परलोक-प्राप्त पं. मोहनलाल विष्णुलाल पंडया / रामचन्द्र शुक्ल

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गत 4 दिसम्बर को हिन्दी के इतिहासविज्ञ और पुराने लेखक तथा सहायक

पं. मोहनलाल विष्णुलाल पंडया की अचानक मृत्यु को सुनकर जो दु:ख हिन्दीहितैषियों को हुआ वे ही जानते हैं। नागरीप्रचारिणी सभा को इस घटना से विशेष वेदना हुई क्योंकि इसका उनसे विशेष सम्बन्ध था।

पं. मोहनलाल विष्णुलाल पंडया उन लोगों में थे जिन्होंने आरम्भ में हिन्दी को इस वर्तमान उन्नति के मार्ग पर खड़ी होने में सहारा दिया था। वह अस्थिरता का समय इन्होंने अच्छी तरह देखा था जब हिन्दी के विषय में लोगों का उत्साह कभी बढ़ता और कभी घटता था। घटाव के समय में आप प्राय: खड़े होते थे। भारतेन्दु की हरिश्चन्द्रचन्द्रिका को शिथिल पड़ते देख आपने उसमें मोहनचन्द्रिका जोड़कर उसके उजाले को कुछ दिन और चलाना चाहा था। हिन्दी में इतिहास और पुरावृत्ता की चर्चा इन्होंने बहुत कुछ चलाई। इन विषयों के ये अच्छे ज्ञाता थे। जिस समय कविराज श्यामलदानजी ने पृथ्वीराजरासो को आदि से अन्त तक जाली सिध्द करना चाहा उस समय इन्होंने पृथ्वीराजसंरक्षा लिखकर रासो के पक्ष में बड़ी धूम के साथ लेखनी उठाई थी। अनन्द और सनन्द संवत् की कल्पना करके आपने अपने मत की पुष्टि में बहुत कुछ लिखा था। प्राचीन इतिहास और पुरातत्व विषय पर आपके लेख एशियाटिक सोसाइटी के जर्नल में प्राय: निकलते रहे।

नागरीप्रचारिणी सभा की सहायता ये बराबर करते रहे। पुस्तकों की खोज के काम में तथा पुरानी पोथियों के सम्पादन में इनसे बहुत कुछ सहायता मिलती रही। सभा द्वारा प्रकाशित पृथ्वीराजरासो के एक सम्पादक ये भी थे। उसके वर्णनों के शीर्षक गद्य में इन्होंने बड़े परिश्रम से लिखे थे। गत चुनाव में आप नागरीप्रचारिणी सभा के सभापति चुने गए थे, पर शोक है कि सभा इनसे अकाल ही वंचित कर दी गई, इनकी विज्ञता और अनुभव का लाभ बहुत दिनों तक न उठाने पाई। इनका संक्षिप्त जीवन वृत्तान्त कोविदरत्नमाला से लेकर नीचे दिया जाताहै

पं. मोहनलाल विष्णुलाल पंडया के पूर्वज गुजरात देश के रहनेवाले थे। वहाँ पर मुसलमानी राज्य में अधिक उपद्रव होने से केशवराम पंडया अपने पाँच लड़कों सहित दिल्ली को चले आए। केशवराम के ज्येष्ठ पुत्र का नाम निर्भयराम था। केशवराम के पश्चात् निर्भयराम तो आगरा में रहने लगे और उनके और और भाई कोई पंजाब में और कोई अन्य स्थानों में जा बसे।

निर्भयरामजी के वंश के लोग साहूकारी का व्यापार करने लगे। मोहनलालजी के दादा गिरधारीलाल तक तो यह कार्य अच्छा चलता रहा परन्तु उनके मरने पर प्रबन्ध अच्छा न होने से काम बिगड़ गया। इसलिए मोहनलालजी के पिता विष्णुलालजी आगरे से मथुरा चले आए और यहाँ सेठ लक्ष्मीचन्द के यहाँ पहिले दर्जे के मुनीबों में नौकर हुए।

पं. मोहनलालजी का जन्म संवत् 1907 मि. अगहन वदी 3 मंगलवार को हुआ था। सात वर्ष की अवस्था में यज्ञोपवीत हो जाने पर इन्हें हिन्दी और संस्कृत की शिक्षा दी जाने लगी। इसके दो वर्ष बाद आप आगरा के सेंटजांस कॉलेज के स्कूल में अंगरेजी पढ़ने को बिठाए गए। इसके बाद जहाँ जहाँ इनके पिता की बदली होती गई वहाँ-वहाँ आप उनके साथ रहकर बराबर अध्यजयन करते रहे।

मोहनलालजी के पिता ने इन्हें पूर्णरूप से शिक्षा देने के अभिप्राय से बनारस को अपनी बदली करवा ली और यहाँ नियतरूप से रहने लगे। तब आप भी बनारस में आकर क्वीन्स कॉलेज के एटेरंस क्लास में भर्ती हो गए, परन्तु कुछ उद्दंड स्वभाव होने के कारण इनसे और स्कूल के हेडमास्टर पं. मथुरा प्रसाद मिश्र से न पटी। इसीलिए इन्होंने जयनारायण कॉलेज में अपना नाम लिखवाया परन्तु वहाँ अधिकतर लड़के बंगाली थे इसलिए इन्हें विवश होकर दूसरी भाषा बंगला लेनी पड़ी। यथासाध्यउ चेष्टा करने पर भी जब आप दूसरी भाषा में बार-बार फेल हुए तब आपने स्कूल तो छोड़ दिया परन्तु खानगी तौर पर लिखने पढ़ने का अभ्यास न छोड़ा।

मोहनलालजी के पिता महाजनी के कामकाज के बाद बाबू हरिश्चन्द्र के घर भी आया जाया करते थे। इसी से इनका भी वहाँ जाना आना होने लगा और इन दोनों समवयस्क युवाओं में थोड़े ही दिनों में गाढ़ी मित्रता हो गई। बस इनकी दिन रात वहीं बैठक रहने लगी। बाबू साहिब के यहाँ जो विद्वान पंडित लोग आते और शास्त्रगर्भित बातों पर वाद विवाद करते उन्हें आप भी ध्या नपूर्वक सुनते और मनन करते। आपका कथन है कि “हिन्दी भाषा के अद्वितीय पंडित और तुलसीकृत रामायण के मर्मज्ञ पंडित बेचनरामजी भी प्राय: बाबू साहिब के यहाँ आते थे। उन्होंने हम दोनों को हिन्दी भाषा के तत्वभ समझाए और इस ओर हमारे चित्त को आकर्षित किया। फिर क्या था हम लोगों ने परस्पर इस बात की सौगन्ध कर ली कि परस्पर हिन्दी भाषा के सिवाय दूसरी भाषा का व्यवहार कदापि न किया जाय। फारसी और उर्दू को जानते हुए भी हम लोगों ने उस ओर से अपना मुख मोड़ लिया।”

जब मोहनलालजी के पिता का देहान्त होने लगा तब वे इन्हें अपने परम मित्र मुमताजुद्दौला नवाब सर फष्ज अली खाँ के सुपुर्द कर गए। उन्होंने बड़ौदा कमीशन के समय इन्हें अपना कानफीडेंशल क्लर्क नियत किया और राजकार्य सम्बन्धी कामों की शिक्षा दी। सन् 1877 में उनके अपने पद पर से इस्तीफा दे देने पर इन्होंने उदयपुर राज्य में नौकरी कर ली और श्रीनाथद्वारा और कांकरोली के महाराजों की नाबालगी में उन रियासतों का अच्छा प्रबन्ध किया। इसके बाद इन्हें उदयपुर की सदर अदालत की दीवानी का काम मिला और फिर कुछ दिनों के बाद इन्हें स्टेट काउंसिल के मेम्बर और सेक्रेटरी का पद प्राप्त हुआ। 13 वर्ष उदयपुर राज्य की सेवा करके इन्होंने वहाँ से इस्तीफा दे दिया और प्रतापगढ़ राज्य के दीवान नियत हुए। अन्त समय तक आप प्रतापगढ़ से पिंशन पाते रहे।

जिस समय मोहनलालजी बनारस में थे उस समय परम प्रसिध्द पुरातत्व -वेत्ता डॉ. राजेन्द्र लाल मित्र अक्सर बाबू हरिश्चन्द्रजी के यहाँ आया करते थे। उन्होंने इनकी रुचि देखकर इन्हें पुरातत्व की शिक्षा दी जिससे इनकी योग्यता और भी बढ़ गई। इस विषय में अंगरेज विद्वान भी आपकी प्रशंसा करते हैं। इन्होंने महारानी विक्टोरिया की जुबिली के समय भारत सरकार में 1000 रुपया जमा करके यह प्रार्थना की थी कि इस धन से प्रतिवर्ष दो तमग़े उन दो छात्रों को मिला करें जो कलकत्ता यूनिवर्सिटी की परीक्षा में सबसे अव्वल आवें। इसे सरकार ने धन्यवादपूर्वक स्वीकार किया। अब ये दोनों मेडल इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा प्रतिवर्ष दिए जाते हैं।

इन्होंने हिन्दी में 12 पुस्तकें रची हैं। पृथ्वीराज रासो की संरक्षा की और उसका सम्पादन भी किया। हिन्दी के विद्वानों में पुरातत्व की रुचि और उसमें दक्षता रखनेवालों में आपका स्थान उच्च था।

(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, मार्च 1913 ई.)