परख / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
कजरी को बेचने के बाद त्रिलोचन अपनी उदासी नहीं छुपा सका था। सूना खूँटा देखकर राधा भी कुरलाती रह गई परन्तु बापू के सामने कुछ कहने की हिम्मत न जुटा पाई थी।
शाम होते ही कजरी रस्सा तुड़ाकर किसना के यहाँ से भाग आई. त्रिलोक को देखकर कजरी ने थूथन ऊँची करके रंभाना शुरू कर दिया। त्रिलोक ने पास आकर उसकी पीठ पर हाथ फेरा तो वह आश्वस्त होकर कूंड के पास बिखरी सूखी घास को सपड़–सपड़ खाने लगी।
सहकारी समिति का कर्जा चुकाने का नोटिस न मिला होता तो वह कजरी को कदापि न बेचता और अब...कजरी लौट आई है। पैसे लौटाने पड़ेंगे। कर्ज चुकाने के लिए कोई दूसरा तरीका ढूंढना पड़ेगा।
तभी किसना भी पीछे–पीछे आ पहुँचा–"भाई त्रिलोक, तुम्हारी गाय को काबू में रखना मेरे बस का नहीं। सुबह से हरी बरसीम इसके आगे पड़ी रही पर इसके मुँह तक नहीं मारा।"
"आदमी ही नहीं जानवर भी प्यार का भूखा होता है किसना। तुम क्या समझोगे–मैंने कजरी को कैसे पाला है? अपनी बच्ची की तरह पाला है।" त्रिलोक ने अण्टी से पैसे निकालकर देते हुए कहा–"अपने रुपये गिन लो।"
किसना ने जेब में रुपये रखते हुए बात बढ़ाई–"सुबह तुम राधा बिटिया के रिश्ते के लिए कह रहे थे न? मैंने अपने बेटे से पूछ लिया है। वह तैयार हो गया है।"
"पर मैं तैयार नहीं हूँ इस रिश्ते के लिए्।"
किसना भौचक्का रह गया–"लेकिन सुबह तुमने ही तो कहा था बात चलाने के लिए।"
"सुबह की बात और थी।" त्रिलोक बोला। उसकी दृष्टि कजरी की ओर उठी। राधा भी न जाने कब चुपचाप आकर गाय की गर्दन सहलाने लगी थी। दोनों की आँखों में उसे एक ही जैसी तरलता नज़र आई. फिर आँखों के आगे दोनों चेहरे गड्मड होकर एक ही जैसे लगने लगे।
"फिर सोच लो।" -किसना बोला।
"अच्छी तरह सोच लिया है।"
कजरी ने तब तक अपनी झाग- भरी थूथन त्रिलोक के कंधे पर टिका दी थी।