पद पुराण / राजेन्द्र वर्मा
पद त्रिअर्थी है-एक, वह जो पढ़-लिखकर, प्रतियोगी परीक्षा में जुगाड़ भिड़ाकर और दोस्त को भी टँगड़ी मारकर धारण किया जाता है। दो-वह, जो कविता में पढ़ा और पढ़ाया जाता है और तीन-वह, जो प्राणियों की काया के निचले भाग में दो से लेकर सौ की मात्रा में पाया जाता है जिसे पैर, पाद, पाँव आदि कहा जाता है। मनुष्यों-पक्षियों में ये दो-दो, पशुओं में चार तथा कीड़ों-मकोड़ों में चार से आठ तक पाये जाते हैं। कनखजूरे में इनकी संख्या सौ होती है। साँप बिल्कुल ब्रह्म के समान है-बिनु पद चलै, सुनै बिनु काना!
प्रथम प्रकार का पद सम्माननीय है। उसे जब कोई धारण करता है तो वह-तहसीलदार, एस.डी.एम., जिलाधिकारी, कमिश्नर, सचिव...थानाध्यक्ष, डी.आई.जी. आई.जी... जूडिशियल मजिस्ट्रेट, ज़िला जज, न्यायमूर्ति आदि कहलाता है। वर्षों पुरानी मान्यता है कि इनके धारक पढ़े-लिखे और शक्तिशाली होते हैं। पद प्राप्त करने से पहले ये मात्र पढ़े-लिखे होते हैं। पद प्राप्त करने के बाद शक्तिशाली हो जाते हैं। जैसा कि हर नियम का 'अपवाद' नामक एक उपनियम होता है, पद-धारिता के नियम का भी अपवाद है-विधायक, सांसद या मंत्री के लिए ताक़तवर होना आवश्यक है, पढ़ा-लिखा होना नहीं! अंगूठा-टेक भी यह पद धारण कर सकता है। उच्च शिक्षा विभाग का मंत्री अँगूठा-टेक हो सकता है, हाईस्कूल-इंटर हो, तो देश का सौभाग्य! अन्यथा, संविधान के किस अनुच्छेद में लिखा है कि मंत्री का पढ़ा-लिखा होना ज़रूरी है? उसे बस, 'लोक प्रतिनिधि' होना चाहिए। फूलनदेवी की हत्या न हुई होती, तो आज वे गृहमंत्री होतीं!
पदधारक दो प्रकार के होते हैं-राजपत्रित एवं अराजपत्रित। राजपत्रित वह होता है जिसका नाम सरकार के गज़ेट में छपता है। वह आई.ए.एस., पी.सी.एस. या लोक सेवा आयोग से चयनित होता है। अराजपत्रित कहीं से भी आ सकता है। उसका लोक सेवा आयोग से चयनित आवष्यक नहीं! राजपत्रित वाला अराजपत्रित को उसी दृष्टि से देखता है, जिस दृष्टि से सवर्ण, पिछड़ों को। राजपत्रित के इस आचरण से अराजपत्रित को बुरा तो लगता है, परन्तु वह यह सोच सन्तोष करता है कि उसका नाम छपे, न छपे, कमाई के मामले में वह किसी राजपत्रित से 'उन्नीस' नहीं है!
दोनों प्रकार के पदधारक 'लोकसेवक' कहलाते हैं। यों तो दोनों ही ऐंठ में रहते हैं, पर राजपत्रित की ऐंठ देखते ही बनती है। वह जब लोक के सामने होता है, तो उसकी भौंहें तनी रहती हैं। चेहरे पर ऐसा भाव रहता है कि जैसे वह लोकसेवक न होकर लोकस्वामी हो। उसकी ऐंठ तभी विश्राम पाती है जब उसके सामने उससे भी बड़ा लोकसेवक बैठा हो। अपने सीनियर के सामने वह अपनी ऐंठ को 'शार्ट लीव' पर भेज देता है। फिर उनकी भौंहे पचास प्रतिशत तक ढीली हो जाती हैं। जब तक वह सीनियर के सामने रहता है, सूक्ष्म मुस्कान की मुद्रा में पाया जाता है। पत्नी के सामने वह थोड़ी मुखर मुद्रा में और काल-गर्ल के सामने पूर्ण प्रखर मुद्रा में पाया जाता है।
वह बहुत ही कम 'प्राइवेट लाइफ' जीता है, इसलिए अवसाद का शिकार हो जाता है। अवसाद से निपटने के लिए वह 'क्लब' जाता है। वहाँ वह गोल्फ़ खेलता है और थक जाने पर महँगी शराब की चुस्कियाँ लेते हुए शतरंज खेलता है। इन उपायों से भी-भी जब अवसाद नहीं मिटता, तब वह विदेश का दौरा करता है, जिसमें अधिकतर 'स्पाउस' साथ रहता है। दौरे वह प्रायः उन्हीं देशों का करता है जहाँ उसके बेटे स्थाई रूप से डेरा जमा चुके होते हैं। वहाँ उसे ऐसी व्यवस्था करनी होती है जो भारत में रह कर नहीं की जा सकती। ...जब व्यवस्था सफल हो जाती है तो, दो हज़ार डालर पाने वाला उनका सपूत 'डैड' की मदद से बीस हज़ार डालर प्रति वर्ष की बचत करता है! ऐसे पदधारक भारत माँ के स्वनामधन्य सपूत कहलाते हैं।
अराजपत्रित वाला पब्लिक में घुल-मिल कर रहता है। उसे 'पब्लिक सर्वेंट' कहलाने में भी कोई विशेश कष्ट नहीं होता। काम-काज में उसके चेहरे पर मुस्कान पायी जाती है। पब्लिक लाइफ में उसे भी तनाव का सामना करना पड़ता है, पर उतना नहीं कि अवसाद के घेरे में आ जाए। प्राइवेट लाइफ में वह जि़न्दगी का पूरा लुत्फ़ उठाता है। उसके लुत्फ़ का पचास से पचहत्तर प्रतिशत हिस्सा उसके घरवाले उठाते हैं। समाज इसका बिल्कुल बुरा नहीं मानता। ऐसे पदधारक भारत माँ के सपूत कहलाते हैं।
पदधारकों का वन-प्वाइंट प्रोग्राम होता है कि वे अपने सीनियर्स को प्रसन्न रखें ताकि प्रमोशन मिलने में कोई बाधा न रहे। किसी अन्तरयामी की भांति वे अपने सीनियर की इच्छा को जान लेते हैं। उनमें या उनकी पत्नी में छिपे हुए कवि, चित्रकार या संगीतकार को वे खोज कर निकाल लाते हैं! फिर कोई भव्य सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित कर दोनों का दिल जीत लेते हैं। इस जीतने की कला में जो सबसे अधिक फुर्तीला होता है, उसकी उन्नति को ब्रह्मा भी नहीं रोक पाते, भले ही कोई सीनियर पदोन्नति-पथ पर कुण्डली मारे बैठा हो।
पद का शत्रु 'काँटा' कहलाता है। काँटे को 'पदरिपु' भी कहते हैं। पदरिपु से निपटने के लिए 'पदत्राण' की उत्पत्ति की गयी है। पदत्राण को बोलचाल की भाषा में 'जूता' कहते हैं। जूते का महत्त्व सर्वविदित है। पदधारक की हैसियत के अनुरूप जूते की हैसियत बढ़ती जाती है। ... 'बाटा' वाला 'लिबर्टी' हो जाता है, 'लिबर्टी' वाला 'मोची' और 'मोची' वाला 'वुडलैंड' ! जूता दो प्रकार का होता है-एक वह, जो पहना जाए और दूसरा वह, जो खाया जाए! पहनने वाले जूते का उतना महत्त्व नहीं, जितना खाने वाले का है, क्योंकि पहले प्रकार वाला जूता तो प्रायः सभी जुटा लेते हैं, पर दूसरे प्रकार वाला सबके नसीब में नहीं होता! इसे चाँदी का जूता भी कहा जाता है। यह पहना नहीं, खाया जाता है। गनीमत है कि अभी सोने का जूता नहीं बना, अन्यथा वह भी खाया जाता! आपको ज्ञात ही है, चाँदी का जूता खाने वाला कोई पदधारक ही होता है। पदासीन रहकर वह कोई काम तभी ठीक से कर पाता है जब उसे चाँदी का जूता पड़े। ऐसे जूते खाने वालों की संख्या दिनोदिन बढ़ती जा रही है। जिसको यह जूता नसीब नहीं होता, वह इसे 'रिश्वत' कहकर बदनाम करता है। ... अधम लोगों का चरित्र है ही ऐसा! श्रेष्ठजन को ऐसे लोगों की बातों पर नहीं ध्यान देना चाहिए।
पद वह भी कहलाता है जो काव्य रूप में लिखा जाता है, जैसे-रैदास, कबीर, सूर, तुलसी और मीरा के पद। कबीर ने अध्यात्म-दर्शन पर अनेक पदों की रचना की है, जबकि सूर ने वात्सल्य और वियोग रस की। महाकवि तुलसी ने रामचरित को यूं तो 'रामचरितमानस' में प्रस्तुत किया है, पर जब उससे मन नहीं भरा, तो उन्होंने 'कवितावली' में पदों की रचना की। मीरा ने भी कृष्ण को अपना प्रेमी मानकर संयोग और वियोग रस में डुबोकर पदों की रचना की है। ...प्रेम को फींच-फींच कर फाड़ देने वाले ये पद हिन्दी साहित्य से ऐसे चिपके हुए हैं कि प्राइमरी से लेकर पी.एच-डी. तक पीछा नहीं छोड़ते। ... नाक में दम किये रहते हैं।
पद को भजन भी कहते हैं। इसे ख़ूब गाया-बजाया जाता है, क्योंकि इसमें लय होती है। तुकान्त तो होता ही है। तुकान्त को उर्दू में काफिया कहते है। बात-चीत में यही अधिक प्रचलित है। पद की प्रथम पंक्ति समाप्त होने से पूर्व श्रोता अटकल लगाते हैं कि अगला काफिया क्या होगा? इससे उनका पद सुनने का अभ्यास पुख़्ता होता है। आगे चलकर वे श्रेष्ठ श्रोता सिद्ध होते हैं। वे कवियों के प्रिय होते हैं। कुछ श्रोता तो बाद में कवि ही बन जाते हैं। इस रूट से बने कवियों की संख्या अपने यहाँ इतनी अधिक है कि आजकल श्रोताओं का ही टोंटा पड़ गया है! जिसे देखो, वही कवि! किसी कवि को यदि एक श्रोता मिल जाए, तो उसकी कविता धन्य हो जाए!
कवि ने कविता सुनायी। श्रोता बड़ी गम्भीरता से सुन रहा था। कविता समाप्त कर कवि जैसे ही चलने को हुआ, श्रोता ने कवि का कालर पकड़ा-"अबे! जाता कहाँ है? मेरी कविता क्या तेरे पिताजी सुनेंगे?" कवि को विवश हो कविता सुननी पड़ी। जब कविता समाप्त हुई, तो आपस में 'तू-तू-मैं-मैं' शुरू हो गयी-"अबे! तू किसकी कविता सुना रहा है? पहले लिखना सीख, फिर सुनाना!" दूसरा कब चुप बैठने वाला था, बोला-"तो, तू ही कौन-सा कवि है? साला, लाइन-चोर! एक लाइन इसकी मारी, एक उसकी! बन गया कवि!" तीसरे व्यक्ति का, जो न कवि था, न श्रोता, ख़ूब मनोरंजन हुआ। ...नगरी-नगरी, द्वारे-द्वारे यही दृश्य है।
जीवन की क्षणभंगुरता या ठगिनी माया से सम्बन्धित कबीर के पद गाकर लोग रोटी कमाते हैं। कुछ सूरदास के वात्सल्य रस वाले पदों को गाते हैं। मीरा के पद गाने वाले गायक लेकिन नहीं मिलते, गायिकाएँ तो मिलती ही नहीं! ये पद-गायक आपको रेलगाड़ी के स्लीपर क्लास में अक्सर गाते हुए मिल जायेंगे। पहले ये जनरल क्लास में भी मिल जाते थे, पर अब नहीं मिलते। वहाँ ज़रूरत से ज़्यादा भीड़ होने लगी है। एक डिब्बे से दूसरे में जाने की सुविधा भी नहीं होती। रेल के कोच के गायक अधिकतर सूर होते हैं। सूर जब 'सूर' गाता है, तो श्रोताओं को परमानन्द की प्राप्ति होती है। वे आँखें फाड़कर सुनते हैं। बदले में गायक को बचा हुआ खाना या दो रुपये का सिक्का देते हैं। कोई-कोई पाँच का सिक्का देता है। गायक को जब पाँच का सिक्का मिलता है, तो वह भी गायकी के सरोवर में गोता लगाते हुए सटीक आरोह-अवरोह का प्रयोग करने लगता है।
क्लैसिकल संगीत के साधक भी पद-गायन में अपना गला साफ़ करते हुए सुबह-शाम देखे जा सकते हैं। 'इलीट क्लास' के ये गायक बड़े महँगे होते हैं। पाँच पंक्ति वाले पद को ये 15 से 20 मिनट तक खींचते हैं। एक पंक्ति को आठ-आठ बार गाते हैं और बीच-बीच में ऐसा संगीत बजवाते हैं जो उसी धुन को कम-से-कम दो बार दुहराता रहता है जिसमें गायक ने अभी-अभी पंक्ति समाप्त की होती है। ... भीमसेन जोशी, जसराज, राजन-साजन मिश्र आदि की गायकी ने पद-गायन में नये सोपान चढ़े हैं। कबीर के 'यह तन मुँडना, बे मुँडना' को जोशी जी ने दस मिनट तक गाया है जबकि पूरे पद में पाँच ही पंक्तियाँ हैं।
तीसरे प्रकार के पद से सभी परिचित हैं। इसे 'पैर' , 'पाद' अथवा 'पाँव' कहा जाता है। 'पाद' आध्यात्मिक है, तो पैर नागरिक। इसे शहराती भी कह सकते हैं। पाँव गँवारू ज़रूर है, लेकिन जब उसकी रक्षा हेतु 'पाँवरी' बनती है, तो वह 'राजसी' हो जाती है। पाँवरी चाहे लकड़ी ही की क्यों न हो, उसमें पाँव से अधिक बल होता है। भरत ने राम की पाँवरी से अयोध्या में कितने ही वर्षों अबाध राज्य किया!
पैर को 'चरण' कहना सर्वमान्य है। हिन्दी साहित्य में 'चरण कमल' बहुत प्रचलित है। भक्तकालीन कवियों में, जिसे भी देखिए-चरण कमल के पीछे पड़ा है। अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ, 'रामचरिमानस' में तुलसीदास ने चैपाइयों का प्रारम्भ चरण वन्दना से ही किया है-"बंदउं गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥" संकटमोचक, 'हनुमान चालीसा' का प्रारम्भ भी उन्होंने चरण वन्दना से ही किया है-"श्रीगुरुचरन सरोज-रज, निज मन मुकुर सुधारि। ..." तुलसी से पहले सूर ने भी इसी परम्परा का पालन किया था। उन्होंने गुरु के चरणों के स्थान पर कृष्ण के चरणों की वन्दना की थी-"चरण कमल बन्दौ हरि राई। ..."
चरण-कमल उन्हीं के वन्दनीय होते हैं जिनके माँ-बाप के घर में सोने-चाँदी के पालने हों और हजारों गायें हों। ग़रीब आदमी के पाँव कमल की उपमा नहीं प्राप्त कर सकते। इसीलिए भगवान लोग निशाना लगाकर वहीं पैदा होते हैं जहाँ दूध-भात का पहले से ही पोढ़ा इन्तज़ाम हो। किसी ग़रीब के घर में पैदा हों, तो सारी जि़न्दगी नून-तेल में ही गारद हो जाए! बाँसुरी बजाना भूल जाएँ दूसरे की पत्नियों के साथ रास रचाने की कौन कहे?
पैर को 'लात' भी कहा जाता है, लेकिन पैर और लात में अन्तर है-पैर सभ्य है, तो लात असभ्य। पैर चलने के अलावा फैलाने, छुआने, उछालने, झटकारने, पटकने के भी काम आते हैं। लात केवल मारने के काम आती है। ... एक अमावस्या को पंडितजी पैर छुआने के लिए सवेरे ही तख्त पर फैल गये कि लोग पैर छूने आयेंगे और वे आशीश देकर कुछ पुण्य कमायेंगे। दोपहर बीत गयी, कोई नहीं आया। ब्राह्मणों की अवहेलना करने वाले समाज को वे मन-ही-मन पैरों से कुचलते रहे, पर अन्ततः पैरों को घसीटना पड़ा। सच है, बहुत बुरा समय आ गया है, परन्तु छल-छद्म भरी भिक्षावृत्ति पर वे अभी तक लात नहीं मार पाये!
पैर पूजने और पुजवाने के भी काम आते हैं। जो लोग पैर पुजवाने या लात मारने का कार्य नहीं कर पाते, वे पैर पूजने और लात खाने का कार्य करते हैं। एक हिन्दू बाप अपनी बेटी-दामाद के पैर पूजने का सौभाग्य पाता है। वर का पिता लम्बा-चैड़ा दहेज माँगता है। वर के मुँह में दही जमा रहता है। प्रगतिशील विचारों वाला वर भी यहाँ पाँव डिगाये रहता है। पैर पूजने से पहले और उसके बाद तक वधू का पिता, वर के पिता की लात खाता रहता है। जैसे, वह बेटी पैदा करने का प्रायश्चित कर रहा हो! वधू यदि पिताविहीन हो, तो यह पुनीत कार्य उसका भाई करता है।
मध्यमवर्गीय समाज में वधू पढ़-लिखकर नौकरी करती है। अपना दहेज स्वयं इकट्ठा करती है। वह कोई कुलच्छिनी है, जो दहेज-लोभी वर के मुँह पर थूक दे या, चाय की प्याली ही दे मारे? वह तो इतने संस्कार वाली है कि विवाह के बाद नौकरी कर प्रति माह दहेज चुकाती रहती है। पहली तारीख आयी कि तनख़्वाह पति के हाथ पर! ... कौन कहता है कि पढ़ी-लिखी स्त्री के पाँव अब नहीं थरथराते? ... उसके पाँव भारी भले हो जाएँ, पर उनका थरथराना कभी नहीं थमता! ... गाँव में प्रथा है कि शादी के बाद वर ससुराल अवश्य जाए। इसे 'पाँव फिराना' कहते हैं। बहुत संभव है, यह प्रथा ब्याह के बाद दहेज की वसूली के लिए बनायी गयी हो। यह एक प्रकार की चेतावनी है कि समय रहते चेत जाओ, वरना कल कहीं आग-वाग लगने से बहू जलकर मर गयी, तो दोष मत देना!
कुछ लोगों को लात मारने का प्रभावशाली पद जन्म से प्राप्त हो जाता है। ऐसे लोग 'इंडिया' में पैदा होते हैं। पैदा होते ही वे पाँव पसारना शुरू कर देते हैं। ...विदेश पढ़ने चले जाते हैं। वापस लौटने पर अच्छी-सी नौकरी जयमाल लिये उनकी प्रतीक्षा कर रही होती है। ऐसे लोग बिना किसी संघर्ष के अपने पाँव जमा लेते हैं। ...पाँव ज़माने वालों में कुछ ऐसे भी होते हैं जो पढ़ने-लिखने का कार्य दिखाने के लिए करते हैं। उन्हें नौकरी नहीं करनी होती, अपने बाप-दादों की कम्पनियाँ सँभालनी होती है। जीवन में वे हमेशा पाँव फूँक-फूँक कर रखते हैं। आवश्यकता पड़ने पर वे दबे पाँव चलकर निर्बल विरोधियों को पाँव-तले मल देते हैं। इनकी प्रतिभा को उचित सम्मान देने के लिए सरकार इन्हें अपना 'सलाहकार' नियुक्त करती है। संसार से विदा लेने से पूर्व ये अपने पदचिह्न अवश्य छोड़ जाते हैं।
जिनके नसीब में लात खाना बदा होता है, वे सीलन भरी बदबूदार कोठरी या सरकारी अस्पताल के 'जच्चा-बच्चा घर' में पैदा होते हैं। जूठन खाते-खाते वे गबरू जवान हो जाते हैं। फिर पाँव-तले मलने वालों के पाँव पड़ना शुरू कर देते हैं। घुटने-घुटने चलने लायक ही वे अपने पांवों पर खड़े होने लगते हैं। उनके लिए ज़िन्दगी की पाठशाला ही उनका स्कूल-कालेज और यूनिवर्सिटी होती है। शाम को दो रोटियाँ और एक 'पव्वे' के इन्तज़ाम के लिए कौन-सी पढ़ाई की ज़रूरत है? लेकिन कुछ विद्रोही आत्माएँ इस व्यवस्था में फ़िट नहीं हो पातीं। दलदल से निकलने के लिए वे हाथ-पाँव मारती रहती हैं। पैर आगे बढ़ाकर वे पीछे हटाना नहीं जानतीं। वे भरसक पैर चलाती हैं, पर परिस्थिति की लात खाते-खाते उनका हौसला पस्त हो जाता है। फिर उनके पैर कभी आगे नहीं पड़ते। अगर पड़ते भी हैं, तो वे बढ़ते ही उखड़ने लगते हैं। ... जीवन में वे कभी भी पैर नहीं जमा पाते और पैर पटकते-पटकते संसार से विदा हो जाते हैं। उनके पदचिह्न ढूँढ़े नहीं मिलते। कहीं धुँधले-से दिख भी जाएँ, तो उन पर कोई चलना नहीं चाहता! तुलसीदास ने इसीलिए कहा है-" होइ है सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा?