परदे पर आया बहत्तर मील दर्द का रिश्ता / जयप्रकाश चौकसे

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परदे पर आया बहत्तर मील दर्द का रिश्ता
प्रकाशन तिथि : 03 अगस्त 2013


अक्षय कुमार, अश्विनी यार्डी और स्टूडियो वायकॉम की '72 मैल एक प्रवास...' मराठी फिल्म के प्रदर्शन पूर्व प्रदर्शन में आमंत्रित दर्शकों के बीच मौजूद थे इम्तियाज अली, जो इस समय 'हाइवे' नामक फिल्म बना रहे हैं। सत्य घटना पर आधारित घोर यथार्थवादी मराठी भाषा की फिल्म में एक अनोखी मानवीय यात्रा भावना की इस तीव्रता से कही गई है कि सतारा-कोल्हापुर मार्ग ही साधनहीन मनुष्यों के संघर्ष और करुणा का प्रतीक बन जाता है, जैसे 'हाइवे' शाइनिंग इंडिया का प्रतीक है। यह इम्तियाज अली की फिल्म और इस फिल्म की तुलना की बात नहीं है, क्योंकि दोनों ही के पात्र भारत के भीतर बसे दो अलग संसार के प्राणी हैं। सारांश यह है कि आर्थिक उदारवाद के बाद भारत में ऐसा विकास हुआ, जिसने अमीर और गरीब की खाई को पहले से अधिक भयावह बना दिया। देश को एक नए किस्म की गुलामी की ओर जाने की प्रक्रिया को गति दे दी। आजकल सेना भेजकर देश अधीन नहीं कराए जाते, उनके उद्योग-धंधों और खनिजों को नकली कंपनियों के माध्यम से हथियाया जाता है।

बहरहाल, छह राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली फिल्म 'जोगवा' के लिए प्रसिद्ध फिल्मकार राजीव पाटिल ने अशोक बटकर के बचपन के अनुभवों के आधार पर प्रकाशित पुस्तक से प्रेरित '72 मैल एक प्रवास...' फिल्म बनाई है। विभाजित परिवार का निरंतर प्रताडि़त बच्चा बोर्डिंग स्कूल से भागा है और सड़क पर एक बेघरबार गरीब महिला अपने चार बच्चों के साथ जा रही है, जो उसके प्रति सहानुभूति दिखाती है। अपनों से प्रेम न पाने वाला बच्चा एक अजनबी स्त्री के अपार मातृत्व से बंधा उसके साथ हो जाता है। मातृत्व मात्र अपने बच्चों का हित देखना नहीं, वरन दूसरे के बच्चों को प्रेम देने पर अपने संपूर्ण रूप में प्रगट होता है। यशोदा ने कृष्ण को पाला तो वे ताउम्र जन्म देने वाली देवकी से अधिक यशोदा के बेटे रहे और इत्तेफाक देखिए कि कृष्ण ने भी बहुत यात्राएं कीं। यात्रा मनुष्य विकास से जुड़ी है, सड़कें और पगडंडियां पाठशालाएं हैं, जीवन शास्त्र यहीं सीखा जाता है।

नायिका का पति मेहनतकश इंसान था और अपने परिवार को पालने के सारे जतन असफल होने पर अपराध के रास्ते जेल पहुंच गया था। इस महान भूमिका को निभाया है स्मिता तांबे ने, जो इसके पहले व्यावसायिक सिनेमा कर चुकी हैं। कुछ भूमिकाओं के स्पर्श से कलाकार जीवन का अनसोचा श्रेष्ठ अभिनय कर जाता है, जैसे नरगिस 'मदर इंडिया' में, नूतन 'बंदिनी' में और मीनाकुमारी 'पाकीजा' में या बेन किंग्सले 'गांधी' में। कोई आश्चर्य नहीं कि स्मिता 'तांबे' से 'सोना' हो गईं, कुंदन हो गईं राजीव पाटिल के निर्देशन में। राष्ट्रीय पुरस्कार की हकदार बन गई हैं, स्मिता तांबे। प्रेम के लिए तरसते बच्चे के रूप में चिन्मय मांडलेकर ने भी कमाल का अभिनय किया है और नायिका के बेटे तथा बेटियों की भूमिकाएं भी बखूबी निबाही गई हैं। महाराष्ट्र के ग्रामीण अंचल को कवि की संवेदना से निर्देशक और फोटोग्राफर ने प्रस्तुत किया है। इसका गीत-संगीत पक्ष बहुत सशक्त है तथा कथा प्रवाह का अंतरंग हिस्सा है।

दरअसल, सड़क भी इस फिल्म का पात्र है। नायिका यात्रा में अपने दो पुत्रों को हमेशा के लिए खो देती है, परंतु राह में मिले बालक से आत्मा का रिश्ता बन जाने के बाद एक हृदय विदारक अनुभव, जिसमें उसे बच्चों का पेट भरने के लिए अपना सौदा करना पड़ता है। वह तय कर लेती है कि इस बालक को अपने घर कोल्हापुर जाने के लिए बाध्य करना ही बालक के हित में है, क्योंकि उसका और उसकी बेटियों का भूख और अभाव से मरना तय है। पहली बार यह मां इतनी कंजूस हो जाती है कि अपनी दरिद्रता का कोई हिस्सेदार नहीं चाहती। एक दोराहे पर वह बच्चे से कोल्हापुर जाने वाली सड़क पर जाने के लिए आग्रह करती है और स्वयं तथा अपनी बेटियों के साथ दूसरे मार्ग पर जाती है। निर्देशक ने अलगाव का यह दृश्य हृदयस्पर्शी बना दिया है और सारे पात्रों ने अभिनय शिखर को छुआ है। स्मिता का चलना जाने क्यों गांधीजी की चाल याद दिलाता है। 'पाथेर पांचाली' उपन्यास का अंतिम दृश्य याद आताहै कि 'आज रास्ते की धूल से तेरा तिलक किया है और अब तू आगे बढ़।' सत्य घटना में तो बालक बड़ा होकर सफल आदमी बनता है और अपनी 'आई' तथा 'बहनों' की तलाश भी करता है।

फिल्म का प्रारंभ इस तरह भी किया जा सकता था कि सफल अशोक अपनी 'आई' को तलाश कर रहा है तथा फ्लैश बैक में सारी कथा आए। बहरहाल, यह महान फिल्म है, जो असल भारत का प्रतिनिधित्व करती है और संभवत: इम्तियाज की 'हाइवे' शाइनिंग इंडिया का करे।