पराजित / अशोक कुमार शुक्ला

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पराजित (कहानी)

अभी हाल ही में मेरी तैनाती राजधानी के नजदीक के इस छोटे नगर में हुयी थी। कहने को तो यह नगर राजधानी के नजदीक था लेकिन सुविधा के नाम पर खोखला था। सार्वजनिक स्थान के नाम पर एकमात्र तहसील का प्रांगण था जिसमें दिन भर आसपास के गॉवो से आने वाले शिकायतकर्ताओं का जमावडा रहता । जहां काला लबादा ओढे वकील और उनके मुंशी हर आने वाले व्यक्ति को कुछ इस तरह घेरते जैसे जंगल में शिकारी भेडियों का झुंड किसी हिरन के समूह को घेरता है, मनोरंजन के नाम पर उन्ही ग्रामीणों और स्थानीय नागरिकों के बीच की नोक झोंक, इस छोटे नगर में बिजली का तो नाम था उसके होने का अहसास सिर्फ कमरे में लगे स्विच और दीवार पर लटकता बिजली का बल्ब कराता था। मुझे याद नहीं पडता कि कभी मैने इन बल्बो केा कुछ एक घंटों के लिये जलते देखा हो। कस्बे की सडके टूटी और कीचड से भरी, दिन भर बाजार में ग्रामीणेा का कोलाहल गूंजा करता , नौकरी की बाध्यता के चलते मुझे यहीं रूकना होता था । ऐसे में बस हमेशा यहॉ से किसी तरह निकलने का कोई न कोई बहाना ही ढूढा करता था।

उस दिन भी कुछ ऐसे ही खयालों में खोया अपने कार्यालय में बैठा था कि फोन की घनघनाहट ने तंद्रा भंग की। जिला मुख्यालय से काल थी । काल करने वाले ने बताया कि उच्च न्यायालय में कोई बहुत जरूरी मुकदमा लगा जिसमे तत्काल पहुचकर शासकीय स्थिति स्पष्ट करनी आवश्यक थीं। मैं जहां तैनात था यह उपखंड राजधानी के सर्वाधिक नजदीक स्थित था इसलिये मुझे ही तत्काल राजधानी पहुचने को कहा गया। साधारणतयः किसी कर्मचारी को उच्च न्यायालय संबंधी दायित्व मिलने पर उसका चेहरा उदास हो जाया करता है तथा वह तत्काल यह युक्ति सोचता है कि कैसे इस जंजाल से छुटकारा मिले परन्तु उस फोन काल से मेरी तो मानो बॉछें ही खिल गयी थी। इस कस्बे से बाहर निकलने का अवसर पाना किसी उपलब्धि सरीखा जान पडा था। इसके बावजूद अपने सहयेागियों के सम्मुख अनिच्छा का स्वांग करते हुये आवश्यक निर्देश देने के उपरान्त मैं अपने चौपहिया वाहन से तत्काल राजधानी के लिये निकल पडा। कार चलातें हुये तेजी से पीछे की ओर जाते पेड पौधे, ठंढी हवा की फुहारें, और व्यू मिरर में प्रतिपल बदलते द्वष्य, मुझे ऐसा जान पडा जैसे कोई कैदी पैरोल पर छूटा हो। लगे भी क्यों न! आखिर कुछ समय तक उच्च न्यायालय में बिताने के वाद उस दिन मुझे लखनउ की शाम जो मिलने वाली थी। एक ऐसी शाम जिसकी प्रतिक्षा करने का अनुभव पढाई के दिनों से रहा था। इस शाम को किस तरह मनाना है इसका विचार करते करते कुछ किलोमीटर पार हो गये।

हरे हरे पेडों की दोहरी पंक्तियों के बीच काली सर्पीली सडक पर अभी कुछ एक किलोमीटर का सफर ही तय किया था कि आगे रास्ते पर भारी भीड खडी दिखलायी पडी। कौतूहलवश कार रोककर मैं भी उतर पडा और भीड को लगभग चीरता हुआ आगे बढ आया। देखा एक उलटी हुयी मोटर साइकिल और खून से लथपथ दो युवक पडे कराह रहे थे। आसपास एकत्रित भीड ऐसे तमाशबीन की तरह उन घायलो को देख रही थी मानो इन्सान न होकर कोइ जानवर पडा हो। मैने आगे बढकर युवको के माथे पर हाथ रखा और घटना का वृतांत पूंछा तथा सडक के किनारे की पटरी पर लाकर उनके चोटिल भागों पर कपडा बॉधकर उन्हें ढांढस बंधाया। उपस्थित नागरिको से अनुरोध किया कि आते जाते किसी वाहन को रोकें। मेरे पहल करने पर कई नागरिक अब मदद करने की मुद्रा में नजर आने लगे थे। मुझे लगा कि लोग नाहक ही आशंकित रहते हैं बस कोई एक नेतृत्व करने वाला आगे बढे और सारे हाथ उसे बढकर सहारा देने लगते हैं।

उधर से जो भी वाहन गुजरता वह एक आशा की किरण लेकर आता और सहयेाग की आशा से उसे रोका भी जाता लेकिन हालात से रूबरू होते ही वाहन चालक कोई न कोई बहाना बनाकर इस प्रकार निकल जाता जैसे सूरज के ताप से आतुर धरती के नजदीक से कोई बादल का टुकडा बिना बरसे ही लौट जाता है। बचपन में देखी एक फिल्म की याद ताजी हो उठी जिसमें नायक इसी तरह चिल्ला चिल्लाकर घायल नायिका के लिये कोई वाहन रोकने की कोशिश करता है लेकिन अंततः सफल नहीं होता और नायिका को खो बैठता है।

एक बारगी मैं अंदर से सिहर उठा फिर घायलो के माथे पर हाथ रखा जिसे उन्होने शायद ढांढस समझा हो परन्तु मैने उनके शरीर के ताप की थाह पानी चाही थी। समय गुजरता गया अैार सहायता के लिये कोई वाहन उपलब्ध न हो सका मैने स्थानीय पुलिस चौकी को फोन किया तथा स्थिति की जानकारी देकर घायलो की तत्काल सहायता कराये जाने की अपेक्षा की । दूसरी ओर से मुझसे पूछा गया कि दोनो में कोई मरा तो नही है मेरे आश्वस्त करने के उपरान्त यह नेक सलाह दी गयी कि उस स्थल पर घायलेा के इलाज की आवश्यक व्यवस्था में अपेक्षा से अधिक समय लग सकता है और मेरे लिये उच्च न्यायालय संबंधी अपने कार्य की महत्ता को समझना चाहिये अतः घायलों को यथास्थिति में छोडकर अविलम्ब प्रस्थान करना ही उचित तथा श्रेयस्कर होगा। मुझे ऐसा लगा कि यदि मै धायलों को उसी दशा में छोडकर चला गया तो अवश्य कोई अनहोनी हो जायेगी और उसके लिये पूरी तरह से मैं ही जिम्मेदार होउॅगा। जैसे कोई मेरी परीक्षा लेना चाहता था। मष्तिष्क में विचारों की एक लंबी श्रंखला चल निकली और अंततः मेरे अंतरमन ने मुझे विवश कर दिया कि मैं उन दोनो घायलो को नजदीकी चिकित्सा केंन्द्र तक पहुंचाये गये बगैर आगे नहीं बढ सकता था।

घटना स्थल पर उमड आयी भीड की सहायता से मैने गंभीर रूप से घायल व्यक्ति को कार की पिछली सीट पर लिटाया और दूसरे घायल को सामने वाली सीट पर बैठाकर खुद ड्राइविंग सीट संभाली और वहां से बढ चला। तेजी से कार चलाता हुआ मैं किसी नजदीकी चिकित्सालय तक शीघ्रता से पहुंचना चाहता था क्योकि पिछली सीट पर लेटे घायल के टूटे हुये अंगों से लगातार खून रिस रहा था। कुछ किलोमीटर चलने के बाद मैने स्थानीय लोगों से पूछा कि नजदीकी अस्पताल कितनी दूर है तो यह मालूम हुआ कि लगभग बीस किलोमीटर दूर राजकीय चिकित्सालय है। दिन में एक बजे तक वहां डाक्टर उपलब्ध रहते हैं । मैने घडी की ओर देखा बारह बजने को था और अभी बीस किलोमीटर की दूरी तय करनी थी। कार की पिछली सीट पर निगाह डालने पर पाया कि घायल कराह रहा था और आशान्वित नजरों से मुझे देख रहा था। मैने कार के एक्सीलेटर पर दबाव बढा दिया और तेजी से आगे बढने लगा । मुझे हरहाल में अस्पताल बंद होने से पहले वहां पहुंचना था। कहते है कि केाशिशें कामयाब होती हैं सो मुझे भी अपनी कोशिश कामयाब होती सी जान पडी जब मैं समय रहते नजदीकी अस्पताल पहुंचने में सफल हुआ।

सरकारी अस्पताल में ठीक वैसा ही व्यवहार हुआ जैसा अपेक्षित होता है। मैने अस्पताल से एक स्ट्रेचर की मांग की ताकि कार की पिछली सीट पर लेटे घायल को बाहर निेकाल सकूं परन्तु वहां उपस्थित कारिंदे ने मेरी आवाज सुनने की कोशिश ही नहीं की और दैाडकर अंदर बैठे डाक्टर तक गया और उनके कान में धीरे से कुछ फुसफुसाया आया। दूर से मैने देखा कि डाक्टर ने इशारों में उसे कुछ समझाने की कोशिश करनी चाही परन्तु तब तक मैं भी डाक्टर के कक्ष में दाखिल हो चुका था। उन दोनों की मुखाकृतियां देखकर मुझे ऐसा आभास हुआ जैसे मेरे द्वारा उस कक्ष में प्रवेश कर लेने की जो अनाधिकार चेष्ठा की गयी थी वह उन दोनों को सुखद नहीं लगी। मैने उन्हें अपना परिचय देते हुये अनुरोध किया:-‘‘ डाक्टर साहब ! मैं आज जल्दी में भी था लेकिन रास्ते में इन्हें कराहता तडफता हुआ देखकर अपने आप को रोक न सका और इन्हें यहां ले आया। बस जल्दी से मुझे एक स्ट्रेचर दिलवा दीजिये ताकि घायल को उतारा जा़ सके , मुझे अभी उच्च न्याया..............--- ’’

मेरी बात पूरी होने से पहले ही डाक्टर साहब बोल पडे:-‘‘ अरे ! इतने भी उतावले क्यों हो रहे है ? चलिये हम वहीं देखे लेते हैं कि यहां कुछ कर भी पायेंगें या नहीं ।’‘

यह कहते हुये वह डाक्टर मेरे साथ चलकर कार तक आये और कार के अंदर लेटे घायल की हालत का जायजा लेने के बाद फिर बोलेः-‘‘ सार्थक जी! इसकी हालत तो हमें ठीक नहीं लगती। पुलिस रिपोर्ट के बगैर यहां कुछ भी नहीं कर पायेंगें हम !स्ट्रेचर लाना बेकार है, इन्हें तो आपको मेडिकल कालेज ही ले जाना चाहिये ।’‘

अब मेरे अचंभित होने की बारी थी, कार की पिछली सीट पर असहाय पडे उस अजनबी के टूटे अंगों से रिसता रक्त तो कार में बिखरता जा रहा था परन्तु इसके बावजूद वह पूरे होशेा हवास में था । ऐसा कोई खतरा मुझे दूर दूर तक नहीं दिख रहा था जिसके चलते कोई डाक्टर अपनी असमर्थता प्रगट करे। लगभग निराश नजरों से मैने फिर डाक्टर की ओर देखा और पुनः स्ट्रेचर दिलाने का अनुरोघ किया ताकि उस घायल के टूटे अंगों की प्राथमिक चिकित्सा हो सके और उन अंगों से रक्त का प्रवाह रूक सके और मैं भी समय रहते उच्च न्यायालय पहुंच सकूं परन्तु डाक्टर ने तो जैसे इस अवांछित उत्तरदायित्व से स्वयं को दूर रखने का निर्णय पहले ही ले लिया था। मैं यह नहीं समझ पा रहा था कि मनुष्यता की सेवा का व्रत लेने वाली यह कैसी प्रजाति है जो रिसते लहू को समेटकर लाये किसी आम आदमी के प्रयासों का देखकर भी नहीं पिघल रही थी। निजी स्वार्थ और जिम्मेदारी से भागने की घनी बर्फ लेश मात्र भी पिघलने का नाम नहीं ले रही थी। नैतिकता और निजी विवशता आदि के सभी संभव आग्रह उनके सम्मुख रखने के बावजूद जब मैं धायलों को वहां उतारने में सफल नहीं हेा सका तो हारकर कार के स्टीयरिंग व्हील पर पुनः बैठ गया और आशा की नयी किरण की तलाश में मेडिकल कालेज की ओर बढ चला ।

कार की पिछली सीट से लगातार कराहने की आवाज आ रही थी। कितने निष्ठुर होते हैं ये प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र के सरकारी डाक्टर ? छोटा अस्पताल है ना! शायद इसीलिये सोचने का दायरा भी छोटा हो गया है। आखिर समय रहते उनके पास पहुंचे घायल को तो उन्हें देखना ही चाहिये था। कैान सी विवशता रही होगी उसकी? शायद अस्पताल का समय पूरा होने पर जल्दी से शहर जाने वाली बस पकडनी रही हो। परिवार तो शहर में ही रहता होगा ना उनका , आखिर सुविधा विहीन छोटे कस्बों में उच्च शिक्षित चिकित्सक कैसे रह सकता है ? छोटे छोटे कस्बों में दिन रात रूके रहने का दायित्व तो प्रशासन के लोगों का है। यह सोचते सोचते मुझे खीज आने लगी। क्या इसी तरह का ही व्यवहार ये लोग उनसे भी करते होंगे जो दूर ग्रामीण अंचलों से आशा की गठरी लेकर उन तक आते है? कैसा ठगा सा महसूस करता होगा आम आदमी जब उसे ऐसी परिस्थितियों से जूझना पडता होगा? क्या जल्दी घर पहुंचने की चाह ने इतना निष्ठुर बना दिया है इन्हे? शहर में तैनात डाक्टर तो इतना निष्ठुर बर्ताव नहीं करते होंगे क्योंकि उन्हें तो अपने घर भागने की जल्दी भी नहीं होती होगी। उनकी सोच अवश्य बडी होगी।

लोगों को शहर में बेहतर सुविधायें मिलती होंगी तभी तो कस्बे के डाक्टरो ने सभी तरह की जिम्मेदारियों से मुह फेर रखा है। सबकी निगाहें मेंडिकल कालेज की ओर आशा भरी नजरों से शायद इसी लिये तो देखती हैं। इन्हीं विचारों में खेाया मैं जल्दी से जल्दी मेडिकल कालेज पहुंचकर इन अजनबियों को डाक्टरी सहायता उपलब्ध कराना चाहता था। मोबाइल बजा तो पता चला कि जिला मुख्यालय से पूछा जा रहा था कि मैं उच्च न्यायालय पहुंचा या नहीं । मेरे न पहुंचने की दशा में सरकार के विरूद्ध निर्णय जो हो सकता था। घडी पर निगाह पहुंची तो यह देखकर असहजता होने लगी कि दोपहर का एक बज चुका था। जैसे जैसे परिस्थितियों का दबाव मष्तिष्क पर बढने लगा मैने भी कार के एक्सीलेटर पर दबाव और बढा दिया।

कुछ समय के बाद मै मेडिकल कालेज के आकस्मिक कक्ष के बाहर खडा था। यहां का वातावरण कुछ उत्साहजनक लगा। पास ही खडे दो युवकों ने लपककर स्ट्रेचर ला दिया और कार की पिछली सीट पर लेटे घायल को निकाल कर उस पर लिटा दिया। मै शीघ्रता से लपककर आकस्मिक चिकित्सक के पास पहुंचा और घायलो की चिकित्सा शीघ्र प्रारंभ करने का अनुरोध किया। चिकित्सक महोदय ने पुलिस रिपोर्ट और रेफरल पर्ची की मांग की। मैने सारी बात समझानी चाही लेकिन यहां भी चिकित्सक महोदय पुलिस रिपार्ट के बगैर कुछ भी करने को तैयार न थे। मेरे मोबाइल पर लगातार काल आ रही थी। मुझे इसका अंदाजा था कि वह काल जिला मुख्यालय से थी जो उच्च न्यायालय में मेरी व्यक्तिगत उपस्थिति सुनिश्चित करना चाहते थे। मैं डाक्टर के साथ भी नहीं उलझना चाहता था और उच्च न्यायालय में सरकार की किरकिरी भी नहीं होने देना चाहता था आखिर सरकार का नौकर जो था। घायल व्यक्ति की ओर देखने पर अपनी नैतिकता याद आ रही थी और उनकी चिकित्सा व्यवस्था प्रारंभ हुये बगैर वहां से हट जाने के प्रति मन लगातार आशंकित था।

मैने एक बार फिर चिकित्सक महोदय से अनुरोध मिश्रित प्रार्थना की परन्तु इस बार उनका व्यवहार ऐसा था जैसे सरकारी कर्मचारी होने के नाते हम दोनो एक ही थैले के चटटे बटटे हों । उन्होने कहा:-‘‘ देखिये आप सरकारी अफसर हैं, आपका काम पूरा हुआ, अब आप जाइये, आपने तो मिसाल पेश की है, कौन इतनी मानवता दिखलाता है। अब अगर आप समय से हाई कोर्ट नहीं पहुंचे और कुछ उल्टा सीधा आर्डर हो गया तो आपकी हालत पर कोई तरस नहीं खायेगा, और कोई मानवता भी नही दिखलायेगा। फिर आपको अपनी हालत का इलाज ढूंढने खुद ही निकलना होगा। इसलिये मेरी सलाह मानिये और अब आप जाइयें। इनका तो इलाज किसी न किसी तरह शुरू हो ही जायेगा। और हां जरा अपनी हालत तो देख लीजिये कपडों में जगह जगह खून लगा है। इसे साफ करके ही न्यायालय जाइयेगा।’’

मैने ध्यान दिया सचमुच मेरे कपडों में जगह जगह खून लगा था। मोबाइल पर लगातार शीघ्र हाई कोर्ट पहुंचने के संदेश आ रहे थे सेा मुझे डाक्टर की बात जंच गयी। मेरी कार की पिछली सीट भी खून से भरी थी जिस पर अब तक मख्खियां भिनभिनाने लगी थी। मैने ट्रामा सेन्टर के बरामदे में रखे स्ट्रेचर पर पडे घायलो की ओर देखा जिनकी आंखों मे उम्मीद की किरण चमकने लगी थी, फिर लौटकर अपनी कार की ड्राइविंग सीट पर आ बैठा और कार आगे बढा दी। रास्ते में एक गैराज पर कुछ देर रूककर कार की सफायी करवायी और अपने कपडों केा भी पोछा। इसके तुरंत बाद उच्च न्यायालय की अगली मंजिल की ओर रूख किया, सौभाग्य से सरकार के हित मे फैसला सुनाया गया और वहां से निबटते ही फिर मेडिकल कालेज आ पहुंचा।

आकस्मिक चिकित्सा कक्ष में अब कोई दूसरे डाक्टर बैठे थे । मेरी बात सुनने के बाद उन्होने अपना रजिस्टर पलटा और बतायाः- ’’ अरे! वे दोनो, जिनमें पुलिस रिपोर्ट नहीं थी ,’’

मेरे सहमति व्यक्त करने पर उन्होंने आगे बताना शुरू किया:-‘‘अरे! उनका तो इलाज बहुत देर से शुरू किया जा सका था क्योकि आप पुलिस रिर्पोट जो नहीं लाये थे। पुलिस रिर्पोट लिखवाने के लिये नजदीकी चौकी के सिपाहियों को बुलाया गया फिर उन्होंने आकर अज्ञात के नाम से रिपोर्ट दर्ज की तब जाकर इलाज शुरू किया जा सका। अफसोस कि अधिक खून बहने से एक घायल की मौत हो चुकी है जो मुर्दाघर में ले जाया जा रहा है और दूसरा आर्थोपेडिक विभाग में भेजा जा रहा है।’’ डाक्टर महोदय ने बडी सहजता से बताया लेकिन उनके कहे शब्द मेरे कानेा में जैसे शीशा घोलते चले गये। लगभग असहाय हो चुकी द्वष्ठि से मैने ट्रामा सेन्टर के बरामदे में घसीट कर ले जाये जा रहे स्ट्रेचर पर ढके शरीर की ओर देखा जो सभ्यता के धरातल पर उदासीनता के प्रक्षेपास्त्रों से लडी गयी लडाई अंततः हार कर जा रहा था।