परदे के पट खोल तोहे पीव मिलेंगे / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :29 जून 2017
सत्य,समता,समानता जैसे महान जीवन-मूल्यों में विश्वास करने वाले संत कवि कबीर ने लिखा है, 'परदे के पट खोल तोहे पीव मिलेंगे, झूठ वचन मत बोल तोहे पीव मिलेंगे।' एक सत्ताधारी व्यक्ति ने, जिन्होंने शायद कबीर का नाम भी नहीं सुना होगा, अघोषित फरमान जारी किया है कि उनके प्रदेश की महिलाओं को घूंघट प्रथा का पालन करना चाहिए। दरअसल, शासन करने के जिस काम के लिए अवाम ने उन्हें मत दिए हैं, वे काम वे करना ही नहीं चाहते और ध्यान बंटाने के लिए अनावश्यक मुद्दे खड़े करते रहते हैं जैसे कोई दंत मंजन बेचने के लिए प्रचार में यह कहें कि इस दंत मंजन के प्रयोग से दांत शक्तिशाली होंगे और आप इतने बलवान हो जाएंगे कि उस चीनी सैनिक टुकड़ी को खदेड़ देंगे, जिसने चंद घंटे पूर्व ही आपकी कुछ एकड़ जमीन हड़प ली है। ज्ञातव्य है कि कुछ इसी तरह का दृश्य राज कपूर की 'श्री 420' नामक फिल्म में भी था।
महिलाओं के लिए घूंघट धारण करने का फतवा दरअसल महिला के खिलाफ सदियों से जारी दमन नीति का ही हिस्सा है। संभवत: मनुष्य जब शिकारी था उस युग में ही यह स्पष्ट हो गया था कि स्त्री का निशाना अचूक है और उसके शरीर में चीते-सी चपलता भी है। अपनी कमजोरी से परिचित चालाक पुरुष ने स्त्री के लिए दोहरे मानदंड रखे और उसे धर्म से जोड़ने के लए संस्कार शब्द का सहारा लिया। संस्कार के नाम पर उसे अपनी स्वाभाविक शक्तियों से अनजान बनाए रखने की साजिश थी। यह भी संभव है कि इस षड्यंत्र के पहले चरण में पुरुष ने आईने का प्रयोग इस तरह किया, 'हे स्त्री तुम आईने में अपने रूप निहारों और रूप गर्विता बनकर अपनी शक्तियों के ज्वालामुखी को हमेशा सुषुप्त अवस्था में ही रखो।' विशेषज्ञ की राय है कि महान भारत भूमि इसी तरह के सुषुप्त ज्वालामुखियों पर स्थित है। क्या हम चिरकाल सुषुप्त अवस्था में रहने के लिए शापित हैं? इतने अभाव, अतनी असमानता, इतने किसानों और छात्रों की आत्महत्याएं भी यह सुषुप्त जमीन सह लेती है। भारतीय व्यक्ति के शॉकप्रूफ होने का रसायन समझ से परे है। सदियों तक हमने विदेश हुक्मरानों के अन्याय सहे और राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भी अन्याय सहते रहते हैं। धरती ने अपनी सारी सहनशीलता भारतीयों को प्रदान कर दी है।
घूंघट के प्रति इस आग्रह का कारण हमारी कमतरी है। महान लेखिका सिमान द ब्वॉ ने कहा है कि अगर स्त्री बुर्जुआ समाज के सारे तामझाम, परदे और आवरणों से मुक्त होकर अपने स्वाभाविक सौंदर्य के साथ खड़ी हो जाए तो पुरुषों के पैर भय से कांपने लगेंगे। उसे ढंकते रहने में ही पुरुषों की कमजोरियों पर घूंघट डला रहेगा। असल घूंघट तो पुरुष की पंगु विचारधारा है। कभी कहीं सीता, द्रौपदी, दुर्गा की कोई मूर्ति, पेंटिंग या गुफाओं में अंकित कलाकृतियों में इन देवियों को घूंघट में चित्रित देखा है? जिस महान एवं उदात्त संस्कृति की दुहाई स्वयंभू नेता देते रहते हैं, क्या उससे वे परिचित हैं। उत्तर प्रदेश में भारतीय संस्कृति के ग्रंथों को सस्ते में उपलब्ध कराने के महान उद्देश्य से एक प्रकाशन संस्था का उदय हुआ,जिसने आधुनिकतम छपाई की मशीनें तो खरीदीं परंतु लगभग अनपढ़ों से उन महान ग्रंथों का अनुवाद कराया और सस्ती होने के कारण ये किताबें बहुत बिकीं और एक उदात्त संस्कृति को संकीर्ण रूप में लोकप्रिय कर दिया गया है। आज आवश्यकता है कि उन महान ग्रंथों का वैज्ञानिक एवं आधुनिक सोच के तहत परीक्षण करके उन्हें प्रकाशित किया जाए।
यह कितनी अजीब बात है कि जर्मनी के मैक्समुलर संस्थान ने भारत के इन प्राचीन ग्रंथों के जर्मन अनुवाद संग्रहित करके रखें और आज भी अगर उपनिषद से कुछ सीखना हो तो केवल जर्मन संस्करण ही विश्वसनीय है। हमने तो अपनी पुरानी किताबें, इमारतें, किलों इत्यादि की कभी रक्षा ही नहीं की। हम केवल उस उदात्त संस्कृति के नाम पर लोकप्रिय नारेबाजी करते हैं। उसके प्रति हमारे मन में कोई जिज्ञासा ही नहीं है।
अत: हरियाणा में नारी परदा करें यह बात केवल हमारी कमतरी को ही अभिव्यक्त करती है। सच तो यह है कि हम नारी के सौंदर्य व शक्ति से डरे हुए लोग हैं। एक नारी के सुंदर मुख पर सौ सूर्य का उजास होता है। वह 'सत्यम शिवम संदुरम' के प्राचीन आदर्श का साक्षात स्वरूप है। नूतन के पति रजनीश बहल ने 'सूरत और सीरत' नामक अत्यंत सार्थक फिल्म बनाई थी। राज कपूर की 'सत्य शिवम सुंदरम' का नायक इस भ्रम में जीता है कि सौंदर्य ही महत्वपूर्ण है और फिल्म के अंत में समझ पाता है कि सौंदर्य का अर्थ क्या है। दरअसल यह थीम राज कपूर की पहली फिल्म 'आग' में विलक्षण ढंग से प्रस्तुत की गई थी। कबीर के दोहे का अर्थ है कि अपने अहंकार और अन्य चीजों के परदे हमारी आंख पर पड़े हैं और उन घूंघटों को हटाने पर पीव अर्थात ईश्वर के दर्शन होंगे।