पनघट की मीरा / सौरभ कुमार वाचस्पति

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1.

भोर होने में अभी बहुत समय बाकी था। अभी तक आसमान पर लाली भी न छाई थी। अमावस्या की रात, घटाटोप अँधेरा। हाथ को हाथ न सूझता था। पूरा गाँव चैन की गहरी नींद सो रहा था। दिन भर के परिश्रम से थके हुए लोग बिस्तरों में दुबके पड़े थे। दूर से आती झरने की कलकल करती आवाज रात को कितनी भयावह हो जाती है, यह तो उसकी समझ में ही आती जो इस शांत और अँधेरी रात में उठकर इस बात की टोह लेने की हिम्मत जुटा पाता। कहीं से कोई पंछी -परेवा भी नहीं बोल रहा था। गाँव का चौकीदार भी इस डरावनी रात के भय से चौपाल के कोने में गांजे का सुट्टा मारकर औंधा पड़ा था। जमा डेढ़ - दो सौ घर होंगे इस गाँव में। अधिकतर मजदूर। किसी - किसी के पास थोड़ी बहुत अपनी जमीन। ऐसी अँधेरी रात में श्री नारायण बाबु के दरवाजे पर कुछ हलचल सी हुई। एक व्यक्ति लालटेन की रौशनी में नहाया, नशे में धुत्त, लडखडाता हुआ घर का दरवाजा खोलकर अन्दर प्रविष्ट हो गया। यह राहुल था। श्री नारायण बाबु का बड़ा बेटा।

श्री नारायण बाबु मास्टर थे। गाँव के ही मध्य विद्यालय के। पुरे गाँव में उनकी इज्जत थी। सादगी से रहते थे। विचारों के धनी। किसी को छोटा - बड़ा नहीं समझते। सबकी इज्जत करते। सफ़ेद कपड़ों में उनका व्यक्तित्व और निखर जाता था। भरा पूरा घर था। दो बेटे, एक बेटी, स्वयं और पत्नी। यह पत्नी दूसरी थी। पहली पत्नी इनकी शादी के कुछ ही दिन बाद स्वर्ग सिधार गई थी तब इन्होने दूसरी शादी की। तीनो बच्चे इसी दूसरी पत्नी के हैं! स्वयं श्री नारायण बाबु के गुजरे लगभग दस बरस हो गए। बच्चे जवान हो गए तो तीनो की शादी धूमधाम से हुई! बेटी ससुराल बसती थी। दोनों बहुओं का गौना हो चुका था।

बड़ा बेटा राहुल अपने पिता के ठीक उलट था। जहाँ उसके पिता आदर्शों के पक्के थे वहीँ राहुल गलत संगत की वजह से बिगड़ गया था। दिन भर ताड़ी -भंग या शराब के नशे में मत्त रहता। घर में सुन्दर सी दुल्हन थी फिर भी गाँव की युवतियों से छेड़खानी करता था। कई बार उसकी शिकायत गाँव वालों ने की थी पर वह नहीं सुधरा।

छोटा लड़का कृष्ण शंकर में अपने पिता के गुण आए थे। पढने में तेज था सो प्रतियोगिता परीक्षा में पास होकर गाँव की ही डाकघर का डाक बाबु हो गया। बड़ा ही शौम्य और शालीन, बातों से विद्वता झलकती थी। बहुत कम बोलता था, पर जब बोलता तो ज्ञान की ही बात बोलता। ऐसा लगता जैसे सरसती मैया उसके जिह्वा पर बैठ गयी हों।

माँ का विशेष प्रेम बड़े बेटे राहुल पर था। वह उसकी हर जायज - नाजायज बात को मान लेती थी। दिन पर दिन राहुल का स्वभाव बिगड़ता गया। अब तो उसकी यह आदत ही हो गयी थी की अपनी हर बात माँ से मनवा लेता था। माँ ममतावश बेटे को कुछ नहीं कह पाती। सोचती थी, शादी हो जाएगी तो खुद सुधर जाएगा। पर उसकी सारी आशाए तब ध्वस्त हो गयीं जब बहु के आने के बाद भीं राहुल जस का तस रहा। उसमे कोई बदलाव न हुआ। समय बीतता रहा पर वह नहीं बदला। शादी के दस साल बीत चुके थे पर अब तक बाप नहीं बन पाया था।

मृत्यु हमेशा दबे पाँव आती है। बस कोई बहाना चाहिए। कृष्ण शंकर के साथ भी यही हुआ। मीरा का गौना कराकर वह घर ले आया था। डाक खाने से उसने चार दिन की छुट्टी ले लीथी। चार दिन बाद जब वापस काम पर पहुंचा तो अनेक काम थे। चिट्ठी, रूपये, बीमा सबकुछ पहुँचाना था। वह अपनी सायकिल से चिट्ठी पहुँचाने चल पड़ा। वापस लौटते हुए शाम हो गयी। बगल वाले गाँव के पुल के पास पहुंचा ही था की सहसा एक लम्बा, काला देव सरीखा आदमी रास्ता रोक कर खड़ा हो गया। अभी कृष्ण शंकर कुछ समझ भी न पाया था की सनसनाती हुई लाठी का वार उसके सर पर लगा। सर फूट गया। वह वहीँ अचेत होकर गिर गया। सुबह हुई तो पूरे गाँव में शोर हो गया। "डाकबाबू का खून हो गया।" जिसने सुना वही दौड़ पड़ा। अत्यधिक खून बह जाने से कृष्ण शंकर ने वहीँ दम तोड़ दिया। मीरा विधवा हो गयी। लाश घर लाइ गई। अंतिम संस्कार की तैयारी हुई। मीरा को होश न था। एक कोने में पड़ी वह टुकुर टुकुर कृष्ण शंकर की लाश को घूरे जा रही थी। लाश उठा ली गई। लोग श्मशान की ओर चले।

लगभग महीने भर तक मीरा की स्थिति पागलों जैसी बनी रही। सही ही कहा गया है की घाव कितना भी गहरा क्यों न हो, वक्त का मरहम कुछ हद तक तो उसे भर ही देता है। धीरे धीरे सब कुछ फिर सामान्य सा हो गया। मीरा के भाई उसे लेने आए पर मीरा नही गई। थक हार कर वे लौट गए। सारे काम अब मीरा खुद ही करने लगी। भोर से साँझ तक वह अपने आपको किसी न किसी काम में खुद को उलझाए रखती थी। लोग देखकर दांतों तले ऊँगली काट जाते। एक अजीब सी तपश्चर्या का जीवन बना लिया था उसने अपना। लेकिन रिक्त की क्षतिपूर्ति न कभी हुई है न कभी होगी। दिन तो किसी तरह गुजर जाता पर रात काट खाने को दौड़ती थी। बिस्तर पर लेटते ही एक अजीब सा दर्द मन को बेचैन करने लगता। सारी सुख -सुविधाएं थीं, पर लगता जैसे कहीं वह अन्दर से अधूरी है। रात होते ही आँखे बरसने लगती। पर पुनः दिन निकलते ही उसका रूप बदल जाता। हर काम तत्परता से करती। कभी किसी को शिकायत का मौका नहीं देती। प्रकृति से मानवी का सारा गुण पाकर भी वह अधूरी थी। धुंआ दिखता न था पर अन्दर ही अन्दर वह कहीं सुलग रही थी


2.

नशे में धुत्त राहुल अपने आप में बडबडाता हुआ घर में प्रवेश कर गया। सभी नींद से बेसुध थे। राहुल का कमरा सबसे किनारे था। वह लडखडाता हुआ अपने कमरे की तरफ बढ़ रहा था की उसकी नजर मीरा के कमरे के खुले दरवाजे पर पड़ी। दरवाजा ठीकसे लगा न था। मीरा दिनभर की थकान से बेहोश सी पड़ी थी। दरवाजे से मीरा का बिस्तर साफ़ दिख रहा था। राहुल दरवाजे पर ही खड़ा हो गया। अजीब सी नजरों से वह मीरा को घूरने लगा। उसकी आँखों में वासना के कीड़े गिजबिजाने लगे। एक तो शराब का नशा, ऊपर से जवानी का जोश। वह बिना कुछ सोचे -समझे दरवाजे के अन्दर घुस गया। मीरा की साडी घुटनों से ऊपर चढ़ी हुई थी। सफ़ेद साड़ी में वह स्वर्ग से उतरी अप्सरा सी सुन्दर लग रही थी। गुलाबी चेहरा ऐसा था जैसे दूध में चुटकी भर केसर पीसकर मिला दिया गया हो। लम्बी सुतवां नाक। फूल की नाजुक पंखुड़ियों से होठ। वक्षस्थल पर हलके हलके स्वेद कण ऐसे लग रहे थे जैसे पीले सोने पर हीरे की कनी जड़ दी गई हों। राहुल उसपर झुकता चला गया। होठों पर किसी के स्पर्श का आभास पाते ही मीरा की आँखें पट्ट से खुल गईं। एक जोरदार धक्का देकर वह उठ खड़ी हुई। सामने राहुल को देखते ही उसकी आँखों में भय, लज्जा व आश्चर्य के मिश्रित भाव उभर आए। वह सोच भी न सकती थी की उसका जेठ उसके साथ ऐसी नीच हरकत भी कर सकता है। अपने बेतरतीब कपड़ों को संभलकर वह चीख पड़ी -" मैं कहती हूँ निकल जाइए मेरे कमरे से।" पर राहुल पर इसका कोई असर न हुआ। वह धीरे धीरे उसकी ओर बढ़ने लगा। मीरा दौड़कर दरवाजे की ओर भागी की तभी राहुल ने झपटकर उसे दबोच लिया। उसके मजबूत बंधन में बंधी मीरा जल बिन मछली की तरह छटपटाने लगी। राहुल मीरा को बिस्तर की तरफ ले जा रहा था। तभी मीरा की साड़ी पलंग के पाए में फंस गई। वह धडाम से फर्श पर गिर गई। राहुल ने झपटकर दरवाजा अन्दर से बंद कर लिया और घात लगाकर मीरा की ओर बढ़ने लगा। मीरा की हालत शेर के चंगुल में फंसी हिरनी सी हो गई थी। वह अंतर्द्वंद में फंसी थी। अगर वह शोर मचाती तो पूरे परिवार के साथ उसकी भी बेइज्जती होती। इसलिए वह चुप थी। लोक लज्जा का भय उसे नहीं बोलने पर मजबूर कर रहा था। पर राहुल के इरादे भांपकर वह समझ न पा रही थी की क्या करे क्या न करे। मन में नफरत का एक सैलाब उमड़ पड़ा। वह ज्यों -ज्यों पीछे खिसक रही थी राहुल त्यों त्यों आगे बढ़ रहा था। तभी उसे रूक जाना पड़ा। पीछे मेज थी। वह पीछे मुड़ी। तभी राहुल ने उसे दबोच लिया। और फिर वातावरण में राहुल की एक दर्दनाक चीख गूँज उठी।

मेज पर फल काटने का चाकू रखा हुआ था। ज्यों ही राहुल ने मीरा को छुआ त्यों ही मीरा ने चाकू का भरपूर वार उसकी बांह पर कर दिया। राहुल एक हाथ से जख्म दबाकर वहीँ लोटपोट हो गया। वह लगातार चीख रहा था। जख्म गहरा था। चीख सुनकर उसकी माँ और पत्नी जया दौड़े आए। दरवाजा तोड़कर अन्दर घुसे। मीरा अर्धविक्षिप्त की सी अवस्था में अब भी चाकू हाथ में लिए राहुल को देखे जा रही थी। उसकी साड़ी न जाने कब खुलकर फर्श पर गिर गई थी। ब्लाउज जहाँ तहां से फट गया था। एक ही नजर में उन दोनों की समझ में आ गया की यहाँ क्या हो रहा था। राहुल की माँ उसे उठा कर अपने कमरे में ले गई। बिस्तर पर लिटाया और जख्म पर कसकर पट्टी बांध दी। राहुल अब भी कराह रहा था।

मीरा की जेठानी जया अपने पति की आदत से अच्छी तरह वाकिफ थी। वह मीरा को सँभालने में लग गई। दो तीन बार आवाज देने पर भी जब मीरा की अवस्था में कोई परिवर्तन नहीं हुआ तो जया ने उसे झकझोरा। तब कहीं मीरा का ध्यान टूटा। खून से सने चाकू को उसने ऐसे फेंका जैसे हाथ में सांप हो। "दीदी" कह कर वह जया के गले लग, फूट-फूट कर रो पड़ी। जया ने भी उसे अपने बच्चे की तरह अपनी बाहों में समेट लिया। अजीब से विचार जया के मस्तिष्क में कोलाहल मचा रहे थे। मीरा के लिए उसके दिल प्यार भी उमड़ रहा था और इर्ष्या भी हो रही थी।

जब जया की शादी हुई थी तो वह राहुल जैसा पति पाकर बहुत खुश हुई थी। राहुल उसके लिए हर काम करने को तैयार रहता था। लेकिन गौने के कुछ ही दिनों बाद राहुल का असली रूप उसके आगे आने लगा। तब उसे यथार्थ का ज्ञान हुआ। अपने भाग्य का दोष मान वह हर दिन रोती थी। राहुल बात-बेबात मार पीट करता था। रोज शराब पीकर घर लौटता और गन्दी गालियाँ बकता। अपना जीवन जया को नरक सा लगने लगा था। कभी कभी मन में ख्याल आता की ऐसे पति के होने से तो अच्छा है की पति मर जाए। पर किसी तरह निबाह किए जा रही थी। पर राहुल की आज की हरकत ने उसके अन्दर की सुलगती हुई आग को हवा दे दी थी। ऐसी नीच हरकत। छिः, पता नहीं मर्द किस मिटटी के बने होते हैं। जरा सी भी शर्म हया बाकी नहीं बची। अपने घर के मर्दों से औरत को जितना डर है उतना डर शायद बाहर के मर्दों से नहीं। लोग जब राहुल की यह करतूत सुनेंगे तो क्या कहेंगे। इस घर की इज्जत का क्या होगा। वह सिहर उठी।

मीरा का सिर अपने हाथों में लेकर वह उसके बाल सहलाते हुए बोली -" मीरा, बहन, जो मै कह रही हूँ उसे जरा ध्यान से सुनना। मैं मानती हूँ की राहुल ने बहुत बुरा किया है। उसकी सजा भी उसे मिल गई। पर तुमसे मेरी एक ही विनती है बहन। हमेशा मैंने तुम्हें अपनी छोटी बहन की तरह देखा और माना है। तुम भी मुझे अपनी बड़ी बहन ही समझती रही हो। इसी नाते से कह रही हूँ। औरत जात की मरजाद बहुत नाजुक चीज होती है। इतनी नाजुक की एक बार अगर टूट जाए तो फिर कभी नहीं जुडती। बचपन से लेकर मरने की वेला तक, हर समय हमें किसी न किसी मर्द की ओट में रहना पड़ता है। कभी पिता, कभी भाईतो कभी पति। जैसे ही यह ओट हमारे ऊपर से हट जाती है हमारे सभी सहारे खंडित हो जाते हैं। हर रिश्ता बेकार हो जाता है। सौ तरह की बातें सुननी पड़ती है। सबसे ऊपर, अगर पति का साया किसी औरत पर ना हो तो उस औरत का चाल- चलन लोग बहुत ही गौर से देखते हैं। आज अगर कृष्ण शंकर जीवित होते तो जो हुआ वह कभी न होता। जरा सोचो बहन, अगर यह बात गाँव के और लोगों तक पहुंचे की तुम्हारे जेठ ने तुम्हारे साथ जबरदस्ती करने की कोशिस की तो लोग क्या सोचेंगे। जितने मुह उतनी बातें होंगी। यह समाज पुरुष प्रधान है बहन। यहाँ अगर कोई पुरुष बदचलन है तो लोग उसे कुछ नहीं कहते। लेकिन अगर स्त्री के बारे में कोई कुछ सुन ले तो बात का बतंगड़ हो जाता है। स्त्री ही बदचलन साबित होती है।स्त्री ही चरित्रहीन कहलाती है। बात कुछ भी हो बहन, बदनामी तो हमारी ही होगी। इस कुल -खानदान की बदनामी होगी। इसलिए मै हाथ जोड़कर तुमसे प्रार्थना करती हूँ बहन की इस बात का जिक्र किसी से मत करना। एक तो इनके कारण यह घर पहले से ही बदनाम हो रहा है, ऊपर से अगर यह बात घर की देहरी लांघ गई तो सारी प्रतिष्ठा मिटटी में मिल जाएगी। भूल जाओ बहन ..... सारी बात भूल जाओ।"

मीरा की आँखों से अनवरत आंसू ढलक रहे थे। वह भावावेश जया से लिपटी हुई थी। जया की आँखें बरस रही थीं। पूरब में सूरज की रक्ताभ किरने आसमान को खून सा लाल कर रही थीं। लाल लाल रौशनी से धरा नहा उठी। पर कोई यह नहीं जानता था की स्याह अँधेरे में गाँव के सबसे प्रतिष्ठित घर की चारदीवारी के अन्दर क्या हुआ है। हर दिन की तरह आज का दिन भी श्री नारायण बाबु के घर में एक अजीब सी उदासी लिए प्रवेश कर गया।भविष्य के गर्भ में न जाने कितने और भी रहस्य कुनमुना रहे थे।


3.

मीरा की आँखों के आगे रह रह कर रात का दृश्य तैर जाता था। मन संतप्त सा था। शाम ढलने लगी थी। डूबते सूरज का पीलापन आँखों को एक अजीब सा ठंढक पहुंचा रहा था। स्याह सफ़ेद बादल के टुकड़े आकाश में फैली सूरज की पीली रौशनी में सोने -चांदी से चमक रहे थे। राहुल सुबह से ही घर से गायब था। वह कब निकल कर गया, किसी को पता न था। मीरा की बूढी सास अपने कमरे में लेटी आराम कर रही थी। जया मीरा के साथ ही चौके में बैठी खाना बना रही थी। रोटी बेलती हुई मीरा को आज अपने बाबूजी और भाइयों की बहुत याद आ रही थी। आँखों के आगे अतीत दृश्यमान हो रहा था।

कितने लाड प्यार से पली बढ़ी थी वह। घर में सबसे छोटी थी सो सभी उसे पलकों पर बिठाए रहते थे। पूरे घर की लाडली थी वह। बड़े धूमधाम से उसकी शादी हुई। ससुराल में भी कृष्ण शंकर जैसा पति और जया जैसी जेठानी पाकर वह निहाल हो गई। पर किस्मत के आगे किसी का बस नहीं चलता। कृष्ण शंकर की अकाल मृत्यु ने जैसे तूफ़ान ही ला दिया था उसके हँसते खेलते जीवन में। दिन तो फिर भी किसी तरह बीत ही रहे थे पर उसे अपने जेठ की नजरों में एक अजीब सा बदलाव महसूस होने लगा था। राहुल की नजरें जैसे उसके शरीर को भेद सी देती थी। नशे में धुत्त उसकी लाल लाल आँखें देखकर मीरा सिहर जाती थी। ऊपर से अब सास भी ताना मारने लगी थी। उस दिन उसने खुद अपने कानो सुना था। राधे की माँ को उसकी सास अपना दुखड़ा सुना रही थी।

"क्या कहूं राधे की अम्मा, मेरे तो करम ही फूटे हुए थे जो इस कुलच्छिनी को अपने घर लाइ। पता नहीं क्या देखकर पसंद किया था राहुल के बाबूजी ने इस डायन को। पूरी डायन है। आते ही मेरे बेटे को खा गई। फूल सा नाजुक बच्चा था मेरा। किसी और लड़की से बियाह होता तो बढ़िया था। पर क्या करें ... ब्रह्मा जी छठी रात में जोकपार में लिख देंगे उसको भी कोई मेट सकता है? मन तो इतना खिसियाया रहता है की मन करता है इस करमजरू को घर से निकाल दें। लेकिन निकाल भी नहीं सकते। निकाल देंगे तो कृष्ण शंकर वाला पेंसन आना बंद हो जाएगा। अब तो देव ही आसरा है राधे की अम्मा।"

"च च च .... कुछ भी कहो राहुल की अम्मा पर मीरा कुलच्छन नहीं है। इतनी सुन्दर लड़की है। घर का सब काम धाम स्वयं करती है। अगर कोई और मेहरिया होती तो चट किसी दुसरे मरद के गोद बैठ जाती। अभी जवान है, सुन्दर है। शादी करनेकीउमिर अभी बीत नहीं गयी उसकी। पर जरा सोचो राहुल की अम्मा; उसने तब भी अपने भाइयों को वापस कर दिया था। बहुत हिम्मतवाली बहू मिली है तुमको। आजकल की छोकरियाँ तो अपने मरद के होते भी चट पराये मरद के आगे लहंगा पसार देती हैं।" राधे की अम्मा मीरा की सास को समझा रही थी। "देखो राहुल की अम्मा, मेरे दिमाग में एक बात आई है ... अगर बुरा ना मानो तो कहू...!"

"भला मैं क्यों बुरा मानने लगी .... कहो, जो भी कहना है।"

"देखो, अगर मीरा तुम्हारे बड़े बेटे राहुल से बियाह के लिए तैयार हो जाए तो तुम सुखी हो जाओगी।"

"वो भला कैसे ?"

"वो ऐसे की जब से राहुल की शादी हुई है तभी से मैं देख रही हूँ की तुम पोते का मुह देखने के लिए मरी जा रही हो। अब जरा ये सोचो की तुम्हारा ये सपना अभी तक पूरा क्यों नहीं हुआ ? वो इसलिए की हो न हो तुम्हारी बड़ी बहु में जरूर कोई कमी है। राहुल मर्द है... भला उसमे क्या कमी होगी ? अरे बच्चा तो हम औरतें ही जनती हैं न। सोचो .... अगर मीरा राहुल से शादी कर ले तो तुम्हारा यह सपना भी साकार हो जाएगा। "

"पर राधे की अम्मा, एक रांड से अपने बेटे का ब्याह कैसे कर सकती हूँ! ना बाबा ना .... उससे ब्याह करके मैं अपना एक बेटा खो चुकी हूँ। दुबारा ऐसी गलती नहीं कर सकती। क्या पता उस कुलच्छिनी से ब्याह करके मेरा दूसरा बेटा भी ....... हाय राम। नहीं राधे की अम्मा ... मैं ऐसा नहीं कर सकती।"

"तुम भी कैसी बात कर रही हो राहुल की अम्मा।अरे रांड है तो क्या हुआ, है तो अपने ही घर की बहु न। ज़रा अपने दिमाग से सोचो। जिसको जाना था सो चला गया। अब उसके बारे में सोच सोच कर अपना भविष्य काहे बिगाड़ना।"

"कह तो तुम ठीके रही हो लेकिन इसके लिए मीरा के माँ बाप शायद ही तैयार होंगे। "

"उन्हें समझाओ बहन।उन्हें यह अहसास कराओ की तुम मीरा के लिए बुरा नहीं अच्छा ही कर रही हो। जब द्रौपदी एक साथ पांच -पांच पतियों के साथ रह सकती है तो तुम तो एक रांड को नयी जिन्दगी देने की कोशिस कर रही हो। गाँव घर के लोग भी तुम्हारा ही साथ देंगे की एक उजड़ा हुआ घोंसला फिर से आबाद हो रहा है। "

"पर मीरा नहीं मानेगी!"

"राहुल की अम्मा, जो बात डरा धमकाकर नहीं हो सकती वो बात चिकनी चुपड़ी बोली से हो जाती है। कोशिस करके देखने में हर्ज ही क्या है। अगर सफल हो गयी तो बस अच्छा ही होगा। "

"ठीक है राधे की अम्मा, मैं आज ही मीरा से बात करती हूँ। अगर वो राजी हो गयी तो उसके मां बाप को समझाने में आसानी होगी।" निश्चय भरे स्वर में मीरा की सास बोली थी।

दरवाजे के पार खड़ी मीरा के तन बदन में जैसे आग सी लग गई। कितनी घिनौनी मानसिकता है इन लोगों की। अपने बेटे की मौत का ज़रा सा भी गम नहीं इन्हें। बस अपनी इच्छापूर्ति की खातिर मुझे बलि पर चढाने को तैयार हैं।

और सचमुच मीरा की सास ने इसी बात के लिए मीरा को टोक दिया। दोपहर को, खाना खाने के बाद मीरा अपने बिस्तर पर लेटी हुई थी की उसकी सास उसके कमरे में आई। उसके सिरहाने बैठ, बड़े प्यार से बोली -" मीरा बेटी.......!"

मीरा उठ कर बैठ गई। सुबह की बात याद कर दिल जोरों से धड़क उठा। बोली -"जी मांजी!"

मीरा की सास अपने शब्दों में अपेक्षाकृत अधिक शहद घोलने का प्रयास करती हुई बोली -" बेटी, कहते हुए डरभी लगता है पर अपने दिल के हाथों मजबूर हूँ। बड़े अरमानों से मैंने अपने बेटों का ब्याह किया था। सोचती थी, बहुएं आ जाएंगी तो घर गिरस्ती से छुटकारा मिलेगा। छुटकारा मिल भी गया। जिस होशियारी से तुमने और जया ने इस घर को संभाला है उससे अब मुझे कोई डर नहीं की मेरा घर बर्बाद होगा। मुझे पूरा विश्वाश है, तुम दोनों इस घर को स्वर्ग की तरह सुन्दर बनाए रखोगी। पर बेटी, एक टीस अब भी है जो कलेजे को लहूलुहान करता है। आस -पड़ोस में जब नन्हे मुन्हे बच्चों को किलकारियां मारते देखती हूँ तो मन बेचैन हो जाता है। जया के आए दस बरस से ज्यादा हो गए। पर अब तक माँ नहीं बन सकी है। कृष्ण शंकर था तो आस बंधी हुई थी। पर ऊपर वाले को कुछ और ही मंजूर था। उसे हर कर अपने पास ले गया। बुढ़ापे में बस एक ही चिंता खाए जाती है की इस वंश का क्या होगा। " कहते कहते उसकी बूढी सास सुबकने लगी थी। मीरा का एक मन तो किया की कह दे की ये घडियाली आंसू मेरे सामने मत बहाइए। मैं खूब समझती हूँ की अपने वंश की कितनी फ़िक्र है आपको।पर वह ऐसा न कह सकी। बोली -" माँ जी, विधाता ने जो एक बार भाग्य में लिख दिया सो अमिट है। जो होना था सो हो गया। उसमे फेरबदल करने की शक्ति हमलोगों के हाथ में तो है नहीं। जब किस्मत में यही था की इस वंश को आगे बढ़ने वाला कोई न हो तो यही सही। " अपनी आवाज को तिक्त होने से रोकने के प्रयास में मीरा का चेहरा बुरी तरह विकृत हो गया। वह आँचल में मुह छिपा कर रोने लगी।

" रोती क्यों हो बेटी। तुम्हारा दुःख भी मैं समझती हूँ। भरी जवानी में तुम्हे इस सफ़ेद साड़ी में देखकर मेरा भी कलेजा चूर हो जाता है। अभी तो हंसने खेलने के दिन थे। बुरा न मानो तो एक बात कहना चाहती थी। " मीरा की नजरें ऊपर उठी। उनमे प्रश्न चिन्ह तैर रहा था। पुनः उसकी सास बोली -" बेटी, अगर तुम चाहो तो इस घर के ये हालत नहीं रहेंगे। इस घर में वंश बढाने वाला भी आ जाएगा और तुम्हारे दुःख भी दूर हो जाएंगे। बेटी मैं भी दिल के हाथों मजबूर होकर ये सब कहने की हिम्मत जुटा रही हूँ। मुझे गलत मत समझना। मानती हूँ की तुम कृष्ण शंकर से बहुत प्यार करती थी। लेकिन किसी एक के नहीं रहने से दुनिया नहीं ख़त्म हो जाती। अपनी दुनिया में कांटे मत बोओ बेटी। जो चला गया, उसे तो जाना ही था। पहाड़ जैसा लम्बा जीवन बिना किसी सहारे के नहीं काटा जा सकता। बेटी हम औरतें हैं। लता की तरह होती हैं। अगर सोंगर का सहारा न मिले तो धरती पर छितराकर अपने आपको नष्ट कर लेती हैं। ऊपर उठने का साहस हममे नहीं होता। अगर एक सहारा ख़त्म हो जाए तो दूसरा सहारा ढूंढ लेना ही उचित है। सो मेरी बच्ची, अगर तुम्हारी भावनाओं को ठेस पहुंचे तो मुझे माफ़ करना बेटी। मैं कह रही थी की ........... अगर तुम राहुल से ..... ब्याह कर लेती तो ..........!"मीरा की सास अपना वाक्य अधूरा छोड़कर मीरा के चेहरे के भावों को पढने की असफल कोशिश कर रही थी। मीरा की आँखों से झर-झर मोती झर रहे थे। नियति की यह कैसी विडंबना थी। वह सबकुछ जानते हुए भी निर्वाक थी। निश्चेस्ट सी वह पैर के अंगूठे से फर्श को कुरेदने की असफल चेष्टा कर रही थी।

उसकी सास उठकर जाने लगी। मीरा अब भी चुप थी। दो कदम बढ़कर मीरा की सास ठिठककर बोली -" बेटी, घर की बात है। इस तरह हमारा, तुम्हारा, सबका कल्याण होगा। मेरी बात पर सोचना बेटी। " और वह एक झटके से मीरा के कमरे से बाहर निकल गई। दरवाजे के पार खड़ी जया की आँखे भी बरसने लगी, जाने क्या सोचकर।


4.

कुँए पर कोई न था। मीरा कुँए के जगत पर खड़ी होकर पानी भरने लगी। एक उडती सी नजर उसने मुखिया जी के दालान पर डाली। वहां कोई न था। मीरा के मन में एक अजीब सी हलचल मच गई। पिछले तीन महीने में ऐसा पहली बार हुआ था। गाँव में दो कुँए थे। एक यह और दूसरा गाँव के आखिरी सिरे पर था, विशाल वटवृक्ष के नीचे। गाँव के ज्यादातर लोग इसी कुँए से पानी भरते थे। जब से मीरा ने घर का काम काज संभाला है तब से वह इसी कुँए पर पानी भरने आती है। कृष्ण शंकर को गुजरे पांच साल लगने को आए थे।

पिछले तीन महीने से मीरा ने महसूस किया था की जब भी वह पानी भरने आती, मुखिया जी का छोटा लड़का गोविन्द अपने दालान पर खम्भे से टेक लगाए एकटक उसे ही देखता रहता। तीन महीने से चल रहे इस क्रम में आज व्यवधान पड़ गया।आज गोविन्द वहां नहीं था।

गोविन्द को गाँव आए लगभग साल भर हुए थे। वह बाहर रहकर पढता था। इस साल एम ए में गया था। बड़ा होनहार लड़का था। गरीबों का हमदर्द। गाँव भर में किसी को कोई तकलीफ होती तो वह गोविन्द को ही ढूंढता। हंसमुख चेहरे वाला गोविन्द हर किसी की यथासंभव मदद करता था।

उस दिन वह अपने दोस्त मुकेश के साथ अपने दालान पर बैठा था की उसकी नजर पनघट पर पड़ी। एक अत्यंत रूपवती स्त्री पानी भर रही थी। ऐसा रूप लावण्य उसने न देखा था। शहर में नाम मात्र के वस्त्र पहने अश्लील वार्तालाप करती अनेक छोकरियों से उसका पाला पड़ा थापर इस सद्य स्नात यौवन के सामने उसे वे सब तुच्छ जान पड़ीं। इतने सुन्दर मुखड़े पर वैधव्य की निशानी सफ़ेद साड़ी का पल्लू देख कर उसे दुःख भी हुआ और आश्चर्य भी। इस चेहरे को उसने पहले कभी न देखा था। वह अपने मित्र से पूछ बैठा -"अरे मुकेश, वह जो कुँए पर पानी भर रही है, तू उसे पहचानता है? "

"अरे गोविन्द, पहचानूँगा क्यों नहीं भला ? वह मीरा भाभी हैं।" मुकेश बोला।

"कौन मीरा भाभी?" गोविन्द ने पुनः प्रश्न किया।

"तू मीरा भाभी को नहीं जानता ?" मुकेश के चेहरे पर आश्चर्य था।

"नहीं।"

"अरे गोविन्द, ये कृष्ण शंकर भैया की पत्नी हैं।"

"कृष्ण शंकर भैया .........? पर उनके गुजरे तो पांच बरस हो गए।"

"हाँ, पर मीरा भाभी यहीं रहती हैं। इनके बाबूजी आए थे इन्हें ले जाने के लिए,लेकिन ये नहीं गईं।"

"पर मुकेश, इनकी अभी उम्र ही क्या होगी ? इन्होने दूसरी शादी क्यों नहीं कर ली ?"

"यह तो नहीं पता की इन्होने दूसरी शादी क्यों नहीं की पर गोविन्द, स्त्री हो तो ऐसी। गौने के चार दिन बाद ही कृष्ण शंकर भैया की मृत्यु हो गई थी लेकिन मीरा भाभी ने हिम्मत से काम लिया। गोविन्द, इनके चेहरे पर छाई उदासी से मुझे हमेशा डर लगता है।"

"वो क्यों ?"

"गोविन्द, स्त्री बहुत नाजुक होती है। मीरा भाभी ने पति की मृत्यु का सदमा तो किसी तरह झेल लिया लेकिन इनकी सास दिन रात उनको ताना देती रहती है की -"इसी डायन ने मेरे बेटे को खा लिया।" गोविन्द, जब आदमी को खुद के सृजित अकेलेपन से डर लगने लगता है तो वह अपने जीवन को निरर्थक समझने लगता है। कहीं ऐसा न हो की मीरा भाभी किसी दिन अपने इस अंतहीन अकेलेपन और इस नारकीय जीवन से व्यथित होकर आत्महत्या न कर लें।"

और उस दिन से गोविन्द को मीरा से एक अजीब सा स्नेह हो गया था। जब भी मीरा पनघट पर पानी भरने आती, वह अपने दालान पर टेक लगाए एकटक उसे देखता रहता। मन अजीब से सपनो में खो जाता था।

उसी गोविन्द को आज अपने दरवाजे पर खड़े ना देखकर मीरा का मन भी उद्विग्न हो उठा। उसके मन में भी गोविन्द के प्रति एक अजीब सा खिंचाव उत्पन्न हो गया था। पानी भरकर वह कड़ी हो गई। एक मन कहता था की जाकर देखूं, पर दूजा मन लोक लज्जा के भय से अपने पाँव वापस खींचने पर विवश कर देता था। अनजाने सपनों में खोई मीरा के पाँव मुखिया जी के दालान की और बढ़ चले।

दरवाजे पर पहुँच कर वह ठिठकी। मन किया की वापस लौट जाए पर ह्रदय के हाथों मजबूर वह आगे कदम बढाती चली गई। दरवाजा खोलकर वह आहिस्ते से आँगन में आ गई। आँगन में गोविन्द की माँ गेहूं साफ़ कर रही थी। अपने पीछे किसी की आहात पा वह पीछे मुड़ी। मीरा को कड़ी देखकर वह ख़ुशी से बोली -"अरे बहू तुम। आओ - आओ, पहली बार हमारे घर आई हो। आओ- बैठो।"

गेहूं फटकना छोड़कर वह मीरा को अपने कमरे में ले गई। सकुचाई हुई सी मीरा पलंग पर बैठ गई। बोली -" माँ जी, घर में अकेले में जी घबड़ाता था सो.......!"

"अरे अच्छा किया बहू। कृष्णशंकर था तो वह भी बराबर आता रहता था। उसे सरसों का साग बहुत पसंद था। मैं जब भी बनाती थी तो उसे बुलाकर जरूर खिलाती थी। इसे अपना घर ही समझो बहू ....... जब मन न लगे आ जाया करो। मैं भी अकेली घर में बैठे बैठे तंग हो जाती हूँ। दोनों बड़े बेटे परदेश क्या गए, अपनी पत्नियों को को साथ ले गए। अब गोविन्द बचा है। इसकी भी शादी, सोचती हूँ कर ही दूं। बहू आ जाएगी तो मेरा भी मन लगा रहेगा। "

"गोविन्द नजर नहीं आ रहे। कहीं बाहर गए हैं क्या ? सुना है बाहर से बहुत पढ़कर आए हैं। "

"हाँ बहू।" गोविन्द की माँ एक दीर्घ निस्वास भरकर बोली -"इस बार एम् ए में नाम लिखवा कर आया है। मैं अकेली थी सो इसे यहाँ बुला लिया। मुखिया जी को तो अपने काम से फुर्सत ही नहीं मिलती। अब मेरा शरीर हाट-बाजार करने लायक रहा नहीं। कोई देखने वाला भी तो चाहिए। यही सोचकर मैंने गोविन्द को यहाँ बुलवा लिया।अभी कहीं घूमने गया होगा।"

"माँ जी, अब मैं चलती हूँ, देर हो रही है। " मीरा उठ गई।

"ठीक है बहू, पर आती जाती रहना। मेरा भी मन लगा रहेगा। इसे अपना ही घर समझना बहू।"

"जी माँ जी।"

मीरा उठकर अभी दालान पार कर ही रही थी की तभी गोविन्द भी दालान पर पहुंचा। मीरा चल पड़ी।पनघट पर पहुंचकर उसने अपना घड़ा उठाया और घर की और चल पड़ी। एक उडती सी नजर उसने मुखिया जी के दालान पर डाली। गोविन्द अब भी वहीँ खड़ा एकटक इसी तरफ देख रहा था। मीरा तेज क़दमों से अपने घर की चल पड़ी।

गोविन्द ज्यों ही अपने दालान पर पहुंचा, मीरा को अपने घर से निकलता देख वह असमंजस में पड़ गया। दिल में सैकड़ो सवाल हलचल मचने लगे। मीरा अब उसकी आँखों से ओझल हो चुकी थी। एकाएक माँ की आवाज सुन उसकी तन्द्रा भंग हुई।

माँ कह रही थी -" क्या देख रहा है गोविन्द ? वो मीरा है, कृष्ण शंकर की पत्नी। बेचारी। बड़ी नेक लड़की है। पर भगवान् से इसका सुख देखा नहीं गया शायद। तेरे बारे में ही पूछ रही थी। घर में अकेले मन नहीं लग रहा था सो मेरे पास चली आई।"

"क्यों, हैं तो उसके घर में भी लोग। मेरे बारे में क्या पूछ रही थी ?" गोविन्द के चेहरे पर असमंजस अब भी बरक़रार था।

"अरे बेटा, पूछेगी क्या; कह रही थी की सुना है गोविन्द बाबू बाहर से पढ़कर आए हैं तो मैंने भी कहा हाँ।"

"और क्या कह रही थी ?" गोविन्द आँगन में रखे खाट पर बैठ गया। उसकी माँ वहीँ पीढ़े पर बैठ गई।

"और कुछ नहीं पूछा बेचारी ने।"

"बस इतना ही पूछा ?"

"हाँ।"

"ठीक है माँ, जरा खाना निकालो, बड़े जोरों की भूख लगी है।"

"अरे बेटा, मुझ बुढ़िया से कब तक खाना निकलवाएगा? इसीलिए तो कहती हूँ की तू जल्दी से ब्याह कर ले, कम से कम मुझे तो छुटकारा मिले।"

"ठीक है माँ, मैं ब्याह कर लूँगा पर ये तो बताओ की तुम्हें बहू कैसी चाहिए ?"

"कहूं बेटा; मुझे तो तू बिलकुल मीरा जैसी बहू ला दे। कितनी सुन्दर है मीरा। मीठी बोली। काम धंधे में निपुण। पढ़ी लिखी भी है।"

"माँ अब ऐसी लड़की तो मिलनी मुश्किल है। उपरवाले ने एक ही बनाई थी और उसे कृष्णशंकर भैया ले गए। पर एक बात कहूं माँ ....?"

"कहो।"

"अब मीरा भाभी जैसी दूसरी लड़की मिलनी तो मुश्किल है तो मैं ऐसा करता हूँ की मीरा भाभी से ही शादी कर लेता हूँ।"

"धत्त पगले। तू जानता नहीं। मीरा के बाबूजी कहते कहते थक गए पर वह टस से मस नहीं हुई। वो भला तुझसे शादी करेगी ?"

गोविन्द कुछ नहीं बोला। अपने मन की बात वह माँ से अप्रत्यक्ष ही सही पर कह गया था। पर कोई विपरीत प्रतिक्रिया न होते देख उसे ख़ुशी हुई। उसे दर था की विधवा स्त्री से विवाह की बात सुनकर शायद माँ भड़क न जाए। पर उसका यह शक नाजायज निकला। माँ खाना लगा चुकी थी। खाना खाते वक़्त गोविन्द की आँखों के आगे मीरा का ही चेहरा नाच रहा था।


5.

"क्यों, देह से देह रगड़ने गई थी गाँव के छोकरों के संग! शर्म -हया तो सब घोल के पी गई है तू। हाय भगवान, किसकुलच्छिनी को मेरे घर की बहू बनाकर भेज दिया। एक तो मेरे बेटे को खा गई; दूजे अब गाँव के आवारा लड़कों के संग नैन -मटक्का करती फिरती है। इतनी ही गर्मी थी बदन में तो चली क्यों नहीं गई अपने बाप - भाई के साथ। बड़ी सती -सावित्री बनी फिरती है। अब जब जवानी नहीं सही जा रही तो रंडी बनी फिरती है। मेला घूमने जाती है। कौन लगता है वो मुखिया का बेटा तेरा- यार ? कुछ तो शर्म कर लेती अपने खानदान का। मेरा बड़ा बेटा क्या बुरा था तेरी गर्मी उतारने के लिए। लेकिन नहीं ..... उस दिन तो तूने उसे चाक़ू भोंक दिया ... और आज क्या कर के आई है ...... उस गोविन्द और उसके आवारा दोस्तों के साथ मुह काला करके ? डायन..... जब तुझे यही करना था तो चली जाती कृष्ण शंकर के मरने के बाद अपने बाप के घर ..... कोई जवान लौंडा देखकर करवा देता तेरी शादी .... लेकिन हे भगवान् ..... जब मेरे भाग में ही यही सब बदा था तो दैव क्या करते।"

मीरा बदहवास सी चुपचाप फर्श पर बैठी थी। आँखों से गंगा -जमुना की धाराएं फूट रही थी।गोरा मुखड़ा शोक, लज्जा, ग्लानि और भय से काला पड़ गया था। जया उसे चुप करने की चेष्टा कर रही थी। सूर्य देव अपनी आभा समेटते निशा के आगमन की सूचना देने लगे थे।

"मांजी, ऐसा कौन सा अपराध कर दिया मीरा ने जो आप उसे इतना उलहन- उपराग दे रही हैं। मेला देखने जाना कोई इतना बड़ा अपराध तो नहीं जिसके लिए आप इस तरह का लांछन लगा रही हैं।" जया अपनी भावनाओं को रोक नहीं पाई। मीरा अब भी चुप थी। मस्तिष्क में जैसे विचारों का बवंडर चल रहा था।

"तू बीच में मत बोल जया। तू क्या जानती है की इसने क्या किया है। मैं एक महीने से देख रही हूँ इसकी चाल ढाल। बहुत उड़ने लगी है यह। उस मुखिया के बेटे गोविन्द ने जाने कौन सा जादू कर दिया इस पर। जब मौका मिलता है चट पहुँच जाती है उसके घर। पता नहीं क्या गुल खिलाती होगी वहां। और जरा तू मुझे ये बता, अगर मेला देखने का इतना ही शौक था तो तुझे क्यों नहीं ले गई अपने साथ। पर नहीं, इसे तो मौका चाहिए था, उस गोविन्द के साथ गुलछर्रे उड़ाने का। "

मीरा वहां बैठी न रह सकी। वह उठी, दौड़ती हुई अपने कमरे में आकर दरवाजा बंद कर, दहाड़ें मारकर रो पड़ी। दरवाजे पर खड़ी जया दरवाजा पीटती रही पर उसने दरवाजा न खोला!

उस दिन शिवरात्रि थी। गाँव के पूर्वी छोर पर भगवान् शिव का एक विशाल मंदिर है। शिवरात्री के दिन वहां बहुत बड़ा मेला लगता है।आसपास के दस गाँव के लोग इस मेले में शामिल होते हैं। मीरा सुबह-सुबह अपने घर के सारे काम निपटा कर गोविन्द की माँ के पास बैठी हुई थी। गोविन्द की माँ मेला जाने की तैयारी कर रही थी।

"बहु, तुम भी चलो हमारे साथ। " गोविन्द की माँ ने मीरा से कहा था।

"मैं........?"

"हाँ तुम ...! क्यों ... मेला घूमना अच्छा नहीं लगता। "

"नहीं माँ जी .....ऐसी बात नहीं .... लेकिन मैं न जा सकूंगी। " मीरा भविष्य की अनिश्चितता शायद जानती थी। उसके अंतर्मन की व्यथा शायद ही कोई समझ सकता था।

"देखो बहु, इस तरह घर में खुद को चारदीवारी के अन्दर बंद कर लेना ठीक नहीं है। घर के बाहर भी दुनिया है। वहां से बाहर निकलो और अपने मन को हल्का करो। धधकती हुई आग तो भयानक होती ही है बहु, अगर कहीं लग जाय तो हजारों जानें उसमे स्वाहा हो जाती हैं। लेकिन उस राख से दबी उस आग का क्या जो मनुष्य के ह्रदय की परतों में दबी रहती है। ऊपर से शीतल लेकिन अगर कोई छूने की चेष्टा करे तो भभक उठती है। बहु, यह दुनिया किसी को सही नहीं ठहराती है। अगर तुम सही हो तब भी किसी न किसी की नजर में गलत हो; और अगर तुम गलत हो तब भी तुम किसी न किसी की नजर में सही हो। अपनी पीड़ा को और मत बांधे रखो बहु, इस उद्वेग को नष्ट हो जाने दो। "

मीरा कुछ नहीं बोली। लौटकर वापस घर आ गई। दोपहर बाद वह तैयार होकर गोविन्द की माँ के साथ मेला देखने चली गई। गोविन्द भी साथ था। किन्तु जैसे जैसे वह वापस लौटकर घर की तरफ बढ़ रही थी वैसे वैसे उसका ह्रदय किसी अनजानी आशंका से सहमा जा रहा था। और वही हुआ। आँगन में कदम रखते ही उसकी सास फूट पड़ी।

आसमान बिलकुल साफ़ था। मीरा के कमरे की खुली खिड़की से झांकता, श्वेत आभा बिखेरता चाँद मानो मीरा की व्यथा का शोक मना रहा था। टिमटिमाते हुए तारे जैसे उस शोकातुर चाँद को अपनी टिमटिमाहट से धैर्य बंधाने की चेष्टा कर रहे थे। पर हाय रे दैव, धरती पर इस विरहिणी यक्षिणी के आंसूं पोंछने वाला कोई न था। रात का अँधियारा और मीरा की सिसकियाँ; बस यही थे जो मौजूद थे। एक तो अँधियारा जो किसी को दिखाई न दे और दूजा मीरा के आंसू, जिसे वह किसी को दिखाना नहीं चाहती थी।

काश आज कृष्ण शंकर जिन्दा होता। अपनी संगिनी की यह दुर्दशा शायद वह भी नहीं देख पाता! पर जब कृष्ण भी अपनी प्रियतमा राधा से नहीं मिल सके तो फिर मीरा से कृष्ण शंकर कैसे मिलता। भाग्य की शापित मीरा आमरण इस दुःख की भोक्ता बनेगी। क्या विधवा होना पाप है? या फिर यह पाप है की कोई विधवा फिर से जीवन को प्रेम के पल्लवित पुष्पों से सजाने की चेष्टा करे। यह निर्दयी समाज उस पुष्प को पल्लवित होने से पहले ही मसल देता है। नियम जीवन को सुरक्षित और सरल बनाने के लिए होते हैं। अगर नियम से जीवन ही बंधने लगे, जीवन का सौन्दर्य ही नष्ट होने लगे तो ऐसे नियम को तोड़ देना ही उचित है।

हाँ; मीरा के मन में प्रेम का अंकुर फूट पड़ा था। किन्तु उसने कुछ भी अनैतिक नहीं किया। वह अपना सम्मान, अपनी मर्यादा किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहती। मानव मन भी कितना व्यसनी है। मायूस और दुखी मन को जहाँ भी अपनत्व और प्रेम की छाया मिल जाती है वह वहीँ खिंचा चला जाता है। मीरा के अकेलेपन को गोविन्द की माँ के अपनत्व ने जैसे ही अपने स्नेहपूर्ण हाथों से संभाला; मीरा जैसे अपना सारा दुःख, दर्द, चिंता, विरह भूल गई। वह किसी के अंधे प्रेम में पागल होने वाली पतिता नहीं है। उसने तो निःस्वार्थ उत्सर्ग किया अपने स्नेह और अपनत्व का। पर नियति किसी की सगी नहीं होती।

रात आधी बीत चुकी थी, पर मीरा की आँखों में नींद का नामोनिशान नहीं था। निश्चेष्ट सी वह बिस्तर पर पड़ी थी। झींगुरों की कर्कश आवाज वातावरण की भयावहता को और भी बढ़ा रही थी। झरना आज कुछ ज्यादा ही हहरा रहा था। शायद मीरा का दुःख उससे भी देखा न गया था। अभी कुछ देर पहले ही चौकीदार की गांजे की पिनक से लडखडाती हुई आवाज गूंजी थी -" जागते रहो" मीरा सूनी आँखों से छत को निहारे जा रही थे। वह एकाएक उठी। दरवाजा खोला। दबे पाँव आँगन से बाहर आई और मुखिया जी के दालान की और बढ़ गई।

गोविन्द को जैसे ही उसकी माँ ने बताया की मीरा भी चल रही है मेला घूमने तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। वह तुरंत जीप निकाल लाया। फ़टाफ़ट तैयार होकर माँ का इन्तजार करने लगा। मीरा गोविन्द की माँ के साथ पीछे बैठी। गोविन्द और उसके दोस्त आगे बैठे। गोविन्द रास्ते भर मीरा से बात करने की चेष्टा करता रहापर मीरा कोई जवाब नहीं दे रही थी। पर गोविन्द को चैन कहाँ था। वह सिर्फ एक बार मीरा से बात करना चाहता था।

पर हाय रे गोविन्द की किस्मत। मीरा ने उससे बात ही नहीं की। बिस्तर पर लेटा वह दिन भर के घटनाक्रम को सोच रहा था। उसकी आँखों की नींद उडी हुई थी। अचानक ही उसे एक हलकी सी पदचाप सुनाई पड़ी। वह चौंक गया। चुपके से दरवाजा खोलकर वह आँगन में आ गया। सुनने की चेष्टा करने लगा की आवाज किधर से आई है तभी उसने चांदी की चूड़ियों की हलकी खनखनाहट सुनी। वह दालान की और बढ़ता चला गया।

मीरा मुखिया जी दालान पर आकर ठिठक गई। रे पागल मन; क्यों तू बावरा है। जिसकी दिनभर की चेष्टा को तूने विफल कर दिया अब उसी के पास क्यों खिंचा चला आया है। मीरा के गालों पर दो मोती ढलक आए। साड़ी के पल्लू से उसने उन्हें वहीँ जज्ब कर दिया। फिजां में चूड़ियों की हलकी खनखनाहट गूँज गई। वह वहां से चल पड़ी। लम्बे डग भरते वह एक निश्चित रास्ते पर बढती चली गई। और कुछ ही पलों बाद वह झरने के पास खड़ी थी। रात के अँधेरे में खिला चाँद झरने पर अपनी सफ़ेद रौशनी की चादर बिछाए हुए था। दूर दूर तक सिर्फ झरने के अविरल रुदन की ही आवाज गूँज रही थी। मीरा एक पल ठिठकी और फिर झरने की अथाल जलराशि में समा गई।

एक हिचक के साथ गोविन्द ने दालान का दरवाजा खोला। सफ़ेद कपड़ों में लिपटा एक साया उसे दूर जाता नजर आया। धवल रौशनी से नहाए हुए उस साए के गंतव्य की कल्पना से वह सिहर उठा। वह दौड़ता हुआ उस साए के पीछे भगा। अँधेरे में दौड़ते हुए अचानक ही एक पत्थर से ठोकर खाकर वह गिर पड़ा। मुह से एक चीख निकली। दूर आवाज लगाता चौकीदार दौड़ा आया। लालटेन की रौशनी में देखा तो गोविन्द का सर फूट गया था। वह बेहोश हो गया था। थोड़ी देर बाद उसे होश आया।

"मीरा भाभी कहाँ है ?" होश में आते ही ग्विंद ने चौकीदार से पूछा।

"हमको नहीं पता गोविन्द भैया ....... हम तो आपकी चीख सुन कर दौड़े आए।"

गोविन्द एक झटके से खड़ा हो गया।

"जल्दी से गाँव वालों को झरने पर बुला लाओ।" कहकर वह झरने की तरफ दौड़ गया।

थोड़ी ही देर में पूरा गाँव झरने पर जमा था। चौकीदार के मुह से यह सुनकर की मीरा ने आत्महत्या के इरादे से झरने में छलांग लगा दी है और गोविन्द भी उसके पीछे गया है, कुछ हिम्मती नौजवान उन्हें दूंधने झरने में कूद गए। वो अब भी गोविन्द और मीरा को तलाश करने की चेष्टा कर रहे थे। तभी गोविन्द अपने हाटों में मीरा को संभाले पानी से बाहर आया। मीरा जिन्दा थी पर बेहोश। वैद्य जी के परिश्रम से मीरा को होश आया। गोविन्द उठा।

मीरा के पास जाकर पूछा -" क्यों ...?"

और मीरा रो पड़ी। शायद गोविन्द ने उसकी आँखों से बहते आंसुओं में अपने क्यों का जवाब पा लिया।

मीरा का हाथ पकड़कर वह अपने घर की तरफ चल पड़ा। पूरब धीरे धीरे रक्तिम हो रहा था। अँधेरा छंट गया था। सूर्य की किरणों का साहचर्य पा कलियाँ मुस्का रही थीं।