पद्म सिंह शर्मा के साथ तीन दिन / प्रेमचंद
गुरुकुल कांगड़ी में हिन्दी-साहित्य-परिषद् का कोई उत्सव था। मुझे नेवता मिला। उधर शर्माजी भी निमन्त्रित हुए। हम दोनों एक ही साथ तंबेड़े पर बैठकर कांगड़ी पहुँचे। शर्माजी उधर अकसर आते-जाते रहते थे। तंबेड़े पर बैठने के आदी थे। मेरे लिए तंबेड़ा अजूबा चीज थी, जो अगर गुरुकुल वालों का आविष्कार नहीं तो पेटेन्ट अवश्य है। उस स्थान की वेगवती गंगा में नाव और किश्ती तथा स्टीमर की गति नहीं। उस वैतरिणी में तो यह गऊ की पूँछ ही पार लगा सकती है। आपको यह विश्वास तो दिला दिया गया है कि अकाल मृत्यु की यहाँ सम्भावना नहीं, क्योंकि गंगा माता की गोद में भी मौत कुछ कम भयंकर नहीं होती। आपको कुछ आश्वासन हो भी रहा है, लेकिन जब आप उस अपार सागर को देखते हैं, लहरों की तेजी को देखते हैं, तो इस आश्वासन में कुछ कम्पन होने लगता है। आपके मन में यह धारणा जमने नहीं पाती कि ये लहरें आपके तंबेड़े का बाल भी बाँका नहीं कर सकतीं। आप अपने मित्रों के आश्वासन से दिल को मजबूत किए बैठे हैं, लेकिन उनके विनोद में भाग नहीं ले सकते। आपकी दशा कुछ उस मनुष्य की-सी है, जो जिन्दगी में पहली बार किसी शरीर घोड़े पर सवार हुआ हो।
शर्माजी से मेरी पहली मुलाकात छै सात वर्ष पहले हुई थी, पर वह बहुत थोड़ी देर की मुलाकात थी। आज मैं उनके साथ एक ही तंबेड़े पर बैठा हुआ था। यद्यपि वह बीच-बीच में मेरी शंकाओं का समाधान करने के लिए तंबेड़े का गुण-गान करते जाते थे, लेकिन मेरा मन उनकी काव्य-कला-मर्मज्ञता का कायल होकर भी तंबेड़े के विषय में निश्शंक न होता था।
खैर, यात्रा समाप्त हुई। हम लोग गुरुकुल में पहुँचे, और आतिथ्यशाला में ठहराये गये। वहाँ मुझे मालूम हुआ कि शर्माजी को चाय से बड़ा प्रेम था और वे दो-एक प्याले से सन्तुष्ट न होते थे। वे चाय को शरबत की तरह पीते थे। नई सभ्यता की शायद यही एक चीज थी, जिसे उन्होंने अपनाया था। और सभी बातों में वह पूरे स्वदेशी थे। वेषभूषा में नयापन कहीं छू भी न गया था। जूते भी पुराने ढंग के ही पहनते थे। उन्हें देखकर सहसा यह गुमान न हो सकता था कि यह साधारण-सा व्यक्ति इतने ऊँचे दिल और दिमाग का स्वामी है। आजकल हम लोगों में दिखावे का जो रोग लग गया है, यह उन्हें छू भी न गया था। हम अपनी थोड़ी-सी पूँजी को इस तरह प्रदर्शित करते फिरते हैं, मानो विद्या हमारे ही ऊपर खतम हो गई है। वेदों और शास्त्रों का इस तरह उल्लेख करते हैं, मानो सब चाटे बैठे हैं। आज अपनी विद्वत्ता का सिक्का जमाने के लिए केवल बड़े-बड़े नाम कंठ कर लेने की जरूरत है। कालिदास पर कोई लेख लिखने के लिए अंगरेजी के एकाध आलोचकों का लेख पढ़ लेना काफी है। बस, अब हमसे बड़ा कालिदास का पारखी कोई नहीं है। ‘कुमारसम्भव’! अजी वह तो कालिदास के युवा-काल की रचना है। उसमें कवि की कला पूर्णता को नहीं पहुँच सकी है। कवि का कमाल देखना हो, तो ‘मेघदूत’ पढ़िये। कहिये, ‘शकुन्तला’ पर व्याख्यान दे डालें। शेक्सपियर की रचनाओं की नामावली और उसके दो-चार पात्रों की आलोचना पढ़कर शेक्सपियर पर आलोचना करने वालों की कहीं भी कमी नहीं है। शर्माजी इस दिखावे के शत्रु थे, और ऐसों का परदा बड़ी निर्दयता से फाश किया करते थे। तब वे जरा भी रू-रिआयत न करते थे। उनका साहित्य-ज्ञान बहुत बढ़ा हुआ था। खेद यही है कि अनेक बाधाओं ने उन्हें एकाग्र मन से साहित्य की सेवा न करने दी।
शर्माजी और मैं सबेरे और शाम को कांगड़ी से कुछ दूर सैर करने निकल जाते। उस वक्त शर्माजी के मुख से सूक्तियों के सुनने का अवसर मिलता। ऐसे-ऐसे कवियों की सूक्तियाँ सुनाते थे, जिनके नाम तक मैंने न सुने थे।
उन्हीं दिनों दो-एक बार हिन्दू-मुसलिम समस्या पर उनसे मेरा वार्तालाप हुआ। गुरुकुल के उस साहित्यिक अधिवेशन में कदाचित् यह भी एक विषय था। शर्माजी पक्के हिन्दू-सभाइट थे, और अपने पक्ष के समर्थन में ऐसी-ऐसी दलील पेश करते थे - ऐतिहासिक भी और धार्मिक भी - कि उनका जवाब देने के लिए मुझसे कहीं ज्यादा विद्वान् आदमी की जरूरत थी। वे मुझे कायल न कर सके, और मैं तो भला उन्हें क्या कायल करता, लेकिन इस मुबाहसे में मुझे यह स्वीकार करना पड़ा कि हिन्दू-सभा की नीति बड़ी मजबूत बुनियाद पर खड़ी है। औरंगजेब, अकबर, हैदर अली और सिराजुद्दौला पर किये गये आक्षेपों का उत्तर तो दिया जा सकता था, और दिया गया, लेकिन मुसलिम लीग की वर्तमान नीति का क्या जवाब हो सकता था। मन समझाने को चाहे हम कह लें कि मुसलिम लीग केवल ओहदे के भूखे और अधिकार के इच्छुक लोगों की ही संस्था है, लेकिन जब हम देखते हैं कि मुसलमान जनता, व्यापारी और जमींदार सभी उनके साथ हैं, तो हम जरा देर के लिए भविष्य से निराश हो जाते हैं। हिन्दुस्तान की मुसलिम नीति केवल हिन्दुओं का विरोध है। असेम्बली को लीजिए, या कौंसिल को। हिन्दू कोई प्रश्न करता है, कोई प्रस्ताव उपस्थित करता है, तो वह राष्ट्रीय दृष्टि से। मुसलिम मेम्बर जो कुछ कहेगा, या करेगा, वह अपने मजहबी दृष्टिकोण से। मुसलिम लीग अब भी विशेष अधिकार चाहती है, विशेष व्यवहार चाहती है; और देश की व्यवस्था ही कुछ इस तरह की हो रही है कि मुसलमान नेता जितना ही ज्यादा हिन्दू द्रोही हो, उसका उतना ही मान-सम्मान होता है। उसकी उन्नति देखकर दूसरे भी उसकी रीस करते हैं। टैक्स अधिकतर हिन्दुओं की जेब से आवे, पर ओहदे मुसलमानों को दिये जायँ। हिन्दू मुकाबले के इम्तहान में जान खपाकर जो ओहदा पाता है, वही मुसलमान चुनाव के द्वारा सहज ही प्राप्त कर लेता है। राष्ट्रवादी हिन्दू तो इस व्यवस्था को काल-गति समझकर सब्र कर लेता है, और इस आशा से संतोष लाभ करता है कि मुसलमानों में शिक्षा का खूब प्रचार हो जायगा, तो वे भी उदार हो जायेंगे। पर हिन्दुओं की दूसरी जमायत इतनी सहिष्णु नहीं है। वह देखती है कि शिक्षा के प्रचार से यह भेदभाव मिटने के बदले और बढ़ता जाता है, तो उसे शिक्षा में भी अविश्वास होने लगता है। अगर दो भाई में से एक हमेशा पृथकता की रट लगाता रहे, तो दूसरा भाई कुछ दिन दबने के बाद मजबूर होकर पृथकता ही स्वीकार कर लेगा। अगर एक भाई सारे घर और सारी जायदाद का दावा करे, तो दूसरा एकता के इच्छुक भाई के लिए इसके सिवा और क्या उपाय रह जाता है कि पेड़ तले रहे, और अपने बाल-बच्चों को भूखों मरते देखे। शर्माजी ‘विशेष’ अधिकारों के नाम से ही चिढ़ते थे। किसी के साथ जौ-भर भी रिआयत उन्हें अस्वीकार थी। वे किसी के सामने दबना या झुकना न जानते थे।
लेकिन इसके साथ ही संकीर्णता उन्हें छू भी न गई थी। मुसलिम संस्कृति, इतिहास, साहित्य में जो कुछ आदर के योग्य है, उसका वे मुक्त-हृदय से आदर करते थे। खलीफा मामूँ रशीद का चरित्र उन्होंने जितनी श्रद्धा से लिखा है, उतनी ही श्रद्धा से वह कदाचित् चन्द्रगुप्त या अशोक पर लिखते। फारसी कवियों में वह सादी, हाफिज, उमर खैयाम, शम्स तब्रेज, मौलाना रूम आदि का उतना ही आदर करते थे, जितना भवभूति, कालिदास या बाण का। और उर्दू के अमर कवि अकबर पर तो वह आशिक थे। शायद ही कोई मुसलमान अकबर का इतना भक्त हो।
शालीनता और विनय के वह मानो पुतले थे। मैं उनके साथ ज्वालापुर का गुरुकुल देखने गया था। मैं तो सन्ध्या समय लौट आया। वे हरिद्वार में ही रह गये। दूसरे दिन मुझे लौटना था। जब हरिद्वार स्टेशन पर पहुँचा, तो शर्माजी मुझे विदा करने के लिए खड़े थे। गाड़ी चली, तो उनके मुख पर स्नेह की ऐसी गाढ़ी झलक नजर आई, मानो उनका अपना बन्धु विदा हो रहा है। वह सूरत आज तक मेरे हृदय-पट पर अंकित है। छोटों पर बड़ों का इतना प्रेम मैंने उन्हीं में देखा। रास्ते-भर वह आकृति मेरी आँखों के सामने फिरती रही, और अब भी जब याद आ जाती है, तो आँखों में आँसू आ जाते हैं। अगर जानता कि वे इतनी जल्द प्रस्थान करने वाले हैं, तो उनके चरणों के अन्तिम दर्शन कर लेता।