परिणत प्रज्ञा का काव्य-संसार (गोपेश्वर सिंह) / नागार्जुन
कवि रूप में नागार्जुन से मेरा परिचय 1974 में हुआ। लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार में छात्रों-युवाओं का आंदोलन उभार पर था। जयप्रकाश जी की सभाओं में और नुक्कड़ों-चौराहों पर होने वाले धरना-प्रदर्शनों में यह कविता पढ़ी जाती थी: क्या हुआ आपको? क्या हुआ आपको? सत्ता की मस्ती में भूल गयीं बाप को? इंदु जी, इंदु जी, क्या हुआ आपको? यह नागार्जुन की कविता थी। पटना की सड़कों पर जब लोकनायक पर पुलिस ने लाठियां बरसायीं तो एक और कविता लोगों की ज़बान पर आयीμजयप्रकाश पर पड़ीं लाठियां लोकतंत्रा की। यह कविता भी नागार्जुन की थी। और इस तरह कवि नागार्जुन से मेरी पहली मुलाकात एक विशाल जनांदोलन के दौरान हुई। तब मैं नागार्जुन को जानता नहीं था। स्नातक का छात्रा था। पाठ्यक्रम में शामिल कवियों को ही प्रायः जानता था। जहां तक मुझे याद है, नागार्जुन की कोई कविता, बिहार के पाठ्यक्रमों में नहीं थी। जबकि उनके समकालीन अनेक गौण कवियों की कविताएं थीं और उन्हें हम जानते थे। नागार्जुन की इस उपेक्षा का कारण उनका कम्युनिस्ट होना और जनांदोलनों के साथ जुड़ा होना ही था। तब तक कम्युनिज्म कवियों-लेखकों के लिए सिर्फ़ बौद्धिक सचेतनता का दर्शन भर नहीं था, वह अग्निपथ था, जिस पर जाने का मतलब था उपेक्षा और तबाही को न्योता देना। आज प्रगतिशील या जनवादी कवि कहलाने में कोई जोखिम नहीं है। यह प्रकाशन, चर्चा, पुरस्कार आदि का राजपथ है। तब खोना ही खोना था, आज पाना ही पाना है। नागार्जुन के संघर्ष और प्रतिबद्धता से आज की प्रगतिशील-जनवादी कविताओं की तुलना नहीं हो सकती। बहरहाल, नागार्जुन अपनी कविताओं और राजनीतिक कार्यों के ज़रिये तबाही-बर्बादी को न्योता दे चुके थे, स्वाभाविक था कि उनकी कविताएं न तो पाठ्यक्रम में थीं और न उनकी काव्य-पुस्तकें कायदे से प्रकाशित थीं। युगधारा (1953), सतरंगे पंखों वाली (1959), प्यासी पथरायी आंखें (1963) और तालाब की मछलियां (1974) संग्रह के लेखक-प्रकाशक ख़ुद नागार्जुन थे और वे उन्हें झोले में रख कर घूम-घूम कर बेचा करते थे। शिक्षित समाज के बीच उनकी कवि रूप में ठीक से मान्यता भी नहीं थी। वे राजनीतिक प्रोपेगंडा के कवि माने जाते थे। नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 259 जो लोग नागार्जुन के समकालीन अन्य कवियों की उपेक्षा और प्रगतिशीलों द्वारा उनकी आलोचना से विचलित होते हैं, उनका ध्यान इस तथ्य की ओर जाना चाहिए। 1974-75 तक कवि के रूप में नागार्जुन की स्वीकृति उस बिहार में नहीं थी, जहां के वे निवासी थे। प्रभाकर माचवे के संपादन में 1978 में पहली बार ‘आज के लोकप्रिय कवि’ शृंखला में नागार्जुन शामिल किये गये। उस समय तक नागार्जुन का कोई काव्य संग्रह किसी प्रकाशक ने प्रकाशन योग्य नहीं माना था। उनके उपन्यास छापने वाले प्रकाशक भी उनकी कविताएं नहीं छापते थे। ऊपर जिन संग्रहों का जिक्र हुआ है उनके अतिरिक्त चना ज़ोर गरम, खून और शोले, प्रेत का बयान आदि काव्य पुस्तिकाएं भी नागार्जुन ने ख़ुद छापी थीं, जिन्हें घूम-घूम कर वे बेचते थे। यह सहज अनुमान का विषय है कि झोले में काव्य पुस्तिकाएं लेकर घूमने वाले और उन्हें गा-गाकर बेचने वाले नागार्जुन की कैसी कवि-छवि तथाकथित साहित्यिक समाज के बीच रही होगी? इसके बावजूद जनसंघर्षों से जुड़े और सहानुभूति रखने वाले लोगों के बीच नागार्जुन का सम्मान था। उनके बीच वे रमते थे और कवि रूप में उनका आदर भी था। नागार्जुन को पहली बार 1975 में इमरजेंसी लगने से पहले देखा। बिहार के सीवान में छात्रों-युवाओं की एक सभा को वे संबोधित कर रहे थे। अपनी कविताएं भी सुना रहे थे। उस सभा में मैं भी था। वहीं पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार किया और बक्सर जेल में डाल दिया। कुछ दिन बाद ही इमरजेंसी लग गयी और जेपी सहित विरोधी दलों के नेता गिरफ़्तार कर लिए गये। प्रेस पर सेंसरशिप लागू हो गयी। इमरजेंसी के बीच में ही अख़बारों से मालूम हुआ कि नागार्जुन जेल से छूट गये। यह भी सुना कि वे पैरोल पर छूटे हैं। बाहर आकर उन्होंने जयप्रकाश जी के खि़लाफ़ बयान दिया। वह बयान अभद्र भाषा में था। जयप्रकाश और नागार्जुन के प्रति सम्मान रखने वाले हम छात्रों-नौजवानों के लिए यह एक झटका था। आखिर ऐसा क्यों किया नागार्जुन ने? हम प्रश्न से भरे थे, लेकिन नागार्जुन तो नागार्जुन थे। जेल में रह कर उन्होंने जयप्रकाश के साथ जुड़ी उन सांप्रदायिक शक्तियों का शायद असली मकसद समझा था। वे यह देखने में सफल हुए थे कि जयप्रकाश जी का इस्तेमाल कर सांप्रदायिक-फ़ासीवादी ताक़तें किस तरह राजनीतिक वैधता हासिल करने के चक्कर में हैं। उन्होंने जो कड़ा बयान दिया उसके मूल में यह वजह तो थी ही, शायद एक दूसरी वजह भी थी। भाकपा से जुड़े होने के बावजूद वे जेपी आंदोलन में सक्रिय थे। पार्टी के कुछ लोगों को नागार्जुन की यह भूमिका पसंद नहीं थी। कहा जाता है कि पार्टी से जुड़े खगेंद्र ठाकुर और नंदकिशोर नवल की पहल पर नागार्जुन ने यह बयान दिया था। जो भी हो, नागार्जुन इस रूप में हमारे सामने थे और जन संघर्ष के कवि रूप में हमारे सम्मान के पात्रा भी। 1977 में जब इमरजेंसी हटी और केंद्र और कई प्रदेशों में जनता पार्टी की सरकार आ गयी तो उसके अंतर्विरोधों और क्रियाकलापों पर नागार्जुन लगातार काव्यात्मक टीका-टिप्पणी करते रहे। उस दौर को उन्होंने ‘खिचड़ी विप्लव’ नाम दिया। आज हमें लगता है कि नागार्जुन का वह आकलन ग़लत नहीं था। वे ज़मीन से जुड़े कवि-लेखक थे, इसीलिए अपने सहज अनुभव से राजनीति और समाज की सारी बारीकियां वे समझ लेते थे, जिसे बहुतेरे बुद्धिजीवी पोथियों के ज़रिये समझा करते हैं। वे न सिर्फ़ राजनीतिक घटनाक्रमों के अच्छे विश्लेषक थे, बल्कि व्यक्तियों को भी समझने में माहिर थे। वह व्यक्ति चाहे साहित्य का हो या राजनीति का। मुझे याद है, पटना के दो आलोचकों के बारे में की गयी उनकी अत्यंत तीक्ष्ण टिप्पणी। वे दोनों आलोचक 260 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 बिहार में प्रगतिशील लेखक संघ के कर्ताधर्ता थे। बाबा अक्सर उनके यहां ठहरते थे। बावजूद इसके उनके आलोचनाकर्म के प्रति वे अत्यंत कठोर थे। एक आलोचक, जो पटना विश्वविद्यालय में तब प्राध्यापक थे, की आलोचना के बारे में नागार्जुन की टिप्पणी थी-‘उनकी आलोचना सफ़ेद तरबूज की तरह है। काटो तो कोई रंग नहीं, खाओ तो बेस्वाद। हाजमा अलग से खराब।’ दूसरे आलोचक, जो भागलपुर विश्वविद्यालय की अध्यापकी छोड़ कर कम्युनिस्ट पार्टी के होलटाइमर थे, पर बाबा की टिप्पणी थी-‘ ये महाशय हाथी छाप आलोचक हैं। इनकी आलोचना धम्म-धम्म चलती है, हाथी की तरह। कोई गति नहीं है।’ एक तीसरे आलोचक, जो दिल्ली निवासी थे और जनवादी लेखक संघ के कर्ताधर्ताओं में से थे और अब उत्तरआधुनिक मीडियाकर्मी हो गये हैं, की आलोचना के बारे में बाबा अक्सर बड़ी मज़ेदार टिप्पणी करते थे। संयोग यह कि बाबा दिल्ली में होने पर उनके यहां भी रुकते थे। बाबा कहते थे, ‘यह हिरणछाप आलोचक हैं। यूं सूंघा यूं उछला।’ ऐसा कहते हुए हाथ से हिरण के ज़मीन सूंघने और तत्क्षण उछलने का अभिनय भी करते थे। हिरण के ज़मीन सूंघने और उछलने से उनका आशय पश्चिमी साहित्य चिंतन की गंध लगते ही हिंदी में बिना सोचे-समझे उछलने से था। ऐसा नहीं है कि बाबा अपने मित्रों की कमज़ोरियों पर ही चुटीली टिप्पणियां करते थे, उनके व्यक्तित्व की ताक़त की भी ठीक-ठीक पहचान करते थे। एक बार वे पटना के एक फुटपाथी होटल में रोटी-सब्जी खा रहे थे, जहां आमतौर पर मज़दूर ही खाया करते थे। हम सामान्य किसान परिवारों के थे, हमारे पास पैसे अक्सर नहीं होते थे। फिर भी हम ऐसी जगहों पर नहीं खाते थे। बाबा का वहां रोटी खाना हमें हैरत में डाल गया। हमने बाद में पूछा, ‘बाबा फणीश्वरनाथ रेणु यहां रोटी खाते या नहीं?’ रेणु का कुछ ही समय पहले निधन हुआ था। बाबा और वे दोनों जेपी आंदोलन में साथ थे। दोनों में मित्राता थी। लेकिन रेणु परिष्कृत रुचि और कायदे के वस्त्रा-विन्यास और खानपान के व्यक्ति थे। हमारे प्रश्न पर बाबा चुप रहे और चलते रहे। गंभीरतापूर्वक सोचने लगे थे। फिर वे रुके और हमसे मुख़ातिब हुए-‘नहीं, रेणु यहां रोटी नहीं खाते, लेकिन वे इन लोगों के लिए गोली ज़रूर खा लेते।’ उनका यह उत्तर साहित्यकार की जन प्रतिबद्धता का दूसरा आयाम उद्घाटित कर रहा था। तब तक हमारी समझ थी कि जो साहित्यकार किसानों-मज़दूरों-सा रहता है, उनके बीच उठता-बैठता है वही सच्चे अर्थों में जनप्रतिबद्ध है। नागार्जुन ने उस दिन हमारी आंखें खोलीं कि इसके बावजूद लेखक जनता के साथ होता है। जनता जैसा होना और उनके बीच रोटी खा लेना ही आखिरी पहचान नहीं है। तब हमारा ध्यान रेणु के राजनीतिक संघर्ष पर गया। अपनी परिष्कृत जीवन शैली के बावजूद रेणु जनपक्षधर और परिवर्तनकामी आंदोलनों से जुड़े लेखक थे। नागार्जुन के इस कथन से यह जाहिर हो रहा था कि जनपक्षधरता के एक आयाम नागार्जुन हैं तो दूसरे रेणु। नागार्जुन जनांदोलनों के कवि हैं। स्वतंत्रा भारत का कोई ऐसा जन आंदोलन नहीं, जिसके साथ नागार्जुन की कविता खड़ी न हो। वह चाहे कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में चलने वाला किसान आंदोलन हो, तैलंगाना, नक्स्लवाड़ी, जेपी आंदोलन हो या कोई और आंदोलन। इसी तरह दुनिया में चलने वाले विभिन्न मुक्ति संघर्षों के साथ उनकी कविता खड़ी मिलती है। इसकी वजह यह है कि जनता की मुक्ति के सवाल पर नागार्जुन के भीतर कोई दुविधा नहीं है। अपने अन्य समकालीन कवि-मित्रों की तरह वे न तो एज़रा पाउंड और इलियट की चक्करघिन्नी में पड़ते हैं और न कोई रहस्यमयी गुफा उन्हें आकर्षित करती है। अपनी एक कविता में वे साफ़-साफ़ कहते हैं: नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 261 जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊं। जनकवि हूं मैं सत्य कहूंगा क्यों हकलाऊं? 1940 की लिखी ‘भारतेंदु’ नामक अपनी प्रसिद्ध कविता में उनकी साहित्य चेतना के साथ अपने को जोड़ते हुए वे लिखते हैं: हिंदी की है असली रीढ़ गंवारू बोली, यह उत्तम भावना तुम्हीं ने हममें घोली। हे जनकवि सिरमौर! सहज भाषा लिखवइया, तुम्हें नहीं पहचान सकेंगे बाबू भइया। बाबू-भइया यानी अभिजन वर्ग। यानी संभ्रांत तबक़ा। नागार्जुन का सारा काव्य-संघर्ष कविता में अभिजन रुचि के समांतर नये और लोकधर्मी काव्य-संसार की रचना का संघर्ष है। उनका काव्य-संघर्ष अपने समकालीन कवियों, मसलन, अज्ञेय, शमशेर और मुक्तिबोध से अलग है। इन कवियों की काव्य-चेतना शहरी मध्यवर्ग की है। मध्यवर्गीय जीवन, स्वप्न, संघर्ष और सौंदर्यचेतना के साथ मध्यवर्गीय द्वंद्व इन कवियों की काव्यभूमि है। इनकी तुलना में नागार्जुन की काव्यभूमि अत्यंत ‘विपुल और विषम’ है। साही ‘लघुमानव’ को नयी कविता की कसौटी बनाते हैं और नयी कविता का सर्वश्रेष्ठ कवि अज्ञेय को घोषित करते हैं। यह लघुमानव शहरी मध्यवर्ग का प्रतिनिधि चरित्रा है। नामवर सिंह व्यंग्य, विडंबना और तनाव को कविता का नया प्रतिमान बताते हैं जिसका सर्वश्रेष्ठ कवि मुक्तिबोध को घोषित करते हैं। ‘अंधेरे में’ का काव्यनायक या मुक्तिबोध की दूसरी कविताओं का काव्यनायक इस शहरी मध्यवर्ग का ही प्रतिनिधि चरित्रा है। इनकी तुलना में नागार्जुन की काव्यभूमि काफ़ी विस्तृत है और स्वाभाविक रूप से विपुल भी। इसका मुख्य कारण यह है कि अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध के काव्यबोध की निर्मिति में जितना पश्चिम का योगदान है, उतना नागार्जुन के काव्यबोध की निर्मिति में नहीं। शंभुनाथ ने एक बार सही कहा था कि नागार्जुन इस दौर के एकमात्रा कवि हैं जिनकी काव्यचेतना पश्चिम के बौद्धिक उपनिवेश से मुक्त है। संस्कृत, प्राकृत, पालि, मैथिली, बांग्ला आदि भाषाओं की लोकधर्मी काव्य-परंपरा और भारतीय जनता की जीवन स्थितियां उनकी कविता को ताक़त देती हैं। अपने समकालीन कवि-मित्रों की तरह वे अपनी कविता को विश्व-विजय की होड़ में शामिल नहीं करते। वे इसके लिए परेशान नहीं रहते कि उनके बिंब और प्रतिमान कितने अनूठे और विश्वस्तरीय हैं। उनकी चिंता भारतीय जन की आकांक्षाओं को बड़े पैमाने पर अपने छंद और मुहावरे में ढालने की है। इसलिए वे नयी कविता के दौर के कवि होते हुए भी नयी कविता के रचना-विधान को झुठलाते हैं। नागार्जुन का काव्य नयी कविता के समांतर खड़ा एक ऐसा काव्य-संसार है जो अपनी कसौटी आप है। जब छंदों की विदाई हो चुकी थी तब भी छंद में लिखते हुए यानी काव्य-फैशन के विरुद्ध चलते हुए यह नागार्जुन की ही काव्यशक्ति थी, जिसने प्रकाशकों, आलोचकों और सत्ता-प्रतिष्ठानों की उपेक्षा के बावजूद देर से ही सही, अपनी कविता का लोहा मनवाया। जिस मानवर सिंह के नये प्रतिमान पर नागार्जुन कहीं नहीं आते थे, उन्हें भी कहना पड़ा कि कविता में नागार्जुन ने जितने प्रयोग किये हैं, प्रयोगवादी कवियों ने भी नहीं किये। उनका यह कथन भी ध्यान देने लायक है कि ‘तुलसी के बाद नागार्जुन अकेले ऐसे कवि हैं जिनकी कविता की पहुंच किसानों की चौपाल से लेकर काव्य-रसिकों की गोष्ठी तक है।’ 262 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 रामविलास शर्मा ने उस दौर के मूल्यांकन के लिए यथार्थवाद को काव्य-निकष बनाया। उसमें भी केदारनाथ अग्रवाल सबसे ऊपर थे। नागार्जुन दूसरे नंबर पर आ गये। लेकिन रामविलास जी ने एक महत्वपूर्ण बात नागार्जुन के संदर्भ में यह कही कि उनकी कविता में लोकप्रियता और कलात्मक सौंदर्य का संतुलन है। अगर लोकप्रियता और कलात्मक सौंदर्य को काव्य कसौटी बनाया जाये तो नागार्जुन इस दौर के सबसे बड़े कवि ठहरते हैं। बड़ी से बड़ी बात को आसान ढंग से कह देने की कला में माहिर। दिनकर ने अपने बारे में कहा है कि मैं रिल्के की बात को तुलसीदास की सफ़ाई से कहना चाहता हूं। पता नहीं दिनकर ऐसा कर सके या नहीं, लेकिन नागार्जुन की कविताएं इसका श्रेष्ठ उदाहरण हैं। वह प्रकृति हो, देशी-विदेशी राजनीति हो, प्रेम हो, दांपत्य हो या घर-बाहर का समाज। नागार्जुन जटिल से जटिल स्थितियों को सहज-सामान्य ढंग से कविता में व्यक्त करते हैं। नागार्जुन के यहां इंदुमति के मृत्युशोक पर रोने वाले ‘कालिदास’ के साथ अमल धवल गिरि के शिखरों पर घिरते बादल हैं। ‘गंवई पगडंडी की चंदनवर्णी धूल’ है। दांपत्य और गृहस्थ की महक से महकता ‘सिंदूर तिलकित भाल’ है। बच्चे की ‘दंतुरित मुस्कान’ है। एक ड्राइवर की नन्हीं बेटी की ‘गुलाबी चूड़ियां’ हैं। मज़दूर के ‘खुरदरे पैर’ हैं, तो चंदू के बहाने नये जीवन का कलेंडर उलटने वाला नये जमाने का नया सपना देखने वाला कवि भी है: चंदू, मैंने सपना देखा, तुम हो बाहर, मैं हूं बाहर, चंदू, मैंने सपना देखा, लाये हो तुम नया कलेंडर। नागार्जुन ने प्रकृति, राजनीति, संघर्ष आदि पर जितनी सुंदर कविताएं लिखी हैं, प्रेम की भी उतनी ही सुंदर कविताएं लिखी हैं। ‘यह तुम थीं’ शीर्षक कविता इस दृष्टि से देखने योग्य है: कर गयी चाक तिमिर का सीना जोत की फांक यह तुम थीं सिकुड़ गयी रग-रग झुलस गया अंग-अंग बना कर ठूंठ छोड़ गया पतझार उलंग असगुन-सा खड़ा रहा कचनार अचानक उमगी डालों की संधि में छरहरी टहनी पोर-पोर में गसे थे टूसे यह तुम थीं। इस पूरी कविता को एक साथ देखें तो पता चलेगा कि वे प्रेम की अनुभूति को कितने कोमल ढंग से प्राकृतिक उपादानों के ज़रिये व्यक्त करते हैं। आधुनिक हिंदी कविता में प्रेम की इतनी संयमित कविता शायद ही किसी ने लिखी हो। अज्ञेय ने आधुनिक कविता की पहचान यह बतायी है कि उसे श्रव्य से रहित होकर पठ्य होना चाहिए। अपने प्रसिद्ध निबंध ‘ कविता श्रव्य से पठ्य तक’ में वे बताते हैं कि अब चूंकि प्रेस का नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 263 आविष्कार हो गया है, इसलिए कविता में श्रव्यता उसका दुर्गुण है और उसका पठ्य होना ज़रूरी है। आधुनिक कविता की कसौटी अज्ञेय के लिए उसका पठ्य होना है। नागार्जुन की कविता इसका प्रत्याख्यान है। इसके साथ ही वह आधुनिक भी है। नागार्जुन की कविता पठ्य और श्रव्य दोनों ही दृष्टियों से अद्भुत है। वह सुनने-सुनाने वाली कविता के रूप में जितनी श्रेष्ठ है, उतनी ही पठ्य कविता के रूप में भी। इस दृष्टि से उनकी ‘मंत्रा’ कविता सहज ही द्रष्टव्य है। अपने अद्भुत शब्द-संयोजन, रचना-विधान, परंपराबोध, वर्तमान पर व्यंग्य आदि के कारण आधुनिक हिंदी कविता की सर्वश्रेष्ठ उपलिब्ध है। लोकप्रियता और कलात्मक सौंदर्य के संतुलन से निर्मित इस कविता को पढ़ें या सुनें, समान रूप से यह बौद्धिक पाठक से लेकर सामान्य श्रोता तक अपनी पहुंच बनाये हुए है। नागार्जुन ने जितनी साधारण कविताएं लिखी हैं, उनसे कई गुना अधिक असाधारण कविताएं लिखी हैं। कवि रूप में उनके महत्व को आंकने के लिए यह ज़रूरी नहीं कि हम उन्हें अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध, के अखाड़े में ले जाकर देखें और परखें। इन तीनों कवियों का महत्व अपनी जगह है और रहेगा। नागार्जुन की काव्यभूमि और काव्यचिंता इनसे बिलकुल भिन्न है। काव्य की शास्त्राीय और लोकधर्मी परंपरा से निर्मित उनकी चेतना आधुनिक युवा के बहुतेरे संघर्षों से संचालित है। उनकी कविता के अनेक रंग हैं। कुछ लोग प्रश्नाकुलता को आधुनिकता की कसौटी बनाते हैं और अज्ञेय को हिंदी का प्रथम आधुनिक कवि घोषित करते हैं। यहां यह कहने की ज़रूरत है कि यह न सिर्फ़ आधुनिकता की सीमित समझ है, बल्कि अज्ञेय की भी और आधुनिक हिंदी कविता की भी। अगर प्रश्नाकुलता को ही कसौटी बनायें तो नागार्जुन की दर्जन भर ऐसी कविताएं होंगी जिनके शीर्षक में ही प्रश्नवाचकता है। उनकी शेष कविताएं तो व्यवस्था के सामने प्रश्न दर प्रश्न हैं। नागार्जुन की कविता नये कर्म-सौंदर्य की कविता है। वह ऐसी कविता है जो सुंदर दुनिया की रचना में श्रमिक और बौद्धिक दोनों के श्रम-सौंदर्य की हिमायती है। प्रकृति उस श्रमिक और बौद्धिक से अलग नहीं है। इस दृष्टि से उनकी ‘यह कैसे होगा?’ शीर्षक कविता को देखा जा सकता हैμ यथासमय मुकुलित हों यथासमय पुष्पित हों यथासमय फल दें आम और जामुन, लीची और कटहल। तो फिर मैं ही बांझ रहूं। मैं ही न दे पाऊं परिणत प्रज्ञा का अपना फल। यह कैसे होगा? यह क्यों कर होगा? जीवन की परिणत प्रज्ञा के कवि हैं नागार्जुन। उनके पास कबीर के व्यंग्य की मारक क्षमता है तो तुलसी-सा अपनी विरासत का गहरा ज्ञान और बोध भी। विषयवस्तु, भाषा और छंद के बहुआयामी विस्तार का उन-सा दूसरा कोई कवि छायावादोत्तर हिंदी कविता में नहीं है। मो.: 09868460802