परतदार स्मृतियों के खेल / जयप्रकाश चौकसे
परतदार स्मृतियों के खेल
प्रकाशन तिथि : 04 अगस्त 2012
अमेरिका के कोलोरेडो शहर में क्रिस्टोफर नोलन की फिल्म 'द डॉर्क नाइट राइजेज' के प्रदर्शन के दरमियान एक विक्षिप्त व्यक्ति ने परदे के सामने खड़े रहकर अंधाधुंध गोलियां चलाकर १२ लोगों की हत्या कर दी और ५८ व्यक्तियों को गंभीर रूप से घायल कर दिया। इस दु:खद घटना के बाद निर्माता ने फिल्म का प्रीमियर निरस्त कर दिया, अर्थात सितारे नहीं गए, परंतु फिल्म का प्रदर्शन जारी रहा। उस पागल आदमी के पास कोई कारण नहीं था, बतर्ज मुन्नाभाई यह दिमाग में 'केमिकल लोचा' था। उसका फिल्म से कोई विरोध नहीं था। फिल्म ने अमेरिका और कनाडा में पहले सप्ताह १६२ मिलियन डॉलर कमाए, जो बॉक्स ऑफिस इतिहास में तीसरे नंबर पर हैं।
वार्नर ब्रदर्स स्टूडियो की फिल्म 'गैंगस्टर स्क्वाड' ७ सितंबर को प्रदर्शित होने जा रही है और उसमें एक दृश्य है, जिसमें सिनेमा के परदे के सामने खड़ा रहकर एक व्यक्ति गोलियां चलाता है। यह फिल्म का दृश्य है और कोलोरेडो की घटना के पहले इसकी शूटिंग हो चुकी थी तथा पटकथा दो वर्ष पहले लिखी गई थी। यह महज इत्तफाक है। अब वार्नर के अध्यक्ष के सामने यह समस्या है कि क्या उन्हें अपनी फिल्म से वह दृश्य निकाल देने चाहिए और रीशूटिंग करके कोई विकल्प प्रस्तुत करना चाहिए या फिल्म का प्रदर्शन कुछ महीनों के लिए टाल देना चाहिए। या फिर उन्हें दर्शक की स्मृति से यथार्थ में हुई दुर्घटना का प्रभाव कम होने पर अपनी फिल्म का प्रदर्शन करना चाहिए। इस दुविधा से निर्माता जूझ रहा है। उनके एक विशेषज्ञ ने राय जाहिर की है कि फिल्म का दृश्य बदलने से फिल्म का प्रभाव समाप्त हो जाएगा, वरन इसी दृश्य के कारण अधिक दर्शक फिल्म देखने आएंगे।
ज्ञातव्य है कि मनमोहन देसाई ने अमिताभ बच्चन अभिनीत 'कुली' के प्रिंट्स में अमिताभ के घायल हो जाने वाली फ्रेम को फ्रिज कर दिया था और परदे पर लिखा होता था कि इसी शॉट को लेते समय अमिताभ बच्चन को जानलेवा चोट लगी थी। इस दृश्य के कारण 'कुली' ने अधिक व्यवसाय किया। अवाम का अवचेतन रहस्यमय है। मुंबई में आतंकवादी हमले झेल चुके स्थलों पर पर्यटक भारी संख्या में आते रहे। जिस होटल में गोलियां दीवार में धंसी थीं, उन स्थानों के चारों ओर लकड़ी की फ्रेम लगा दी, मानो एक पेंटिंग को फ्रेम में जड़ दिया गया हो। पर्यटक इन 'पेंटिंग्स' को भारी संख्या में आकर देखते रहे हैं और मुझे कुमार अंबुज की कविता 'उजाड़ का सौंदर्य' की याद दिलाते रहे हैं। हमारी तमाशबीन होने की प्रवृत्ति की हद यह है कि हम दुर्घटनाओं पर भी तमाशे रच लेते हैं।
कुछ समय पहले ओनिडा टीवी का विज्ञापन था 'ओनर्स प्राइड, नेबर्स एन्वी' और घृणा का सांप टूटे टेलीविजन पर आ बैठता था। यह एक जुगुप्सा जगाने वाला विज्ञापन था, परंतु ओनिडा की बिक्री बढ़ाने में सफल हुआ था। मनुष्य मन अजीब है। याद आती है धर्मवीर भारती की 'प्रमथ्यु गाथा', जिसमें अवाम के भले के लिए ज्ञान की रोशनी लाने वाले को जनता चौक में बांध दिया जाता है और एक गिद्ध उसके हृदय पिंड को खाता है और प्रतिदिन नया हृदय आता है, जिसे वह खाता है। प्रमथ्यु को अपने हृदय के चबाए जाने से ज्यादा दर्द इस बात से होता है कि आम जनता इसे तमाशा मानकर देखती है और तालियां बजाती है।
लोगों की रुचियां अजीब होती हैं। मनुष्य की खोपड़ी के आकार के मग्गों में बीयर समेत विभिन्न पेय पीते हैं। जब रामगोपाल वर्मा 'के सरा सरा' के साथ फिल्में बनाते थे, तब उनके दफ्तर को अंधेरी गुफा का आकार दिया गया था और भित्तियों पर डरावनी आकृतियां बनी थीं। दफ्तर में प्रवेश करते ही लगता था कि उनके 'भूत' के सेट पर आ गए हैं। किशोर कुमार जैसे सुरीले गायक और हंसमुख व्यक्ति को हॉरर फिल्में देखने का शौक था और उनके पास सैकड़ों हॉरर फिल्मों के वीडियो कैसेट्स थे। उन्होंने अपने विशेष कक्ष में टेलीविजन दीवार के ऊपरी हिस्से पर लगाया था और वह लेटकर हॉरर फिल्में देखते थे। मनुष्यों की यह विविधता ही जीवन को रोमांचक बनाती है। सब एक जैसे होते तो जीवन ऊब भरा होता। कुछ राजनीतिक दल विचारों में रेजिमेंटेशन लाना चाहते हैं कि सब एक-सा सोचें, गोयाकि आदमी नहीं, वे मात्र संख्या हैं।
यह अनुमान है कि वार्नर ब्रदर्स की 'गैंगस्टर स्क्वाड' अपने मूल रूप में ही प्रदर्शित होगी और लोग देखेंगे भी। कहा जाता है कि जनता की स्मृति क्षीण होती है। लोग जल्दी भूल जाते हैं। मनुष्य के जीवन में याद रखने से भूल जाना अधिक लाभप्रद होता है। जीवन में अनेक दुख हैं, जिनहें भूलकर ही आगे बढऩा पड़ता है। संभवत: स्मृतियां परतदार होती हैं और कुछ चीजें भीतरी परतों पर हमेशा के लिए अंकित हो जाती हैं। मनुष्य स्मृतियों को ताश के पत्तों की तरह फेंट भी सकता है। कभी कुछ ऊपर आता है और कभी कुछ और। सामूहिक स्मृति में परतें होती हैं। विभाजन जैसी त्रासदी को भी किसी भीतरी परत में दबाकर राष्ट्र आगे बढ़ा है।
राष्ट्र की यादों का भी चरित्र ऐसा ही होता है। राजनीतिक दल राष्ट्रीय स्मृति के पत्तों को अपनी सुविधानुसार फेंटते हैं। हर देश में अनेक देशों के लोग आकर बसते हैं और उनके साथ उनके मूल देश की स्मृति भी आती है, परंतु समय के साथ वह निचली सतह पर चली जाती है। किसी भी देश में उसी देश की जमीन के बाशिंदे नहीं होते। भारत में आर्य भी बाहर से आए हैं, परंतु वे भारतीय हैं। यह रियायत कुछ लोग ले लेते हैं, परंतु किसी अन्य को नहीं देना चाहते। मनोरंजन जगत के क्रियाकलाप में राष्ट्र की प्रवृत्तियों का प्रभाव पड़ता है।