पराजित टीम के महानायक का जयकारा / बुद्धिनाथ मिश्र
उस दिन सबकी आंखें टीवी पर टिकी थीं, क्योंकि केन्द्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी देश का बजट पेश कर रहे थे। मैं भी अपना पढ़ना-लिखना छोड़कर टीवी के समने बैठ गया था। एक सामान्य नागरिक की हैसियत से मेरी वर्तमान लोकतान्त्रिक परिवेश में न कोई महत्वाकांक्षा रह गयी है, न किसी प्रकार की राहत की आशा। साहित्य में भी नकली सिक्कों का बोलबाला है, इसलिए एक साहित्यकार को जिस तरह की जिन्दगी जीने को मिल सकती है, उसे रो-धोकर या गा-बजाकर जी रहा हूँ। इसलिए किसी बजट से कोई खुशी मिलने की उम्मीद तो अब नहीं रह गयी है। हाँ, एक डर है कि अगले बजट में लँगोटी भी कमर पर रह पायेगी कि नहीं, यही जानने की उत्कंठा मुझे टीवी तक हर साल खींच लाती है। इस बार भी खींच लायी। मेरा टीवी देखना एक प्रयोजन-मूलक कार्य ही हुआ करता है, क्योंकि बेसिर-पैर के सीरियलों को देखकर पचा पाना मेरे वश की बात नहीं।
न्यूज चैनलों की बाढ़ ने समचार की परिभाषा ही बदल दी है। इन चैनलों पर सिलसिलेवार समाचार नहीं प्रस्तुत किये जाते। एक महत्वपूर्ण समाचार को प्रस्तुत करने में इतनी बार टाँग तोड़ी जाती है कि खुद समाचार लँगड़ाने लगता है। हर दो मिनट के बाद पाँच मिनट का ‘छोटा-सा ब्रेक’ इतना बड़ा सिरदर्द होता है कि उसे बर्दाश्त करना सबके वश की बात नहीं है। यदि रिमोट की मदद से आप दूसरा चैनल चुनते हैं तो विज्ञापन वहाँ भी आपका पीछा नहीं छोड़ता।
पूरा देश साँस रोके बजट के निष्कर्षों को सुनने के लिए आतुर था और होना भी चाहिए, क्योंकि इससे सवा सौ करोड़ भारतीय जनता के हित-अहित का जटिल प्रश्न जुड़ा था। दूसरी ओर सभी टीवी चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज में क्रिकेट खिलाड़ी सचिन के महाशतक की ओर बढते एक-एक रन को दर्शकों को इस तरह बताया जा रहा था जैसे इस महाशतक के बनते ही भारत की जनता के सारे दुख दूर हो जाएँगे। सचिन बंगलादेश के मीरपुर क्रिकेट मैदान में खेल रहा था, मगर बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भारत की जनता का खून चूसकर जमा की हुई पूँजी के बल पर उसे घर-घर खेला रही थीं। यहाँ तक कि दूरदर्शन का नेशनल चैनल भी बजट को हाशिये पर रखते हुए क्रिकेट का आँखों देखा हाल प्रस्तुत करने में मस्त था। उसके परवरदिगारों को इस बात का जरा भी एहसास नहीं था कि आज भी गाँव के लोगों तक यही सरकारी चैनल पहुँचता है और गाँव के किसानों-व्यापारियों को क्रिकेट से ज्यादा अपने देश के बजट से सरोकार है। मगर यह चैनल भी अपनी मुख्य ड्यूटी छोड़कर प्राइवेट चैनलों की तरह बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा विज्ञापन के नामपर लुटाये जा रहे पैसे बटोरने में लगा था। प्राइवेट चैनल भी बजट ही दिखा रहे थे, मगर अपने दर्शकों को मूर्ख समझकर उनके मार्गदर्शन के लिए कुछ राजनेताओं को बुला लिया था, जो साँड़-भैसों की लड़ाईका दृश्य उपस्थित कर लोगों का ध्यान बँटा रहे थे। उनके बकवास और विज्ञापनों के भूसे से काम की बात निकालना कठिन था, लेकिन मेरे पास दूसरा कोई चारा नहीं था।
बीच-बीच में क्रिकेट मैदान में सचिन को घिसट-घिसटकर एक-एक रन लेते दिखाया जा रहा था। मैने उसके चेहरे को गौर से देखा। उसका गला सूख रहा था। उसकी जीभ निकल-निकल कर होठों को गीला कर रही थी। उधर मैदान में और उससे भी ज्यादा चैनलों पर उसका जयकारा लग रहा था। लगा जैसे कृष्णलीला में कालिय नाग के दमन का दृश्य उपस्थित किया जा रहा हो। महाशतक का कालिय नाग आसानी से वश में नहीं आ रहा था। इसीलिए बंगलादेश में यह खेल खेला गया, जहाँ के खिलाड़ी अभी नौसिखिये हैं। लेकिन वे क्रिकेट खिलाड़ी हमारे क्रिकेट खिलाड़ियों की तरह खरीदे-बेचे जानेवाले प्राणी नहीं थे। उन्होने जमकर टक्कर ली और मैदान में क्रिकेट के भगवान किसी तरह इज्जत बचाते नजर आये। कहीं नहीं लगा कि यह टक्कर महारथी और नौसिखिये खिलाड़ियों के बीच हो रहा है। उस महाशतक में सचिन एक पराक्रमी बल्लेवाज के रूप में कभी नहीं दिखा।
क्रिकेट का भगवान छक्के-चौके के लिए तरस गया, जबकि उसके सामने कोई बड़ी टीम नहीं थी। वह उस समय खिलाड़ी कम , अन्नदाता कम्पनियों के हाथों की कठपुतली ज्यादा नजर आ रहा था। मुझसे सचिन की यह दयनीय अवस्था देखी नहीं गयी और चैनल बदल कर फिर प्रणव दा की ओर मुखातिब हुआ। उनके चेहरे पर भी वही असहायता के भाव थे । ललाट पर सिलवटें थीं। सिर पर बचे-खुचे बाल गठबंधन सरकार में शामिल पार्टियों की तरह इधर-उधर भाग रहे थे। बजट में कोई नवीन परिकल्पना नहीं थी। बजट से कोई अपना भला हो नहीं रहा था। राजनीतिक स्वार्थ ने हमारे राजनेताओं के सोच का दायरा इतना संकीर्ण कर दिया है कि वे अब समग्र भारत की बात नहीं करते। वे अल्पसंख्यक के हित की बात करते हैं, दलित के हित की बात करते हैं, पिछड़े वर्ग के उत्थान की बात करते हैं। आधुनिक चिकित्सकों की तरह शरीर के एक-एक अवयव के वे विशॆषज्ञ हैं और उनका इलाज केवल उस अवयव तक सीमित होता है। उनके पास कोई ऐसा यन्त्र नहीं है जिससे पूरा शरीर उन्हें दिखाई दे या जिसकी मदद से वे पूरे शरीर को स्वस्थ रखने की चिकित्सा कर सकें। इसलिए सवर्ण जाति का फटा पर्दा टाँगकर अपनी गरीबी छिपानेवाले भलेमानुस लोग उनकी बीपीएल की सीमा में नहीं आते। न ही वे साहित्यकार उनकी नजर में आते हैं जो पुरस्कारों की नूराकुश्ती से परे रहकर कलम की साधना में अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा खो बैठे हैं। हमारा बजट आज भी अंग्रेजों के बनाये ढर्रे पर चल रहा है। चूँकि यहाँ की भाषा-साहित्य का उन्नयन उनका अभीष्ट नहीं था, इसलिए उन्होने अपने बजट में इसके लिए कोई प्रावधान नहीं रखा। उन्होने शिक्षा और चिकित्सा पर इसलिए प्रावधान रखा कि इस पैसे से वे अपनी शिक्षा-पद्धति का विस्तार कर सकें और अपनी मेडिकल कम्पनियों की दवा बेच सकें।
अपराह्न होते-होते सारे चैनल केन्द्रीय वित्तमन्त्री के बजट भाषण को बीच में ही छोड़कर सचिन के ऐतिहासिक महाशतक के दुन्दुभीनाद में शामिल हो गये। मैं एक चैनल से दूसरे चैनल पर इस आशा से भटकता रहा कि कोई चैनल तो बजट के राष्ट्रीय सरोकार को महत्व देगा। मगर किसी चैनल पर प्रणव दा नहीं दिखे। सचिन ने उन्हे पछाड़ दिया था। सभी चैनलों पर सचिन का प्रशस्तिगान हो रहा था। बैटरी पर बोलनेवाले खिलौने बढ़-चढ़कर उसका गुणगान कर रहे थे। सुपरलेटिव लगाने में हमारे देश के बुद्धिजीवी सारी दुनिया का कान काटते हैं। इसलिए सुपरलेटिव के सारे धराऊ मुहावरे झोंके जा रहे थे। यह स्वाभाविक था, क्योंकि क्रिकेट अब खेल रह भी नहीं गया है। यह एक काला जादू है, जो पूरे देश को अपनी चपेट में ले चुका है। यह बेरोजगार नौजवानों को जीवन के यथार्थ से दूर रखने की एक पूँजीवादी साजिश है। यह एक इन्द्रजाल है जिसके नीचे काले धन का कारोबार होता है। इसलिए अब क्रिकेट की हार-जीत को लोग राष्ट्रीय गौरव से नहीं जोड़ते। लोगों को मालूम है कि क्रिकेट के पीछे बहुत बड़ा खेल होता है, जिसमें काले धन, फिल्मी रूपसियों और राजनेताओं की साँठ-गाँठ से हार को जीत और जीत को हार में बदला जाता है। बिके हुए खिलाड़ी अपने आकाओं की स्वार्थ-सिद्धि के साधन बनते हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने सचिन का कद इतना बैलून की तरह फुला दिया है कि उसके अन्दर के खिलाड़ी का दम घुटने लगा है। उसका चलना-फिरना मुश्किल हो गया है, अपनी मरजी से साँस लेना मुहाल हो गया है। उस जयकारे में यह बात खो गयी कि उस मैच में भारतीय़ टीम बंगलादेश की टीम से हार गयी थी।
यह कैसा बेहया देश है जो अपने ‘क्रिकेट के भगवान’ की सौवीं सेंचुरी पर तो आसमान सर पर उठा लेता है, मगर उसी खेल में भारतीय टीम के हार जाने की तनिक भी परवाह नहीं करता। किसी चैनल को भारतीय टीम के बंगलादेश जैसी पिद्दी टीम से हार जाने का मलाल नहीं था। सभी लोग सचिन के फोटो पर माला चढ़ा रहे थे , पटाखे फोड़ रहे थे। मेरे पडोसी उछाह के मारे एक दूसरे को लड्डू खिलाने लगे। मुझे भी देने आये। मैने पूछा--किस खुशी में? बोले -सचिन ने महाशतक बना लिया। मैने कहा--बना लिया या उससे बनवाया गया, क्योंकि बहुत सारी कम्पनियों के ऐड पड़े-पड़े खराब हो रहे थे। मेरे पड़ोसी माननेवाले कहाँ थे, बोले--‘आज का दिन ऐतिहासिक है। आपको गर्व होना चाहिए। फिर यह दिन कभी नहीं आएगा। न भूतो न भविष्यति। ’ मैं ही कहाँ माननेवाला था-- गर्व की अनुभूति साइकिल के टायर में पम्प भरकर नहीं करायी जा सकती। जिस मैच में क्रिकेट का भगवान महाशतक बनाये, उसीमें उसकी टीम हार जाये, यह गर्व की बात है या शर्म की? पड़ोसी तमतमा उठा- ‘आज आप नहीं मान रहे हैं। जिस दिन सचिन को भारतरत्न मिलेगा, उस दिन आप उसका चित्र अपने घर में सजाएंगे। आपके बच्चे आपको मजबूर कर देंगे। ’ मैने टका-सा जवाब दिया --‘आपका सचिन अब भारतरत्न होकर क्या करेगा? अब तो पूरा भारत अपनी छाती पर ‘सचिनरत्न’ का तमगा लगाये घूमेगा। ’
उस दिन से मेरा पड़ोसी मुझे टोकता नहीं। सबेरे वह भी घूमने निकलता है, मैं भी। मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ मॉर्निंग वाक करता हूँ। वह कुत्ता चराने के लिए मॉर्निंग वाक करता है। अब जब रास्ते में उसका कुत्ता प्यार से मेरी ओर लपकता है, तो वह जोर से डाँट देता है। मैं भी महसूस करता हूँ कि मेरा पड़ोसी जमाने को देखकर ठीक ही सोचता है। क्रिकेट से उसका भी कॊई लगाव नहीं है, मगर जमाने के कदम से कदम मिलाने के लिए वह भी सचिन के महाशतक पर गर्वित है। मैं ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि मेरे पास एक विकट अन्तरात्मा है जो चीजों को अपने ही नजरिये से देखने के लिए बाध्य करता है। इसलिए सोचता हूँ कि किसी दिन अपने पड़ोसी के घर जाकर उसे प्रेमचन्द की नायाब कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ पढ़ा आऊँ, क्योंकि अपने समय पर मैं वही व्यंग्य करना चाहता हूँ जो इस कहानी के मध्यम से प्रेमचन्द ने उस वक्त किया था।