परदे के पीछे - अंतिम ड्राफ्ट / श्रीकांत पाण्डेय
जयप्रकाष चौकसे अपने सिद्धांतों, विचारों, कल्पनाषीलता, व्यापक सन्दर्भों तथा बहुआयामी अनुभवों से जो स्तम्भ बरसों से लिखतेे आ रहे हैं, आज 26 वर्ष से चली आ रही उस लम्बी कड़ी का आखिरी स्तम्भ पढ़ने को मिला। यह चौंकाने वाली खबर तो नहीं थी, क्योंकि उनके पाठक उनकी अस्वस्थता से परिचित थे, किन्तु ऐसी खबर अवष्य थी जिसने दुखी किया और आने वाली सुबहों में संभावित अधूरेपन का भाव जगाया। जयप्रकाष चौकसे के इस स्तम्भ- परदे के पीछे में न्यूनतम सिनेमा और अधिकतम समाज होता था। विष्व-सिनेमा की उनकी गहन जानकारी और अंग्रेजी-हिन्दी साहित्य व सिनेमा की उनकी अचूक स्मृति से गंुथे उनके आलेेख पाठकों को आह्लादित करते थे। यही लेखन का वास्तविक सौन्दर्य है। इस स्तम्भ की लोकप्रियता और दीर्घायु का यही रहस्य है। उनका लिखा इतना सरल और प्रवाहपूर्ण होता है कि लगता है उनकी रफ-कॉपी कई मोटी जिल्दों में होगी, मगर शायद ऐसा है नहीं। अगर आपको रोज-रोज लिखना है तो जाहिर है कि पहले ड्रॉफ्ट को ही इतना मुकम्मल बनाना होगा कि वही अन्तिम ड्रॉफ्ट भी हो। सम-सामयिक विषयों का उनका विष्लेषण अत्यन्त सटीक होता है। यही कारण है कि उनका लिखा सषक्त और स्फूर्तिदायक है। वह पाठक को विचार करने पर विवष करता है। हिन्दी अखबारों में सिनेमा, समाज या राजनीति पर गंभीर लेखन का स्थान नहीं रहा, जयप्रकाष चौकसे ने इसे गलत साबित किया है। यह स्तम्भ एक तरह से जयप्रकाष चौकसे की विषिष्ट स्मृतियों और अनुभवों का समुच्चय है। प्रकारान्तर से उनके विविध संस्मरण। इन स्मृतियों को प्रस्तुत करने की उनकी शैली पाठकों को सम्मोहित करती रही है। दषकों तक मुख्यतः एक ही विषय पर प्रतिदिन लिखते रहने के बावजूद वे उबाऊ नहीं हुए और पाठकों की दो पीढ़ियों को बांधे रखा तो केवल इस कारण कि उनका समाज-बोध, साहित्य-अध्ययन, सिने-संदर्भ और जीवन-दृष्टि अत्यन्त व्यापक है। उनके आलेखों में उनकी गहरी अनुभूति और पाण्डित्यपूर्ण विष्लेषण के चलते यह स्तम्भ- परदे के पीछे मात्र फिल्म-समीक्षा का स्तम्भ नहीं रहा, सामाजिक-दर्षन का स्तम्भ बन गया था। उनका लेखन बहु-विध है। उसमें निर्मल प्रवाह है। ऑस्कर से शुरू उनका आलेख सफाईकर्मी की असहायता पर समाप्त हो सकता है। मारियो पुजो और नरसी मेहता को आप साथ-साथ पढ़ सकते हैं।
इन आलेखों में नील आम्रस्ट्रांग यदि एक छोर हैं, तो एकनाथ सोलकर दूसरा सिरा हो सकते हैं। कभी-कभी असंगत प्रतीत होते उनके अनुच्छेद ही स्तम्भ का अंत आते-आते सर्वाधिक सुसंगत बन जाते हैं। सिलसिलेवार न होना ही उनके लिखे हुए का अनुषासित सिलसिला है। उनकी विषयान्तरता बहु-पठिठता का आनन्द देती है। उनके सन्दर्भ इतने विविध और व्यापक रहते हैं कि उनमें डूब जाना ही संभव है, तैरने की गंुजाइष नहीं। उनके विषयों में गंभीरता और विषयान्तरों में दर्षन होता है। अनेक बार इन विषयों और विषयान्तरों का घोल इतना सान्द्र हो जाता है कि दोनों में ही गंभीरता और दर्षन दिखने लगता है। जयप्रकाष चौकसे जब-जब विषयान्तर होते हैं, तब-तब वे गंभीर और रोमांचक हो जाते हैं। उनके आलेखों की कुछेेक कडियां टूटी या बिखरी हुई-सी लगती भर हैं, परन्तु ऐसा है नहीं। अलग-थलग सी लगती बातों का प्रधान सूत्र एक ही होता है। एक सुतली में जब तक अलग-अलग रंग की झंडियों को न चिपकाया जाए, तब तक उनमें सौन्दर्य नहीं दिखता, खुषबू नहीं आती।
जयप्रकाष चौकसे धीर-गंभीर अध्येता हैं, विचारक हैं। स्मृतियों की पुरानी सड़क पर जब वे सैर करते हैं तो जाहिर है कि कभी पगडण्डियों पर भी चलते होंगे, कभी खेत पर भी उतर आते होंगे। यह स्वाभाविक तो है ही, आवष्यक भी है। सच तो यह है कि लेखन के बने बनाए नियम-कायदों पर छैनी-हथौड़ी चलाने से ही कोई रचना प्रासंगिक और रूपवती बनती है। लीक छोड़कर चलने से ही नये रास्ते संभव होते हैं। स्मृतियों में की गयी कौषलपूर्ण तोड़-फोड़ ही वैसा नया सृजन संभव करती है, जो श्रोता और पाठक दोनों को मुग्ध कर सके। स्मृतियों में कालानुक्रम नहीं होता, क्योंकि स्मृतियों की कोई समय-सारिणी नहीं हो सकती।
अचानक कौंध ही स्मृतियों का मूल चरित्र होता है और इसी अचानकपन के कारण उनकी प्रासंगिकता और रोमांच बचा रहता है। जयप्रकाष चौकसे के आलेखों में विचारों, पूर्वाग्रहों और अफवाहों से प्रदूषित समय को लेकर उनकी चिन्ताएं गहरी दिखाई देती हैं। हम जयप्रकाष चौकसे के स्वस्थ होने और उनकी दीर्घायु की कामना करते हैं। यह उम्मीद भी कि परदे के पीछे फिर शुरू होगा। संभावना कभी शून्य नहीं होती।
(लेखक पूर्व आईएएस अधिकारी हैं)