पद्मावत की प्रेमपद्धति / मलिक मुहम्मद जायसी / रामचन्द्र शुक्ल

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'पद्मावत' की जो आख्यायिका ऊपर दी जा चुकी है उससे स्पष्ट है कि वह एक प्रेम कहानी है। अब संक्षेप में यह देखना चाहिए कि कवियों में दांपत्य प्रेम का आविर्भाव वर्णन करने की जो प्रणालियाँ प्रचलित हैं उनमें से 'पद्मावत' में वर्णित प्रेम किसके अंतर्गत जाता है।

(1) सबसे पहले उस प्रेम को लीजिए जो आदिकाव्य रामायण में दिखाया गया है। इसका विकास विवाह संबंध हो जाने के पीछे और पूर्ण उत्कर्ष जीवन की विकट स्थितियों में दिखाई पड़ता है। राम के वन जाने की तैयारी के साथ ही सीता के प्रेम का स्फुरण होता है; सीताहरण होने पर राम के प्रेम की कांति सहसा फूटती हुई दिखाई पड़ती है। वन के जीवन में इस पारस्परिक प्रेम की आनंदविधायिनी शक्ति लक्षित है और लंका की चढ़ाई में इसका तेज, साहस और पौरुष। यह प्रेम अत्यंत स्वाभाविक, शुद्ध और निर्मल है। यह विलासिता या कामुकता के रूप में हमारे सामने नहीं आता बल्कि मनुष्य जीवन के बीच एक मानसिक शक्ति के रूप में दिखाई पड़ता है। उभयपक्ष में सम होने पर भी नायकपक्ष में यह कर्त्तव्यपबुद्धि द्वारा कुछ संयत सा दिखाई पड़ता है।

(2) दूसरे प्रकार का प्रेम विवाह के पूर्व का होता है, विवाह जिसका फलस्वरूप होता है। इसमें नायक नायिका संसारक्षेत्र में घूमते फिरते हुए कहीं - जैसे उपवन, नदीतट, वीथी इत्यादि में एक दूसरे को देख मोहित होते हैं और दोनों में प्रीति हो जाती है। अधिकतर नायक की ओर से नायिका की प्राप्ति का प्रयत्न होता है। इसी प्रयत्नकाल में संयोग और विप्रलंभ दोनों के अवसरों का सन्निवेश रहता है और विवाह हो जाने पर प्राय: कथा की समाप्ति हो जाती है। इसमें कहीं बाहर घूमते फिरते साक्षात्कार होता है, इससे मनुष्य के आदिम प्राकृतिक जीवन की स्वाभाविकता बनी रहती है। अभिज्ञानशाकुंतल, विक्रमोर्वशीय आदि की कथा इसी प्रकार की है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने सीता और राम के प्रेम का आरंभ विवाह से पूर्व दिखाने के लिए ही उनका जनक की वाटिका में परस्पर साक्षात्कार कराया है। पर साक्षात्कार और विवाह के बीच के थोड़े से अवकाश में परशुराम वाले झमेले को छोड़ प्रयत्न का कोई विस्तार दिखाई नहीं पड़ता। अत: रामकथा को इस दूसरे प्रकार की प्रेमकथा का स्वरूप न प्राप्त हो सका।

(3) तीसरे प्रकार के प्रेम का उदय प्राय: राजाओं के अंत:पुर, उद्यान आदि के भीतर भोगविलास या रंग रहस्य के रूप में दिखाया जाता है, जिसमें सपत्नियों के द्वेष, विदूषक आदि के हास परिहास और राजाओं की स्त्रैणता आदि का दृश्य होता है। उत्तरकाल के संस्कृत नाटकों में इसी प्रकार के पौरुषहीन, नि:सार और विलासमय प्रेम का प्राय: वर्णन हुआ है, जैसे रत्नावली, प्रियदर्शिका, कर्पूरमंजरी इत्यादि में। इसमें नायक को कहीं वन, पर्वत आदि के बीच नहीं जाना पड़ता है; वह घर के भीतर ही लुकता छिपता, चौकड़ी भरता दिखाया गया है।

(4) चौथे प्रकार का वह प्रेम है जो गुणश्रवण, चित्रदर्शन, स्वप्नदर्शन आदि से बैठे बिठाए उत्पन्न होता है और नायक या नायिका को संयोग के लिए प्रयत्नवान करता है। उषा और अनिरुद्ध का प्रेम इसी प्रकार का समझिए जिसमें प्रयत्न स्त्री जाति की ओर से होने के कारण कुछ अधिक विस्तार या उत्कर्ष नहीं प्राप्त कर सका है। पर स्त्रियों का प्रयत्न भी यह विस्तार या उत्कर्ष प्राप्त कर सकता है इसकी सूचना भारतेंदु ने 'पगन में छाले परे, नाँघिबे को नाले परे, तउ लाल लाले परे रावरे दरस के' के द्वारा दिया है।

इन चार प्रकार के प्रेमों का वर्णन नए और पुराने भारतीय साहित्य में है। ध्यान देने की बात यह है कि विरह की व्याकुलता और असह्य वेदना स्त्रियों के मत्थे अधिक मढ़ी गई है। प्रेम के वेग की मात्रा स्त्रियों में अधिक दिखाई गई है। नायक के दिन-दिन क्षीण होने, विरहताप में भस्म होने, सूख कर ठठरी होने के वर्णन में कवियों का जी उतना नहीं लगा है। बात यह कि स्त्रियों की श्रृंगारचेष्टा वर्णन करने में पुरुषों को जो आनंद आता है, वह पुरुषों की दशा का वर्णन करने में नहीं। इसी से स्त्रियों का विरह वर्णन हिंदी काव्य का एक प्रधान अंग ही बन गया। ऋतुवर्णन तो केवल इसी की बदौलत रह गय।

कहने की आवश्यकता नहीं कि जायसी ने 'पद्मावत' में जिस प्रेम का वर्णन किया है वह चौथे ढंग का है। पर इसमें वे कुछ विशेषता भी लाए हैं। जायसी के श्रृंगार में मानसिक पक्ष प्रधान है, शारीरिक गौण है। चुंबन, आलिंगन आदि का वर्णन कवि ने बहुत कम किया है, केवल मन के उल्लास और वेदना का कथन अधिक किया है। प्रयत्न नायक की ओर से है और उसकी कठिनता द्वारा कवि ने नायक के प्रेम को नापा है। नायक का यह आदर्श लैला मजनूँ, शीरीं फरहाद आदि उन अरबी फारसी कहानियों के आदर्श से मिलता जुलता है जिनमें हड्डी की ठठरी भर लिए हुए टाँकियों से पहाड़ खोद डालने वाले आशिक पाए जाते हैं। फारस के प्रेम में नायक के प्रेम का वेग अधिक तीव्र दिखाई पड़ता है और भारत के प्रेम में नायिका के प्रेम का। जायसी ने आगे चल कर नायक और नायिका दोनों के प्रेम की तीव्रता समान कर के दोनों आदर्शों का एक में मेल कर दिया है। राजा रत्नसेन सुए के मुँह से पद्मावती का रूपवर्णन सुन योगी हो कर घर से निकल जाता है और मार्ग के अनेक दु:खों को झेलता हुआ सात समुद्र पार कर के सिंहलद्वीप पहुँचता है। उधर पद्मावती भी राजा के प्रेम को सुन विरहाग्नि में जलती हुई साक्षात्कार के लिए विह्वल होती है और जब रत्नसेन को सूली की आज्ञा होती है तब उसके लिए मरने को तैयार होती है।

एक प्रकार का और मेल भी कवि ने किया है। फारसी की मसनवियों का प्रेम ऐकांतिक, लोकबाह्य और आदर्शात्मक (आयडियलिस्टिक) होता है। वह संसार की वास्तविक परिस्थिति के बीच नहीं दिखाया जाता, संसार की और सब बातों से अलग एक स्वतंत्र सत्ता के रूप में दिखाया जाता है। उसमें जो घटनाएँ आती हैं वे केवल प्रेममार्ग की होती हैं, संसार के और व्यवहारों से उत्पन्न नहीं। साहस, दृढ़ता और वीरता भी यदि कहीं दिखाई पड़ती है, तो प्रेमोन्माद के रूप में, लोककर्त्तव्य के रूप में नहीं। भारतीय प्रेमपद्धति आदि में तो लोकसंबद्ध और व्यवहारात्मक थी ही, पीछे भी अधिकतर वैसी ही रही। आदिकवि के काव्य में प्रेम लोकव्यवहार से कहीं अलग नहीं दिखाया गया है, जीवन के और विभागों के सौंदर्य के बीच उसके सौंदर्य की प्रभा फूटती दिखाई पड़ती है। राम के समुद्र में पुल बाँधने और रावण ऐसे प्रचंड शत्रु के मार गिराने को हम केवल एक प्रेमी के प्रयत्न के रूप में नहीं देखते, वीर धर्मानुसार पृथ्वी का भार उतारने के प्रयत्न के रूप में देखते हैं। पीछे कृष्णचरित, कादंबरी, नैषधीय चरित, माधवानल कामकंदला आदि ऐकांतिक प्रेमकहानियों का भी भारतीय साहित्य में प्रचुर प्रचार हुआ। ये कहानियाँ अब फारस की प्रेमपद्धति के अधिक मेल में थीं। नल-दमयंती की प्रेम कहानी का अनुवाद बहुत पहले फारसी क्या अरबी तक में हुआ। इन कहानियों का उल्लेख 'पद्मावत' में स्थान - स्थान पर हुआ है।

जायसी ने यद्यपि इश्क के दास्तानवाली मसनवियों के प्रेम के स्वरूप को प्रधान रखा है पर बीच-बीच में भारत के लोक व्यवहार संलग्न स्वरूप का भी मेल किया है। इश्क की मसनवियों के समान 'पदमावत' लोकपक्षशून्य नहीं है। राजा जोगी हो कर घर से निकलता है, इतना कह कर कवि यह भी कहता है कि चलते समय उसकी माता और रानी दोनों उसे रो- रोकर रोकती हैं। जैसे कवि ने राजा से संयोग होने पर पद्मावती के रसरंग का वर्णन किया वैसे ही सिंहलद्वीप से विदा होते समय परिजनों और सखियों से अलग होने का स्वाभाविक दु:ख भी। कवि ने जगह जगह पद्मावती को जैसे चंद्र, कमल इत्यादि के रूप में देखा है, वैसे ही उसे प्रथम समागम से डरते, सपत्नी से झगड़ते और प्रिय के हित के अनुकूल लोकव्यवहार करते भी देखा है। राघवचेतन के निकाले जाने पर राजा और राज्य के अनिष्ट आशंका से पद्मावती उस ब्राह्मण को अपना खास कंगन दान दे कर संतुष्ट करना चाहती है। प्रेम का लोकपक्ष कैसा सुंदर है! लोकव्यवहार के बीच भी अपनी आभा का प्रसार करने वाली प्रेमज्योति का महत्त्व कुछ कम नहीं।

जायसी ऐकांतिक प्रेम की गूढ़ता और गंभीरता के बीच में जीवन के और अंगों के साथ भी उस प्रेम के संपर्क का स्वरूप कुछ दिखाते गए हैं, इससे उनकी प्रेमगाथा पारिवारिक और सामाजिक जीवन से विच्छिन्न होने से बच गई है। उसमें भावात्मक और व्यवहारात्मक दोनों शैलियों का मेल है। पर है वह प्रेमगाथा ही, पूर्ण जीवनगाथा नहीं। ग्रंथ का पूर्वार्ध - आधे से अधिक भाग - तो प्रेममार्ग के विवरण से ही भरा है। उत्तरार्ध में जीवन के और अंगों का सन्निवेश मिलता है पर वे पूर्णतया परिस्फुट नहीं हैं। दांपत्य प्रेम के अतिरिक्त मनुष्य की और वृत्तियाँ, जिनका कुछ विस्तार के साथ समावेश है, वे यात्रा, युद्ध, सपत्नीकलह, मातृस्नेह, स्वामिभक्ति, वीरता, छल और सतीत्व हैं। पर इनके होते हुए भी 'पद्मावत' को हम श्रृंगार रस प्रधान काव्य ही कह सकते हैं। 'रामचरित' के समान मनुष्य जीवन की भिन्न-भिन्न बहुत सी परिस्थितियों और संबंधों का इसमें समन्वय नहीं है।

तोते के मुँह से पद्मावती का रूपवर्णन सुनने से राजा रत्नसेन को जो पूर्वराग हुआ, अब उस पर थोड़ा विचार कीजिए। देखने में तो वह उसी प्रकार का जान पड़ता है जिस प्रकार का हंस के मुख से दमयती का रूपवर्णन सुन कर नल को या नल का रूपवर्णन सुन कर दमयंती को हुआ था। पर ध्यान दे कर विचार करने से दोनों में एक ऐसा अंतर दिखाई पड़ेगा जिसके कारण एक की तीव्रता जितनी अयुक्त दिखाई देगी उतनी दूसरे की नहीं। पूर्वराग में ही विप्रलंभ श्रृंगार की बहुत सी दशाओं की योजना श्रीहर्ष ने भी की है और जायसी ने भी। पूर्वराग पूर्ण रति नहीं है, अत: उसमें केवल 'अभिलाष' स्वाभाविक जान पड़ता है; शरीर का सूख कर काँटा होना, मूर्च्छा, उन्माद नहीं। तोते के मुँह से पहले ही पहले पद्मावती का वर्णन सुनते ही रत्नसेन का मूर्च्छित हो जाना और पूर्ण वियोगी बन जाना अस्वाभाविक सा लगता है। पर हंस के मुँह से रूप, गुण आदि की प्रशंसा सुनने पर जो विरह की दारुण दशा दिखाई गई है वह इसलिए अधिक नहीं खटकती कि नल और दमयंती दोनों बहुत दिनों से एक दूसरे के रूप गुण की प्रशंसा सुनते आ रहे थे जिससे उनका पूर्वराग 'मंजिष्ठा राग' की अवस्था को पहुँच गया था।

जब तक पूर्वराग आगे चल कर पूर्ण रति या प्रेम के रूप में परिणत नहीं होता तब तक उसे हम चित्त की कोई उदात्त या गंभीर वृत्ति नहीं कह सकते। हमारी समझ में तो दूसरे के द्वारा, चाहे वह चिड़िया हो या आदमी, किसी पुरुष या स्त्री के रूप, गुण आदि को सुन कर चट उसकी प्राप्ति की इच्छा उत्पन्न करनेवाला भाव लोभमात्र कहला सकता है, परिपुष्ट प्रेम नहीं। लोभ और प्रेम के लक्ष्य में सामान्य और विशेष का ही अंतर समझा जाता है। कहीं कोई अच्छी चीज सुन कर दौड़ पड़ना, यह लोभ है। विशेष वस्तु - चाहे दूसरों के निकट वह अच्छी हो या बुरी - देख उसमें इस प्रकार रम जाना कि उससे कितनी ही बढ़ कर अच्छी वस्तुओं के सामने आने पर भी उनकी ओर ध्यान न जाय, प्रेम है। व्यवहार में भी प्राय: देखा जाता है कि वस्तुविशेष के ही प्रति जो लोभ होता है वह लोभ नहीं कहलाता। जैसे, यदि कोई मनुष्य पकवान या मिठाई का नाम सुनते ही चंचल हो जाय तो लोग कहेंगे कि वह बड़ा लालची है, पर यदि कोई केवल गुलाबजामुन का नाम आने पर चाह प्रकट करे तो लोग यही कहेंगे कि इन्हें गुलाबजामुन बहुत अच्छी लगती है। तत्काल सुने हुए रूपवर्णन से उत्पन्न 'पूर्वराग' और 'प्रेम' में भी इसी प्रकार का अंतर समझिए। पूर्वराग रूपगुण प्रधान होने के कारण सामान्योन्मुख होता है पर प्रेम व्यक्तिप्रधान होने के कारण विशेषोन्मुख होता है। एक ने लौट कर कहा, अमुक बहुत सुंदर है; फिर कोई दूसरा आ कर कहता है कि अमुक नहीं अमुक बहुत सुंदर है। इस अवस्था में बुद्धि का व्यभिचार बना रहेगा। प्रेम में पूर्ण व्यभिचारशांति प्राप्त हो जाती है।

कोई वस्तु बहुत बढ़िया है, जैसे यह सुन कर हमें उसका लोभ हो जाता है, वैसे ही कोई व्यक्ति बहुत सुंदर है, इतना सुनते ही उसकी जो चाह उत्पन्न हो जाती है वह साधारण लोभ से भिन्न नहीं कही जा सकती। प्रेम भी लोभ ही है पर विशेषोन्मुख। वह मन और मन के बीच का लोभ है, हृदय और हृदय के बीच का संबंध है। उसके एक पक्ष में भी हृदय है और दूसरे पक्ष में भी। अत: सच्चा सजीव प्रेम प्रेमपात्र के हृदय को स्पर्श करने का प्रयत्न पहले करता है, शरीर पर अधिकार करने का प्रयत्न पीछे करता है, सुंदर स्त्री कोई बहुमूल्य पत्थर नहीं है कि अच्छा सुना और लेने के लिए दौड़ पड़े। इस प्रकार का दौड़ना रूपलोभ ही कहा जायगा, प्रेम नहीं।

बिना परिचय के प्रेम नहीं हो सकता। यह परिचय पूर्णतया तो साक्षात्कार से होता है; पर बहुत दिनों तक किसी के रूप, गुण, कर्म आदि का ब्योरा सुनते-सुनते भी उसका ध्यान मन में जगह कर लेता है। किसी के रूप गुण की प्रशंसा सुनते ही एकबारगी प्रेम उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक नहीं जान पड़ता। प्रेम दूसरे की ऑंखें नहीं देखता, अपनी ऑंखों देखता है। अत: राजा रत्नसेन तोते के मुँह से पद्मावती का अलौकिक रूपवर्णन सुन जिस भाव की प्रेरणा से निकल पड़ता है वह पहले रूपलोभ ही कहा जा सकता है। इस दृष्टि से देखने पर कवि जो उसके प्रयत्न को तप का स्वरूप देता हुआ आत्मत्याग और विरहविकलता का विस्तृत वर्णन करता है वह एक नकल सा मालूम होता है। प्रेमलक्षण उसी समय दिखाई पड़ता है जब वह शिवमंदिर में पद्मावती की झलक देख बेसुध हो जाता है। इस प्रेम की पूर्णता उस समय स्फुट होती है जब पार्वती अप्सरा का रूप धारण कर के उसके सामने आती हैं और वह उनके रूप की ओर ध्यान न दे कर कहता है कि -

भलेहि रंग अछरी तोर राता। मोहि दुसरे सौं भाव न बाता॥

उक्त कथन से रूपलोभ की व्यंजना नहीं होती, प्रेम की व्यंजना होती है। प्रेम दूसरा रूप चाहता नहीं, चाहे वह प्रेमपात्र के रूप से कितना ही बढ़ कर हो। लैला कुछ बहुत खूबसूरत न थी, पर मजनूँ उसी पर मरता था। यही विशिष्टता और एकनिष्ठता प्रेम है। पर इस विशिष्टता के लिए निर्दिष्ट भावना चाहिए जो एक तोते के वर्णन मात्र से नहीं प्राप्त हो सकती। भावना को निर्दिष्ट करने के लिए ही मनस्तत्त्व से अभिज्ञ कवि पूर्वराग के बीच चित्रदर्शन की योजना करते हैं। पर यह रूपभावना पूर्ण रूप से निर्दिष्ट साक्षात्कार द्वारा ही होती है। शिवमंदिर में पद्मावती की एक झलक जब राजा ने देखी तभी उसकी भावना निर्दिष्ट हुई। मंदिर में उस साक्षात्कार के पूर्व राजा की भावना निर्दिष्ट नहीं कही जा सकती। मान लीजिए कि सिंहल के तट पर उतरते ही वही अप्सरा कहती है कि 'मैं ही पद्मावती हूँ' और तोता भी सकारता, तो रत्नसेन उसे स्वीकार ही कर लेता। ऐसी अवस्था में उसके प्रेम का लक्ष्य निर्दिष्ट कैसे कहा जा सकता है? अत: रूपवर्णन सुनते ही रत्नसेन के प्रेम का जो प्रबल और अदम्य स्वरूप दिखाया गया है वह प्राकृतिक व्यवहार की दृष्टि से उपयुक्त नहीं दिखाई पड़ता।

राजा रत्नसेन तोते के मुँह से पद्मावती का रूपवर्णन सुन उसके लिए जोगी हो कर निकल पड़ा और अलाउद्दीन ने राघवचेतन के मुँह से वैसा ही वर्णन सुन उसके लिए चित्तौर पर चढ़ाई कर दी। क्यों एक प्रेमी के रूप में दिखाई पड़ता है और दूसरा रूपलोभी लंपट के रूप में? अलाउद्दीन के विपक्ष में दो बातें ठहरती है। - (1) पद्मावती का दूसरे की विवाहिता स्त्रीं होना और (2) अलाउद्दीन का उग्र प्रयत्न करना। दोनों प्रकार के अनौचित्य अलाउद्दीन की चाह को प्रेम का स्वरूप प्राप्त नहीं होने देते। यदि इस अनौचित्य का विचार छोड़ दें तो रूपवर्णन सुनते ही तत्काल दोनों के हृदय में जो चाह उत्पन्न हुई वह एक दूसरे से भिन्न नहीं जान पड़ती।

रत्नसेन के पूर्वराग के वर्णन में जो यह अस्वाभाविकता आई है इसका कारण है लौकिक प्रेम और ईश्वरप्रेम दोनों को एक स्थान पर व्यंजित करने का प्रयत्न। शिष्य जिस प्रकार गुरु से परोक्ष ईश्वर के स्वरूप का कुछ आभास पा कर प्रेममग्न होता है उसी प्रकार रत्नसेन तोते के मुँह से पद्मिनी का रूपवर्णन सुन बेसुध हो जाता है। ऐसी ही अलौकिकता पद्मिनी के पक्ष में भी कवि ने दिखाई है।

राजा रत्नसेन के सिंहल पहुँचते ही कवि ने पद्मावती की बेचैनी का वर्णन किया है। पद्मावती को अभी तक रत्नसेन के आने की कुछ भी खबर नहीं है। अत: यह व्याकुलता केवल काम की कही जा सकती है, वियोग की नहीं। बाह्य या आभ्यंतर संयोग के पीछे ही वियोगदशा संभव है। यद्यपि आचार्यों ने वियोगदशा को कामदशा ही कहा है पर दोनों में अंतर है। समागम के सामान्य अभाव का दु:ख कामवेदना है और विशेष व्यक्ति के समागम के अभाव का दु:ख वियोग है। जायसी के वर्णन में दोनों का मिश्रण है। रत्नसेन का नाम तक सुनने के पहले वियोग की व्याकुलता कैसे हुई, इसका समाधान कवि के पास यदि कुछ है तो रत्नसेन के योग का अलक्ष्य प्रभाव - पदमावति तेहि जोग सँजोगा। परी प्रेम बस गहे वियोगा॥

साधनात्मक रहस्यवाद में योग जिस प्रकार अज्ञात ईश्वर के प्रति होता है उसी प्रकार सूफियों का प्रेमयोग भी अज्ञात के प्रति होता है। पर इस प्रकार के परोक्षवाद या योग के चमत्कार पर ध्यान जाने पर भी वह वर्णन के अनौचित्य की ओर बिना गए नहीं रह सकता। जब कोई व्यक्ति निर्दिष्ट ही नहीं तब कहाँ का प्रेम और कहाँ का वियोग? उस कामदशा में पद्मावती को धाय समझा ही रही है कि हीरामन सूआ आ कर रत्नसेन के रूप गुण का वर्णन करता है और पद्मावती उसकी प्रेमव्यथा और तप को सुन कर दयार्द्र और पूर्वरागयुक्त होती है। पूर्वराग का आरंभ पद्मावती में यहीं से समझना चाहिए। अत: इसके पहिले योग की दुहाई दे कर भी वियोग का नाम लेना ठीक नहीं जँचता।

विवाह हो जाने के पीछे पद्मावती का प्रेम दो अवसरों पर अपना बल दिखाता है। एक तो उस समय जब राजा रत्नसेन के दिल्ली में बंदी होने का समाचार मिलता है और फिर उस समय जब राजा युद्ध में मारा जाता है। ये दोनों अवसर विपत्ति के हैं। साधारण दृष्टि से एक में आशा के लिए स्थान है, दूसरे में नहीं। पर सच्चे पहुँचे हुए प्रेमी के समान प्रथम स्थिति में तो पद्मावती संसार की ओर दृष्टि रखती हुई विह्वल और क्षुब्ध दिखाई पड़ती है; और दूसरी स्थिति में दूसरे लोक की ओर दृष्टि फेरे हुए पूर्ण आनंदमयी और प्रशांत। राजा के बंदी होने का समाचार पाने पर रानी के विरहविह्वल हृदय में उद्योग और साहस का उदय होता है। वह गोरा और बादल के पास आप दौड़ी जाती है और रो रोकर अपने पति के उद्धार की प्रार्थना करती है। राजा रत्नसेन के मरने पर रोना धोना नहीं सुनाई देता। नागमती और पद्मावती दोनों श्रृंगार कर के प्रिय से उस लोक में मिलने के लिए तैयार होती हैं। यह दृश्य हिंदू स्त्री के जीवन दीपक की अत्यंत उज्ज्वल और दिव्य प्रभा है जो निर्वाण के पूर्व दिखाई पड़ती है।

राजा के बंदी होने पर जिस प्रकार कवि ने पद्मावती के प्रेमप्रसूत साहस का दृश्य दिखाया है उसी प्रकार सतीत्व की दृढ़ता का भी। पर यह कहना पड़ता है कि कवि ने जो कसौटी तैयार की है वह इतने बड़े प्रेम के उपयुक्त नहीं हुई है। कुंभलनेर का राजा देवपाल रूप, गुण, ऐश्वर्य, पराक्रम, प्रतिष्ठा किसी में भी रत्नसेन की बराबरी का न था। अत: उसका दूती भेजकर पद्मावती को बहकाने का प्रयत्न गड़ा हुआ खंभ ढकेलने का बालप्रयत्न सा लगता है। इस घटना के सन्निवेश से पद्मावती के सतीत्व की उज्ज्वल कांति में और अधिक ओप चढ़ती नहीं दिखाई देती। यदि वह दूती दिल्ली के बादशाह की होती और वह दिल्लीश्वर की सारी शक्ति और विभूति का लोभ दिखाती तो अलबत यह घटना किसी हद तक इतने बड़े प्रेम की परीक्षा का पद प्राप्त कर सकती थी; क्योंकि देवलदेवी और कमलादेवी के विपरीत आचरण का दृष्टांत इतिहासविज्ञ जानते ही हैं।

पद्मावती के नवप्रस्फुटित प्रेम के साथ-साथ नागमती का गार्हस्थ्यपरिपुष्ट प्रेम भी अत्यंत मनोहर है। पद्मावती प्रेमिका के रूप में अधिक लक्षित होती है, पर नागमती पतिप्राण हिंदू पत्नी के मधुर रूप में ही हमारे सामने आती है। उसे पहले पहल हम रूपगर्विता और प्रेमगर्विता के रूप में देखते हैं। ये दोनों प्रकार के गर्व दांपत्य सुख के द्योतक हैं। राजा के निकल जाने के पीछे फिर हम उसे प्रोषितपतिका के उस निर्मल स्वरूप में देखते हैं जिसका भारतीय काव्य और संगीत में प्रधान अधिकार रहा है, और है। यह देख कर अत्यंत दु:ख होता है कि प्रेम का यह पुनीत भारतीय स्वरूप विदेशीय प्रभाव से - विशेषत: उर्दू शायरी के चलते गीतों से हटता सा जा रहा है। यार, महबूब, सितम, तेग, खंजर, जख्म, आबले, खून और मवाद आदि का प्रचार बढ़ रहा है। जायसी के भावुक हृदय ने स्वकीया के पुनीत प्रेम के सौंदर्य को पहचाना। नागमती का वियोग हिंदी साहित्य में विप्रलंभ श्रृंगार श्रृंगार का अत्यंत उत्कृष्ट निरूपण है।

पुरुषों के बहुविवाह की प्रथा से उत्पन्न प्रेममार्ग की व्यावहारिक जटिलता को जिस दार्शनिक ढंग से कवि ने सुलझाया है वह ध्यान देने योग्य है। नागमती और पद्मावती को झगड़ते सुन कर दक्षिण नायक राजा रत्नसेन दोनों को समझाता है -

एक बार जेइ प्रिय मन बूझा । सो दुसरे सौं काहे क जूझा॥

ऐस ज्ञान मन जान न कोई । कबहूँ राति, कबहूँ दिन होई॥

धूप छाँह दूनौ एक रंगा । दूनों मिले रहहिं एक संगा॥

जूझब छाँड़हु , बूझहु दोऊ। सेव करहु, सेवाफल होऊ॥

कवि के अनुसार जिस प्रकार करोड़ों मनुष्यों का उपास्य एक ईश्वर होता है उसी प्रकार कई स्त्रियों का उपास्य एक पुरुष हो सकता है। पुरुष की यह विशेषता उसकी सबलता और उच्च स्थिति की भावना के कारण है जो बहुत प्राचीन काल से बद्धमूल है। इस भावना के अनुसार पुरुष स्त्री के प्रेम का ही अधिकारी नहीं है, पूज्य भाव का भी अधिकारी है। ऊपर की चौपाइयों में पति पत्नी के पारस्परिक प्रेम संबंध की बात बचा कर सेव्य - सेवक भाव पर जोर दिया गया है। इसी प्रकार की युक्तियों से पुरानी रीतियों का समर्थन प्राय: किया जाता है। हिंदुओं और मुसलमानों दोनों में कई स्त्रियों से विवाह करने की रीति बराबर से है। अत: एक प्रेमगाथा के भीतर भी जायसी ने उसका सन्निवेश कर के बड़े कौशल से उसके द्वारा मत संबंधी विवाद शांति का उपदेश निकाला है।