पनाह / एक्वेरियम / ममता व्यास
कोई भी बीज हो। कहीं से भी आया हो। कितनी भी यात्रायें कर ले। कितना बड़ा, विशाल कद हो जाये उसका, लेकिन उसके भीतर एक बेचैनी, बेताबी, बेकरारी, एक अनबुझी प्यास बनी ही रहती है। वह वापस वहीं चले जाना चाहता है जहाँ से उसका जन्म हुआ था। जहाँ वह टूट कर फिर नया हो गया था। जितने भी बड़े बरगद दिखते हैं ना। कभी कान लगाकर सुनना, इक सिसकी हमेशा सुनाई देती है। वापस बीज बन जाने की आस दिखाई देती है। जीवन में जिसने जितनी यात्रायें कीं, जितना प्रेम किया वह दरअसल खुद की ही खोज थी। जैसे आसमानों में, बादलों में कोई किरण भटकती है। जैसे धरती के अन्दर बीज भटकता है। समय के भीतर कोई लम्हा। जैसे कोई दीवाना किसी गली में अपनी मोहब्बत खोजता है। गली से फिर गांव फिर नगर और फिर महानगर तक उसकी खोज जारी रहती है। वह जिस्मों में भटकता है और भटक-भटक कर अपनी सच्ची मोहब्बत खोजता रहता है। पर सफर खत्म नहीं होता, ना खोज, फिर वह रूह में भटकना शुरू कर देता है। कभी किसी की आँख से गिर जाता है, कभी किसी के दिल से। तो कभी क्रोध में खुद ही झटक दी अपने जिस्म और रूह की मिट्टी और फिर नया हो गया।
वो देखो-फिर किसी धरती की आवाज पर उसके थके-थके कदम फिर उठने लगे। अबकी बार वह कहता है, मैं पेड़ बनकर थक गया। इतने फूलों, फलों, पत्तियों और अनगिनत शाखाओं के बोझ से मैं थक गया। देख लीं ऊंचाइयाँ मैंने आसमानों कीं और देख लीं गहराइयाँ धरती की भी। अब नहीं, कुछ भी नहीं। अब फिर से वही नन्हा बीज बन जाना चाहता है। पवित्र, निश्छल, हल्का, बंद-सा।
गुलजार ने इस भटकन को बहुत सुन्दर शब्दों में बांधा है। तुम्हारी रूह में अब, जिस्म में भटकता हूँ। लबों से चूम लो, आंखों से थाम लो मुझको। तुम्हारी कोख से जन्मू तो फिर पनाह मिले।
वो पनाह कहाँ मिलेगी? ये उसकी तलाश है। हर वह चीज वहीं गुम हो जाएगी इक दिन जहाँ से वह आई है। हम उसी से मोहब्बत करते हैं जिसके भीतर हम लापता हो जाना चाहते हैं, बाकि तो सारे खेल हैं मन बहलाने के.
विलोम नहीं होता किसी चीज का...लो मान लेते हैं लेकिन अंधेरी रात और उजाले दिन के बीच, ठंडे चांद और गरम सूरज के बीच और धरती-आसमान के बीच जो इक खिंचाव है क्या उसका कोई मोल नहीं? जाते दिन और आती रात के बीच, आते सूरज और जाते चांद के बीच, झुकते आसमान और उठती धरती के बीच जो सदियों से आकर्षण है उसका कोई मोल नहीं? धरती, सब जानती है, उसे पता है उस पर उगा हुआ पेड़ चाहे कितना भी ऊंचा उग ले इक दिन फिर उसमें ही पनाह खोजेगा।
पेड़ को क्यों दुख है कि वह अब सिर्फ़ परछाईं है? क्या वह नहीं जानता की परछाईं तो बाहर तब ही पड़ती है ना, जब भीतर असल चीज मौजूद हो। धरती के भीतर या हमारे मन के भीतर जो सदियों से रहता आया है, हमें उसकी परछाईं ही बाहर दिखती है। जिसने ये राज जाना। पनाह उसी को मिली। जो पनाह नहीं पाते वह जीवनभर गुनाह ही करते जाते हैं।
(गुलजार को पढ़ते हुए)