परिंदे की जात / महेश कुमार केशरी
लाल्टू ने घर को आखरी बार निहाराl घर जैसे उसके सीने में किसी कील की तरह धँस गया था l उसने बहुत कोशिश की लेकिन, कील टस से मस ना हुआl उसने सामने खुले मैदान में नज़र दौड़ाई l सामने बड़े -बड़े पहाड़ ख़ूब सूरत वादियाँl कौन इस जन्नत को छोड़ कर जाने की बात भी सोचता हैl लेकिन वह अपने बूढ़े बाप और अपने बच्चों का चेहरा याद करता हैl तो ये घाटी अब उसे मुर्दों का टीला ही जान पड़ती हैl इधर घाटी में जबसे मजदूरों पर हमले बढ़ें हैं l उसके पिताजी और उसके बच्चों का हमेशा फ़ोन आता रहता हैl कि कहीं कुछ...l उसके बूढ़े पिता कोई बुरी घटना घाटी के बारे में सुनतें नहीं कि उसका मोबाइल घनघना उठता हैl चिंता की लकीरें लाल्टू के चेहरे पर और घनी हो जातीं हैं l
बूढ़ा असगर जाने कबसे आकर लाल्टू के बगल में खड़ा हो गया थाl उसकी नज़र अचानक बूढ़े असगर पर पड़ी l
लाल्टू झेंपता हुआ बोला - "अरे चचा आईये बैठिये...l"
"तुमने, तो जाने का इरादा कर ही लिया है l तो मैं क्या कहूँ...? लो यह पश्मीना साल है...l रास्ते में ठंँढ़ लगेगी तो ओढ़ लेनाl" असगर चचा ने तह किये हुए साल को पन्नी से निकाला और लाल्टू के कंँधे पर डाल दियाl
इस अपनत्व की गर्मी के रेशे ने एक बार फिर, से लाल्टू की आँखें नम कर दींl
असगर चचा ने धीरे - से उसके कँधे दबायेl और हाथ से उसके कँधे को बहुत देर तक सहलाते रहेंl
असगर चचा को कहीं ये एहसास हुआ कि ज़्यादा देर तक वह इस तरह रहें l तो उनकी भी आँखें भीगनें लगेंगीl
उन्होनें विषयाँतर किया और बोले- "चाय पियोगे... ?"
लाल्टू ने हाँ में सिर हिलायाl
बूढ़े असगर ने नदीम को आवाज़ लगाई - "नदीम ज़रा दो कप चाय दे जाना l थोड़ी देर में नदीम दो प्यालों में गर्मा- गर्म चाय लेकर आ गया l"
चाय पीते हुए बूढ़ा असगर बोला - "ठीक, है अब तुम भी क्या कर सकते हो ? जब यहाँ लोग ड़र के साये में जीने को मजबूर हैंl वहाँ तुम्हारे वालिद और बच्चे परेशान हैंl यहाँ क्या है ? फुचके अब ना बिकेंगेl तो चाय बेचने लगूँगाl आख़िर कहीं भी रहकर कमाया - खाया जा सकता है l तुम जहाँ रहो ख़ुश रहोl अपने वालिद और अपने बच्चों को देखोl ज़माना बहुत खराब आ गयाl पहले लोग इंसानियत और कौम के लिए जान दे देतें थेंl लेकिन, अब इन नालायकों को जेहाद और आतंकवाद के अलावे कुछ नहीं सूझताl जेहाद बुराई को ख़त्म करने के लिए किया जाता है l बुरा बनने के लिए नहीं l इस्लाम में कहीं नहीं लिखा हैl कि बेगुनाहों और मजलूमों को क़त्ल करोl ये सब वही लड़कें हैंl जिन्हें धर्म के नाम पर उकसाया जाता हैl और सीमापार बैठे हुक्मरान इनसे खेलतें हैंl"
बहुत देर से चुप बैठा नदीम भी आखिरकार चुप ना रह सका l बोला - " तमिलनाडु में एक कंपनी ने तो एक ऐसा विज्ञापन निकाला हैl जिसमें लिखा है कि वह नौकरियाँ केवल हिंदुओं को देगा l मुसलमानों को नहीं !
आखिर जो हो रहा हैl एकतरफा तो नहीं हो रहा है ना l "
अचानक से चचा के शब्दों में अफ़सोस उतर आया l वह नदीम को घूरते हुए बोले - "आज सालों पहले लाल्टू यहाँ आया थाl और पता नहीं कितने मज़दूर यहाँ काम की तलाश में आयें होंगेl ये देश जैसे तुम्हारा है वैसे लाल्टू का भी हैl कोई भी कहीं भी देश के किसी भी हिस्से में जाकर मजदूरी कर सकता हैl कमाने- खाने का हक़ सबको हैl लाल्टू आज भी मुझे अपने वालिद की तरह ही मानता है l गोलगप्पे मैं बेलता हूँ l छानता वह हैl रेंड़ी मैं लगता हूँ l रेंड़ी धकेलता वह हैl मैंने कभी तुममें और लाल्टू में अंतर नहीं किया l बेचारा हर महीने जो कमाता हैl अपने घर भेज देता हैl साल - छह महीने में वह कभी घर जाता हैl तो अपने बूढ़े बाप और बाल बच्चों से मिलनेl मेरा ख़ुदा गवाह है l कि मैंने कभी इसे दूसरी किसी नज़र से देखा होl इस ढंँग की हरकतें सियासदाँ करेंl उनको शोभा देता होगाl हम तो इंसान हैं ऐसी गंदी हरकतें हमें शोभा नहीं देतीं ! हम तो मिट्टी के लोग हैंl और हमारी ज़रूरतें रोटी पर आकर सिमट जाती हैl रोटी के आगे हम सोच ही नहीं पातेl हिंदू - मुसलमान भरे- पेट वालों लोगों के लिए होता हैl खाली पेट वाले रोटी के पीछे दौड़ते हुए अपनी उम्र गँवा देतें हैंl इसलिए नदीम दुनियाँ में आये हो तो हमेशा नेकी करने की सोच रखो l बदी से कुछ नहीं मिलता बेटा l बेकार की अफवाहों पर ध्यान मत दो बेटा l इस तरह की अफवाहों पर कान देने से अपना ही नुक़सान है , नदीमl ऐसी अफवाहें घरों में रौशनी नहीं करतीं l ना ही शाँति के लिये कँदीलें जलातीं हैंl बल्कि पूरे घर को आग लगा देतीं हैंl मैं उन नौजवानों से भी कहना चाहता हूँl जो इस तरह के कत्लो- गारत में यक़ीन रखतें हैंl बेटा उनका कुछ नहीं जायेगा l लेकिन तबतक हमारा सबकुछ जल जायेगा !"
बाहर की खिली हुई धूप में कुछ कबूतर उतर आयें थेंl बूढ़ा असगर गेंहूँ के कुछ दाने कोठरी से निकाल लाया l और उनकी तरफ़ फेंकनें लगाl ढेर सारे कबूतर वहाँ दाना चुगने लगें l
बूढ़ा असगर, उनकी ओर ऊँगली दिखाते हुए लाल्टू और नदीम से बोला - "देखो ये हमसे बहुत बेहतर हैंl अलग- अलग रंँगों के होने के बावजूद ये एक साथ बैठकर दाना चुग रहें हैं l ये बहुत बुद्धि मान नहीं हैंl फिर, भी ये आपस में कभी नहीं लड़तें l लेकिन, आदमी इतना बुद्धि मान होने के बावजूद भी जातियों और मजहबों में बँटा हुआ हैl इन कबूतरों से आदमी को बहुत सीखने की ज़रूरत हैl"
लाल्टू ने नज़र दौड़ाई दोपहर धीरे- धीरे सुरमई शाम में तब्दील होने लगी थीl उसने एक बार रेंड़ी को छुआl फिर, उन बर्तनों पर सरसरी निगाह दौड़ाईl बिस्तर को निहारा l ये सब वह आखिरी बार निहारा रहा थाl पिछले दस- बारह सालों से वह कश्मीर के इस हिस्से में रेंड़ी लगाता आ रहा थाl सब छूटा जा रहा था ...!
उसकी बस किनारे आकर लगीl लाल्टू चलने को हुआ l
बूढ़ा असगर दौड़कर बस तक आयाl उसने लाल्टू को सीने से लगा लियाl लाल्टू और बूढ़ा दोनों रोने लगेl
बूढ़ा असगर बोला - "अपना ख़्याल रखना ! कभी हमारी याद आयेl और हालात ठीक हो जायें तो चले आना l"
"आप भी... अपना ख़्याल रखना... बाबा...!" झेंपता हुए वह बस की सीट पर बैठ गया l उसने बैग से पश्मीना शाॅल निकाला और ओढ़ लिया l सुरमई शाम धीरे - धीरे रात में बदल गईl