परिंदे / रेखा राजवंशी
वक्त जाने कहाँ उड़ गया, पता ही नहीं चला।
अब रामकुमार सत्तासी वर्ष के हो गए थे। उन्होंने अख़बार में नज़र गड़ाई, आज 21 नवम्बर है, बीस साल पहले जब इकलौता बेटा ऑस्ट्रेलिया आया था, तब वे फूले नहीं समाए थे। शीघ्र ही उसने रामकुमार जी को बुला लिया। घर में सभी सुख-सुविधाएँ थीं। बहू, बच्चो के साथ वक़्त अच्छा कट रहा था, बहू उनका ख़्याल रखती, काम पर जाती तो खाना बना जाती, फ़ोन करके हाल पूछती रहती। काम-काज से जितना वक़्त मिलता, बेटा उनके साथ बिताता। रामकुमार खुश थे। वक़्त बीतता गया, पर पिछले दो वर्षों ने पूरा शरीर झिंझोड़ डाला, बीमार रहने लगे। बच्चों की पढ़ाई, बहू-बेटे की नौकरी, अचानक अकेले से हो गए। बेटे ने कुछ दिन नर्स रखी, फिर डॉक्टर्स के कहने पर उन्हें नर्सिंग होम आना पड़ा। हफ्ते में चार-पांच बार बेटा, बहू, बच्चे आ जाते, फ़ोन पर बात होती रहती। पर जब रात होती तो भारत के सपने दिखने लगते। तीन बेटियाँ भारत में थीं, उनको देखने का मन होता। मन मज़बूत था लेकिन शरीर में ताकत नहीं थी। मन परिंदे-सा उड़कर जाता और उन्हें प्यार से सहलाकर आ जाता।
इस नर्सिंग होम में सभी व्यक्ति टर्मिनल अवस्था में भर्ती किये जाते हैं। चाहे-अनचाहे शायद सभी मौत की प्रतीक्षा कर रहे थे, उससे ज़्यादा ज़िन्दगी की लड़ाई लड़ रहे थे। कमरे में दो पलंग थे। पास वाले पलंग पर लैरी नाम का एक एबोरीजनल व्यक्ति था। कभी-कभी उससे बतिया लेते, उसकी जिंदादिली उन्हें अच्छी लगती ।
एक रात रामकुमार किसी के रोने को आवाज़ से उठ गए, लैरी रो रहा था , पहली बार…॥ डगमगाते पैरों से रामकुमार उठे, उन्होंने लैरी को पानी दिया, टिशू का डिब्बा दिया। लैरी ने उन्हें बताया कि वह 'स्टोलेन जेनेरेशन' का व्यक्ति है, यानी कि उस पीढ़ी का, जिसे अंग्रेज़ उनके माता-पिता से छीन कर ले गए थे। तब वह सिर्फ़ दो साल का था। उसके बाद उसने अपने माता-पिता, भाई-बहिन किसी को नहीं देखा। लैरी एक बार अपने गाँव जाना चाहता था, वह घर जिसमें वह कभी रह नहीं सका, ढूँढना चाहता था। वे लोग जिन्हें वह जानता तक नहीं था, उनसे जुड़ना चाहता था। कभी वक़्त नहीं था, तो कभी पैसे नहीं थे और अब।…।
रामकुमार हतप्रभ से देखते रहे, जाने कब लैरी की पीड़ा उनकी पीड़ा बन गई, उसका दर्द उनके मन में उतर आया। उनकी आँखों से आंसुओं की धार बाह निकली। वह आगे बढ़े और लैरी के गले लग गए।
नर्सिंग होम के सन्नाटे में अब दो लोगों के सुबकने की आवाज़ गूँज रही थी ।