु वे ९ से ५ की दफ्तरी जिंदगी के लिए नहीं बने थे। उन्होंने लंबा और दर्दनाक संघर्ष किया। फुटपाथ से आजाद भी हुए, तो रेलवे कॉलोनी में रात ग्यारह के पहले आने की इजाजत नहीं थी और सुबह 6 बजे से ज्यादा टिकने की मोहलत नहीं थी। सोफे के नीचे अपना नाममात्र का बिस्तर रखकर वे गली में आ जाते थे। मुफलिसी ने उन्हें बड़े प्यार से पाला था।
मुंबई में गलियों की खाक छानते हुए यह दरवेश प्रसिद्ध लोगों से भी मिलने गया और उनके मुखौटों के परे उनके टुच्चेपन से परिचित हुआ। इन अनुभवों पर आधारित उनकी किताब 'मुलाकातें' ने हंगामा बरपा दिया। साहित्य के श्रेष्ठि वर्ग ने अपने यूं उजागर किए जाने पर एतराज किया। एक मानहानि का मुकदमा विगत वर्ष ही निपटा है।
उनका कविता संग्रह 'लफ्जों का पुल' अत्यंत लोकप्रिय सिद्ध हुआ। उन्होंने फिल्म गीत लेखन के क्षेत्र में भी प्रयास किए और इसी सिलसिले में उनकी मुलाकार संगीतकार मानस मुखर्जी से हुई। दोनों के भीतर एक-सी आग थी, एक-सी तलाश थी, परंतु मानस जमाने की बेदर्दी ज्यादा समय तक झेल नहीं पाए। ज्ञातव्य है कि आज के लोकप्रिय गायक शान मानस के ही पुत्र हैं। जब एक निर्माता ने राहुल देव बर्मन से इसरार किया कि उभरते हुए निदा के साथ काम करें तो उन्होंने कई बार इनकार करने के बाद निदा फाजली को एक कठिन धुन सुनाई और उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, जब चंद क्षणों में निदा ने मुखड़ा लिख दिया। इसी तरह बहर पकड़कर उन्होंने चार-पांच अंतरे भी मिनटों में बना दिए। इसके पूर्व मानस के साथ उनकी 'शायद' के गीत रिकॉर्ड हो चुके थे। यूं तो 'रजिया सुल्तान' में भी एक शादी का गीत था, जो शायद सुना नहीं गया या फिल्म में नहीं था। बहरहाल इसके बाद उनके अनेक गीत रिकॉर्ड किए गए। मुशायरों का सिलसिला भी चल पड़ा। जब जगजीत सिंह का संगीत प्रसिद्ध हुआ और उसमें निदा का 'दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है। मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है' सबसे अधिक लोकप्रिय हुआ। निदा का शेर 'कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता' बहुत जगह, बहुत बार दोहराया गया है। मनुष्य के लालच और उपभोगवाद की प्रवृत्तियों ने धरती को लूटा। प्रकृति का व्यावसायिक दोहन किया तो निदा आर्तनाद करते हैं 'चीखे घर के द्वार की लकड़ी हर बरसात, कटकर भी मरते नहीं पेड़ों में दिन-रात।' स्वतंत्रता, समानता और धर्मनिरपेक्षता का क्षय हो रहा है और निदा को इसकी बहुत चिंता है। वह देख रहे हैं कि पढ़े-लिखे लोग भी अब धर्मनिरपेक्ष नहीं रहे। आज समाज में बढ़ रहे भ्रष्टाचार और अराजकता के द्वारा द्वार पर दी जा रही दस्तकें हर संवेदनशील व्यक्ति को कचोट रही हैं। वेलिखते हैं 'हुकूमतों को बदलना कुछ मुहाल नहीं, हुकूमतें जो बदलता हो, वह समाज भी हो।' दरअसल निदा साहब, वह समाज तो हो जो स्वयं को पहले बदले।
गौरतलब यह है कि १९६५ के दंगों के बाद उनका जो परिवार पाकिस्तान गया, क्या उसकी सुरक्षा की चिंता निदा को नहीं साल रही होगी और पाकिस्तान में बसा उनका परिवार निदा की सलामती के लिए परेशां नहीं होता होगा। अनेक परिवार के दो धड़े नकली सरहदों के दोनों ओर रहते हैं। पाकिस्तान में प्रतिदिन आपसी कलह और आतंकवादी हमलों से जितने मनुष्य मर रहे हैं, उससे कम भारत में आतंकवादी दरिंदगी से मरे हैं। आज पाकिस्तान बारूद का ढेर बन गया है। हिंदुस्तान में हिंसा की कमी नहीं। निदा सोचते हैं 'तवाजुल(संतुलन) खौफ की बुनियाद पर है दुनिया का, खुली माचिस है पहरेदार सब बारूदखानों का।'
निदा जैसे शायरों को दोनों ओर के आतंकवादी नापसंद करते हैं। उनका शेर 'घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए' प्रकाशित होने के बाद कट्टरवादी मुसलमानों ने फतवे जारी किए। आज निदा की अनेक चिंताओं में अपनी बेटी के लिए फिक्र भी शामिल है। वह किस दुनिया में जीने वाली है? हर मां-बाप को यह चिंता है। तमाम निराशावादी हालात के बावजूद निदा ने आशा नहीं खोई है। वह कहते हैं - 'जितनी बुरी कही जाती है, उतनी बुरी नहीं है दुनिया। बच्चों के स्कूल में शायद तुमसे मिली नहीं है दुनिया।'