परम्परा: एक कहानी / अज्ञेय

Gadya Kosh से
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खेलावन गली के मोड़ की ओर बेतहाशा भागा जा रहा था। उसके भागने का कोई कारण नहीं था; बात यह थी कि पहली सन्तान के होने की खुशी से वह फूला नहीं समा रहा था और उसे जान पड़ता था कि वह गली में घुटा जा रहा है। भाग कर बड़ी सड़क पर निकलेगा, तभी बचेगा। मोड़ के आगेवाली बड़ी सड़क पर, जो किसी दानव की शय्या की तरह उस बड़े शहर के आर-पार बिछी हुई है, चिकनी तपी हुई, चमाचम, खचाखच...

खुशी से जैसे उसकी आँखें चढ़ी हुई थीं। वह बिना देखे-सुने सड़क की ओर बढ़ा जा रहा था...

उसे सड़क के इस किनारे चलना है, या उस किनारे, अथवा सड़क पार करनी है, इसका कोई ज्ञान उसे नहीं था। मुख्य बात यह थी कि गली से सड़क पर जाना है, और बेतहाश जाना है, और चलना नहीं, दौड़ना है।

किन्तु मोड़ के कुछ आगे ही बीच सड़क पर से गुजरती हुई एक लारी उसके ऊपर से निकल गयी। वह दानव की शय्या की चादर मानो लाल रंग के कलफ़ से ऐंठ गयी।

सिपाही ने ड्राइवर को पकड़ लिया। ड्राइवर बहुत गिड़गिड़ाया, पर उसकी एक न चली। चलती भी कैसे? इतनी भीड़ तो वहाँ देख रही थी कि सिपाही क्या करता है। उसके पास और कोई चारा नहीं था सिवाय इसके के उसे थानेदार के आगे पेश करे।

पर थानेदार को कोई देखता नहीं था। ड्राइवर ने साहस बटोरकर थानेदार से एक सीधी-सी युक्तिपूर्वक बात कही, जो थानेदार को जँच गयी। उसने ड्राइवर से और मोटर के मालिक से ग्यारह सौ रुपये रिश्वत लेकर उसे छुट्टी दे दी, इसलिए कि वह जाकर और लोगों को मारे और इस प्रकार थानेदारों को और आमदनी कराये! ड्राइवर छूट गया।

ग्यारह सौ रुपये बड़ी चीज़ होते हैं। थानेदार हिसाब लगाने बैठे तो उन्हें मालूम हुआ कि ग्यारह सौ में वे अपनी पिछले महीने में पी हुई शराब की कीमत देकर आगे के छः महीने के लिए भी बेहिसाब शराब पी सकते हैं। वे शराब की दुकान में गये, पुराना हिसाब चुकाकर उन्होंने ठेकेदार से तय किया कि वे अब वहीं दुकान में रहेंगे और शराब पिएँगे-बचा हुआ साढ़े नौ सौ रुपया उन्होंने उसी के पास जमा करा दिया।

और उन्होंने अपनी बात भी सच्ची कर दिखाई। वे उसी दुकान में रहते रहे-तब तक, जब तक कि दो महीने के बाद वे वहीं आर्थ्राइटिस से बीमार होकर मर नहीं गये। साढ़े पाँच सौ की शराब तब तक वे और पी चुके थे।

ठेकेदार को शराब के मुनाफ़े के अलावा चार सौ रुपये घाते में मिले तो उसे याद आयाः उसकी कई इच्छाएँ हैं जो हाथ की तंगी के कारण उसने अपने आगे नहीं आने दीं। उसने जो कुछ सुन रखा था, उसने अपने ठेकेदाराना दिमाग़ से हिसाब लगाया कि वह चार सौ रुपये में अधिक नहीं तो कम-से-कम अस्सी भली वेश्याओं के यहाँ जा सकता है - या एक ही वेश्या के यहाँ कम-से-कम सौ बार जा सकता है। क्योंकि धन है तो सामर्थ्य है। और सामर्थ्य बेकार नहीं बैठ सकती; उसे कारगर होना ही होगा।

किस वेश्या पर यह पूँजी लगाई जाये, यह निश्चय करके कुछ समय लगा। जब आखिर निश्चय हुआ तब वह अपने रुपये के अतिरिक्त एक ओर चीज़ भी अपनी चहेती को दे आया।

अभी ठेकेदार के रुपये चुके नहीं थे कि वेश्या उससे पाये हुए रोग से बीमार होकर मर गयी। ठेकेदार के बचे हुए रुपये वेश्या की लड़की माया ने माँ की दवा-दारू के लिए माँगे थे। जब माँ मर गयी और ठेकेदार अपने रुपये नक़द या सेवा द्वारा माँगने लगा, तब लड़की के मन की दुविधा मिट गयी और वह रुपया-उपया लेकर एक गुंडे के साथ भाग गयी!

गुंडे के लिए माया ‘पहली प्राप्ति’ नहीं थी, आखिरी भी वह नहीं हुई। ऊब कर वह एक दिन उसे अकेली छोड़ गया। जब माया को अपनी दशा पर समझ आ गयी, तब वह समाज के कबाड़खाने - एक अनाथाश्रम - में दाखिल हो गयी। कबाड़ से उठने की कोशिश उसके लिए व्यर्थ है - यह सोचकर कुछ शान्ति से दिन बिताने की उम्मीद में उसने अपना भाग्य चुपचाप स्वीकार कर लिया।

गुंडे के मन से उतरकर भी माया के पास अभी पर्याप्त रूप है, यह बात उसे समझाने की अनाथालय के मैनेजर ने पूरी कोशिश की। इसका सुबूत देने के लिए उसने उस रूप की क़ीमत भी लगायी, पर जब माया के निरीह उपेक्षा-भाव पर कोई असर नहीं हुआ, और इस बीच एक ऐसा व्यक्ति भी आ गया, जो माया के रूप की और अधिक क़ीमत लगा रहा था, तब मैनेजर ने माया को एक नये बने हुए सेठ के पास बेच दिया।

सेठ साहब को अपने बहुत जल्दी कमाये हुए अर्थ और बहुत देर से चेते हुए काम के लिए एक साझीदार की ज़रूरत थी। जब माया की मारफ़त दोनों उद्देश्य पूरे होने लगे, तब उनको सब चिन्ता भूल गयी और वे दिलेर होकर सट्टा करने लगे। एक दिन उनका दीवाला निकल गया।

जब उन्होंने देखा कि अर्थ समाप्त हो जाने से माया-जिसका घना उपेक्षाभाव अभी मिटा नहीं था-अब काम की उपेक्षा करती है, तब एक दिन उन्होंने मार-पीटकर उसे निकाल दिया। लेकिन इससे कोई भी समस्या हल नहीं होती थी, इसलिए फेर लाये। फिर एक दिन निकाल दिया और फिर लौटा लाये। फिर आखिर एक दिन जब माया बीमार हुई, तब उन्होंने समझ लिया कि जब उद्देश्य ही पूरे न हो सके तब अर्थ का ही ख्याल कर लेना चाहिए; क्योंकि अर्थ हो तो काम भी पूरा हो सकता है; और माया-जैसी ‘रंडी की बेटियाँ’ गुलाम बनाई जा सकती हैं। नतीजा यह हुआ कि बीमारी की हालत में माया फिर एक बार बिक गयी।

उसे एक मारवाड़ी सेठ की कोठी के दरबान ने खरीद लिया था, जिसके सगे कोई नहीं थे और जिसकी भंग पीने की आदत के कारण उसकी शादी नहीं होती थी।

दरबान ने माया को अच्छी तरह रखा। अपने घर में वेश्या की लड़की और दूसरे घरों में वेश्या की तरह रहकर माया ने इस घर में कुछ नया वातावरण पाया, और दरबान की ममता के आगे वह पिघल गयी। यहाँ तक कि जब झोंक में आकर दरबान उसे प्यार की बातें कहता, तब यह जानकर भी कि ये सब बड़ी-बड़ी बातें भंग सहारे ही सूझती हैं, माया उसके गले का भारी रुद्राक्ष का दाना और पीतल का तावीज़ पकड़ कर इतना ही कहती, “कितने बक्की हो तुम!’

तब एक दिन दरबान के घर उजाला फूटा; अभी दरबान हक्का-बक्का खड़ा ही था कि ऊपर से मालिक की आवाज़ आयी और नीचे कराहती हुई माया ने कहा, ‘दाई बुला लाओ-’

और फिर एक नये जन्म की छाया में, एक दरबान रामभुज (या खेलावन या लालबहादुर या भरोसे या रामबहोरी) बेतहाशा भागा बाहर की गली की ओर, बड़ी सड़क की ओर, लारियों और मोटरी के गोरखधन्धे के बीच, उस चमाचम, खचाखच दानवी शय्या पर बिछने के लिए-

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बड़ी सुन्दर कहानी है! यदि इसे एक-एक बात से रस लेकर, घटना के हर कौर को लज़ीज़ और चटपटा बनाकर कहा जाये; यदि उससे वासना की मिठास या अतृप्त वासना की हल्की कसक जाग्रत हो, तो यह कहानी ‘कला कला के लिए’ का नमूना हो जाएगी; यदि उसे तीखे आक्रोश के साथ, कुढ़न और क्रोध के साथ कहा जाये तो वह प्रगतिशील कला का प्रतीक बन जाएगी। लेकिन जनता और जनार्दन का झगड़ा छोड़ दें, तो भी यह स्पष्ट है कि कहानी में जीवन की निर्व्याघात प्रवहमानता, मानवता की अटूट परम्परा प्रतिबिम्बित होती है, इसलिए मानना पड़ेगा कि यह चाहे कैसे भी कही जाये, वह सच्ची कला है, महान् कहानी है।

लेकिन आपको यह पसन्द नहीं है। क्यों पसन्द नहीं है?

क्योंकि इसमें जीवन के प्रति एक विद्रूप, तिरस्कार का भाव है। क्योंकि इसमें निष्ठा की, विश्वास की कमी है।

कला से हम क्या चाहते हैं?

कला से हम माँगते हैं कि वह हमारी परिस्थिति का भार हल्का करे, यानी हमारी तारीफ़ करे, हम पर तरस खाये, हम से सहानुभूति दिखाये - जैसे भी हो, हमारा अपने में विश्वास बनाये रखे और हमारे अहं ही पुष्टि करे।

और जो कहानी मैंने कही है, उसमें आपको वे गुण नहीं मिलते। आपको लगता है, आपको धोखा दिया गया है, अपमानित किया गया है, ओछा दिखाया गया है! आप तिरस्कृत अनुभव करते हैं, आपमें ग्लानि उत्पन्न होती है; क्योंकि आप विश्वास माँगते हैं; आप निष्ठा माँगते हैं; आप नहीं चाहते कि आप पर कोई हँसे; आपकी अवज्ञा करे; आपको उपहास का पात्र बनावे!

किन्तु क्या मेरी कहानी में सचमुच विश्वास और निष्ठा की कमी है? क्या उसका व्यंग्य एक बन्द गली में जाकर समाप्त होनेवाला वह करुण विश्वास ही नहीं है जो प्रत्येक मानव में, समूची मानवता की आत्मा में समाया है और जो मेरी कहानी को उसकी ‘एपिक क्वालिटी’ देता है-इतनी विराट् और इतनी कटु! मेरी कहानी का सड़क का मोड़ आपकी समूची सभ्यता का चित्र है - पहली संतान के होने की खुशी में फूली न समाता हुआ वह मदहोश होकर बाहर की ओर भागा जा रहा है, एक नृशंस दानी यन्त्र के नीचे बजरी से लदी हुई एक निष्प्राण मशीन के नीचे कुचली जाने के लिए!

मेरी कहानी में आपको विश्वास नहीं दीखता, तो मैं क्या करूँ? जबकि वह आपके विश्वास की ट्रेजेडी की कहानी है, आपको लगता है जैसे आपके पेट में किसी ने लात मार दी हो, तो मैं क्या करूँ जबकि लात आपकी है!

(कलकत्ता, सितम्बर 1939)