परलोकवासी पंडित दुर्गाप्रसाद मिश्र / रामचन्द्र शुक्ल
यह वर्ष भी हिन्दी प्रेमियों को दु:ख देता हुआ जा रहा है।
हिन्दी सम्वादपत्रों के पथप्रदर्शक, लोकोपकारी कार्यों के उत्तेाजक, राजनीतिक रहस्यों के मर्मज्ञ, अनेक देशभाषाओं के जाननेवाले, अपनी अपूर्व उक्तियों से रुष्ट और रोतों को हँसानेवाले, पंडित दुर्गाप्रसाद मिश्र इस लोक से चल बसे। मिश्र जी को कुछ दिनों से ग्रहणी रोग के लक्षण दिखाई दे रहे थे। वे जलवायु परिवर्तन के विचार से काश्मीर की राजधानी श्रीनगर गए। पर वहाँ जाने से उन्हें लाभ के बदले हानि हुई। उनका रोग घटने के स्थान पर और बढ़ गया। अन्त में वे जम्बू लौट आए और वहाँ दो महीने रह कर कलकत्ताष चले गए जहाँ चिकित्सा का अच्छा से अच्छा प्रबन्ध रहते हुए भी उस दारुण रोग ने उनकी विशाल निर्द्वन्द्व और हँसती हुई मूर्ति का सदैव के लिए अदर्शन करा ही दिया। हा शोक! उनके अंग हिलाने मात्र से समाज, जाति वा भाषा का कुछ न कुछ हितसाधन हो ही जाता था। अपने “उचित वक्ता” पत्र से उन्होंने आधुनिक हिन्दी की प्रारम्भिक दशा में हिन्दी पाठकों के बीच कैसे दृढ़ और परिपक्व भावों का संचार किया यह हमारी भाषा की नवीन गति से परिचय रखनेवाले मात्र जानते हैं। इनमें गुण एक से एक बढ़कर थे। ये उदार और गम्भीर भावों से परिपूर्ण होने पर भी सांसारिक व्यवहारों में इतने कुशल थे कि पक्के से पक्के धूर्त की भी इनके सामने दाल नहीं गल सकती थी। इनके स्वार्थत्याग और विलक्षण गुणों के कारण बड़े बड़े राजा महाराजा तथा विद्वान् लोग इनका बहुत आदर करते थे और इनके परामर्शों की प्रौढ़ता को स्वीकार करते थे। ये विनोदप्रिय भी बड़े भारी थे। कभी कभी ऐसे चुटकुले छोड़ते थे कि हँसते हँसते पेट में बल पड़ने लगता था। जम्बू में मुझे इनके साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। हमारी हिन्दी के लिए तो मानो इन्होंने जन्म ही लिया था। कलकत्ताव के बड़े बड़े बंगाली अधिकारियों की सहानुभूति हिन्दी की ओर खींचने में इन्होंने कोई बात उठा नहीं रक्खी। उनका जन्म जम्बू राज्य के अन्तर्गत सांबा ग्राम में हुआ था अत: इनकी यह बड़ी भारी अभिलाषा थी जिन देशवासी डोगरे लोगों के बीच हिन्दी भाषा का प्रचार हो। इधार इनका विचार जम्बू में एक बड़ी डोगरा पाठशाला स्थापित करने का था जिसमें संस्कृत के साथ हिन्दी का पढ़ना आवश्यक हो। बीमारी के समय में भी ये जब तक जम्बू रहे इस कार्य के लिये उद्योग करते रहे। बहुत से लोगों को इन्होंने इस कल्याणकर कार्य में धन की मासिक सहायता देने के लिए प्रतिज्ञाबध्द किया था। साथ ही उनका विचार जम्बू वा उसके आसपास एक हिन्दी पुस्तकालय खोलने का भी था। सन्तोष का विषय में कि उनकी उत्तोजना से जम्बू में दो एक महाशय पुस्तकालय स्थापन के लिए उद्यत हो गए और अब उसके प्रयत्न में हैं। ईश्वर ऐसे देशहितैषी और मातृभाषाभिमानी महात्मा की आत्मा को शान्ति और उनके कुटुंबियों को धैर्य दे।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, भाग 18, संख्या 3-4)