परम्परा / सुदर्शन रत्नाकर

Gadya Kosh से
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कबूतर-कबूतरी ने मिल कर बच्चों को पाला। कबूतर खाना लाता, कबूतरी उनकी रखवाली करती। दाना खिलाती। पंखों में छिपाये रखती। अब वे धीरे-धीरे बड़े हो रहे थे। एक दिन कबूतर ने कबूतरी से कहा, "बच्चे अब बड़े हो गये हैं। अकेले रह लेंगे। तुम भी मेरे साथ चलो।"

"ना ना, बच्चे अभी बहुत छोटे हैं। मैं उन्हें अकेले छोड़ कर कैसे जा सकती हूँ। वे शत्रु से अपना बचाव कैसे करेंगे। तुम अकेले ही जाओ।"

कबूतर मन मसोस कर रह गया। उसकी बहुत इच्छा थी कि कबूतरी उसके साथ जाये। कितने दिनों से वह अकेला ही जा रहा था। उसने कबूतरी की ओर शिकवे भरी निगाह से देखा और उड़ गया।

साँझ ढले वह लौट आया। देखा कबूतरी घोंसले से निकल कर दीवार पर उदास-सी बैठी है। उसने कौतुहल वश पूछा, "क्या बात है, उदास क्यों हो। बच्चे तो ठीक हैं न!"

कबूतरी ने रुआँसी होकर बताया कि उसके जाते ही बच्चे बाहर जाने की ज़िद्द करने लगे। वह उनके साथ उड़ी लेकिन उन्होंने कहा, "माँ हम बड़े हो गये हैं। उड़ना आ गया है। बस थोड़ी दूर जाकर वापस आ जायेंगे।" वे जब से गये हैं वह उदास परेशान बैठी है। पता नहीं लौटे क्यों नहीं। "पहले तो कबूतर को भी चिंता हुई। फिर मुस्करा कर बोला," मेरी रानी अब वे बड़े हो गये हैं। उन्हें माँ की नहीं, खुले आसमान की ज़रूरत है, यही परम्परा है, यही दुनिया का चलन है, उन्हें स्वच्छंद उड़ने दो। "

वे बात कर ही रहे थे कि देखा दोनों बच्चे किल्लोल करते हए दीवार पर आकर बैठ गये थे। कबूतरी ने धीरे से कहा, "कल मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी"