परिभ्रान्ति / मनीषा कुलश्रेष्ठ

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आमतौर पर वे आजकल बेचैन रहा करते हैं। पहले कहीं भीतर ही भीतर हताश मगर बाहर से सहज रहा करते थे। अब उस किस्म की स्थायी हताशा कम ही तारी होती है उन पर। हमेशा एक उद्विग्नता,अजीब किस्म की सोच, एक भ्रामक आवेश उन पर हावी रहता है। मुट्ठियां भींच - भींच कर अपने आप से बातें करते हैं। पहले लेटे रह कर दोपहर भर किताबें पलटा करते थे। अब झूले पर बैठ कर दोपहर भर अतीत कुरेदा करते हैं। कुछ बुदबुदाते हैं या बेवजह चहलकदमी किया करते हैं। योग - मनन जो कि युवावस्था से ही उनकी नियमबध्द दिनचर्या का हिस्सा रहा है अब धीरे - धीरे वह भी छूट चला है। योग करते ही देह अजीब किस्म की बेचैनी से भर जाती है। दिन भर उबकाइयां सी आती रहती हैं। ध्यान - मनन के लिये एकाग्रता नदारद है।

वे अकसर अपने चेतन का छोर खो देते हैं, और अवचेतन की काई लगी सीढियां उतरते हुए अपना चेतन ढूंढते अवचेतन के अन्तिम छोर पर जा कर पारदर्शी झिल्ली के नीचे से मुट्ठियां बांध - बांध कर चीखा करते ऐसी चीख जो कि कण्ठ से बाहर आकर अस्पष्ट गों गों में बदल जाती थी।आखिरकार घबरा जाते और बहुत से अन्धाधुन्ध प्रहारों से वह झिल्ली टूटती और वे चेतन में लौटते। कितनी बार ऐसा होता कि उधर से गुजरते हुए बडी बहू मंजुला या छोटा बेटा निमिष झूले या रॉकिंग चेयर पर उन्हें गों गों करते देख आकर झिंझोडते और जगाते। पूछते - पापा क्या हुआ?पढते - पढते सो गये थे? या कोई सपना देखा! वे निरुत्तर पसीने में तर - ब - तर।

अपनी इस अनबूझी - सी बेचैनी को वह अपने बेटों से छिपा कर रखना चाहते हैं फिर भी दोनों में से कोई आकर पूछ ही लेता है ” पापा! क्या कुछ परेशानी है?”

उन्हें लगता है हमेशा के संयत - सजग पापा काफी बदल गये हैं। भुलक्कड हो गये हैं, बिना सोचे समझे बोलने लगे हैं। उनकी जो हरेक माहौल में स्वयं को ढाल लेने की अद्भुत क्षमता थी वह क्षरित होती जा रही है। अब वे छोटी से छोटी बात पर स्वयं तो परेशान होते ही हैं दूसरों को भी परेशान करते हैं। एक ही बात बार - बार हठी की तरह दोहराते रहते हैं। मसलन घर में हवन कराने की बात। थोडे दिन पहले ही की तो बात है

“ विकास इस घर की पॉजिटिव एनर्जी को कुछ हो रहा है। तू एक बार आर्यसमाज से वर्मा जी को बुलवा कर हवन करा ले।”

“ विकास मेरा मन बेचैन हैतेरी मम्मी को सपने में देखा था। तू हवन करा ले।”

फिर विकास नहीं तो निमिष

“ निमिष मुझे अपने अंत का आभास हो रहा है मेरी अंतिम खुशी के लिये ही सही हवन”

वह दोनों व्यस्तता की वजह से टालते रहे हैं। पर वे भी हठी की तरह अडे रहे हैं। एक बार तो खाने की टेबल पर से गुस्से में उठ कर चले गये, इसी बात पर। दो वक्त खाना नहीं खाया फिर जल्दबाजी में काम - काज से अंटी पडी पूरी साप्ताहिक - चर्या के बीचों - बीच बेटों को हवन कराना ही पडा।

पहले उनका प्रत्येक काम निश्चित स्थान व नियत समय पर होता था। अब सुबह की चाय रखी - रखी ठण्डी हो जाती है उनकी नींद ही नहीं खुलती। और उधर रात को तीन बजे तक करवटें बदलते रहते हैं। नेपथ्य में गूंजती आहटों के प्रति उनके कान अतिरिक्त रूप से सजग हो चले हैं। ये आहटें उनके दिलो - दिमाग में रेंगती हैं, अपाहिज से हो चले चेतन के साथ लिथडती अवचेतन को कौंचती हैं।

“ बहू! रात क्या पेट में तकलीफ थी। कराह क्यों रही थी? फिर दो बार फ्लश चला।”

छत्तीस साल की उनकी बहू मंजुला के गाल लाल हो जाते और चेहरा तमतमा जाता। अपने डॉक्टर पति से शिकायत करती, “ पता नहीं पिता जी को क्या होता जा रहा है? अजीब तरह से देखते हैं और उससे कहीं अजीब सवाल पूछते हैं।”

वह स्वयं भी महसूस करने लगे हैं कि अब वे लोक व्यवहार में पहले जैसे सहज नहीं रहे। या फिर पता नहीं क्या था कि उनका सहज - सरल व्यवहार भी अपने - परायों को असहज कर रहा था। मस्तिष्क के सम्वेदनों में कहीं कुछ उलट गया था हर सीधा कदम, विलोम ही पडता। क्या था जो उन्हें दुनिया से काट रहा था और अवचेतन से जोड रहा था। वे स्वयं भी तो कहीं उलझ रहे थे स्वयं से, कहीं झगड रहे थे खुद से और बुरी तरह नाराज थे खुद से। उधर बहुओं के बिगडे मूड,बेटों के बदलते तेवर वे समझ ही नहीं पा रहे थे गलत क्या था? एक बढिया तारतम्य जो था बरसों का बच्चों और उनके बीच वह कहीं किसी चेतन - अवचेतन के कंटीले कोने से उलझ कर टूट गया था। उन्हें लगता है - अचानक घर के लोग उन्हें नहीं समझना चाह रहे। उन्हें लगता कि- उफ! स्थितियां किस कदर उनके खिलाफ हो गई हैं। असंतोष ही असंतोष।


बात - बात पर बेटों के साथ तनाव की स्थिति हो जाती, वे बहसबाजी से जितना बचना चाहते उतनी ही परिस्थितियां प्रतिकूल हो जातीं। शायद वे रह - रह कर उस एक साथी की कमी पूरी शिद्दत से महसूस करने लगे हैं, जो पिछले25 सालों से महज एक तस्वीर बन कर उनके पूजा घर के बगल में रखा रहा है जिसे सुबह उठते ही वे भगवान के बाद एक बार श्रध्दा से नत हो, स्मरित करने के बाद दिन भर की अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो जाते थे। लेकिन अब हर बार वह तस्वीर उनके मन में एक हूक सी उठाती है सुशीला तुम होतीं तो। आजकल उन्हें एक बात बार - बार याद आती है कि सुशीला कहा करती थी -

“ छोडो भी घर - जमीन - फ्लैट खरीदने का चक्कर, पैसे बैंक में रखो। दोनों बेटे पढने में अच्छे हैं, उनके भविष्य की सोचो।”

“ फिर अपनी - तुम्हारी कब सोचूं?”

“तुम रिटायर हो जाओ फिर हम विश्व - दर्शन को चलेंगे। घर होगा तो बेजा पैरों में जंजीर पड ज़ायेगी।”

और एक दिन सुशीला चुपचाप उनके संसार से चली गई। पैसा बैंक में रखा रहा अब घर किसके लिये बनवाते विश्व दर्शन की चाह का सलोना सपन सुशीला के साथ चला गया। वह बात अलग है कि - उन पर पूत सपूत तो का धन संचय वाली कहावत चरितार्थ हुई थी।होनहार बेटों की कमाई पर सुख से रह रहे हैं। बेटे ही नहीं, बहुएं भी डॉक्टर हैं, पढी - लिखी अपने काम - काज में व्यस्त, उनके पास फालतू की चख - चख का वक्त ही कहां? सब अपने - अपने दायरों में व्यस्त हैं। अब तक स्वयं वे भी तो इसी व्यवस्था में सुखी थे। अपना योग, अपनी पढने की आदत, लाफ्टर क्लब, गोल्फ, समय पर खाना, समय पर सैर। न्यूज, अखबार पिछले बीस साल से बंधी - बंधाई दिनचर्या में पोते - पोतियों की आनन्दमयी घुसपैठ के अलावा उन्हें ही कब कुछ सहनीय था? इसी अकेलेपन और निजता की आरामदेह आदत थी उन्हें।

उनका अपना बडा सा सर्वसुविधायुक्त कमरा बच्चों ने मुहैय्या करवा रखा था। ए सी, टीवी, फलों व स्वास्थ्य पेयों व उनकी दवाओं से घिरा छोटा फ्रिज, दो अखबार, स्टडी टेबल, बेड साइड लैम्प। कमरे से लगा गर्म - ठण्डे पानी की सुविधा वाला बाथरूम। इससे अधिक आदर्श स्थिति क्या हो सकती थी एक एकाकी विधुर की अपने बेटों के घर में! दोनों बेटे एक साथ रहते थे। तीन - तीन कमरों का सैट भले ही अलग था, पर रसोई एक थी - जहां सबका खाना साथ पकता एक लम्बा डायनिंग हॉल जहां परिवार के सभी व्यस्त सदस्य दिन का खाना भले ही अलग - अलग समय पर खाते। लेकिन रात का खाना साथ बारह कुर्सियों वाली लम्बी टेबल पर ही खाया जाता। सुशीला और उन्होंने बच्चों को शांतियुक्त सहजीवन का जो पाठ पढाया था, उसी के आदर्श को प्रस्तुत करता था यह सुशीला भवन । बहुएं भी समझदार थीं, सो इस भवन की परम्परा में सहज ही ढल गईं।

लेकिन! अब आजकल न जाने क्यों पिछले कई दिनों से वे सबके बीच, परिवार के प्रमुख होने के अहंकार को जैसे वापस पाना चाहते हैं। स्वयं में वे एक बूढा होता निर्वासन का दण्ड भोग रहा आदमखोर शेर विचरता पाते हैं - जो फिर से घूम - फिर कर समूह की सत्ता पाने के लिये नौजवान शेरों से भिड ज़ाना चाहता हो। एक ऐसा ही शेर उन्होंने डिस्कवरी पर देखा था जब उसे नौजवान शेरों द्वारा अपने समूह से दूर, सीमा के बाहर खदेड दिया गया था। थोड समय जंगल - जंगल भटक कर वह फिर से न जाने क्यों न जाने किस इंसटिंक्ट के तहत लौटा था, न जाने किस हारमोन ने बुढापे में उबाल खाया था। वह उन नौजवान शेरों से जा भिडा था उनके कुछ मासूम बच्चे मार डाले थे। शेरनियों पर अधिकार करना चाहा था। लेकिन अन्तत: वह फिर खदेडा ग़या। वह इस कदर घायल था कि बाद में वन कर्मियों को वह नाले के पास मृत मिला।

तो क्या वे भी बेटों से एक भ्रामक किस्म का डाह करने लगे हैं ? जब - तब उनसे उलझ जाते हैं। बहुओं को खिजाते हैं, उनकी खीज, डांट में, उन्हें मजा आता है। शायद फ्रायड के मनोविज्ञान के अनुसार इस सब प्रक्रिया में कहीं दबी हुई यौन - भावना छिपी हो। प्रत्यक्षत: शायद यह वे जानते भी हैं कि नहीं उन्हें नहीं पता पर अप्रत्यक्षत: किसी किस्म का यौन - आनन्द वे महसूस अवश्य करते थे। बहुओं के तमतमाते चेहरों पर वे मन ही मन मुस्कुराते।

वे ऐसे कुण्ठाग्रस्त पहले कभी नहीं रहे हैं।लम्बे समय तक विधुर रहने के बावजूद वे वहुत संयमित व विवेकशील रहे हैं। रूपवती स्त्रियों के प्रति जिस उम्र में गहन आकर्षण होना चाहिये था वह उम्र भी उन्होंने महज उनके प्रति एक निर्मल भाव रख कर बिता ली। एक स्वाभाविक शर्मीलेपन और तीन बच्चों के पिता होने की वजह से, एक फौजी अफसर होने के बावजूद वे कभी स्त्रियों के मामले में ज्यादा सक्रियता नहीं दिखा सके। अपनी यौन - इच्छाओं को अपने अवचेतन के सीमित दायरों में कैद रखा और सदैव अपनी नैतिकता को बत्तीस दांतों के बीच जीभ - सा बचा ले गये। आध्यात्मिक रुझान के चलते दूसरे विवाह और किसी अतिरिक्त प्रेमसम्बन्ध की चाह के प्रति उन्होंने नकारात्मक दृष्टिकोण भले ही न रखा हो, पर बच्चों के सुख के लिये उन्होंने ये द्वार अपने लिये बन्द कर लिये थे। न जाने क्यों जीवन के इस आखिरी पडाव पर आकर जिसे वानप्रस्थ आश्रम की संज्ञा दी जा सकती है - प्रकृति स्वयं उन्हें अपने युगल रूप में चिढा रही थी। जब भी कभी लॉन में, छत की मुंडेर पर गौरेय्या के जोडे क़ो अठखेलियां करते देखते, पत्थर मार उडा देते। गुपचुप टाइम्स का मैट्रिमोनियल देखते। देखते कि ” सीनीयर सिटिजन, हाइलीक्वालीफाइड सीनीयर ऑफिसर 59,लिविंग अलोन वान्ट्स अ लाइफ पार्टनर।”

सोचते - “ जब ये स्साला शादी की सोच सकता है, तो मैं क्यों नहीं ”

रूपरेखा बनाते - “ रिटायर्ड लेफ्टिनेन्ट कर्नल, 62, लुक्स 50 इयर्स, फायनेन्शियली वेरी साउण्ड,इनडिपेन्डेन्ट वान्ट्स अ लाइफपार्टनर अण्डर फिफ्टी।” एक खूबसूरत इन्द्रजाल के दिवास्वप्न में देर तक घूमघाम कर लौटते फिर हर बार अपनी इस बेवकूफी भरी सोच पर खाक डालते। कभी - कभी यह आवेग देर तक बना रहता तो वे इस सोच को क्रियान्वित करने की ठान लेते। एक बार तो उन्हें इंजेक्शन लगाने उनके कमरे में आये उनके बडे बेटे विकास ने लिफाफे में रखा उनका यह विज्ञापन का पत्र पढ लिया।

“ पापा क्या है यह!”

“ कुछ नहीं। तेरे केशव अंकल को खुराफात सूझी थी कि कर्नल चोपडा को बेवकूफ बनाया जाये।सो बस हम दोनों।”

“ पापा! क्या खाली बैठे की खुराफात सूझ रही है आजकल आपको? पता नहीं क्या होता जा रहा है आपको कल मंजुला कह रही थी कि आप जोर - जोर से केशव अंकल के साथ फौजी गालियों के साथ बात कर रहे थे। विन्नी भी वहीं खडी थी।”

“ तो क्या! अब दोस्तों को आने से मना कर दूं! तुम लोग चाहते हो, सारी दुनिया से कट कर मैं उस एक कमरे का कैदी हो कर रह जाऊं, वाह! क्या सुविधासम्पन्न कैद है।”

“ मैं ने ऐसा कब कहा? पर गालियां घर के बच्चों और औरतों के सामने।” ससुर - बहू के बीच अच्छी - भली बच्चों की पढाई पर बात चल रही होतीतो अचानक वे आजकल के चैनल पर बात करते - करते सैक्स एजुकेशन पर बात करने लगते, जहां तक बात विषय से जुडी रहती और तथ्यात्मक होती बहुएं बुरा नहीं मानती। लेकिन जब वे खूब रुचि लेकर इसी विषय पर आगे बढ ज़ाते और गन्दे चुटकुलों पर उतर आते या फिर कह देते ” क्या दिन भर तुम पति - पत्नी बेडरूम में घुसे रहते हो। कभी गर्मी की रातों में छत पर सोने का सुख लिया है? हम और सुशीला तो ” फिर तो आपत्ति होना स्वाभाविक था।

बहुएं पढी - लिखी हैं, सो हर विषय पर उनसे खुल कर बात कर लेती थीं, लेकिन वे ही उनसे बातें करते - करते न जाने कब अजीब - सा फिकरा कस देते कि वे खीज कर अपने कमरों में चल देतीं । फिर नाश्ता वहीं मंगवा लेतीं। यही वजह है कि उनके पास उन्ह दोनों ने अब बैठना ही बन्द कर दिया है। यहां तक कि किशोरावस्था को छू रही पोती विन्नी को भी उनके पास बैठने से मना कर दिया गया है। यह आभास उन्हें बहुत कचोटता है पर फिर भी

जब बहुएं तो अपने - अपने अस्पताल, मैडिकल कॉलेज चली जातीं हैं, तब वे घर की मिसरानी के पीछे पड

ज़ाते हैं - “ आज खाना क्या बनाओगी?”

“ जो बहू जी कै गई हैं, सोई बनाय देंगे। परमल धरे हैं कल्ल के। दाल बनानी है।”

“ कभी हमारी मर्जी भी चलेगी घर में?”

“ आप भी बताय दें हमारा का है, बना देंगे। जो बहू जी चिडचिडाएं तो।”

“ शि इस घर का मालिक तो मैं हूं, बहू की छोड मेरे लिये आलू के परांठे देसी घी में बना दे।” “ फूलवती, तू भी ले ले एक परांठा।”

“ ना बाऊजी, मेरा तो एकादसी का बरत है।”

“ तू किसके लिये व्रत उपवास करती है री। तू तो.. मेरा मतलब तेरा आदमी तो ।”

“ भाग ही गया है न। जिन्दा तो है।”

“ क्यों मनवार कराती है, चल एक कप दूध ही पीले।”

“ रहन दो बाऊजी।”

“ बाऊजी बाऊजी मैं तेरा बाऊजी थोड ना हूं। सर बोला कर।”

“ हमसे ना होगा बुढापे में ये चौंचला”

“ बुढापा तुझेअरी तू तो अभी पैंतीस की भी नहीं है। मैं तो बूढा हुआ नहीं तू कहां से हो गई, हैं!”

“ रहन दो बाऊजी आप बहुतई बेजा बात करने लगे हैं। बहू जी से कह दीजो हमसे ना बनेगा खाना। जा रहे हैं, कुण्डी बन्द कर लो ।” मिसरानी कुढ क़र बर्तन पटकती चली जाती। शाम को बहुओं से शिकायत जरूर करती होगी जो बहुओं के तेवर चढे रहते। न जाने क्यों उन्हें इस किस्म के अनजाने तनाव में एक अजीब सा सुख मिल रहा था। एक चिंगारी उनके विवेक के दामन से उलझी थी और वे उसका गुपचुप जलना देख रहे थे। उस जलने में न जाने कैसा सुख छिपा था। एक दिन तो हद ही हो गई थी। मंजुला की एक बहन है, अंजलि। हिन्दी साहित्य में एम ए कर रही है, दिल्ली विश्वविद्यालय से। उस दिन कॉलेज ऑफ था या क्लासेज ज़ल्दी छूट गयीं थी वह अपने हॉस्टल से मंजुला से मिलने के लिये चली आई। मंजुला तब तक अस्पताल से लौटी नहीं थी वह अपनी बहन के कमरे में ही इंतजार कर ही रही थी, उन्होंने उसे गेट से आते देख लिया था वे झूले से उठ कर चले आए, “ कब आईं अंजलि?”

“ बस अभी ही आई हूं। अंकल जी, दीदी नहीं आईं अब तक?”

“ अरे, हम तो हैं न तुम्हारी दीदी भी बस आती होगीं बैठो बैठो। यहां बैठो अरे मेरे पास बैठो यहां। हां, और कहो कैसा चल रहा है ”

बात शुरु हुई थी कॉलेज, हिन्दी साहित्य से। भारत विभाजन पर लिखे गये साहित्य से शुरु होकर मन्टो पर आई और फिर उनकी विवादास्पद कहानियों से होकर खोल दो पर आकर अटक गई। वे पूरी कहानी का खुलासा करने बैठ गये।

“ एण्ड में पता है अंजलि, क्या होता है, वह लडक़ी जिसका इतनी बार रेप हो चुका होता है डॉक्टर के खिडक़ी खोल दो कहने पर बेहोशी की हालत में अपने पिता के सामने ही शलवार खोल देती है।” उनका पीला चेहरा उत्तेजना से ललछौंहा हो उठा था।

अंजलि को कुछ नहीं, बहुत कुछ अटपटा लगा वह उठ कर नमस्कार करके जाने लगी तो आर्शिवाद के बहाने वे उसकी पीठ पर हाथ फिराते - फिराते अचानक उनके हाथ उसकी ब्रा के स्ट्रेप्स तक पहुंच गए। अंजलि हाथ झटक कर तमतमाया हुआ चेहरा लेकर घर से बाहर निकली।

सामने गुजरते हुए ऑटो वाले को आवाज देकर रुकवाया और हॉस्टल पहुंच कर ही दम लिया।शायद वहीं से अपनी बहन को तमाम विस्तार से फोन किया होगा।

बस यह हद थी उनके विवेक की छूटती लगाम की। बात अंजलि से होकर, मंजुला तक फिर पूरे आवेश के साथ चिनगारी बन कर विकास तक पहुंची। मंजुला अपने आपे में नहीं थी।

“ मेरी ही बहन मिली थी उन्हें! बस यही वक्त है उन्हें यहां से जाने को कह दें।”

“ पागल हो क्या? यह घर मेरा नहीं, पापा का है। किस मुंह से कह दूं ऐसा कुछ ”

“ तो चलो हम ही कहीं चलें कहीं भी फ्लैट ले लो।”

छोटी बहू नीलिमा वहीं खडी हंस रही थी - “ तो क्या हुआ दीदी, हाथ ही तो फिराया है पीठ पर।मैडिकल कॉलेज में पी जी करते हुए खूंसट हेड्स भी तो हर फीमेल रेजिड़ेन्ट को तभी पास करते हैं जब हम चुपचाप उनके इस कामुक आर्शिवाद को ग्रहण करते रहें भूल गईं क्या? फिर ऐसे ओल्डीज हाथ फिरा कर ही कुछ कर तो पाते नहीं।”

“ बस - बस! अब तो पानी सर से गुजर गया विकास।आप बात करते हैं या मैं ही कह दूं? मैं तंग आ गई हूं, इस सठियाए बूढे से रात - रात भर हमारे बेडरूम से कान सटाये चहलकदमी करते रहते हैं, सुबह उठ कर पूछते हैं रात क्या ”

“ मंजुला ” विकास चीख पडा था। ” तुम दोनों भी हद करती हो भूलो मत मेरे पिता हैं वे। मैं बचपन से जानता हूं उन्हें हो न हो वे किसी मानसिक परेशानी से गुज़र रहे हैं। जिस इन्सान ने अपने चालीसवें दशक में शादी का विकल्प होते हुए भी महज बच्चों का मुंह देखकर शादी नहीं कीवरना वन्दना मासी।” विकास कुछ सोच कर चुप हो गया।

“ वन्दना मासी! क्याऽ कहना चाहते हो?”

“ कुछ नहीं।”

विकास स्वयं ही उलझ रहा था, आखिर पापा को क्या होता जा रहा है? क्यों पापा पापा न होकर किसी और ही एय्याश व्यक्तित्व में ढल रहे हैं। कल शाम के झुटपुटे में सीढियों में बैठे थे और उसके मेडिकल असिस्टेन्ट की दो साल की बेटी को गोद में बिठा रखा था और उसे सहलाये जा रहे थे नि:शब्द।

“ पापा! आप वहां क्या कर रहे हैं? गौतम कब से अपनी बच्ची को बाहर ढूंढ रहा है।”

उसने जोर से चिल्ला कर पूछा था तो घबरा गये थे, बच्ची सीढी उतर कर नीचे आ गई उसके पास दो चॉकलेट्स थे। विकास को अजीब लगा! उस दिन आसान नहीं था विकास के लिये सो पाना। अब यह सब असहनीय हो चला है, अधिक उपेक्षित किया तो कोई भी हादसा खडा हो सकता है, घर की नेकनामी में छेद करता हुआ। सीढियों से सर झुकाए उतरते और पीठ करके अपने कमरे में घुसते हुए पापा का वह चिरपरिचित चमचमाता प्रभामण्डल छिन्न - भिन्न क्यों लगा? अचानक उनकी श्रध्दाजनक प्रतिमा में यह दरार क्यों आ गई है? क्या सच में कोई निर्णायक पल आ गया है? क्या अब स्वयं लिहाज की जमीन से ऊपर उठ कर और उन्हें उनके बडप्पन के आसमान से उतार कर आमने सामने बात करनी ही होगी? कैसे कर सकेगा वह? ना! उससे नहीं होगा। निमिष से बात करेगा, वह थोडा स्पष्टवादी है।

अपने कमरे बैठे वे स्वयं हतप्रभ थे। एक कोमल, सिहरन भरे स्पर्श की चाहगले में कांटे चुभोती प्यास बन गई है। कैसा निर्वात था जो उन्हें खींचे ले रहा एक अंधेरे से भरी सुरंग में और उस ओर था आग उगलता ड्रेगन फंतासियां, दुलराते स्पर्शों की नेह भरी उद्भ्रान्ति नंगे छिले हुए टीसते सुख का बुखार। हां बुखार ही चढ आया था उन्हें। उस दिन वे डायनिंग टेबल पर नहीं गये रात के भोजन के लिये। कहलवा दिया बस दूध - कार्नफ्लैक्स भेज दो। देर रात तक अपना आत्मविश्लेषण करते रहे और बुखार से तपते हुए देर तक कंपकंपाते हाथों से डायरी में अपनी न जाने क्या कुछ लिखते रहे।

उसी रात विकास ने छोटे भाई निमिष को बुला कर बात की -

“ यार पता नहीं! पापा को क्या होता जा रहा है। अजीब से रोमेन्टिक से होते जा रहे हैं। हमारी पत्नियों को कुछ भी कह देंगे। अकेले में घर की आयाज क़े पीछे घूमेंगे। एक दिन तो मैट्रिमानियल पोस्ट करने को उतारू बैठे थे अपना। समझ नहीं आ रहा।”

“ हां, मैं भी देख रहा हूं सठिया - से गये हैं। आप उनसे सीधी बात क्यों नहीं करते कि यह सब नहीं चलेगा। किसी दिन अपनी इज्जत उतरवाएंगे।” “ कम ऑन। पापा जैसे सोबर और आदर्शवादी इन्सान को लेकर ऐसे मत सोच। अकेलापन या डिप्रेशन होगा। किसी से बातचीत करने के लिये बडे लोग स्टैण्डर्ड नहीं देखते मंजुला की मम्मी भी तो सब्जी वाले को रोक कर घर का पुराण सुनाने लगती हैं।”

“ फिर भी ऐसे कैसे चलेगा भैय्या! कुछ तो करना पडेग़ा आप कहो तो मैं” “ नहीं तुझे तो पता है पापा को बातचीत करने की शुरु से ही कहां आदत थी। वे बात नहीं करते थे शान्त रहा करते थे। बोलते थे तो इतनी गहरी बात कि हर कोई कायल हो जाये।अब हर किसी को पकड क़र उटपटांग बातें करते हैं। कल ही तो मिसरानी से कह रहे थे - मैं अलग फ्लैट ले रहा हूं। पैसा है ही मेरे पास। बस नहीं है तो कोई औरत नहीं है। है कोई तेरी नजर में। विधवा,छोडी हुई चलेगी।”

“ हां उस दिन मुझे भी अजीब लगा। हमारे बेडरूम में धडाक से रात को घुस गये, बोले बडा जल्दी सो गये। कल तो सनडे है। और अब एक नया शगूफा केशव अंकल के साथ बियर पीना शुरू कर दिया। याऽर भैय्या जो फौजी टीटोटलर रहा हो वो आज।” “ धीरे बोल निमिष। अंजलि वाली बात बताई होगी नीलिमा ने तुझे।”

“ हां! सुनकर बहुत गुस्सा आया था। पर आपका लिहाज करके चुप हो गया।” “ निमिष हो न हो कहीं कुछ गडबड है हो न हो मुझे ये केस प्रोस्टेट का लग रहा है। प्रोस्टेट के बढने से ही मरीज क़ो इरोटिक फीलींग्स आने लगती हैं।”

“ क्या भैया आप तो हर बात मेडिकल टर्म में ले जाते हैं, यह तो सीधा - सादा सायकिक केस है। बल्कि पापा सठिया रहे हैं। प्रोस्टेट उनकी पिछले महीने ही तो चैक करवा चुका हूं मैं।”

“ एक बार और करवा लें? “

“ जैसा आप ठीक समझें।”

“ मेरे पास टाइम नहीं है, तुम और नीलिमा अपने पी जी एक्जाम्स में लगे हुए हो। मंजुला के साथ भेजूंगा, टैस्ट के लिये उसके मैडिकल कॉलेज तो वह चिढ ही जायेगी। वो और नीलिमा तो बात ही नहीं कर रहे पापा जी से आजकल, बायकॉट कर दिया है उनका।”

“ भैय्या क्यों न एक बार पापा को साइकियाट्रिस्ट के पास ले जायें। और हां भैय्या पता नहीं आपको भाभी ने बताया कि नहीं - उस दिन झूले पर एकाएक बेहोश हो गये थे और अजीब आवाज निकाल रहे थेहोश में आकर मंजुला भाभी से कहते हैं - नीति का एयरोप्लेन क्रेश हो गया है। वह नहीं बची। अब हवन करवाना ही होगा तेरहवीं का। ये अजीब अजीब से भ्रम होना तो ठीक नहीं है भाई।”

“ साइकियाट्रिस्ट तो ठीक है, मैं एक बार अजय से बात करता हूं, वह न्यूरॉलॉजिस्ट है देखेंवह क्या कहता है। मुझे कुछ और ही गडबड लग रही है।”

अगले ही दिन विकास सारे काम छोड क़र अपने न्यूरॉलोजिस्ट मित्र अजय के अस्पताल पहुंचा।

“ यस, ऑफ कोर्स यार! तू स्थिति की गंभीरता क्यों पहले नहीं समझा! जहां तक मैं अंकल को जानता हूं एक बाहर वाले की हैसियत से वे बहुत संतुलित व्यक्ति हैं, अचानक यह भावनात्मक बदलाव किसी खास वजह से ही होगा। कई बार ऐसा हो जाता है। किसी भी दिन मेरे पास आकर एम आर आई करवा ले।”

“ठीक है, तेरे पास लाता हूं किसी दिन।”

“ कल ही ले आ। कल मैं फ्री भी हूं।”

जल्दी ही एम आर आई और सी टी स्कैन की रिपोर्ट विकास के हाथों में थी। रिपोर्ट पढते ही उसे ऐसा लगा कि उस पर घडों पानी पड ग़या हो। एक डॉक्टर होकर वह क्या - क्या सोच गया, पापा के बारे में। अजय का शक सही ही निकला। वह तो कह ही रहा था कि - “ हो न हो इस चेन्ज्ड बिहेवियर, इमप्रॉपर बिहेवियर, हेल्यूसिनेशन्स की वजह कोई ब्रेन टयूमर है, वह भी राईट या लैफ्ट फ्रन्टल लोब टयूमर जिसके दबाव से मस्तिष्क का वह हिस्सा सम्वेदनहीन हो जाता है जो हमारी सैक्सुअल इम्पल्सेज क़ो नियंत्रित करता है। वे पर्सनालिटी डिसऑर्डर का शिकार हैं। इसका काफी हद तक फ्रन्टल लोब टयूमर को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। कई बार इस टयूमर वाले मरीज पैडिफिलिक हो जाते हैं यानि बच्चों के साथ सैक्सुअली कुलमिला कर मेरे कहने का मतलब है विकास यह दिमाग के उस हिस्से को नष्ट कर देता है जो हिस्सा हमे चेताता है कि ” थिंक बिफोर एक्ट”। अब तू खुद सोच ले अंकल किस समस्या से दो चार हो रहे हैं। ऐसे में उनके साथ तुम सभी को उन्हें बिना जताये सामान्य रहना होगा। उन्हें प्यार और सहानुभूति की खास जरूरत है। फिर जितना जल्दी हो सके उन्हें आपरेशन के लिये तैयार कर लो।”

वह डॉक्टर होकर भी चकित है, मानव तन के साथ - साथ मन और उसके सम्वेदनों पर मस्तिष्क की अद्भुत नियन्त्रण क्षमता पर। अब एक नयी चुनौती सामने थी पापा को ऑपरेशन के लिये तैयार करना। ऑपरेशन वह भी ब्रेन टयूमर जैसा दुसाध्य ऑपरेशन। आज ही बात करेगा वह।

वह बहुत देर तक पापा से बात करने की भूमिका पर सोच विचार करता रहा। टहलता रहा लॉन में। फिर उंगलियां चटखा कर पापा के के कमरे की राह ली। पापा कमरे में नहीं थे, उनकी चप्पलें बाथरूम के बाहर उल्टी पडी थीं। उनके कैनवास के जूते वहां नहीं थे शायद टहलने निकल गये हैं।उसने पूरे कमरे पर निगाह डाली।पापा का कमरा, जो अब पहले की सी तरतीबी से नहीं जमा है।पापा के व्यक्तित्व में से जो सधा पन खो गया है, वही सधापन कमरे से भी गायब है।सलवटों से भरा बिस्तर, उल्टी पडी चप्पलें। चश्मे के कांच पर लगे दाग। ख़ुला हुआ पैन और यह ! डायरी! पापा तो कभी डायरी नहीं लिखते थे। लेख जरूर लिखते थे, वह भी या तो भारत की विगत युध्द नीतियों पर, या आध्यात्म पर। वह पहले कभी पापा के पत्र या डायरी पढने की बात सोच ही नहीं सकता था। पर अब वह स्वयं को रोक नहीं सका। डायरी पर उल्टा पडा धुंधला चश्मा, खुला पेन हटा कर पढने लगा।

“ मैं तो वैसा ही हूं - जैसा हमेशा से था। मैं ने तो उसी को सत्य माना जो सत्य था। लेकिन जो झूठ था, मैं ने उसे सत्य बनाने की कब कोशिश की? मैं तो वही था - भला, उंचे विचारों वाला,थोडा तंगदिल( परम्पराओं - संस्कारों को लेकर) । मेरे अस्तित्व के कारकों, तुमने मुझे विरासत में एक सम्वेदनशील हृदय तो दिया, इसी हृदय ने जहां मेरे संसार को खुशियों से पूर्ण किया वहीं यही हृदय अपनी किस्मत में अकेलेपन का दुर्भाग्य क्यों लेकर आया?

ओ मेरी आंतरिक शक्तियों आज मुझे स्वयं को अपने अन्दर के मैं को प्रकट कर लेने दो। मेरे आस - पास मेरे अपनों की भीड है। उन्हें आज मेरी स्वीकारोक्तियां सुनने दो। मेरी विवेकहीनता पर लजाने दो। मेरी अपूर्णता पर अफसोस प्रकट करने दो। मैं आज तक इस दुनिया के सामने दुनियावी तरीकों से मुखातिब रहा हूं। पर क्या आज मैं इस संसार का रुख पहचानने मैं कोई भूल कर रहा हूं? या यह संसार ही मेरे अस्तित्व को नकार रहा है? मैं अपने अन्दर के पुरुष को कभी व्यक्त नहीं किया पर मैं नपुंसक नहीं। हां! मैं नपुंसक नहीं! वह बात अलग थी कि सुशीला के साथ गुजारे वक्त में इतना सुख और तृप्ति थी कि उसके जाने के बाद कभी कोई तृष्णा जगी ही नहीं। उसके हंसमुख विनम्र स्वभाव, लुभावने चेहरे और सम्पूर्ण

समर्पण ने मेरे हृदय पर पूर्ण स्वामित्व रखा है उसके जाने के बाद भी। मैं अब भी उसके व्यवहार, हाव - भावों की कल्पना करता रहा हूं, उसकी नेह भरी भाषा याद है।उसने मुझे जाने से पहले आध्यात्म के प्रति इतना आश्वस्त कर दिया था कि मैं ने उसके जाने के बाद आध्यात्म को अपना लिया था। आध्यात्म के प्रति मेरी रुचि उसी की देन है। पहले मैं सतही तौर पर जुडा,इसका पूर्ण विकास उसके चले जाने के बाद हुआ।

सुशीला की छोटी बहन वन्दना के प्रति रोमानी रुझान होते हुए भी, मेरी भावनात्मक शुध्दता कभी यौनेच्छा पर हावी नहीं हुई, वह वक्त था जब विवेक की जरा सी कमी मुझे वासना के भंवर में ढकेल सकती थी। लेकिन अब मैं पाता हूं कि पहले चेतन - अवचेतन की वे बातें जो बेमेल प्रतीत होती थीं, एक दूसरे से घनिष्ठता से जुडी हैं। मैं जितना इच्छाओं और भावनाओं आवेशित होता उतना ही मैं अपनी लगाम खींचता था। जितनी मैं लगाम खींचता वे भावनाएं अडियल घोड सी अड ज़ाती थीं। तब मैं स्वयं को दण्ड देता था। एकान्तवास का, उपवास का, ध्यान का, मनन का।

फिर मैं बुरा कैसे बन सका? मेरे आस - पास तो सज्जनता का निवास है। ऊंचे आदर्श ह्ह्

सुशीला के जाने के बाद मैं ने किसी से कोई इच्छा रखना छोड दिया था। मेरे बच्चे - बहुएं भले ही मेरी इच्छानुसार हू - ब हू न चलते हों पर वे मेरा सम्मान हमेशा करते थे। मेरी अपनी इच्छाओं को लेकर मैं कभी कोई प्रतिक्रिया करता ही कब था? और शायद वे यही सोचते रहे कि मैं इच्छाओं से रहित इंसान हूं। ऐसा सोच कर वे कितना खुश थे! है ना!

लेकिन पिछले दिनों क्या हुआ कि वे भावनाएं और इच्छाएं जो मेरे जीवन से जा चुकी थीं लौट आईं हैं दुगने वेग से। भावनाएं जिन्होंने मेरे मन को बेजा अहंकार से भर दिया है। हठधर्मिता भर दी है। दुर्बलता और आत्मनियंत्रण के बीच मेरा विवेक टूटे पुल सा झूलता रहा है। मैं अस्थिर हो रहा हूं।

मैं आज नहीं जानता कि जो मैं कर रहा हूं उसका दूरगामी परिणाम क्या होगा। मैं बहुत दूर तक अब पहुंचना भी नहीं चाहता। मुझे अब मृत्यु के बाद के रहस्यों को भी नहीं जानना। मेरी आध्यात्मिक खोज मेरी मन की कमजाेरियों पर आकर ठिठक गई है। झूठ है, कर्म, उनके परिणाम झूठ है आध्यात्म। आज मुझे मौत से भय नहीं लगता। मुझे पता है मौत शून्य की पारदर्शी झिल्ली है, जिसे चेतना फिर कभी भेद नहीं पाती।मुझे आजकल किसी से भय नहीं लगता, बल्कि एक उत्कंठा महसूस करता हूं। घायल हाथी की तरह चट्टानों से भिड ज़ाना चाहता हूं। इस भिड ज़ाने में भय नहीं उत्कंठा है।

एक ऐसी उत्कण्ठा जो देह को सुरसुराती हुई मन को छील कर मस्तिष्क को सुन्न करती है। एक ऐसी उत्कण्ठा जो पैरों के नीचे से जमीन छुडा”

बस यहीं छूट गया था पेन शायद।

“ कहां हो पापा! ”

विकास उमडती आंखें और पका हुआ मन लिये हतप्रभ है। उसके सामने हैं उसके पिता के दृढ,संयमी, स्वयंसिध्द व्यक्तित्व के विपरीत एक कमजोर, बूढे - बीमार विधुर की आत्मस्वीकारोक्तियां!