पद्मावती, गुलाल, अनुराग कश्यप और गुरुदत्त / नवल किशोर व्यास

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पद्मावती, गुलाल, अनुराग कश्यप और गुरुदत्त


संजय लीला भंसाली की पद्मावती रिलीज होने को है। तमाम विवादों के बाद फिल्म रिलीज होने की तैयारी में है। रिलीज पर भी हंगामा होने के आसार है। पद्मावती से पहले एक अनुराग कश्यप की फिल्म गुलाल भी राजपूत समाज और राजस्थान के कथानक पर थी, पर चूंकि फिल्म ज्यादा चर्चा में नही थी तो कोई विवाद भी नही हुआ। पद्मावती के बहाने गुलाल याद आ रही है। गुलाल कई मायनों में बेहद बोल्ड और  कमाल फिल्म थी। अदाकारी, निर्देशन और पीयूष मिश्रा के लाजवाब गीत-संगीत के कारण।

अनुराग कश्यप ने इसे गुरुदत्त की फिल्म प्यासा के गीत ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है को समर्पित थी और उसी की डिजास्टर बॉम्बे वेलवेट में भी गुरुदत्त की ही फिल्म सी आई डी के गीत जाता कहा हे दीवाने का नया वर्जन था। ये गीत सी आई डी की रिलीज़ के समय बैन कर दिया गया था क्यूंकि सेंसर को इसके फीफी शब्द पर ऐतराज था और अनुराग ने उस दौर के बैन गीत से ही अपनी फिल्म का प्रचार शुरू किया था माने बैन की व्यक्तिगत कुंठाओं से अनुराग का इस गीत से मोह जाग हो गया हो। अनुराग ने हमेशा अपने व्यक्तिगत जीवन और सिनेमा में पारम्परिक स्वरूपों को अस्वीकार किया है। अनुराग की फिल्म मेकिंग और कंटेंट से वो कही गुरुदत्त से प्रेरित नहीं लगते पर उनके प्रति व्यक्तिगत आदर जरूर लगता है। खैर, गुरुदत्त हिंदी सिनेमा के ऐसे निर्देशक थे जिनके बनाई प्यासा, कागज के फूल और साहेब बीवी और गुलाम पर कसीदे सिनेमा की हर किताब में मिल जाएंगे। गुरुदत्त की फिल्में सिनेमा के विधार्थियो के लिए पूरा विश्वविधालय है। गुरुदत्त एक विलक्षण फिल्मकार, कल्पनाशील व्यक्तित्व होने के साथ साथ व्यक्तिगत जीवन में बेहद भावुक और संवेदनशील थे। भावुकता जो इस दुनिया की नॉन प्रेक्टिकल थिंक है। भावुकता जो सम्पूर्णता चाहती है। भावुकता जो अपराध भी कराती है और अपराध बोध भी। इस चतुर दुनिया में हर संवेदनशील मन गुरुदत्त है।यही उसकी जात है, यही उसकी जमात है। ये भावनाओ की अलोकिक आनुवांशिकता है। उनकी भावुकता ने उनसे असाधारण सृजन भी कराये तो उनकी मौत का कारण भी उनकी भावुकता ही बनी। गुरुदत्त खुश नही थे पर अपने बारे में बात भी नही किया करते थे। गुरुदत्त और गीता दोनो संवेदनशील थे पर जरूरी नही की दो संवेदनशील मन एक दुसरे के पूरक हो। चुम्बक के समान सिरे कभी मिलते नही। गुरुदत्त की प्यासा को टाइम मेगज़ीन ने विश्व की सौ सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ फिल्मो में स्थान दिया। समीक्षकों और डायरेक्टर के एक पोल में विश्व की सर्वश्रेष्ठ फिल्मो की लिस्ट में भी प्यासा और कागज का फूल का नाम था। कागज़ के फूल की संरचना तो अपने समय से काफी आगे की थी पर उसकी असफलता चौकाने वाली भी नही थी। अक्सर दिल की बात को दिमाग तक पहुचने में समय लगता है। कागज के फूल की खूशबू गुरुदत्त की मौत के बाद ही फैली। गुरुदत्त की सिनेमाई समझ और तकनीक महान थी पर हमारे देश में उनचालीस साल की उम्र में उनकी रहस्य्मय मौत ज्यादा चर्चा बटोरती है। अगर यह सुसाइड ही थी तो इसकी घोषणा वो पहले ही कर चुके थे। प्यासा इस लोक से गमन से पहले का उनका सुसाइड नोट ही था।